वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 33
From जैनकोष
जिदमोहस्स हु जइया खीणो मोहो हवेज्ज साहुस्स ।।
तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहिं ।। 33 ।।
862-हे नाथ ! आप जितमोह हैं—मोह के जीतने से जितमोह कहलाता है । आत्मा का विभावभाव मोह कैसे जीता जाता है? यदि मोह आत्मा में निरंतर उभर रहा है तो मोह को जीता ही क्या? यदि आत्मा में बिल्कुल भी मोह नहीं है तो जीतना किसका? आत्मा में मोह का कोई परिणमन हो रहा है, उस समय मोह से भिन्न आत्मा के स्वभाव को परखे, वही मोह का जीतना हुआ । मोह ज्ञान स्वभाव के द्वारा ही जीता जा सकता है । ज्ञान स्वभाव इतना निर्मल हो जाये कि सारे विश्व के पदार्थों को जानकर भी उनमें न रमे । ज्ञान स्वभाव प्रत्यक्ष प्रकट है, अंतरंग में प्रकाशमान है, अविनाशी है, स्वत: सिद्ध है ऐसे ज्ञान स्वभाव भगवान् हैं । भग= ज्ञान, वान्=वाला, ज्ञान वाले को भगवान् कहते हैं । ज्ञानस्वभाव के द्वारा अपनी आत्मा को संचेतन करना । जो उस ज्ञान स्वभाव के द्वारा अन्य पदार्थों को जानकर भी अन्य पदार्थों से अपने को भिन्न अनुभव करता है, उसे जितमोह कहते हैं । हे नाथ ! आप जितमोह हैं, आपको बारंबार नमस्कार हो । इस प्रकार यह भगवान की निश्चय स्तुति की । 863-जितमोहता के विकास—इसी प्रकार हे नाथ ! आप जितराग हैं, जितद्वेष हैं । इसी प्रकार क्रोध भी भावक बन रहा है, इस क्रोध का आक्रम्य आत्मा हो रहा है । जो इस आत्मा के स्वभाव को पहिचानकर इस क्रोध से पृथक् चैतन्य स्वभाव को अनुभव करे, उसे जितक्रोध कहते हैं । इसी प्रकार भगवान् जितमान, जितमाया, जितलोभ आदि के जीतने वाले हैं । जो शरीर से जुदा आत्मा को अनुभव करे उसे जित-शरीर कहते हैं । जो मन से जुदा आत्मा के अनुभव करे उसे जितमन कहते हैं । जो विकारभाव अपनी आत्मा में मौजूद हैं, उनको जीतो तो जीतना कहलाया। लेकिन जो आत्मा में है ही नहीं उसे क्या जीतोगे? सो विभाव किसी रूप में पाते हैं उनसे भिन्न ज्ञानमय अपने को चेतना; विभाव का जीतना है । वचन से भिन्न अपनी आत्मा का अनुभव करो उसे जितवचन कहते हैं । चैतन्य स्वभाव की दृष्टि से समीप या दूरवर्ती सब पदार्थों को जीता जा सकता है और जीता जा सकता है चैतन्य का तरंग । इस तरह हे आत्मन् ! आप जितकषाय हो कषाय के प्रभाव से ही विषयानुभव होता है । जो जितकषाय है वह जितविषयी है । अथवा भेदविज्ञान के प्रताप से जो जितविषय होता है वह जितकषाय हो जाता है। हे प्रभो ! तू सहजसिद्ध है तुझमें न तो कर्म कलंक हैं, न नोकर्म मिश्रण है और न औपाधिक सजिनता है । तू शुद्धसंतक है तू अपने ही प्रभाविष्णु स्वरूपास्तित्व से तन्मय है, तुम में अन्य वस्तु का प्रवेश नहीं । अतएव तू जितश्रोत्र है, जितनेत्र है जितघ्राण