वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 29
From जैनकोष
तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो ।
केवलिगुणे थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि ।। 29 ।।
807-मंगलमय दर्शन की खोज—जैसे जिस पुरुष को जो जिस बात की धुन लग गयी हो वह हर जगह हर घटना में अपनी धुन वाली बात को ही निरखता है और वही प्रयोजन निकलता है । वह विवाद में नहीं पड़ता, इसी तरह जिसको अपने अंतस्तत्त्व के दर्शन की धुन लग गई, जगत सारा असार है, इसमें कोई भी पदार्थ संपर्क करने लायक नहीं है किसके संपर्क में रहकर हम अपना हित पा सकते हैं? ये परिजन, ये परिकर साथ रहने वाले कुछ जन इनका संपर्क आखिर किसी न किसी पर की ओर दृष्टि कराने का कारण बनता है । कुछ चाहे, कुछ कीर्ति की भावना आ जाये, कुछ संपदा की भावना आ जाये, किसी भी प्रकार के विभाव बन जाय, यह संपर्क मेरे लिये मंगलमय नहीं है इन परिजनों का परिकरों का दर्शन मिलना यह मंगलमय मिलन नहीं है । तब फिर कहाँ जाये? कोई दुनियां की नेता है, जिसका सरकार में असेंबलियों में बड़े ऊँचे पदों पर रहने वालों से अधिक संपर्क है, या वह ही स्वयं आगे उन नेताओं से मिलने और उनके कृपापने का यत्न करता है । अरे वह क्या है? उनके संपर्क में रहकर पहिले उनकी बात निभानी होगी तब संपर्क मिल सकेगा । क्या लाभ मिल गया? जगत में कौन सा संबंध है ऐसा जो कि आत्महित का कारण बने? कोई न मिलेगा । हाँ एक परमेष्ठी हैं ऐसे जिनका संबंध, संपर्क, अनुराग, भक्ति सत्संग ये आत्महित में ही प्रेरणा देते हैं । और प्रभु तो एकदम स्पष्ट पवित्र हैं । समस्त विभाव मलों से रहित हैं केवलज्ञान अनंत आनंदमय इनका स्वरूप व्यक्त है । इनकी उपासना से तो हमें आत्मा के एकत्व की सुध होती है मैं केवल अपने सहजसत्त्व के कारण जिस भी प्रकार का रूप हो उस प्रकार की सुध लूं, उसके ही निकट रहूँ तो इससे बढ़कर लोक में मंगलमय क्या दर्शन है? इससे बढ़कर क्या वैभव है ? यही है । परमेष्ठियों के प्रसाद से हमारा दर्शन मंगलमय दर्शन है, पर ये भी मुझ से भिन्न हैं, ये स्वयं अपने ही स्वरूप में ज्ञानानंद पा रहे हैं वे अपना स्वरूप, अपना आनंद, अपनी निर्मलता मुझे नहीं दे देते । उनकी सेवा में उनकी भक्ति में रहकर मैं स्वयं बोध पाता हूँ और स्वयं अपनी सुध करता हूँ । तो आखिर निश्चय से मंगलमय दर्शन किसका हुआ? मेरे में विराजमान सहज ज्ञानमात्र स्वरूप का, उस पर उपयोग जाये, उसका ज्ञान बने तो वह मंगलमय दर्शन है । 808-निश्चयानुरागी का स्तवनों में विवेक—निश्चयानुरागी स्वतत्त्व की धुन वाला पुरुष उस व्यवहार स्तवन को निश्चय में नहीं जोड़ता । वास्तव में यह ऐसी ही बात है ऐसा विश्वास नहीं रखता । ये प्रभु सफेद खून वाले हैं ऐसा निश्चयनय नहीं कहता । शरीर के गुण केवलि के गुण नहीं कहलाते । भक्ति में प्रेम में तो वर्णन कर दिया जाता है, होता ही है ऐसा । आपको किसी अपने अभीष्ट मित्र से प्रीति है तो उसका कोट उसके आभूषण, जो कुछ है उसे आप सम्हालकर रखते हैं, नीचे नहीं गिरने देते हैं उस पर आप हाथ भी फेरते हैं । कोई कीड़ी चढ़ी हो तो उसे भी आप हटाते हैं मगर यह सब किस कारण से हो रहा है । आपका जो अपने मित्र से अनुराग है