वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 34
From जैनकोष
सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाइ परे त्ति णादूण ।
तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं ।।34।।
872-ज्ञान होने पर अज्ञानमय बातों का पता—ज्ञानी सोचता है कि मैंने जो पहले चेष्टा की है, वह सब मेरा अज्ञान था । यद्यपि ज्ञानी भगवान की भक्ति करता है, शुद्ध आहार करता है ईर्यासमिति से चलता है, आदि पवित्र चेष्टा करके भी वह यह सब अज्ञान समझता है; इन चेष्टाओं में भी वह अपनी संतुष्टि नहीं मानता है । छोटीसी भी गलती के लिये ज्ञानियों को अफसोस रहता है । ज्ञानियों को घृणा अपने विभावों से होती है । जैसे नेत्र विकारी पुरुष पटल होने पर देखने लगता है, उसी तरह अज्ञानी जीव तत्त्वज्ञान ज्योति प्रकट होने पर प्रतिबुद्ध हो जाता है । अज्ञान स्वभाव तो है नहीं, पर्याय है, अत: अज्ञान पर्याय का व्यय व ज्ञानपर्याय का उत्पाद हो सकता है इसमें कोई संशय नहीं । तीव्र मोह के होने पर भी कारण मिलने पर ज्ञान प्राप्त हो सकता है । जिससे आज आपकी शत्रुता है, वह भी आधा मिनट बाद परिणाम बदलने पर मित्र हो सकता है । शत्रु को मिटाने की अपेक्षा शत्रुता को मिटाओ । कोई द्रव्य किसी का शत्रु या मित्र नहीं है । जो उसके भाव बने कि यह मेरा शत्रु है यह मेरा मित्र है—ये ही परिणाम उसके शत्रु या मित्र है न मित्र क्या शत्रु ही शत्रु है । पर वह दुश्मन, जिसको वह दुश्मन मानता है वह दुश्मन नहीं है । शत्रु मिलेगा, अंतर में मिलेगा, बाह्य पदार्थों में कोई शत्रु नहीं है । मित्र भी कोई अन्य पदार्थ नहीं है, मित्र के प्रति मोह ही को हम अपना मित्र माने बैठे हैं अत: अज्ञानी भी तत्त्व ज्योति को प्राप्त करने के बाद ज्ञानी बन जाता है । इसमें आयु की अपेक्षा नहीं । बालक भी ज्ञानी बन जाये । भैया ! घबड़ा न जाना कहीं बालक ज्ञानी, योगी न बन जाय । ज्ञानी को समझना चाहिये कि मेरा बच्चा भी ध्यान में लग जाये तो अच्छा है । मेरा बच्चा यदि ज्ञान मार्ग में आता है, इससे बढ़कर कुछ नहीं । कौन किसका सदा बाप रहता है, कौन किसका सदा पुत्र रहता है । उस अनादि काल के समय के आगे उस 15-20 वर्ष की क्या गिनती है । मोही ज्ञानी होकर अपने को ज्ञाता दृष्टा जानकर, श्रद्धा करता हुआ स्वभावरूप बने रहने की इच्छा करता हुआ परभाव का त्याग करेगा । अब इस शंका पर कि अन्य द्रव्यों का त्याग किसे कहते हैं? श्री परमपूज्य महर्षि कुंदकुंद आचार्य 34 वीं गाथा में समझाते हैं कि त्याग किसे कहते हैं? 873-प्रत्याख्यान की ज्ञानमयता—जिस कारण कि यह आत्मा सर्व भावांतरों को पर हैं ऐसा जान कर उन सब भावों को छोड़ता है इस कारण ज्ञान को ही निश्चय से प्रत्याख्यान मानना चाहिये । वस्तुत: पर को पर जान लेना ही यह आत्मा कर सकता है ग्रहण तो कर ही नहीं सकता, त्याग भी वह किसका करेगा । विभाव को ही ग्रहण किया था अब विभाव को ही परतत्त्व जान लिया । ग्रहण भी क्या किया और यह स्वतत्त्व है ऐसा अंगीकार किया था । अब अंगीकार हो गया यही प्रत्याख्यान है । आत्मा अमूर्त है, पौद्गलादिक मूर्त हैं । तो फिर आत्मा के स्वरूप में पौद्गलादिक कैसे मेल खा सकते हैं? ऐसी स्थिति में यह आत्मा जबकि मोह में चल रहा था, तब पदार्थों को ग्रहण कर रहा था । पर द्रव्य ‘‘मेरे हैं’’ यह भाव बनाना ही पर द्रव्य का ग्रहण है । यह मेरे से अत्यंत भिन्न हैं, ऐसी दृढ़ प्रतीति को त्याग कहते हैं । ये सब द्रव्य मेरे स्वभाव से अत्यंत जुदे हैं, इनका परिणमन इनमें होता है और मेरा परिणमन मेरे में होता है । इस प्रकार का उपयोग बना रहना, पर का त्याग कहलाता है । त्याग वस्तु की स्वतंत्र सत्ता का बोध होने से होता है । एक वस्तु का दूसरी वस्तु के साथ संबंध नहीं है, ऐसी प्रतीति करना ही त्याग है । त्याग करने से कर्मबंध नहीं होता है । कर्म मिथ्यात्व और कषाय करने से बंधते हैं । सम्यग्दर्शन और अकषाय से कर्मबंध नहीं होता है । कर्म बाह्य ईर्या समिति का लिहाज नहीं करता है, वह कषाय और मिथ्यात्वरूप परिणामों को देखकर चिपट ही जाता है । सम्यग्दर्शन और अकषाय परिणामों से कर्म नहीं बंधता है । पर को पर का जानकर त्याग करे तो वह ज्ञान ही है । ज्ञान का बना रहना ही त्याग करनेवाले का पर वस्तु से मोह छूट ही जायेगा । ज्ञानभाव का नाम ही त्याग है । जब वस्तु की स्वतंत्र सत्ता का परिज्ञान हो जाता है, तब त्याग कहलाता है । 874-प्रत्याख्यान की ज्ञानपूर्वकता—यह ज्ञाता पुरुष जानता है कि कोई भी पर पदार्थ अथवा केवल पर पदार्थ ही नहीं किंतु सर्व औपाधिकभाव भी मेरे स्वभाव से अन्य हैं ये सब भावांतर मेरे स्वभाव में व्याप्य नहीं हो सकते । ऐसा जानकर उनका परिहार करता है । इसलिये मोही पुरुष (आत्मा) पहिले जानता है वही पश्चात् त्यागता है अन्य और कोई नहीं ऐसा आत्मा में निश्चय करके ज्ञान ही प्रत्याख्यान स्वरूप है ऐसा अनुभव करना चाहिये । पर पदार्थ का नाम लेकर जो प्रत्याख्यान का वर्णन किया जाता है जैसे कि अमुक ने मकान का त्याग किया, अमुक ने कुटुंब त्याग किया इत्यादि वह सब इसी कारण करना होता है कि आत्मा में वास्तव में क्या किया क्या त्याग इसको परमार्थ से अथवा सुगमतया तो कहा जा सकता है सो जिस पदार्थ का विषय करके विकल्प बना रहा था और इसी से उसके समागम के अनुकूल उपयोग व योग बन रहा था, तत्त्वज्ञान होने पर उपयोग, योग उस ओर से निवृत्त होकर ज्ञानस्वभाव की ओर आता है और उससे चिगता नहीं, इस परिस्थिति को उस ग्रहण में विषयभूत बाह्य पदार्थ के प्रत्याख्यान कहने के व्यपदेश से उस प्रत्याख्यान को बोलना होता है । त्याग किसे कहते हैं, इससे पहले जानना चाहिये कि आत्मा ग्रहण किसे करता है? वास्तव में आत्मा किसी भी बाह्यपदार्थ का ग्रहण नहीं कर सकता है । एक पुद्गल में दूसरे पुद्गल का भी ग्रहण नहीं होता है । चेतन