है जितरसन है जितस्पर्शन है । आत्मा में अनगिनते अध्यवसान हैं । उन सब अध्यवसानों से पृथक् आत्मस्वभाव को जानकर ज्ञानमय आत्मतत्त्व का अनुभव करता है वह उन समस्त विभावों का विजयी है । जितमोह 10 वे गुणस्थान तक हो सकता है । मोह आत्मा के पर्दे पर उछल रहा है, वही जीता हुआ हो सकता है । मोह को विवेक से जीतो वही मोह का जीतना कहलाया । इस प्रकार आचार्य ने दो प्रकार की निश्चय स्तुति की । अब ग्रंथकार भगवान की तृतीय प्रकार की निश्चय स्तुति करते हैं—जीव ज्ञेय ज्ञायक संकर के मानने से ही संसार में रुलता है । भगवान ने सबसे पहले ज्ञेय ज्ञायक-संकर को जीता फिर भगवान ने भाव्य भावक संकर का भी अभाव कर दिया । ऐसे जीव की क्या अवस्था होती है, उसे समयसार की 33 वीं गाथा में कहते हैं । 864-प्रभु की क्षीणमोहता की स्तुति—जिसने मोह को जीत लिया है; ऐसे साधु के जिस समय मोह क्षीण हो जाता है, ऐसी अवस्था को ज्ञानियों ने क्षीणमोह कहा है । मोह जब जीत लिया गया, इसके बाद वह नष्ट ही तो होगा । क्षीण मोह कैसे बन जाता है, उसे श्री अमृतचंद्रजी सूरि कहते हैं कि जब आपने मोह की इन्सैल्ट (insult) कर दी तो वह अब आत्मा में कैसे रह सकेगा? क्योंकि दुश्मनी बराबरी वालों में होती है । ज्ञान का दुश्मन मोह है जैसे ज्ञान बलिष्ठ है, वैसे ही मोह भी बलिष्ठ है । मोह स्वाभिमानी व इज्जत वाला है । मोह का अपमान करने वालों के पास वह जाकर फटकता भी नहीं है । जो मोह की इज्जत करता है उसी के पास मोह जाकर रहता है । जब भगवान ने मोह का तिरस्कार कर दिया फिर स्वाभिमानी मोह उनके पास क्यों कर जाये? भगवान् ज्ञान स्वभाव से अभिन्न आत्मा के द्वारा जितमोह बने थे अर्थात् मोह को जीता था । मोह से न्यारा अपने आपको अनुभव करना जितमोह बनने का उपाय है । यदि मित्र से मित्रता छोड़ना है तो उसकी ओर उपेक्षा कर दो जब मित्र समझ जायेगा कि इसने मेरी ओर से कुछ उपेक्षा सी कर दी है, देखूँ, पूछूं तो सही, क्या बात है? वह जाकर मित्र से पूछता है कि क्यों भैया ! तुम मेरे से क्यों बात नहीं करते हो मेरे से ऐसा कौनसा बड़ा अपराध हो गया है? यदि वह जित नहीं हुआ तो क्यों पूछता? इसी प्रकार मोह की ओर उपेक्षा करके ही जैसे जीत सकते हो । ऐसे जितमोह के मोह क्षीण हो जाता है । जो मोह अभी तक भावक बन रहा था, उस मोह को कभी भी आत्मा में उत्पन्न न होने देना, मोह का क्षीण होना है । मोह के क्षीण होने पर वह कभी दुबारा उत्पन्न नहीं होता है, यदि मोह की संतान का मूल से नाश कर दिया जाये । मोह की संतान धर्म करने से दूर हो सकती है । धर्म करना बहुत सरल है; क्योंकि वह एक ही प्रकार का है, और उनके करने का उपाय भी एक ही है । उसका उपाय है कि अखंड स्वभाव के भाव की भावना भावो । जब आत्मा से मोह क्षीण हो गया तब भगवान् टंकोत्कीर्ण की तरह में निश्चल हो गये । 