उसकी प्रेरणा से हो रहा है । इसी प्रकार प्रभु में विराजमान पावन अंतस्तत्त्व पर दृष्टि गई है ज्ञानी की तो ऐसा ज्ञानी पुरुष भी निश्चयत: परमात्मा के गुणों का स्तवन करके भक्ति मानकर संतुष्ट होता है, और कभी प्रभु के शरीर की बात लेकर, कुल जाति की बात लेकर भी वर्णन करता है पर विवेक है कि यह व्यवहार से स्तवन है, यह निश्चय से स्तवन है । आप अश्वसेन के पुत्र हैं, वामा देवी के आंखों के तारे हैं, ये समस्त जो वर्णन पार्श्वनाथ भक्ति के स्तवन में और सभी भगवानों के स्तवन में जो माता पिता जाति कुल की बात कहकर भक्ति की जाती है वह भी एक भक्त में हर्ष और अतिशय पैदा करता है । लेकिन यह ज्ञान बराबर रहता है उस ज्ञानी भक्त के कि यह व्यवहार स्तवन है । जैसे चाँदी का गुण है सफेद वह स्वर्ण में कभी नहीं आता तो सफेद का व्यपदेश करके, स्वर्ण की बात कहना युक्त नहीं है स्वर्ण में जो धर्म है उसकी ही बात कहकर स्वर्ण की बात कही जा सकती है इसी प्रकार तीर्थंकर केवली पुरुष में शरीर का गुण नहीं है । सफेद खून होना, रंग होना आदिक ये बातें नहीं हैं इसलिए निश्चय से शरीर के स्तवन से प्रभु का स्तवन नहीं होता । कभी-कभी भगवान के दर्शन करते हुए में मौका मिले तो एकांत में बिना भीड़ में मंदिर में आकर दर्शन करते हुये प्रभु की मुद्रा को टकटकी लगाकर निरखें और उनसे खूब बातें भी कर लें खुले दिल होकर तो वह भी एक अपूर्व भक्ति की बात है । जिसको धुन होती है वह कभी-कभी जब समय पाता है, दोपहर को ही वंदन करने के लिए आ गया । एकांत पाकर वंदन करने में वह अपना विशेष उत्साह बढ़ाता है । तो प्रभु के गुणों का जो ध्यान उस समय वह कर लेता है उन्हें अपने प्रभु के गुणों पर ध्यान ला दे तो समझो कि वह एकत्व तक पहुँच गया । अपने ज्ञानमात्र स्वरूप में उपयोग रखना, बस समस्त प्रसाद उसका है कि कर्म झड़ जायें नवीन कर्म बंध हीन हो, आकुलतायें दूर हों । यह सब अपने आप में विराजमान ज्ञानमात्र कारण परमात्मतत्त्व के दर्शन का प्रसाद हैं । 809-धर्मपालन के लिये हमारे आंतरिक और बाह्य कर्त्तव्य—धर्मपालन के लिये हमें और करना क्या है? खुद खुद में खुद प्रवेश करते जाय; खुद खुद में संकुचित हो जाएँ, स्वयं का ध्यान खुद में आये, यहाँ ही गुप्त रहकर अपने में ज्ञानमात्र प्रकाश का अनुभवन करते रहें, यही तो धर्मपालन के लिये करना है । यह बात सबके स्वयं खुद के अधीन है । इसमें किसी पर की अपेक्षा नहीं करना होता है । नहीं है धन, नहीं है प्रभु को चढ़ाने के लिये विशेष सामग्री, नहीं है बहुत सुंदर शुद्ध कपड़े, नहीं हैं कुछ भी सामर्थ्य तो प्रभु के दर्शन का प्रधान साधन तो उपयोग है ज्ञान है । एक यह बात सही तैयारी के समय की कही जा रही है । व्यवहार में तो सभी काम करने पड़ते हैं किये जाना चाहिए । जिसका घर में अनुराग है, घर के लोगों पर तो बहुत कुछ खर्च कर देता है, वह धर्मस्थानों में खर्च न करे तो उसको सही मार्ग न मिल सकेगा । वह उसका लोभ कहलायेगा लोभकषाय हृदय में रहने पर शांति के मार्ग में न पहुंच सकेंगे । वह तो छोड़ना ही होगा, और ये सब दान साधन करने ही होंगे मगर एक परमार्थ की बात कही जा रही है कि स्वयं का जो यह धर्मपालन है, ज्ञानानुभूति है, इस ज्ञानानुभूति