में ग्रहण करने का व्यवहार होता है । आत्मा यदि ममकार और अहंकार करता है, यही उसका ग्रहण करना है । ममकार और अहंकार न करे वही त्याग कहलाता है । यह ग्रहण करना अनित्य चीज है, त्याग हमेशा रहता है । क्योंकि ग्रहण करना गुण का विचार है, अत: वह अधिक समय तक नहीं रह सकता है । कर्ममल का नाश होने पर विकारों का नाश होता है । विकारों के नाश होने के समय ज्ञातादृष्टा की अवस्था रहती है । विकार कर्मजन्य भाव हैं । जितने कर्मों का उदय सामने हैं, उनका ग्रहण करना ग्रहण है । अहंकार और ममकार भाव का दूर हो जाना त्याग है ग्रहण अशुद्ध पर्याय है और त्याग शुद्ध पर्याय है । अशुद्ध पर्याय के नष्ट हो जाने पर ज्ञान उत्पन्न हो जाता है । गुणों के नित्य होने से ज्ञान आत्मा में सदा रहता है उसका विकास त्याग है । जिसके त्याग रहे उसे त्यागी कहते हैं । सबसे ऊंचा त्यागी परमात्मा है, क्योंकि उनमें हमेशा ज्ञाता दृष्टा की अवस्था बनी रहती है । ज्ञान और आनंदपना आत्मा का गुण है । विचार भाव के नष्ट हो जाने पर भी ज्ञान और आनंद नष्ट नहीं होते हैं, बल्कि और भी स्पष्ट हो जाते हैं । जब किसी चीज का ज्ञान होता है, तभी तो उसका त्याग होता है । अत: जानन मात्र को त्याग कहते हैं । जिस समय किसी चीज का लक्षण देखकर यह चीज मेरी नहीं है, वह प्रतिभास होता है, वस्तुत: उसी समय उस वस्तु का त्याग हो जाता है । अतएव वास्तव में जानना ही त्याग है । 875-अंतस्तप में तपते हुए आत्मा के मल नष्ट होने लगते—जैसे स्वर्ण को अग्नि में तपाने से उसका मल ही नष्ट होता है, स्वर्णपना उसमें ज्यों का त्यों बना रहता है । इसी प्रकार जब आत्मा त्यागरूप अग्नि में तप जाता है तब उसके विकार नष्ट हो जाते हैं; ज्ञान ज्यों का त्यों बना रहता है, वह नष्ट नहीं होता । ज्ञान ज्ञान ही रह जाये—इसी का नाम त्याग है । जो हमें दीख रहे हैं वे सब असमानजातीय द्रव्य पर्याय हैं । वे सब मेरे से भिन्न है वे अपने में परिणमते, मैं अपने में ! अत: ये सब मेरे नहीं हैं ऐसी उपेक्षा होने पर त्याग होता है । किन्हीं लोगों का कहना है कि जो आत्मा के 21 प्रकार के दुःख हैं, वे आत्मा के गुण हैं । जब उन दुःखों का नाश हो जाता है तब आत्मा का मोक्ष हो जाता है । ऐसा कहने वालों को पर्याय और गुण का विवेक ही नहीं है । यदि दुःख गुण हैं तो गुण के नष्ट हो जाने पर, आत्मा के भी विनाश का प्रश्न आ जायेगा । उन्होंने दुःख को गुण माना है, लेकिन गुणों का विकास होना अच्छी चीज है, इस प्रकार आत्मा में दु:ख की अधिकता होने पर आत्मा की श्रेष्ठता का प्रश्न आ जायेगा । सुख का मूल से नाश होने पर आत्मा के दुःख होने का प्रश्न आता है यदि आत्मा के स्वरूप पर दृष्टि देवें तो आत्मा के गुणों का कभी विच्छेद नहीं होता है। 876-ज्ञानत्व प्रत्याख्यानत्व—ज्ञाता-दृष्टा की स्थिति बने रहने का नाम त्याग है । बाह्य-शुद्धि (सोला) करना ठीक है । लेकिन बाह्य-शुद्धि करके बाहर चले और किसी से छू गये तो यदि तुमने उसके ऊपर बाह्यशुद्धि की रक्षा के हेतु क्रोध करके अंतरंग शुद्धि को बिगाड़ लिया तो कर्म बंधने को बाह्य अवसर नहीं देखेंगे अपितु कर्म बंध ही जायेंगे । उस समय में यदि क्रोध न आवे तो वास्तविक शुद्धि है । वास्तविक बात यह है कि कर्म न बंधे, कर्म कषाय न करने से नहीं बंधते हैं । बाह्य वस्तु के त्याग का उपाय कषाय न करना है । कषाय छोड़ने के लिये बाह्य वस्तु का त्याग किया जा सकता है । जिसकी कषाय छूट गई, वह बाह्य वस्तु का संग्रह कर ही नहीं सकता है । अत: प्रति समय ध्यान रखना चाहिये कि कषाय उत्पन्न न हो । अपमान होने पर किसी के प्रति कषाय न करो । अपमान होना इतना बुरा नहीं है, जितना बुरा कषाय करना । कषाय के त्याग का नाम त्याग है वह ज्ञानरूप पड़ता है । ज्ञानस्वरूप और सुख स्वरूप आत्मा के देह और इंद्रियों के अभाव में भी ज्ञान आनंद है । त्याग होना सहज है, परंतु प्रवृत्ति होना असहज है । ज्ञाता-दृष्टा बन जाना ही तो त्याग है । ‘ज्ञान’ त्याग का ही नाम है । यह ज्ञान परमात्मा में भी है अत: वह स्वत: त्यागी है । ज्ञान और आत्मा के एकत्व में आ जाना त्याग है । त्याग का उल्टा संयोग है अर्थात् चेतन में अचेतन के संयोग को ग्रहण कहते हैं । भगवान् और सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञाता-दृष्टा होते हैं । विशुद्ध ज्ञान का बना रहना, विशुद्ध त्याग कहलाता है । जिस आत्मा में विशुद्ध ज्ञान है, उसमें कर्म नहीं बंधते । भगवान के ज्ञान और आनंद गुण हैं । ये गुण उनके सदा रहते हैं । उनके विकार नष्ट होते समय ये गुण भी विनाश को प्राप्त हो गये हों, यह मत समझना । कोई वस्तु किसी अन्य वस्तु का कर्त्ता नहीं होती है । सब पदार्थ अपने द्रव्य क्षेत्र-काल-भाव में परिणमते हैं, अपने ही द्रव्य-क्षेत्रादि में रहते हैं । 877-तत्वों को जानने वाला सम्यग्दृष्टि जीव किसी बाह्य में अटकता नहीं—आत्मा अन्य द्रव्यों के प्रदेशों में नहीं रहता है, अपने ही प्रदेशों में रहता है । आकाश द्रव्य अपने प्रदेशों में रहता है, आत्म द्रव्य अपने प्रदेशों में । जहाँ आकाश है, वहाँ आत्मा अवश्य है, परंतु यदि आत्मा के प्रदेशों में आकाश आ जायें या आकाश के प्रदेशों में आत्मा आ जाये तो आकाश आत्मा बन जायेगा, आत्मा आकाश बन जायेगा । सब द्रव्य अपने-अपने में वर्तते हैं, अन्य द्रव्य में नहीं रहता है । जब ऐसी स्थिति है तो मैं किसको बुरा मानूं, और किसको अच्छा—ऐसा विचार करता है । समस्त विषयों में राग द्वेष को छोड़ो, राग-द्वेष ज्ञान से छूटते हैं । जिज्ञासा:—क्या सम्यग्दृष्टि के विषय में इतना ही उल्लेख है कि या और भी, जिससे सम्यग्दृष्टि का बोध अच्छी तरह से हो जाये समाधान:—सम्यग्दृष्टि के बहुत से लक्षण और भी है । जिसकी दृष्टि बनी रहे कि इंद्रियजंय ज्ञान और इंद्रियजंय सुख आदेय नहीं है यह भी चिह्न सुदृष्टि