865-ज्ञानस्वभाव की टंकोत्कीर्णवत् निश्चल—जैसे टांके से उकेरी गई प्रतिमा निश्चल है, जो अंग बन गया उसे टस से मस नहीं कर सकते, वह जरा भी चलायमान नहीं हो सकती; इसी प्रकार यह परमात्मा जिसे क्षीण मोह बनकर प्राप्त किया है वह भी निश्चल हो गया है । अन्यच्च वह परमात्मा जिसे प्राप्त किया है, वह जीव के अंदर शुरू से ही है । जैसे कोई बड़ा पहाड़ है, उसमें से यदि कोई मूर्ति निकाली जाये, वह उसमें अब भी मौजूद है । वह स्पष्ट इसलिए नहीं दिखाई दे रही है कि वह अगल-बगल के पत्थरों से ढकी हुई है कारीगर मूर्ति नहीं बनाता बल्कि वह मूर्ति के ढकने वाले पत्थरों को निकाल देता है तो मूर्ति स्पष्ट दिखाई देने लगती है । इसी प्रकार परमात्मा पद को कोई नहीं बनाता, परमात्मा स्वरूप पहले से ही है । आत्मा के बीच में आये हुए राग-द्वेष को दूर कर दो परमात्म पद प्रकट हो ही जायेगा । इसका उपाय भाव्य-भावक भाव का अभाव है । अत: भाव्य भावक को नष्ट करो । पहले दर्शन मोह का भाव्य भावक नष्ट हुआ फिर ज्ञेयज्ञायक संकर नष्ट हुआ । तदनंतर चारित्र मोह का भाव्य-भावक नष्ट हुआ । इस विधान से आत्मा सर्वज्ञ और आनंदमय हो जाता है । देह और इंद्रियों से ज्ञान और आनंद नहीं होता है, परंतु ज्ञान और आनंद ज्ञान और आनंद से ही होता है । आनंद ज्ञान तो आत्मा के धर्म हैं, क्योंकि वे द्रव्योपजीवी हैं । जो शुरू से आखिर तक द्रव्य में तन्मय रहे, उसे द्रव्योपजीवी कहते हैं । 866-आनंद और ज्ञान अनादि से द्रव्य के आश्रित—शंका:—शंकाकार कहता है कि हम और आपके तो ज्ञान और आनंद वर्तमान में देह और इंद्रियों के निमित्त से ही हो रहा है ना? समाधान:—नहीं । मतिज्ञान होने के समय भी ज्ञान (आत्मा) उपादान कारण है इंद्रियाँ निमित्त कारण हैं, उससमय इंद्रियां और देह के रहते भी आत्मा से ही जाना । जीव संसारी हो चाहे मुक्त वह ज्ञान स्वभाव वाला ही होता है । संसार अवस्था में भी ज्ञान और आनंद आत्मा से ही प्रकट होते हैं । परंतु मोही आत्मा बाह्य पदार्थों से ज्ञान व सुख को प्रकट हुआ मानता है । आत्मा का सुख आत्मा से ही होता है, यह सिद्ध है जैसे ठंडे स्पर्श को पाकर जो सुख हुआ, उससे जीव ही सुखी होता है स्वयं जल नहीं । अत: उस जीव के सुखी होने में ये अचेतन स्पर्शादिक पदार्थ क्या कर देंगे? स्पर्शनादि बाह्य पदार्थ यदि स्वत: ज्ञान को उत्पन्न करते हैं, तो घटादिक अचेतन पदार्थों में ज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न कर देते यदि स्पर्शादि ज्ञान उत्पन्न करने लगें तो अजीवादि में ज्ञान होने का प्रसंग आ जायेगा । अत: सिद्ध हुआ कि ज्ञान और आनंद आत्मा से ही प्रकट होते हैं । यदि यह कहो कि ये पदार्थ चेतन द्रव्य में ही ज्ञान उत्पन्न कर सकते हैं तो चेतन जब स्वयं चेतन है तो उसमें अचेतन द्रव्य क्या ज्ञान उत्पन्न करेंगे? अत: सिद्ध हुआ कि ज्ञान होने में इंद्रिय और देह अकिंचित्कर है । ज्ञान उत्पन्न करने में इंद्रियां कुछ भी मदद नहीं करती हैं । आत्मा के ज्ञान के विषय में इंद्रियां कुछ भी नहीं करती, आत्मा स्वयं ज्ञान कर लेता है । यदि ऐसा कहें कि देह और इंद्रियों के होने पर ही आत्मा में सुख होता है, अत: इन्हें अकिंचित्कर मत कहो तो व्यंजक द्रव्य की अपेक्षा रखने पर ही साधक हेतु हो सकता है । शंकाकार के मत में इंद्रियां व्यंजक हैं और आत्मा के सुख और ज्ञान अभिव्यंजय है । लेकिन आत्मा में ज्ञान गुण था, तभी तो प्रकट हुआ । जैसे— ऊदबत्ती में आग लगने पर गंध आती है । ऊदबत्ती में गंध थी तभी तो गंध आई । गंध ऊदबत्ती की है, आग की नहीं । इसी प्रकार देह और इंद्रियां ज्ञान सुख के अभिव्यंजक हैं । आत्मा में ज्ञान गुण होगा, तभी तो प्रकट होगा । ज्ञान तो आत्मा का स्वभाव है । उपादान के बिना कार्य नहीं हो सकता । जैसे ऊदबत्ती के बिना अग्नि से गंध नहीं निकल सकती, उसी प्रकार आत्मा के बिना शरीरादि से ज्ञान प्रकट नहीं हो सकता है । अत: सिद्ध हो गया कि समस्त जीवों के ज्ञान सुख आत्मा से ही उत्पन्न होता है । 867-क्षीणमोहता का विस्तार—हे भगवन् ! आपने मोह क्षीण कर दिया आप क्षीणमोह हैं इसी कारण आपकी आत्मा ने समस्त ज्ञान को प्राप्त कर लिया है । यह भगवान की तीसरी निश्चय स्तुति की जा रही है । भगवान् आत्मा ने जब जितेंद्रिय व जितमोह बनकर मोह का तिरस्कार कर दिया तब यह प्रभु स्वभावभावना की ही परम कुशलता से ऐसी निर्मलता प्राप्त करता है कि फिर मोह कभी उत्पन्न ही न हो सके ऐसा क्षीण हो जाता है अर्थात् मोह क्षय को प्राप्त हो जाता है । तथा भाव्यभावक भाव के अभाव से अर्थात् न मोहनीय कर्म रहा न मोह रहा न उनकी भाव्यभावकता रही इस कारण से भगवान् आत्मा अपने एकत्व में (स्वरूपास्तित्व में) परमात्मतत्त्व को प्राप्त होकर क्षीणमोह हो जाते हैं । क्षीण मोह ही नहीं, किंतु क्षीणराग, क्षीणद्वेष, क्षीणक्रोध, क्षीणमान, क्षीणमाया, क्षीणलोभ, क्षीणकर्म, क्षीणशरीर, क्षीणमन, क्षीणवचन, क्षीणकाय, क्षीणश्रोत्र, क्षीणनेत्र, क्षीणघ्राण, क्षीणरसन, क्षीणस्पर्शन इत्यादि कहाँ तक कहें क्षीणविभाव हो जाता है । उक्त विशेषणों में से क्षीणमन, क्षीणवचन, क्षीणकाय तो योगों की अपेक्षा से है सो भी भाव्यभावकता का अभाव होने से नाशोन्मुखता के प्रोग्राम में कहा गया है । भाव्यभावकता के अभाव से विशीर्ण होने के कार्यक्रम में ही क्षीणकर्म व क्षीणशरीर कहा है । क्षीणक्रोध, क्षीणमान, क्षीणमाया, क्षीणद्वेष तो यह प्रभु नवमे गुणस्थान वाले विकास में ही हो जाता