में किसी भी पर की अपेक्षा नहीं है । यह तो सब ज्ञानसाध्य बात है । भीतर में सब समस्यायें सुलझी हुई हों निज और पर का यथार्थ ज्ञान हो । पर से मेरे में कभी भी कुछ आ नहीं सकता, ऐसा जिसका दृढ़तम निर्णय हो और अपनी ओर आने की, समाने की धुन रहा करती हो ऐसा पावन पुरुष ज्ञानानुभूति कर सकता है । वही धर्मपालन है । जैसे पेड़ की जड़ों में पानी थोड़ा सा भी देवे तो उससे पेड़ का पोषण है इसी प्रकार अपने आपके इस शुद्ध ज्ञानमात्र आत्म तत्त्व की भावना का जल सींचते रहें अपने में तो यह आत्म वृक्ष हरा भरा रहेगा । व्यवहार में रहकर भी गृहस्थी में रहकर भी हम अपने शुद्ध व्यवहार में रहेंगे तो उसमें शोभा ही बढ़ेगी, लौकिक काम और अच्छे ही निभेंगे और भीतर में अपने आत्मा का पोषण है वह तो एक निश्चय की बात है । हमारा कर्त्तव्य ही यह होना चाहिये कि हम सुबह दोपहर, सायं जब चाहे कभी हम इस शुद्ध ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व की निगाह करें, इसे उपयोग जल से सींचते रहें तो इसमें आत्मा की भलाई है । 810-लोकोत्तर आनंद के लिये लोकोत्तर तत्त्व की धारणा:—खेद न हो आत्मा में, क्लेश न जगें, चिंता और व्याकुलता न उठे, इसका और वास्तविक उपाय क्या है? जो इच्छा हुई उसके अनुसार साधनों में जुट गए । लाख करोड़ संपदा की इच्छा है उसको जोड़ लिया, इतने भर भी शांति तो नहीं मिल सकती, क्योंकि शांति का कारण बाह्य पदार्थ नहीं है । बाह्य पदार्थों से शांति निकलकर मेरे आत्मा में नहीं आती है । शांति का उपाय ही कुछ दूसरा है, कर रहे कुछ दूसरा उपाय । शांति कैसे मिले? शांति का उपाय एकत्व विभक्त अंतस्तत्त्व का दर्शन करना है । मैं अपने स्वरूप से हूँ अखंड हूँ जिस प्रकार ज्ञानानंदस्वरूप से रचा हुआ हूँ वही हूँ, अवक्तव्य हूँ, उसका वर्णन न किया जा सकेगा । वर्णन करने के लिए कोई तैयार होगा तो भेद करके, अंश करके उसका वर्णन कर पायगा । मैं सबसे निराला केवल अपने चित्स्वरूपमान हूँ, निराला हूँ । यह तो विभक्तपना है स्वरूपमात्र हूँ यह एकत्वपना है ऐसे एकत्व विभक्त अंतस्तत्त्व का दर्शन ही शरण है, मंगल है, लोकोत्तम है अन्य कुछ मेरे लिए हितरूप नहीं है, ऐसी दृढ़तम श्रद्धा को ही तो निश्चल सम्यक्त्व कहते हैं, दूसरी बात कोई कितना ही समझायें, बाहरी घटनाओं के चमत्कार कितने ही देखने को मिलें फिर भी वह ज्ञानी आत्मा इस श्रद्धा से विचलित न होगा । मैं यह हूँ । शांति का मार्ग यही है । उसका निजी स्थान यहीं है । मेरा मेरे से बाहर कुछ नहीं है । ऐसा जो निर्णय कर लेता है वह पुरुष शांत होता है । उसमें हिम्मत भी इतनी होती है कि ऐसी भी आपत्तियाँ आये कि सब कुछ वैभव भी नष्ट हो जाय लेकिन वहाँ भी वह अपना कुछ भी बिगाड़ नहीं मानता । वह तो उस समय भी यही विचारता है कि मैं तो वही का वही शुद्ध ज्ञान मात्र हूँ, मेरे में तो कुछ भी बिगाड़ नहीं हुआ । 