वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 30
From जैनकोष
णयरम्मि वण्णिदे जह णवि रण्णो वण्णणा कया होदि ।
देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति ।। 30 ।।
816-प्रभु की निश्चयत: व व्यवहारत: स्तुति का रूप—जब कोई मुनि आत्मसाधना करके, निर्विकल्प समाधि के बल से कर्मों का नाश कर देता है तो चार घातिया कर्म दूर होने से अरहंत अवस्था बनती है । जिनको हम मूर्ति बनाकर पूजते हैं वह अरहंत की मूर्ति है, अर्थात् शरीर सहित परमात्मा की मूर्ति है परमात्मा पहिले तो शरीर सहित होता है, बाद में जब आयु समाप्त हो जाती है, नया शरीर मिलता नहीं तो शरीर रहित परमात्मा होता है । शरीर रहित परमात्मा का नाम है सिद्ध और शरीरसहित परमात्मा का नाम है अरहंत । तो शरीर सहित परमात्मा की जब हम स्तुति करते हैं तो परमात्मा के गुणों की स्तुति करना वह तो है निश्चयनय से स्तुति और उनके शरीरादिक की बात कहकर स्तुति करना वह है व्यवहार स्तुति । जैसे हे नाभिनंदन तुम नाभिराजा के पुत्र हो, इक्ष्वाकुवंश के हो तुम्हारा इतना बड़ा शरीर है, आदिक यह तो व्यवहार स्तुति है । और आत्मा की जो खास स्तुति है वह है निश्चयस्तुति । शरीर के गुण बताने से आत्मा की स्तुति क्यों नहीं कहलाती जैसे कोई पुरुष किसी राजा का वर्णन करे तो नगरी का वर्णन कर देने से व्यवहार में राजा का वर्णन हो तो जाता है कि जिनकी ऐसी बड़ी नगरी है, इतना बड़ा कोट घिरा हुआ है, ऐसी खाइयाँ हैं यों वर्णन करने से थोड़ा-थोड़ा राजा का वर्णन तो हो जाता है मगर वह सही वर्णन नहीं है, व्यवहार से वर्णन है । सही वर्णन तो राजा के गुणों का वर्णन होवे राजा उदार है । धीर है, विवेकी है धर्मात्मा है, आदिक यह तो राजा का वर्णन है । नगरी का वर्णन करने से राजा का वर्णन निश्चय से नहीं है । जैसे कोई किसी सेठ की तारीफ करे और बतावे कि इन सेठ साहब का ऐसा बड़ा मकान है, उसमें इतने खंड हैं उसमें ऐसे चित्र रंग खुदे हुए है, सारा वर्णन महल का कर दे और यह भी कह दे कि इन सेठजी के चार पुत्र हैं एक पुत्र मिनिस्टर है एक डाक्टर है आदिक, तो क्या वास्तव में उस सेठ का वर्णन है? नहीं । व्यवहार से तो यह सेठ का वर्णन है पर निश्चय से सेठ के गुणों का वर्णन हो तो वर्णन है यह सेठ बुद्धिमान है । विवेकशील है इसका धर्म में चित्त है आदिक कुछ भी कहा जाये तो सेठ का वर्णन है । इसी तरह जब परमात्मा के खास स्वरूप का वर्णन किया जाय कि अनंत ज्ञानमय है, अनंत दर्शनस्वरूप है, इसमें अनंत आनंद बसा हुआ है, इसकी अनंत शक्ति है, इस तरह गुणों का वर्णन करे तो परमात्मा का निश्चय से वर्णन है और शरीर आदिक का वर्णन यह सब व्यवहार का स्तवन है । 