का है । कर्म, द्रव्य कर्म, नोकर्म और भावकर्म—ये इनके बीच में पड़ा हुआ जीव दु:खी होता है । इनके स्पर्श से रहित शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मा के अनुभव में जो आनंद है, वह अन्य किसी पदार्थ में नहीं है । त्याग का नाम ही आनंद है । त्याग और ज्ञान से भिन्न अन्य सबको दुःख कहते हैं । जैसे शहद लपेटी तलवार चखने में मीठी लगती है, परंतु उससे जीभ कट जाती है उसी के समान संसार के ये सुख दु:ख हैं । इन संसार के दुःखों से आत्मा की बरबादी होती है । सम्यग्दृष्टि जीव की ऐसी प्रतीति बनी रहे तो वह सत्य भी है, शिव भी है और सुंदर भी है । बाह्य पदार्थों का कोई संग्रह नहीं कर सकता है, सभी अपने-अपने परिणामों का ही उपार्जन करते हैं । कोई धन नहीं कमाता है, अपने परिणामों को अच्छा बुरा कर सकता है इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकता है । आत्मा तो मात्र ज्ञाता दृष्टा रहे इसी में कल्याण है यही त्याग है । ऐसा त्याग जिस समय प्रकट होता है, जिस समय सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है । 878-सत्य ज्ञान में असत्य का प्रत्याख्यान—अपने ज्ञानभाव को सम्हाले तो अपने में सब तप, नियम, त्याग किये समझिये । इसके मायने यह नहीं है कि तप, त्याग, संयम कुछ महत्त्व नहीं रखते । उनका महत्त्व है । विषयकषाय जैसे अशुभ अशुद्धोपयोग से बचाने के लिए इनका बहुत बडा महत्त्व है । पर उन अशुभ अशुद्ध भावों से बचकर हमें करना क्या है? कहाँ जाना है, कहाँ रहना है, इसका ही पता न हो जिसके अपने जाने के लक्ष्य का ही पता न हो वह जायगा कहाँ? कैसे उसकी गति बनेगी? तो इस तरह यह समझिये कि हम तप त्याग संयम सब कुछ करते हैं पर उनके करने का प्रयोजन क्या है? भले ही मुख से तो कह देंगे कि हमारा तो मोक्ष प्रयोजन है, पर न मोक्ष का स्वरूप ही ध्यान में है और न मोक्ष की चाह ही वास्तव में हैं । एक सुन रखा, पढ़ रखा कि मोक्ष में सुख बसा हुआ है, संसार कष्टमय ऊपर से जच भी रहा है इसलिये मोक्ष की बात करते हैं पर मोक्ष का वास्तव में स्वरूप क्या है इसका भान नहीं । तप, त्याग संयम करके हमें करना क्या है, रहना किस तरह है, इसका ध्यान नहीं तो क्या किया? देखिये—पहिले मोक्ष का स्वरूप जान लीजिये । मोक्ष के मायने है छुटकारा । छुटकारा हो जाने का नाम मोक्ष है । किस-किस बात से छुटकारा? जो मेरे में था नहीं, मेरा स्वरूप नहीं, मेरे सत्त्व से न्यारी चीजें हैं, उन सबका संबंध छूट जाना, इसका नाम मोक्ष है । मोक्ष में मिला क्या? सब छूट गया । छूट तो सब गया पर मिला क्या इस आत्मा को? जैसा मैं सहज ज्ञानानंद स्वरूप हूँ वैसा मैं प्रकट हो गया । तो मैं ही प्रकट हुआ, ज्ञानमात्र प्रकट हुआ । उस ही को तो समझना है यहाँ । मोक्ष चाहिये तो मोक्ष में जो बात प्रकट होगी, आत्मा जैसा शुद्ध ज्ञानरूप बनेगा वैसी ज्ञानरूप भावना अभी से करिये ना, यही धर्मपालन है । मैं ज्ञानमात्र हूँ । यदि बहुत उत्तम आंतरिक दृष्टि से मैं ज्ञानमात्र हूँ यह भावना कर ली तो समझ लीजिये कि आत्मा में जो बात होनी चाहिये, जिसका त्याग होना चाहिये, हो जायेगा । 879-सहज ज्ञानस्वभाव के उपयोग में सहज प्रत्याख्यान—देखिए जब ही अपने को सोचा कि मैं केवल ज्ञानस्वरूप हूँ तो उस समय में विकल्पों की पकड़ तो नहीं रही, राग-द्वेष कषायों की पकड़ तो नहीं रही, उन रूप अपने को मानने की कल्पना तो नहीं रही । ऐसी स्थिति में इस आत्मा ने अपने आप में सब परभावों का त्याग कर दिया । होते हुए भी त्याग हो गया । यद्यपि अप्रत्याख्यानावरण आदिक कषायों के उदय में कितना निरंतर चल रहा है, जब ज्ञानमात्र अपने आपको अनुभव किया जा रहा है उस वक्त भी आत्मा में कषायें चल रही हैं, पर वे अबुद्धिपूर्वक । उनमें उपयोग नहीं चला, उनकी पकड़ नहीं बन रही तो उनपर उपयोग न करना, ज्ञानमात्रस्वरूप पर उपयोग रखना यही तो विकल्पों का त्याग है, और जब विकल्पों को ही नहीं पकड़ रहे हैं धर्मपालन के समय में तो बाहरीपदार्थों का तो स्वयं त्याग हो गया । उनकी पकड़ तो अपने आप छूट गयी । तो त्याग कहाँ हुआ? यहीं आत्मा में । जैसे घर का, परिवार का, वैभव का त्याग करना यह तो ठीक है, करते ही हैं साधुजन, और जिसे अपने हित की चाह है उसे त्याग करना ही चाहिये, मगर भीतर की यह तैयारी होना कि घर परिवार आदि सब कुछ छोड़कर मुझे रहना कहाँ है । यदि इसी का पता न हो और छोड़ दिया ये बाह्य प्रसंग, तो उसमें तो यह आत्मा और चिंता में पड़ जाता है । विकल्पों में पड़ जाता है । इससे पहिले अपना लक्ष्य बना लीजिये कि मुझे ये सब छोड़ना है । वैसे ही सब कुछ छोड़ना पड़ता है, मरण होने के बाद वैसे भी छूट जाता है । अब हमें अपने ज्ञान से अपने ही जीवन में इन सबको छोड़ना है, और छोड़कर करना क्या है कि मेरा जो ज्ञानमात्र स्वरूप है उसमें हमें रमना है । उसके निकट रह-रहकर अपने को प्रसन्न निराकुल, निमीर अनुभव करना है। 880-लक्ष्य की विशुद्धि से स्वभाव की उपलब्धि में क्षमता—मुझे समाज में अपने को कुछ जंचाना है यह लक्ष्य न हो, मुझे परिवार को भी साथ-साथ धर्म कराकर धर्मात्मा बनना है यह लक्ष्य न हो । ये काम सहज हो जायेंगे, होते ही हैं, पर लक्ष्य होना है यह कि मैं अपने ज्ञानमात्र स्वरूप को पहिचानकर यही मैं हूँ ऐसा निरंतर अनुभव करूँ और कुछ मानूँ ही नहीं । ऐनी ज्ञानभावना यदि निरंतर चलती रही तो ऐसा विशिष्ट प्रताप बढ़ेगा आत्मा में किये रागादिक विकार सब ध्वस्त हो जायेंगे और अपने आपका जो विशुद्ध चित्प्रकाश है वह प्रकट हो जायेगा । तो अपने को खाली ज्ञानमात्र हूँ यह निरखना है । भीतर में अपनी अंतर्दृष्टि करके, देह का भी मान छोड़कर । हो सकता है ऐसा कि देह में उपयोग न रखें, देह ही कुछ है ऐसा कुछ न सोचें । तो देह का भी भान छोड़कर अपने आप में अपने को ज्ञानमात्र निरखना है, इससे बढ़कर अन्य कोई योग नहीं । यही धर्म पालन है, यही अपने आपका पोषण है । अपने आपको कल्याण में ले चलने का मार्ग यही है अपने को केवल ज्ञानमात्र देखो । जिस ज्ञानमात्र के निरखने में आपको आकाश की तरह अमूर्त यह स्वयं जचेगा और केवल ज्ञान-ज्ञान में ज्ञान रहेगा, आकुलतायें दूर होंगी, उसके प्रताप से एक परम आल्हाद उत्पन्न होगा । ऐसा विशिष्ट आत्मीय आनंद होगा जिसकी कणिका भी उस तीन लोक की संपदा में नहीं प्राप्त हो सकती । ऐसा अपने को जितना अकेला ज्ञानमात्र अनुभव करे उतना ही आप सबसे पृथक् होकर सहज आनंद में बढ़ते चले जायेंगे । 