811-शारीरिक संकटों में स्वरूप च्युत न होनेवाले कुछ महापुरुषों का स्मरण:—बड़े-बड़े तीर्थंकर पुरुषों पर भी कठिन से कठिन घटनायें आयीं भगवान ऋषभदेव छह मास उपवास में तो थे ही और छह माह तक रोज आहार को जाये और आहार की विधि न बने, आहार न मिले यह हम आप लोग समझ सकते हैं अपनी बुद्धि के माफिक कि यह संकट कम था क्या? सुकुमाल मुनिराज जो घर में ऐसे सुकुमाल थे कि गद्दा तकिया में कोई बिनौला हो तो वह भी गड़े, दीपक बिजली की रोशनी दिख जाय तो आंखों से आंसू बह पड़े कमल सुवासित चावल जिनका भोजन था, उन चावलों में जो कमल वासित चावल नहीं, वे मिला दिये जायें और उनका भात बन जाय तो खाते समय जिनके प्रकट पहिचान रहती थी कि ये चावल वासित हैं और ये आवासित हैं, ऐसो सुकुमाल अवस्था में पले हुए सुकुमाल निर्ग्रंथ होने पर शरीर से इतना निर्मोह हो जाते हैं कि गीदड़ियां अपने दांतों से उनके पैरों का भक्षण करने लगती हैं, मांस को चबाकर खून पीती है, तो क्या यह कम संकट की बात है । ऐसे महान पुरुषों पर ये संकट पड़े । अनेक मुनिराज नाना प्रकार के उपसर्ग में रहे । किन्हीं को कंडे वाले घर में कन्डों से दबा दिया, सांकल लगा दी, उस घर में आग लगा दी तो क्या यह कोई कम संकट है? पर देखिये तो सही ऐसे महान शरीर संकटों के बीच उन आत्मावों ने संकट रंच नहीं माना । कैसी प्रबल ज्ञानदृष्टि थी । कैसी ज्ञानमात्र अपने आपकी प्रबल प्रतीति थी । वहाँ भी उस ज्ञानतत्त्व के निकट रहकर वे प्रसन्न निर्मल खेद रहित आनंद में रहते थे । हम आप भी जब तक बाह्य में दृष्टि रखेंगे शांति नहीं प्राप्त कर सकते, सुखी नहीं रह सकते । 812-ज्ञानमयस्वरूप के निरखने से प्राप्त सुयोग की सफलता—जब अपने आपके अंत स्वरूप पर दृष्टि करेंगे तो चूंकि कल्पनाओं के सहारे वाले पदार्थ सब घट गये, केवल यह मैं अपने उपयोग में रह गया । वहाँ आकुलता का कोई काम नहीं है जो केवल को देखता है, केवल में देखता है, केवल के लिए देखता है वह पुरुष पवित्र है । केवल मायने ज्ञानमात्र । ज्ञानमात्र स्वरूप को निरखना है । किसलिए मैं ज्ञानमात्र रहूँ, केवल जाननहार रहूँ, कुछ प्रयोजन नहीं । जान लिया । जानना ही प्रयोजन है, इसके आगे और कुछ न चाहिये । ऐसा अपने स्वरूप को अपने में अपने लिए अपने द्वारा निरखने वाले को शुद्धनय के विषय के आश्रय के प्रसाद से कभी संसार के समस्त संकटों से सदा के लिए छूट जायेंगे । निर्णय की बात है, लक्ष्य की बात है, जीवन में यह लक्ष्य बनना चाहिये, तब मनुष्य जीवन पाना सार्थक हें । 813-विषयव्यस्तता में पछतावा—विषय साधन संपदा की प्राप्ति, लोगों में रमना, लोगों का परिचय, यहाँ झूठ व्यर्थ की इज्जत की चाह, ये असार बातें लक्ष्य में आ गयी तो हुआ क्या? कीड़े मकौड़े अपनी संज्ञा के लक्ष्य से रहते हैं पशु पक्षी मन वाले जीव ये अपनी कल्पना के अनुसार अपने विभावों में रमते हैं । ये मनुष्य भी विभावों में रम गए और आयु दनादन निकल रही है, उसे कौन टाले । जो दिन गया वह क्या वापिस आने को है? जितनी उमर गयी वह इसी भव में कभी वापिस न आयगी नई उमर लगी वह बात अलग है । कोई कहे कि बडी भूल में मेरे दिन निकल गए, अब मैं ऐसी भूल न करूंगा ऐ बीते हुए दिनों तुम वापिस आ जावो । जैसे कि किसी को गाली आदिक देकर मनुष्य लोग कहते हैं ना—भाई भूल से बात निकल गयी, अब वह बात तुम हम को वापिस दे दो, वापिस वहाँ भी नहीं होती मगर वहाँ तो खैर समझा बुझा कर बात बना भी लीजिये लेकिन इन व्यतीत हुए दिनों से कोई प्रार्थना करे कि बड़ी भूल से ये दिन व्यतीत हो गए, अब हे व्यतीत हुए दिनों । मेरी गल्ती को माफ करो, मैं अब गल्ती न करूंगा, तुम आवो, तुम व्यतीत हुए न बनो, वही उमर, वही बचपन मेरा फिर आ जाय और मैं बहुत ही धर्मसाधना पूर्वक अच्छे ढंग से रहूँगा यों कितना ही कोई गिड़गिड़ाये, पर क्या व्यतीत हुए दिन वापिस आ सकते है? नहीं आ सकते । 