है व क्षीणराग व क्षीणलोभ दशवें गुणस्थान वाले विकास में हो जाता है । क्षीणश्रोत्रादिक विवक्षांतर 7 वें से लेकर दशमे गुणस्थान तक बीच में कहा जाता है । ये सब गुणस्थान क्या हैं? स्वभाव भावना के दृढ़ दृढ़तम अवलंबन के रूप हैं । निर्दोषता स्वभावावलंबन से प्रकट होती है यह इस सबका निष्कर्ष है सो स्वभावावलंबन द्वारा निर्दोष बनकर सदा के लिये अनंतानंदी जैसे भगवान केवली हुए हैं उसी मार्ग का अवलंबन लेकर हम भी कृतार्थ हों । हे प्रभो ! अन्य निर्दोषता और स्वभाव विकासपने की मूर्ति हो तुम्हें भाव वंदना हो । यहाँ निश्चय स्तुति का वर्णन 3 प्रकार से किया । निश्चय स्तुति से पहले व्यवहार-स्तुति का वर्णन किया गया था । व्यवहार स्तुति में शरीर की स्तुति की गई थी । इस प्रकार की व्यवहार-स्तुति भी भगवान की आत्मा के वास्तविक गुणों को समझने वाले के लिये है । शरीर की स्तुति व्यवहार-स्तुति इस कारण से है वास्तव में शरीर का और आत्मा का एकत्व नहीं है, व्यवहार से आत्मा और शरीर की एकता मान ली गई है:—क्योंकि लोक में शरीर और आत्मा मिला हुआ प्रतीत होता है तथा उनकी प्राय: क्रियायें भी साथ ही साथ देखी जाती है अत: शरीर और आत्मा में व्यवहार से एकत्व है । अत: भगवान के शरीर की स्तुति करके भगवान की स्तुति मान लेना व्यवहार से ठीक है । निश्चय से तो भगवान की आत्मा के गुणों के वर्णन से ही भगवान की स्तुति होती है । वास्तव में शरीर और आत्मा का एकत्व नहीं है, ऐसा समझना चाहिए । भगवान की भक्ति के बहाने से शरीर और आत्मा का एकत्व व्यवहारनय से है; निश्चय-नय से नहीं है । निश्चयनय में तो शरीर और आत्मा अलग-अलग हैं, ऐसा प्रकट किया गया है । 868-अविवेक में ही शरीर को आत्मा की समझ—जिनकी बुद्धि अज्ञान में मोहित है, वे शरीर को ही आत्मा मानते हैं । वास्तव में शरीर और आत्मा में एकत्व नहीं पाया जाता । शरीर जुदा है और आत्मा जुदा । शरीर अपने गुण पर्यायों में है; आत्मा अपने गुण पर्यायों में । जिन्होंने तत्त्व को (तस्य भावस्तत्त्वम्=वस्तुस्थिति) को जान लिया है, वे नयविभाग बल से शरीर और आत्मा की एकत्व की मान्यता का विनाश कर देते हैं । अर्थात् शरीर और आत्मा निश्चयनय से न्यारे-न्यारे हैं, व्यवहार से ही उनका एकत्व है; तत्त्वज्ञ ऐसा जानता है । जैसे सूत परमाणुओं का समूह है । निश्चयनय से सूत परमाणुरूप है; व्यवहार से सूत सूतरूप है । शरीर और आत्मा एकसाथ रहते हैं, अत: व्यवहारनय से उनको एक मान लिया है; निश्चय से शरीर अलग और आत्मा अलग है—ऐसी भिन्नता जिसने जान ली है, क्या उन जीवों का यह ज्ञान ज्ञानपने को प्राप्त नहीं होगा? अर्थात् अवश्य होगा । उनका ज्ञान शुद्ध है व्यवस्थित है । अपने में यह विश्वास होना चाहिए कि शरीर और आत्मा