881-ज्ञान में प्रत्याख्यान का स्वरूप—ज्ञान ही का नाम त्याग है । त्याग और ग्रहण पर वस्तु में नहीं होता है । वस्तु में गुण और उनके गुणों की स्थिति है, और कुछ नहीं। वस्तु है, उसका परिणमना होता है । जो बाह्य वस्तु के विकल्परूप परिणमन हुआ वह ग्रहण कहलाता है । वस्तु के ज्ञाता दृष्टारूप परिणमने का नाम त्याग है । ज्ञानी बाह्य द्रव्यों का ज्ञाता है, वह उनको पर रूप से जानता है; क्योंकि ये उनके स्वभाव में नहीं है । उन द्रव्यों को स्वतंत्र असंबद्ध जानना ही त्याग है । जिस वस्तु का चाहरूप ग्रहण था अब हो गई ज्ञाता-दृष्टा की स्थिति, उसको त्याज्य वस्तु के नाम द्वारा बताया जाता है । त्याग तो एक ही प्रकार का होता है जैसे धर्म वास्तव में 10 नहीं हैं । उत्तम क्षमादि के उल्टे क्रोध आदि 10 ऐब हैं । उनको बताने के लिये कि इसके न होने से यह दश मिलती है धर्म को दस प्रकार से बताया गया है । ये दशों धर्म सिद्धि के विकास के उपाय को प्रकट करने वाले हैं । आत्मा के अवगुणों के बताने के लिये इन्हें बताया गया है । त्याग करने से कर्ता का व्यपदेश चलता है । वास्तव में ज्ञानस्वभाव अव्यपदेश्य है । आत्मा ज्ञान-स्वभाव से च्युत न हो, इसी का नाम त्याग है । विकार भावों का होना ग्रहण है और विकार भावों को छोडना ही त्याग है। शंका—यह ज्ञाता का त्याग है, क्या इसका कोई उदाहरण है? आचार्य 35 वीं गाथा में इसका उत्तर देते हैं— 882-यथार्थ ज्ञान में परपरिहारस्वभावता का समर्थन—जैसे कोई पुरुष पर पदार्थ को ‘‘यह परद्रव्य है’’ ऐसा जानकर छोड़ देता है उसी प्रकार ज्ञानी समस्त पर भावों को ‘यह पर भाव है’ ऐसा जानकर छोड़ देता है । जैसे व्यवहार में कोई पुरुष पर वस्तु को दूसरे की जानकर छोड़ देता है, उसी प्रकार यह ज्ञानी पर पदार्थों को पर जानकर छोड़ देता है । जैसे दो आदमियों ने अपनी-अपनी चद्दर साथ धुलने धोबी के दी । दो चार दिन बाद उनमें से एक धुली एक चादर ले आया, लेकिन धोबी ने भ्रम से उसको दूसरे पुरुष की चादर दे दी । वह लेकर चला आया । रात्रि में वह उसी चादर को ओढ़कर सोता रहता है । दूसरा पुरुष भी अगले दिन चद्दर लेने गया धोबी ने उसको दूसरी चादर दे दी । उसने अपनी चादर के चिह्न उस चादर में नहीं पाये तो उसने कहा यह मेरी चादर नहीं है । धोबी ने कहा, ओह, आपकी चद्दर अमुक ले गया है । उसने कहा उसे तो मैं जानता हूँ, जाकर ले लूंगा । वह (दूसरा) उसके (पहले के) घर जाता है । और कहता है, उठो, उठो यह चादर तुम्हारी नहीं है । ‘‘तुम्हारी नहीं है’’, यह बार-बार उसने सुना तो उसने चद्दर को देखा, उसमें अपने चिह्न न पाये । इस चादर में मेरी चादर के चिह्न नहीं हैं, यह जानते ही उसका वह चादर छूट गया । उसी प्रकार जब साक्षात् अथवा ग्रंथों में हमारे गुरुराज बार-बार समझा रहे कि ये पदार्थ तेरे नहीं इनमें तेरा चिह्न नहीं; ये भिन्न हैं, ये तेरे स्वभाव नहीं हैं, तू चैतन्यमय पदार्थ है ये जड़ पदार्थ । इससे यह ज्ञान हो गया कि इन पदार्थों का तेरे से अत्यंताभाव है ऐसा ज्ञान होते ही बाह्य पदार्थ आत्मा से छूट जाते हैं । अत: ज्ञान ही तो त्याग है । वास्तव में शरीर और आत्मा एक नहीं हैं, व्यवहार से ही उनमें एकत्व है । शरीर की स्तुति करके भगवान की स्तुति मान लेना व्यवहार से ही है, निश्चय से नहीं । निश्चय से तो आत्मा के गुणों का वर्णन करना ही निश्चय स्तुति है । वास्तव में शरीर की स्तुति से आत्मा की स्तुति नहीं हो जाती है । शरीर के बुरा होने पर आत्मा बुरा नहीं होता शरीर के अच्छा होने पर आत्मा अच्छा नहीं होता, शरीर के दुर्बल होने पर आत्मा दुर्बल नहीं होता । क्योंकि शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न हैं । जब आत्मा से भिन्न शरीर को जाना तो आत्मा के अनुरूप आचरण की प्रवृत्ति होती है । इस प्रवृत्ति से बाह्य पदार्थों का प्रत्याख्यान होता है । प्रत्याख्यान ज्ञान से होता है । जैसे अंधेरे में पड़ी हुई रस्सी को भ्रम से सांप समझ लिया तो भय उत्पन्न हुआ । जब उसके पास जाकर देखा तो यह रस्सी है, यह जानते ही सारे भय एक साथ समाप्त हो गये । ये मेरा है, ऐसा भाव बनाना सो ग्रहण करना है । ये मेरे नहीं हैं—इस भाव का उत्पन्न होना त्याग है । 883-सम्यक्त्व की ज्ञानगोचरता—सम्यक्त्व मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दोनों के गोचर नहीं है । सम्यक्त्व देशवाधि का भी विषय नहीं है । परमावधि सर्वावधि तथा मन:पर्यय और केवलज्ञान से सम्यक्त्व जाना जा सकता है । मतिज्ञान यह सम्यक्त्व है, यह सम्यक्त्व नहीं है—ऐसा निर्णय नहीं कर पाता है, अनुभव अवश्य कर लेता है । सम्यक्त्व है, ऐसा निर्णय कर लेना प्रत्यक्ष ज्ञान है । परमावधि और सर्वावधि का विषय भी औपशमिक सम्यग्दर्शन और क्षयोपशमिक सम्यग्दर्शन है । जो क्षयोपशम या उपशम अवस्था संपन्न कर्म हैं, उन्हीं को अवधिज्ञान ने जाना । उपशमापन्न कर्मों को जानते ही औपशमिक सम्यग्दर्शन का ज्ञान हो जाता है । इस प्रकार अवधिज्ञानी ने सम्यक्त्व को जाना । कर्म का अभाव कोई सद्भूत वस्तु नहीं है । जो कर्म हैं, वे क्षय अवस्था से युक्त हैं—ऐसा तो नहीं है । सम्यक्त्व देशावधि का विषय नहीं है । सम्यक्त्व सर्वावधि परमावधि तथा मन:पर्यय ज्ञान का विषय है, किंतु केवलज्ञान का तो साक्षात् विषय है । 