814-अवशिष्ट जीवन में आत्मसाधना कर लेने का अनुरोध—भैया ! व्यतीत हुए दिनों की चिंता क्यों करते हो? अब भी जो दिन रह गए हैं अपने जीवन में, वे दिन भी बड़े महत्त्व के हैं । इस समय का सदुपयोग करले, एक दिन भी, एक घंटा भी, एक क्षण भी यदि सदुपयोग में जायगा, अंत:प्रभु के दर्शन में जायगा तो उतना ही भला कर देगा कि जो दिन शेष रह गये, अंदाज तो कुछ है ही, आशा तो कुछ रखते हैं, कि इतने वर्ष तक या इतने समय तक तो अभी जीना है । एक दिन भी क्यों न जीवन रहे, एक घंटा भी क्यों न शेष मिल जाय, ऐसी अंतर्धुनि के साथ अपने में विराजमान ज्ञान-मात्र प्रभु के दर्शन में लग जायें तो उठने से ही भला हो जाय । किसी के संपर्क में भला नहीं है, अन्य किसी के दर्शन में भला नहीं, अन्य किसी के अनुराग करने में भला नहीं है मात्र निज शुद्ध सहज ज्ञानमात्र स्वरूप के दर्शन करने में अपना भला है । हम रोते हैं बड़े कर्म बंध गये, सागरों की स्थिति के बंध गए, अब ये कैसे कटेंगे? अरे क्षणमात्र को भी इस विशुद्ध ज्ञानमात्र स्वरूप का दर्शन हो तो भवभव के बंधे हुए कर्म भी क्षणभर में ही ध्वस्त हो जाते हैं । तो हम अपने केवल ज्ञानमात्र स्वरूप की उपासना में लगें यही निश्चय से अपनी उपासना है और ऐसे तत्त्व की महिमा गाकर प्रभु की स्तुति करना सो निश्चय से स्तुति है । 815-सम्यक् बोधपद्धति—निमित्त-नैमित्तिक भाव से जो बात होनी है, वह तो होकर रहती ।जैसे किसी के परिणाम होंगे उसी के अनुसार कर्मबंध होता है । यदि यह जीव पर्याय बुद्धि न करे तो श्रावक, मुनि गृहस्थ आदि के सब कानून एक से हैं, उनमें कोई अंतर नहीं है । साधु के पास जरा-सी चीज होती है, वह जैसे अपनी नहीं मानता है, उसी प्रकार यदि श्रावक के पास साधु से कोई चीजें अधिक हैं वह भी उन्हें अपना न मानता अविरत गृहस्थ के पास श्रावक की अपेक्षा अधिक चीजें हैं, वह भी ये मेरी नहीं है ऐसी प्रतीति रखता है तो साधु, श्रावक, गृहस्थ इन सबकी पद्धति समान है—कोई विलक्षण अंतर नहीं है । पर्यायबुद्धि न रहने से सत्पथ अपने आप प्राप्त हो जाता है। जो भगवान की निश्चयनय की स्तुति जानता है, उसका व्यवहारनय की स्तुति करना भी ठीक है । जो निश्चयनय को न जाने और भगवान की स्तुति करे तो वह स्थापना निक्षेप भी नहीं है । उसका स्तुति करना बिल्कुल गलत है । निश्चय को जानने वाला यदि व्यवहार का आश्रय लेकर भी स्तुति करे तो उसका स्तुति करना ठीक है । जो सम्यग्दृष्टि भगवान के गुणों को जानता है, और व्यवहारनय से स्तुति करे तो उसका व्यवहार की अपेक्षा स्तुति करना ठीक है। यदि वास्तविक भगवान का ज्ञान है, तो भगवान की मूर्ति की स्तुति करना भी ठीक है । प्रश्न:—यहां जिज्ञासु प्रश्न करता है कि शरीर की स्तुति करने से आत्मा की स्तुति क्यों नहीं हो जाती? चूंकि आत्मा शरीर का अधिष्ठाता है, अत: शरीर की स्तुति करने पर आत्मा की स्तुति हो जानी चाहिये । इसके समाधान में आचार्यदेव कहते हैं:—