अपने-अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से हैं, पर के द्रव्य-क्षेत्र-काल भाव से नहीं हैं, अत: वे न्यारे-न्यारे हैं । जब ज्ञान हो जाता है तब सुख मिलता है । यदि अपने से परिचय करना है तो आत्मा और शरीर को न्यारा-न्यारा देखो । जिन्होंने उनको न्यारा जान लिया है, उनका जानना जानना है । वह ज्ञान एकस्वरूप है । इस प्रकार भगवान की व्यवहार-स्तुति और निश्चय स्तुति के प्रकरण में आचार्य देव ने यह सिद्ध करा दिया कि वास्तव में आत्मा और शरीर एक नहीं है; व्यवहार से उनमें एकत्व है । शरीर और आत्मा व्यवहारनय से तब एक हैं, जबकि वह निश्चय से शरीर और आत्मा की भिन्नता जानता हो । यह जीव अनादिकाल से मोह वश शरीर और आत्मा में एकत्व मानता चला आ रहा है; अत: वह अज्ञानी कहलाता है परंतु उसको यह पता नहीं एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का कैसे हो सकता है; सब न्यारे-न्यारे हैं । जिस को आत्मा और शरीर की भिन्नता मालूम हो गई, उनके समस्त विकल्प और उपद्रव नष्ट हो जाते हैं । यदि उनमें यह बात आ गई तो उनकी आत्मा का कल्याण अवश्य हो जायेगा । और कैसे आत्मा का कल्याण हो, यही लगन लगी रहेगी । मैं कैसे उस निर्विकल्प स्वानुभव का अनुभव करूँ इसी के ध्यान में समय व्यतीत होगा, जब निर्विकल्प ध्यान न रहेगा । 869-ज्ञान प्रसाधन—प्रश्न—यदि कोई जीव अनादि से अज्ञानी है, क्या वह ज्ञानी नहीं हो सकता है? उत्तर:—क्यों नहीं, अवश्य ज्ञानी बन सकता है । ऐसा लोक भी देखा जाता है कि कारण पाकर ज्ञानी बन जाते हैं । जब तत्त्वज्ञान की ज्योति आत्मा में वेग से उत्पन्न होती है तब जीव ज्ञानी हो जाता है अज्ञानी भी ज्ञानी हो सकता है, अतएव पाप से घृणा करो, पापी से नहीं । वह पापी भी देखते-देखते कारण पाकर ज्ञानी बन सकता है । आत्मा में ज्ञानज्योति कह कर नहीं आती है, किंतु स्वयमेव उत्पन्न हो जाती है । हां, पापी के पाप के ज्ञाता-दृष्टा बनो कि देखो यह जीव मोह के वश से कैसा परिणम जाता है । साथ ही अपने पाप से घृणा करो, अपने में पाप को आने ही न दो । वर्तमान में भी जैसा कि यदि लोग समझते हैं कि मैं मोक्ष के सही रास्ते पर चल रहा हूँ, मैं अपने पथ से च्युत नहीं हूँ यह सोचकर संतुष्ट हो जाते हैं, प्रगति के लिये चिंतन नहीं रहता तो उनका यह संतोष ज्ञान संगत नहीं है, उनको इस अज्ञानता के लिये अब भी रोना चाहिए । थोड़ा-सा त्याग करने पर लोग उसी को धर्म की चरम सीमा मान करके संतुष्ट हो जाते हैं लेकिन वे यह सोचकर ठीक पथ पर नहीं चल रहे हैं वे यह नहीं जानते कि निरंतर चैतन्य स्वभाव की दृष्टि बना रहना ही धर्म है, इस के अलावा धर्म नहीं है । 