884-सम्यक्त्व गुण के परिणमन—जिस गुण के ये तीन परिणमन हैं सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यङमिथ्यात्व,—उनका क्या नाम देना? उसका नाम सम्यक्त्व गुण है । सम्यक्त्व की तीन पर्यायों में सम्यक्त्व पर्याय भी आ गया । सम्यक्त्व नाम गुण का भी है और पर्याय का भी । पर्यायदृष्टि से सम्यक्त्वपर्याय है और गुण दृष्टि से देखो तो सम्यक्त्व गुण भी है । उन तीनों परिणमनों के स्रोत्र का नाम ‘सम्यक्त्व’ दिया गया है । यह नाम बिल्कुल भी विरुद्ध नहीं है । आत्मा का कोई गुण सम्यक्त्व नाम का है उसकी शुद्ध पर्याय का नाम भी सम्यक्त्व है । वह एक ही प्रकार का है; उसका कोई भेद नहीं है । सम्यक्त्व के भेद निमित्त से पड़ गये । सम्यक्त्व तो एक ही चीज है, निर्विकल्प है । दर्शन मोह के उदय से होने वाले सम्यक्त्व की दशा को मिथ्यादर्शन कहते हैं । दर्शन मोह के उपशम, क्षय, क्षयोपशम से होने वाली सम्यक्त्वगुण की दशा को सम्यग्दर्शन कहते हैं । यह काललब्धि, संसारसागर की निकटता एवं भव्यत्व गुण के विपाक से प्राप्त होता है । आत्मा की खुद की पर्याय को काल कहते हैं । काल माने घड़ी, घंटा, दिन आदि भी हैं । सम्यक्त्व प्राप्ति के काल को काललब्धि कहते हैं । व्यवहार से, जिस दिन सम्यग्दर्शन मिलना है, उसको काल लब्धि कहते हैं । समय सब एकसा है । कोई दिन विशेष आवे और सम्यग्दर्शन मिले, ऐसा नहीं है । निश्चयनय से सम्यग्दर्शन की पर्याय मिलना ही काल लब्धि है । सम्यक्त्व की प्राप्ति दिन-विशेष के कारण नहीं होती है, समय तो परिणमन मात्र का निमित्त है । समय तो यही कहता है कि तुम्हें परिणमना पड़ेगा । वस्तु कैसी परिणमे—इसमें समय जीभ भी नहीं हिला सकता है । संसार सागर के निकट आने पर, काल-लब्धि होने पर और भव्यता का विपाक होने पर सम्यग्दर्शन होता है । वस्तु अखंड है, पर्याय अखंड है । वस्तु को समझने के लिये वस्तु के भेद करने पड़े, उसे गुण कहते हैं पर्याय के भी कोई भेद नहीं है, फिर भी उन्हें समझने के लिये उनके भिन्न-भिन्न परिणमन को अनेक पर्याय कह देते हैं । भव्यत्वगुण का जहाँ तक अशुद्ध परिणमन है, वहाँ तक उसे मिथ्यात्व कहते हैं । उसके शुद्ध परिणमन से सम्यक्त्व पैदा होता है जब यह जीव निजचैतन्य स्वभाव तक पहुँचता है, जब चैतन्य स्वभाव पर दृष्टि पहुँचती है तो व्यवहार के सब विकल्प समाप्त हो जाते हैं । निश्चय के विकल्प भी हटकर तब सम्यक्त्व की अनुभूति रूप परिणमन हो जाता है । सम्यक्त्व स्वानुभव को लेकर प्रकट होता है । जैसे उपयोग से ही तो सारी विद्याएँ आई । उपयोग लगाकर लोग हिंदी, अंग्रेजी या संस्कृत आदि भाषा का ज्ञान कर पाते हैं । किंतु भाषा ज्ञान हो चुकने पर जब इंग्लिश लेटर पढ़ रहे हैं तब अन्य भाषाओं का उपयोग नहीं है । एवमेव जब भी सम्यक्त्व उपार्जित हुआ, स्वानुभव के साथ हुआ । सम्यक्त्व के होने पर स्वानुभव रहता भी है, नहीं भी रहता । ज्ञान में ही लब्धि और उपयोग ये दो प्रकार होते हैं । ज्ञान में उपयोग लगाना उपयोग कहलाता है । और ज्ञानप्राप्ति की योग्यता कर लेना लब्धि कहलाता है । जब जीव स्व का अवलंबन करके निर्मल परिणामों बढ़ता है, तब दर्शनमोह का उपशम होता है । 885-निर्मल परिणाम में कर्म का निर्जरण—जो कर्म बँधते हैं, आबाधा काल को छोड़कर प्रत्येक समय के कर्म रहेंगे । दर्शन मोहनीय कर्म का भी निरंतर बंध स्थान है । अंतरकरण से दर्शन मोहनीयकर्म का उपशम होता है वहॉ सांतर बंधस्थान हो जाता है । याने जिस काल में उपशम सम्यग्दर्शन होना है उस काल के दर्शनमोह स्पर्द्धक आगे पीछे के काल में मिल जाते हैं । जैसे कि किसी वकील की इच्छा है दसलक्षण पर्व में कचहरी की उलझन न रहे तो वकील ऐसा यत्न करता है कि दशलक्षण पर्व में जो तारीख थी उनमें कितनी ही तो पर्व से पूर्व में लगवा लेते हैं और कितनी ही पर्व के उत्तर काल में लगवा लेता है और नई तारीखे लगे उन्हें दसलक्षण पर्व में नहीं रखवाता ऐसा उद्यम प्रभावक व कुशल कोई कर लेता है तब वह दसलक्षण पर्व कचहरी की उलझनों से परे होकर धर्मध्यान में व्यतीत करता है । इसी तरह अनिवृत्तिकरण परिणामों का निमित्तमात्र पाकर दर्शनमोहनीय कर्म में क्या बीतती है सो देखें अनिवृत्तिकरण के संख्यात भाग बीत जाने के बाद अनिवृत्तिकरण काल समाप्ति से आगे अंतर्मुर्हूत तक दर्शनमोहनीय कर्म का उस समय की सीमा वाला अस्तित्व ही न रहे यह होने लगता है । सो उस अंतर्मुहूर्त की स्थिति सत्त्व वाली दर्शन मोहनीय की कर्मप्रकृतियाँ कुछ तो पूर्व अंतर्मुहूर्त में मिलने लगती हैं और कुछ उसके उत्तर काल में मिलने लगती है । ऐसा होने को अंतरकरण विधान कहते हैं । इस अंतरकरण विधान के होते समय कुछ काल तक ऐसा भी होता है कि पूर्व काल में आकर भी उत्तर काल में पूर्वकाल वाली कुछ प्रकृतियाँ मिल जाती हैं और उत्तर काल में मिली हुई कुछ प्रकृतियाँ पूर्वकाल में मिल जाती हैं । इसको आगाल प्रत्यागाल कहते हैं । देखो स्थान भ्रष्ट होने वाली प्रकृतियों का ऐसा हाल होना कैसा प्राकृतिक मालूम होता है । जीव इनमें कुछ नहीं करता । किंतु, जीव परिणामों को निमित्त-पाकर कर्मों में ऐसा स्वयं होता है । अंतरकरण हो चुकने पर व अनिवृत्तिकरण काल समाप्त होते ही उपशम सम्यक्त्व हो जाता है । सम्यक्त्व गुण का भी नाम है और पर्याय का भी । सम्यक्त्व गुण की तीन पर्यायें हैं:—(1) सम्यग्दर्शन (2) मिथ्यात्व और (3) सम्यङ् मिथ्यात्व । सम्यक्त्व निर्विकल्प स्वरूप है । वह एक ऐसा मौलिक सुधार है कि उसके होने पर सब गुणों में सुधार होने लगता है । सम्यग्ज्ञान और चारित्र भी सम्यक्त्व के होने पर होते हैं । सम्यक्त्व ही ऐसा बल है, जिसके द्वारा मोक्षमार्ग के लिये प्रोत्साहन मिलता है । सम्यक्त्व ही भष्ट की स्थिति कर देता है । अपना इस दुनिया में है ही क्या? 