817-निश्चयत: देह के वर्णन से प्रभु का अवर्णन—कोई वर्णन करे कि इस राजा का नगर कोट खाइयों से घिरा हुआ है, कोट तो इतना ऊंचा है कि मानो आकाश को छू रहा है, खाई इतनी गहरी है कि मानो पाताल को निगल रही है, इस राजा का बगीचा बहुत विशाल है । यह सब वर्णन व्यवहार का वर्णन है, राजा का सही वर्णन नहीं है । इसी तरह जब भगवान का वर्णन करते हैं कि इनके शरीर में सहज सुंदरता है इनका चित्त या रूप क्षोभरहित है परम गंभीर है, कांतिमान रूप है । तो यह वर्णन भगवान का यथार्थ नहीं हुआ आत्मा का जो सहजस्वरूप है उसका यह पूर्णविकास है, उस विकास की बात गाय तो प्रभु का वर्णन हुआ समझिये । शरीर का स्तवन करने पर भी केवल तीर्थंकर केवलीभगवान का वर्णन नहीं होता यद्यपि वह तीर्थंकर केवली शरीर में बस रहे हैं और उनके रहने से शरीर बड़ा दिव्य बन जाता है । जब कोई मुनि अरहंत बनता है तो चाहे उस मुनि का शरीर दाद, खाज, खुजली वाला, या कोढ़ी, या वृद्ध, हड्डियां निकली, दुर्गंधमय रहा हो, पर अरहंत बनते ही वह सारा शरीर दिव्यरूप युवक बन जाता है, उसके समस्त प्रकार के अवगुण समाप्त हो जाते हैं और वहाँ खून हड्डी, चमड़ी आदिक जैसी वस्तुवें नहीं रहती है, एक विशुद्ध स्फटिक मणि की तरह स्वच्छ उनका शरीर हो जाता है । तभी तो प्रभु के शरीर की छाया नहीं पड़ती है । कोई बहुत बढ़िया स्फटिक पाषाण की मूर्ति हो तो उसकी छाया न पड़ेगी । कोई बिल्कुल साफ काँच हो उसे भी रख दिया जाय तो उसकी छाया नहीं पड़ती । जो स्फटिक मणि की तरह पवित्र हो गया शरीर, उसमें छाया नहीं । तो इतना दिव्य शरीर बन जाता है वीतराग निर्मल सर्वज्ञ आत्मा बस रहा है उसके प्रताप से वह इतना दिव्य शरीर बन जाता है । हो गया दिव्य फिर भी शरीर के गुणों का वर्णन करने से परमात्मा के गुणों का वर्णन नहीं होता । तो फिर किस तरह वर्णन करें कि परमात्मा का वर्णन हो जाय । 818-देहगुणों के स्तवन से प्रभुगुणस्तवन के अभाव का दृष्टांतपूर्वक विवरण—जैसे नगर का कोई वर्णन करे कि इस नगर के महल इतने ऊंचे हैं कि मानों ये आकाश को निगल रहे हैं, खाइयाँ इतनी गहरी हैं कि पाताल को पी रही हैं आदि-आदि । तो इसके वर्णन से कहीं राजा का वर्णन नहीं हो जाता । इसही प्रकार यदि कोई देह के गुणों का वर्णन करता है कि आपका श्वेत खून है, आपने कांति से दशों दिशावों को स्वच्छ कर डाला है आपका रूप अविकार है अक्षुब्ध समुद्र की तरह गंभीर है अपूर्व सुंदर है आदि, तो इससे कहीं केवली भगवान का वर्णन नहीं हो जायेगा । तात्पर्य यह है कि जैसे नगर का वर्णन करने से उसके अधिष्ठाता प्रतिपालक राजा का वर्णन नहीं होता है, उसी प्रकार शरीर का वर्णन करने से आत्मा का वर्णन नहीं हो सकता है । शरीर की प्रशंसा या निंदा नहीं होती है । शरीर जुदा है, आत्मा शरीर से भिन्न है; अत: शरीर की स्तुति करने से आत्मा की स्तुति नहीं हो सकती है । अब आचार्य समयसार की 31वीं गाथा में निश्चय स्तुति का वर्णन करते हैं:—