870-प्रभु की क्षीणमोहता—भगवान जिनेंद्र देव ने पहिले तो इंद्रियों पर विजय प्राप्त किया । इंद्रियाँ हैं जड़, भावेंद्रिय हैं खंडरूप, ये सब विषय कहलाते हैं संग कीच पंक । उन सबसे निराला ज्ञानमात्र अपने आपको तके तो समझिये कि इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर लिया । फिर भगवान ने मोह पर पूर्णरूप से विजय किया । यह मोहभाव विकारभाव है । प्राणियों के अज्ञान से मोहकर्म के उदय से यह मोह भाव प्रकट होता है । मोह असार है, कर्म असार भिन्न है, अज्ञान मिथ्याभाव ये सब एक स्वप्नवत् हैं, यह सब जानकर अपने आपको ज्ञानमात्र पहिचानकर प्रभु आप अपने ही इस ज्ञानमात्रस्वरूप में रम गए, इससे मोहभाव आपका नष्ट हो गया । जब यह मोह भाव नष्ट हो जाता है तो प्रभु को कहते हैं क्षीणमोह मोक्षमार्ग में जो चलता है वह प्रथम साधु होता है, तब से ये सब विजय प्रारंभ होते हैं । तो प्रथम तो इंद्रियविजय पर पूर्ण अधिकार पाया । यद्यपि ऐसा नहीं है कि पहिले इंद्रियविजय करें फिर मोहविजय करें । सबका विजय एक साथ चलता है, पर इंद्रियों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेना यह पहिली बात बनती है । 7 वें गुणस्थान तक यह बात बन चुकती है । तब ऊपर की श्रेणियों में 8 वें, 9 वें, 10 वें गुणस्थानों में जो आत्मा में अबुद्धिपूर्वक राग-द्वेष के विकल्प चल रहे थे उनको जीतने का कार्य तेजी से चलने लगा । प्रभु शुक्ल ध्यान में विशेष बढ़ने लगे तो इस शुक्लध्यानरूप अग्नि से ये रागद्वेषादिक ईंधन भस्म हो गए तब प्रभु क्षीणमोह हुए अर्थात् 12 वें गुणस्थान में आये । यह प्रभु के आत्मा की बात कही जा रही है, और परमात्मा के आत्मा की बात कहना वह निश्चय स्तवन है । और, शरीर की, कुल की, जाति की, उनके चारित्र आदि की बातें बताना, यह व्यवहार स्तवन है । प्रभु ने इंद्रियविजय के विधान से, मोह को जीतने के विधान से जब ही पूर्णरूप से ज्ञानस्वभावमात्र आत्मा का संचेतन किया तब अपने ज्ञानस्वभाव में उपयोग बनाये रहने की धारा एक रूप से चल पड़ी । अब वे निरंतर अपने को ज्ञानमात्र अनुभवन करने लगे हैं । इस विधि से उनका मोह पूरा दूर हो गया तब वे क्षीणमोह कहलाये । सारा मोह दूर हो गया तो समझिये कि सभी दोष दूर हो गए । समस्त आकांक्षायें, समस्त राग-द्वेष, समस्त कषायें, निमित्तभूत सब बातें उनकी दूर हो गई । यह है भगवान की निश्चय-स्तुति । यह बात चल रही थी इस प्रसंग पर कि आत्मा देह से निराला है । 