886-मिथ्यात्व मिटने के बाद रागादि मिटने के लिये होते हैं—सम्यक्त्व होने पर भी कदाचित् ऐसी रागादि की बातें चलती हैं, लेकिन चलती हैं जल्दी मिटने के लिये । मोही को निर्मोह के प्रति आश्चर्य होता है कि ये निर्मोही विवेकहीन हैं । परंतु निर्मोही जो कुछ करता है, बड़े विवेक से करता है । जिस सम्यग्दर्शन के होने पर ज्ञान चारित्र सुधरने लगते हैं, वह सम्यग्दर्शन निर्विकल्प है । प्रश्न:—क्या सम्यग्दर्शन वस्तु की यथार्थ प्रतीति माने ज्ञान है । क्या सम्यक्त्व आचरण को कहते हैं? आचरण माने चारित्र कहलाया । फिर सम्यक्त्व क्या रहा? सम्यक्त्व वह है जिसके होने पर ज्ञान और चारित्र में भी समीचीनता आती है । सम्यक्त्व ही आत्मा का भला करनेवाला है । व्यवहार में दूसरों का बड़प्पन है, परंतु निश्चय से अपने से दूसरों को बड़ा मानकर दीनता का व्यवहार करना—बड़ी बुरी बात है । दूसरों को छोटा मानना भी घृणित विचार है । आत्मा को स्त्री-पुत्र-मित्र-पिता आदि पर मान बैठना आत्मा का घात करना है । आत्मा तो चैतन्यस्वरूप है । दुनिया के सब जीव स्वभाव की दृष्टि से मेरे बराबर हैं—ऐसा बना रहना चाहिए । रागी कभी भी दूसरों का कल्याण नहीं चाह सकता । वह सोचता है कि यह जीव भी सदा ऐसा ही पड़ा रहे । यह समझ अज्ञान को ज्ञान समझ कर होती है । अरे, जीव की ऐसी दृष्टि बने कि मेरे जानने के अतिरिक्त अन्य जीव भी ज्ञान करे, दुनिया के समस्त पदार्थों को जाने, ऐसा ज्ञान करे कि उसमें मैं भी डूब जाऊं, सामान्य होकर लीन होऊं। स्वभाव दृष्टि से सब बराबर है । ऐसी धारणा निर्मोही की होती है । लेकिन रागी न अपने लिये कल्याण की बात सोचता है, न दूसरे के लिये । उस विषय में कहा गया है कि सूर्य के प्रकाश होने पर अंधकार के दूर होने पर दिशायें जैसे निर्मल हो जाती है; उसी प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म के उपशम होने पर सम्यग्दर्शन के जगने पर आत्मा में शुद्धता, निर्मलता प्रकट हो जाती है । चार ज्ञानियों का समागम जितना लाभदायक है, उससे कहीं अधिक 100000 (एक लाख) भी अज्ञानियों का समागम हानिकारक है । जैसे धतूरे का नशा उतरने पर बुद्धि आदि शुद्ध निर्मल हो जाती है, उसी तरह मिथ्यादर्शन का नशा उतरने पर समस्त गुणों में निर्मलता आ जाती है । मिथ्यात्व का नशा उतरने पर आत्मा में जो बात होती है, वही सम्यग्दृष्टि का विकास है । इस पिशाचिनी प्रतिष्ठा के चक्कर में पड़कर क्यों अपनी आत्मा का विनाश करते हो । चार दिन के लिये प्रतिष्ठा हो गई, लोग पूजने लगे, कौन बड़ा लाभ हो गया? उस अनादि अनंत काल के सामने वे चार दिन क्या महत्त्व रखते हैं । अनंतकाल का समय पड़ा है, आत्मा को परिणमन करना है । कुछ अपनी जिम्मेदारी तो समझो कि हमें क्या करना है? जब मोह का नशा उतरता है, तब ज्ञानी जीव भी प्रसन्न देखा जाता है । दूसरे का वास्तव में अपने से कोई संबंध नहीं है, संबंध मानना यही नशा है । लोग त्यागियों के लिये लाखों खर्च करें यह गृहस्थों की उदारता है । यदि उसके इस कार्य को देखकर त्यागी को प्रसन्नता होती है तो उसका त्यागीपन गया । मोह का नशा उतरते ही उदारता आ जायेगी । जैसे गृहस्थ खर्च करते हैं, उसके सिलसिले में त्यागी को भी बेपरवाह होना चाहिए । मनुष्य भव जैसा सुंदर कौनसा भव होगा? इस जीव ने नाना शरीर धारण किये, सबमें आकुलता रही । अन्य पर्यायों की अपेक्षा मनुष्य पर्याय की श्रेष्ठता तो देखो । हम इस समय ऐसे स्थल पर हैं कि संसार के समस्त दुःखों के छोड़ने का उपाय कर सकते हैं । संसार के दुःखों से छुटकारा पाने के लिये वस्तु स्वभाव को जानना चाहिए । जिस समय सम्यक्त्व प्रकट हुआ, समझो, संसार के समस्त दुःख नौ-दो-ग्यारह हुए । 887-भ्रम के मिटने पर मूल से भ्रमजनित भय का अभाव—रस्सी में सांप का भ्रम होने से भय उत्पन्न हुआ, परंतु जिस समय रस्सी को रस्सी समझ लिया, भय दूर हो जाता है । अपना कर्त्तव्य है कि मोह की बात ही न करो । आत्मानुभव ही रहे । मोह बलवान है तो ज्ञान भी उससे कम शक्तिशाली नहीं है उससे भी बलिष्ठ है । हम मोह के बल के गीत गायें, उसकी अपेक्षा ज्ञान की बातें करें तो कुछ लाभ तो होगा । व्यर्थ की बातों में क्यों फंसते हो? मोह की बातें करना व्यर्थ है । कर्म का जब उदय होता है तो राग होता है सो होने दो किंतु विवेक करके यह तो प्रत्यय किए रहो कि यह मेरा स्वरूप नहीं है । राग में तो राग न करो । तत्त्व की बातें जान भर लो, उनको हृदय में स्थान मत दो । अपने को निर्विकल्प स्थिति में पहुँचाओ तो अपने को अपने में तन्मय कर सकते हो । जिनको कल्याण की लगन है, उनको भूख तो अवश्य लगती है, भोजन भी करता ही है; परंतु उस समय भी लगन कल्याण की रहती है । राग आता है, आने दो, भीतर विवेक जगा रहना चाहिए । वस्तु में संयोग वियोग होता ही नहीं है । वस्तु का एकस्वभाव है उसमें अनंत शक्तियाँ हैं । अनंत शक्ति के अनंत परिणमन हैं । माता-पुत्र, भाई; बहन आदि का रिश्ता पर्याय नहीं है । रिश्ता मानने का भाव ही आत्मा की विकारी पर्याय है । आत्मा न त्याग का कर्ता है, न ग्रहण का कर्ता । आत्मा न किसी की पर्याय बनाता है, न किसी का स्वामी है । प्रत्येक द्रव्य स्वयं की पर्याय को ही बनाता है । हम स्वयं की पर्याय के ही बनाने वाले हैं । हमारी उन्नति हमारे संबंधी या अन्य नहीं कर सकते हैं अपनी उन्नति हम स्वयमेव करते हैं । 888-यथार्थ ज्ञान से ही परभाव का परिहार—आत्मा जो रागपरिणाम कर रहा है उसके फल को रिश्तेदार नहीं भोगेंगे, वह स्वयं ही तो कृत परिणामों के फल को भोगेगा । मोहियों को आत्मा की स्वच्छता बुरी मालूम होती है । मोहियों को तो यही ठीक है यही लगा रहता है । उल्टा रास्ता तभी चला जाता है कि जब कुपथ के प्रति मन में यही ठीक रास्ता है, अन्य नहीं—यह फितूर भरा रहता है । गलत रास्ते को ठीक माने तभी गलत रास्ते पर चला जाता है । गलत को यदि गलत समझ लिया जाये फिर कैसे गलत रास्ते पर चला जायेगा । यदि रास्ता चलते हुए संदेह हो गया कि यह गलत रास्ता है कि सही तब वह चलता हुआ भी नहीं चलता है । आसक्तिपूर्वक वह नहीं चलेगा चलते वक्त उसमें विवेक जागृत रहेगा, अधिक नहीं चलेगा, पूछने के लिये, मार्गदर्शक की खोज के लिये चलेगा जिसको सम्यक्त्व प्रकट हो गया, वह सत्पथ का ध्यान रखता है । उसकी प्रसन्नता अपने में बनी ही रहती है । कोई विपत्ति भी हो जाये वह उस ओर कोई ध्यान नहीं देता है । धन चला गया, सो चला गया धन मेरा स्वभाव नहीं है । विवेकी जीव को एकबार सम्यक्त्व हो जाये, वह अपनी आत्मा की समझ बनाये ही रखता है । सम्यग्दृष्टि अपने सम्मान या अपमान का ख्याल नहीं रखता है । विवेक का जागृत रहना ही ज्ञान है । ज्ञान ही त्याग है । ज्ञान या विवेक हो गया, समझो त्याग हो गया । ‘‘यह मेरा नहीं है’’—यह सम्यकतया ज्ञान होते ही कर्मबंध रुक जाता है । कर्मबंध के रुकने से त्याग स्वयमेव हो गया । ज्ञानियों ने समझाया जागो-जागो जिसमें तुम उपयोग बनाये हो, वह सत्पथ नहीं है । जब उसको भान हुआ तो उसका उस कुपथ से उपयोग हटकर, सत्पथ पर लग जाता है । जिसको सत्य का ज्ञान हो गया और उसका भ्रम दूर हो गया है उसके अंतर में उजेला है । जब जीव ज्ञानी होता है तो शीघ्र ही परभावों को छोड़ देता है । समस्त परभावों के त्याग के दृष्टांत की तरह पायी हुई यह दृष्टि जैसे ही हुई, समझो, परभावों का त्याग हो गया । यह निर्विकल्प स्वानुभूति इस विवेक में ही प्रकट होती है । 889-कल्याण स्वभाव व परभाव के विवेक में—पर पर हैं, पर मैं नहीं हूँ—ऐसा ज्ञान ही कल्याणकारी है । ऐसे अनुभव को परवस्तु विवेक कहते हैं; यह अनुभव सम्यग्दृष्टि के होता है । सम्यग्दर्शन के निर्मल होने पर सभी गुण निर्मल हो जाते हैं । स्वानुभव-श्रद्धा आदि सम्यग्दृष्टि के लक्षण सम्यक्त्व के बाह्य लक्षण हैं । श्रद्धा, स्वानुभव, जानकारी, प्रतीति—ये सब ज्ञान की पर्याय हैं । ‘तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्’ सम्यग्दर्शन का यह बाह्य लक्षण है । श्रद्धा करना ज्ञान की विशेषता है । निश्चय से श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन नहीं है । श्रद्धान करना ज्ञान का ही एक प्रकार है । आत्मानुभव भी ज्ञान का ही प्रकार है । आत्मानुभव सम्यग्दर्शन नहीं है । स्वानुभूति माने स्व का उत्तम ज्ञान । सम्यक्त्व का स्वरूप बताते समय ज्ञान की ही पर्याय बताई जाती है, सम्यक्त्व की नहीं बताई जा पाती । वास्तव में श्रद्धान, प्रतीति, अनुभूति भी ज्ञान की ही पर्याय हैं, सम्यक्त्व का स्वरूप यही कहा जा सकता कि विपरीत अभिप्रायरहित स्वच्छता । ऐसे सम्यक्त्व के होने पर सभी गुण निर्मल हो जाते हैं । जैसे स्वास्थ्यादि से उत्पन्न होनेवाला हर्ष बताया नहीं जा सकता है । हर्ष तो मन-वचन-काय की चेष्टाओं से प्रकट हो जाता है । हर्ष मन-वचन-काय की चेष्टाओं से उत्साहादि संचारी भावों के द्वारा लक्षित होता है वस्तुत: हर्ष दुर्लक्ष्य है । इसी प्रकार सम्यक्त्व तो दुर्लक्ष्य है, सम्यक्त्व कैसे समझ में आयेगा? अनुभूति श्रद्धा आदि बाह्य लक्षणों द्वारा सम्यक्त्व लक्षित होता है । स्वानुभव ज्ञान की पर्याय है । स्वानुभव से सम्यक्त्व जाना जाता है । यहाँ शंकाकार कहता है कि साक्षात् आत्मा के अनुभव को तो सम्यग्दर्शन मानो । मिथ्यादृष्टि के स्वानुभव होता ही नहीं है, अत: स्वानुभव को मानो । फिर आप स्वानुभूति को सम्यक्त्व का बाह्य लक्षण क्यों कहते हैं? समाधान:—यह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि ऐसी धारणा में प्रतीत होता है कि तुम सामान्य विशेष के लक्षणभूत साकार-अनाकार के विषय में अनभिज्ञ हो । अत: यहाँ पर साकार और अनाकार का लक्षण कहते हैं । जैसे गौ विशेष साकार है; गोसामान्य अनाकार है । गोसामान्य जातिवाचक नाम है । शंका:—गोसामान्य के जानने पर भी तो कुछ रूपक प्रतीत होता है । उत्तर—जब कुछ मुकाबला रखकर देखे तब रूपक प्रतीत हो जाता है सो उस समय विशेष की दृष्टि आ जाती है । ऐसे लोग जो सामान्य को थोड़ा बहुत समझते हैं, वे विशेष से मिला जुला ही समझते हैं । सामान्य वस्तु का तत्त्व है । 890-आत्मगुणों में साकारता व निराकारता—आकार माने अर्थविकल्प है । अर्थविकल्प ज्ञान की चीज है; ज्ञान की समस्त पर्यायें विशेष से संबंधित हैं । सामान्य के विचार का भी कोई रूपक हो सकता है, परंतु सामान्य का कोई रूपक नहीं है । स्व पदार्थ या पर पदार्थ—दोनों ही अर्थ कहलाते हैं । ज्ञान ही उपयोग सहित अवस्था को विकल्प कहते हैं । चाहे स्व पदार्थ में विकल्प लगाओ, चाहे परपदार्थ में विकल्प लगाओ, दोनों को ही अर्थविकल्प कहते हैं । अर्थविकल्प ज्ञान की ही पर्याय है । अब अनाकार को जानिये—जिसका कोई आकार न हो उसे अनाकार कहते हैं । ज्ञान ही सविकल्प है । अन्य शेष गुण निर्विकल्प हैं । सब गुणों का अनुभव चूंकि ज्ञान है अत: सविकल्प है । सम्यक्त्व और चारित्र व अन्य सभी गुण निर्विकल्प हैं । अनाकारता होना अनंत गुणों का लक्षण है । केवल ज्ञान ही साकार होता है । इतना सिद्ध कर चुकने पर—साकार ज्ञान की अवस्थायें हैं, अनाकार शेष गुणों की अवस्थायें हैं—यहाँ एक जिज्ञासु ने शंका की है—शंका—विशेष के समान सामान्य भी तो वास्तविक चीज है । फिर किसी को साकार और किसी को अनाकार क्यों कहते हो? समाधान:—ज्ञानं सामान्यवत् विशेषवत् अस्ति । सभी चीजें सामान्य धर्म से युक्त हैं, और विशेष धर्म से सहित हैं । ज्ञान सामान्य अनाकार है और ज्ञान विशेष सविकल्प साकार है । चेतना सामान्य अनाकार है । चेतना विशेष साकार भी है व अनाकार भी है । वस्तुत: सामान्य अनिर्वचनीय है । ज्ञान के बिना शेष गुण निर्विकल्प होने से अनाकार हैं । ज्ञान के बिना शेष गुण विशेष और सामान्य दोनों अपेक्षाओं से निराकार हैं । अत: स्वानुभव और श्रद्धान या प्रतीति करना सम्यग्दर्शन नहीं है—ज्ञान की ही पर्याय है । 