871-भ्रम का और प्रभुदर्शन का जुदा जुदा प्रभाव—संसार के सभी प्राणी भ्रम के चक्कर में पड़े हैं आत्मा को देहरूप मान रहे हैं और इसी कारण अपने-अपने शरीर में कैसा उन्हें विशिष्ट प्रेम हो गया है, दूसरे कुछ नहीं जच रहे, दूसरे के दुःख सुख को ज्यादह महत्त्व नहीं रख रहे, स्वयं को कोई क्लेश आये तो ये परेशान हो जाते हैं और उसे दूर करने के लिए अथक प्रयत्न करते हैं । कैसा अपने शरीर से मोह हो गया । वृद्ध भी हो गए तब भी यदि दर्पण मिल जाये तो उस दर्पण में चेहरा देखने को जी चाहता है । अरे भाई हड्डियाँ निकल आयीं, आंखें धस गई, इंद्रियाँ काम नहीं करती फिर भी शरीर से बड़ा मोह रहता है । तो शरीर कैसा भी हो जाये पर उससे बड़ा मोह रहता है । और, फिर जब शरीर के बंधन में हैं, शरीर से निराला समझने का ज्ञान है नहीं, ज्ञानमात्र जो निज आत्मा का स्वरूप है उसमें दृष्टि न जाये तो करे क्या? कहाँ रमे? अपने बंधन में जो देह है उसमें रमने लगता है । तो बात यहाँ यह है कि शरीर और आत्मा व्यवहार से तो एक हैं, क्योंकि यदि व्यवहार से एक न माने जाये तो फिर हर एक कोई इस ज्ञान की दुहाई देकर जिस चाहे को मारने लगे । कोई कहे भाई क्यों मारते हो? अरे इस शरीर से तो आत्मा निराला है, शरीर मर गया तो उससे आत्मा का क्या बिगड़ा । आत्मा तो कभी मरता नहीं, तो यों तो हिंसा करने की युक्ति बडा ली जायेगी । देह और जीव ये व्यवहारनय से एक हैं, पर निश्चय से एक नहीं है । स्वरूप इन दोनों का न्यारा-न्यारा है, इस कारण चैतन्य भगवान की स्तुति करने से भगवान की स्तुति कहलाती है । शरीर चारित्र आदिक के स्तवन से भगवान की स्तुति नहीं कहलाती । प्रभु आप वीतराग हैं, राग-द्वेष आदिक कोई भी दोष आप में नहीं रहे । प्रभु आप ज्ञान के पूर हैं ज्ञान ही ज्ञान आप में पड़ा हुआ है । ज्ञान के पुंज को ही तो परमात्मा कहते हैं । जिसमें मोह-अंधकार रंच मात्र भी नहीं है और इसी कारण हे प्रभु ! आप में अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद, अनंत शक्ति प्रकट हो गई है । इतनी बड़ी शक्ति कि अपने उस शुद्ध स्वरूप को अपने आप में बनाये रहे, उससे फिर हटे नहीं, अपने स्वरूप को अपने आप में पकड़े रहे । ऐसा जो अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद आदिक अनंत गुण और विकासों को जो शक्ति बनाये रहे वह शक्ति भी अनंत है । प्रभु को देखें, प्रभु के दर्शन करें, कैसे किया जायगा दर्शन? इन चमड़े की आंखों से नहीं, क्योंकि प्रभु तो अनंत ज्ञान, अनंत आनंद का पिंड है, वह क्या आंखों से दिख सकता है? नहीं । समस्त इंद्रियों का व्यापार बंद करिये, किन्हीं भी बाह्य पदार्थों में कुछ सार नहीं, उनसे मेरा कुछ हित नहीं, इस कारण किसी भी बाह्य तत्त्व में अटक न रखिये एक अपने आप में अपने को निरखिये तो मिलेगा प्रभु, दर्शन होगा प्रभु का । प्रभु का दर्शन अंतर्ज्ञान से हुआ करता है, इस कारण कोई लोक में गरीब हो तो भी प्रभु दर्शन से वंचित न होगा, कोई लोक में धनिक हो तो इस धन के कारण प्रभुदर्शन न कर सकेगा । प्रभुदर्शन का उपाय तो अंतर्ज्ञान है । अपने भीतर के ज्ञान को सम्हालिये और प्रभु का दर्शन कीजिये ।