891-यह जीव राग द्वेष, ज्ञान आदि सब खुद में ही करता है—इससे प्रकट होता है कि प्रत्येक आत्मा अपने गुणों से तन्मय है । इससे पर का द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव अलग है । अत: एक आत्मा का दूसरे आत्मा से मोह नहीं हो सकता है । एक आत्मा का दूसरे आत्मा से राग नहीं हो सकता एक दूसरे से द्वेष नहीं हो सकता, एक आत्मा दूसरे आत्मा को ज्ञान नहीं दे सकता । एक आत्मा दूसरे आत्मा को अच्छे या बुरे मार्ग में नहीं लगा सकता । जीव जो करता है, सब अपने प्रति करता है; दूसरे के प्रति कुछ नहीं कर सकता है । एक आत्मक्षेत्र से द्वेष निकलकर दूसरे जीव में नहीं पहुँच सकता है । लेकिन फिर भी मोही राग में फंसा रहता है । सम्यग्दृष्टि सोचता है कि हमारे में जो परिणमन नहीं होगा, वह तुम्हारे करने से नहीं हो सकता । मैं दुनियाँ में कुछ नहीं करता, न किसी से राग करता न द्वेष । न मैं किसी को सुखी करता, न किसी को दुःखी । लेकिन दुनिया के लोग दुनिया को अपने उपयोग में फंसाये हुए हैं । ज्ञान गुण सविकल्प हैं, शेष गुण निर्विकल्प होते हैं । सम्यक्त्व गुण और सम्यक्त्व की पर्यायें निर्विकल्प हैं । जिसके होने पर हमारी बुद्धि ठीक चले, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं । 892-धर्मोत्साहन—धर्म कमर कस के करो । हम जिंदा हैं तो धर्म पाने के लिये ही हैं । धर्म सीखने के लिये तन-मन-धन-वचन सब न्यौछावर करो, और कमर कस के उत्साहपूर्वक तैयार हो । हमारा उद्देश्य ही ज्ञान है । ज्ञान तो परभव में भी काम दे सकता है, परंतु यश, धन ये क्या करेंगे । ज्ञानाभ्यास करे मन मांही, ताके मोह महातम नाहि सम्यग्दर्शन दुर्लक्ष्य है, उसकी प्ररूपणा ज्ञान द्वारा ही होती है । क्योंकि निर्विकल्प वस्तु को नहीं कहा जा सकता, उसका उल्लेख ज्ञान द्वारा ही किया जाता है । अनुभूति प्रतीति, श्रद्धान ये सब ज्ञान की ही पर्याय हैं । जैसे हर्ष मन-वचन-काय-मुखाकृति इन चिह्नों से बताया जा सकता है; हर्ष स्वयं को कोई नहीं बता सकता है । उसी प्रकार सम्यग्दर्शन भी निर्वाच्य है, उसको ज्ञान के द्वारा ही बताया जा सकता है । ज्ञान एक साथ स्व और पर को जान जाता निश्चय से आत्मा का एक ज्ञान गुण स्वार्थ है और स्वार्थ से संबंध रखनेवाले सुखादि अन्य गुण परार्थ हैं । जब ज्ञान आनंद का स्वयं अनुभव करता है, तो वह अनुभव तो स्वयं ज्ञान है परंतु आनंद ज्ञान से पर है । ज्ञान से जब सम्यक्त्व का अनुभव किया तो ज्ञान ज्ञान के लिये स्व है और सम्यक्त्व के लिये पर है । ज्ञान ने जितने भी अन्य गुणों का अनुभव किया, तब ज्ञान ज्ञान के लिये स्व है और शेष गुणों के लिये पर है । जैसे ज्ञान ने सुख जाना तो ज्ञान सुखमय नहीं होगा, ज्ञान ज्ञान रहा सुख सुख रहा; वे दूसरे में एकमेक नहीं हो गये । उसी प्रकार ज्ञान ने सम्यक्त्व जाना तो सम्यक्त्व सम्यक्त्व ही रहा, ज्ञान ज्ञान ही रहा, ज्ञान सम्यक्त्वमय नहीं हो गया । 893-सम्यक्त्व अनिर्वचनीय है, अत: वह ज्ञान के द्वारा ही निरूपित होता है:—वस्तुत: सम्यग्दर्शन अनिर्वचनीय है, सूक्ष्म है—अत: उसको कहने का और सुनने का कोई अधिकार नहीं है । यदि तुम्हें सम्यक्त्व की चर्चा करनी है तो चर्चा ज्ञान द्वारा ही करोगे । सम्यग्दर्शन ज्ञान से निरूपित होता अब अपने आपको ऐसा अनुभव किया जाये कि मैं ज्ञानमात्र हूँ ज्ञान मेरा सर्वस्व है ज्ञान के अतिरिक्त मेरा कुछ नहीं है, शरीर का एक अणु भी मेरा नहीं है । सब जीवों की सबकी अलग-अलग परिणतियां हैं । हम उनका भाव अपने उपयोग में क्यों लायें । मैं तो ज्ञानमात्र हूँ । विकल्प भी मेरा स्वभाव नहीं है, ये भी निमित्त नैमित्तिक भाव से ही आते हैं । विकल्पों का करने वाला मैं स्वयं नहीं हूँ । मैं ज्ञानरूप हूँ, ज्ञान ही मेरा स्वभाव है, मैं अन्य रूप नहीं हो सकता ऐसी भावना भाने से सुख मिलता है, मोक्ष मिलता है । बड़े-बड़े तीर्थंकरों ने अपने को अकिंचन अनुभव करने के लिये राज्यादि वैभव को छोड़कर, जंगल में जाकर तपस्या करके अपने को ज्ञानमय, अकिंचन अनुभव किया । जैसे किसी व्यक्ति ने दसों रोजगार किये; पहला किया, बदल दिया, दूसरा बदला, तीसरा बदला, इस प्रकार नौ रोजगार तक उसने बदल दिये, लेकिन वह दसवें रोजगार को डटकर प्रसन्नतापूर्वक करने लगा । इसका मतलब हुआ कि उस व्यक्ति के लिये दसवें में लाभ हुआ अन्य नौ में हानि हुई; अत: उसने दसवां अपनाया । इसी प्रकार तीर्थंकरों ने विवाह किया स्त्री सुख भोगा, राज्यसुख भोगा, लेकिन उनको इनमें लाभ जब दृष्टिगोचर नहीं हुआ तो उन्होंने वन में जाकर तपस्या करके अपने को ज्ञानमय, अकिंचन अनुभव किया । फिर उन्होंने उसे नहीं छोड़ा, पुन: गृहस्थ नहीं हो गये । इसका कारण था कि उन्हें इसी में कल्याण दिखाई दिया यही अच्छा लगा, इसी में उन्हें लाभ दिखा । तीर्थंकरों ने अनुभव किया—मैं अकिंचन हूँ, ज्ञान ही मेरा स्वभाव है, अन्य मेरा स्वभाव नहीं है । आखिरी काम उनका अपने को ज्ञानमात्र और अकिंचन अनुभव करना था अत: सर्वश्रेष्ठ यही आखिरी काम सिद्ध होता है । मरने के बाद ऐसा बनेंगे, उसका निर्णय वर्तमान के भाव कर रहे हैं । मोह के भाव करने से दुर्गति प्राप्त होती है, अच्छे भाव करेंगे तो सुगति मिलेगी । अच्छा विवेक वह है, जो पर भव की बात भी सोचे। ज्ञान को छोड़कर आगामी भव में भी कोई मेरा सहाय नहीं है । मेरा मददगार मैं ही हूँ, भगवान भी मेरा रक्षक नहीं है । अपने जिम्मेदार हम स्वयं हैं, अन्य किसी पर हमारा उत्तरदायित्व नहीं है—ऐसा दृढ़ विश्वास रक्खो । पति की रक्षा पत्नी नहीं कर सकती, पिता की रक्षा पुत्र नहीं कर सकता; पुत्र की रक्षा माता-पिता नहीं करते। दुनिया के अंदर मैं ही अपने खुद का सिंह हूँ । जो व्यक्ति अच्छे मार्ग के लिये भाव करता है, उसे अच्छा फल प्राप्त होता है ।