वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 366
From जैनकोष
दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थिहु अचेयणे विसये।तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तेसु विसयेसु।।366।।
हितसंबोधन―पूज्य श्री कुंदकुंदाचार्यदेव जीव को ऐसी आत्मीयता के साथ समझा रहे हैं, एक जीवतत्त्व के नाते से, जगत् के जीवों को बंधु समझ कर, कैसी अनुराग भरी दृष्टि से समझा रहे हैं जैसे कि लोक में जिसने बहुत-बहुत रक्षा की हो, किसी बंधु की रिश्तेदारी की और वह आत्मीयता से कुछ बात कहे, तो दूसरा भी आत्मीयता के भाव से सुनता है। यों ही आचार्यदेव करूणा करके कह रहे हैं तो सुनने वाले इस दृष्टि के साथ सुनने लगते हैं कि हमारे आचार्यदेव जो कह रहे हैं वह सब हमारे भले की है। आचार्य देव कहते हैं कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र तेरा कुछ भी तो नहीं है इन अचेतन विषयों में। फिर इन अचेतन विषयों में सिर पटक कर क्यों अपना घात करते हो ? अथवा जब इन अचेतन विषयों से तेरे गुण का कोई संबंध नहीं है तो अचेतन विषयों का संग्रह विग्रह संचय विनाश की बुद्धि क्यों बनी है ? क्या विषयों के संग्रह से दर्शन ज्ञान चारित्र में वृद्धि हो जायेगी या इसका विनाश कर देने से कुछ अपने गुणों का विकास हो जायेगा। अरे इन विषयों के कारण तू अपना घात क्यों किए जा रहा है ? ‘‘भोगे तो भोग क्या है, भोगों ने भोगा हमको।’’
विषयों का संक्षिप्त विवरण―भैया ! विषय हैं 5, रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द और इसके अतिरिक्त एक विषय है मन का। वह क्या है ? ऊटपटाँग कल्पनाएँ। इन विषयों में ही तो यह जीव अपनी रोक कर रहा है। यह जीव और कर क्या रहा है सुबह से शाम तक अथवा दूसरी सुबह तक, सिवाय 6 प्रकार के विषयों की धुनि के और यह जीव करता क्या है ? जिसकी जितनी बुद्धि है, जितना जिसका विकास है वह इन्हीं विषयों में रम रहा है। खाना, पीना, कमाना, धरना और आगे। चलो तो लड़ना भिड़ना अथवा रागद्वेष करना वे सब हैं विषयों के आधार पर। इन विषयों में लगाकर केवल अपना घात किया जा रहा है। यह घात विषयों में लगने से नहीं हो रहा है किंतु विषयों को लक्ष्य बनाकर अपने गुणों के विकार परिणमन करने से हो रहा है।
विषयों का आत्मा में अप्रवेश―भैया ! परमार्थ से देखो विषय आत्मा में क्या लग जाते हैं ? भोजन में शब्दादिकों में क्या उपयोग प्रवेश करता है ? ये विषय बाहर ही बाहर लोटते हैं और यह उपयोग अपने आप में गुड़गुड़ाकर दुःखी होता रहता है। जैसे कोई पड़ौस की दो स्त्रियों में लड़ाई हो जाय तो वे स्त्रियां अपने अपने दरवाजे पर खड़े खड़े एक पैर देहरी से बाहर और एक पैर भीतर रखे, देहरी को दोनों पैरों के बीच रखे खड़े खड़े हाथ पसार-पसारकर तेज ग़ुस्से से इस तरह से गालियां और क्रोध भरी बातें करती हैं कि लोगों को ऐसा लगता है कि कहीं से कुश्ती न खेल जायें और एक दूसरे को पीन न डालें। अरे कुश्ती तो दूर रही वे तो देहरी के भीतर का भी पैर बाहर नहीं रख रही हैं, अपने ही दरवाजे पर खड़ी-खड़ी तेज ग़ुस्से से गालियां दे रही हैं। यह एक मोटी बात कह रहे हैं। इसी तरह परस्पर निमित्तनैमित्तिक संबंधवश कुछ भी परिणमन हो रहा हो किंतु प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप के भीतर ही पैर जमाए हुए परिणम रहे हैं। रंच भी तो बाहर नहीं उठते।
परपदार्थ की अत्यंत विविक्तता--यह समस्त वैभव जिसके पीछे आज जगत अंधा हो रहा है, अपना आत्मबल बरबाद किए जा रहा है इन विषयों में हे आत्मन् ! क्यों अपना घात करते हो ? उनमें रखा क्या है तेरा ? पड़े हैं ये बाह्य पदार्थ। आज जिस मकान में तू रहता है कदाचित् किसी कारण बेच दे―गरज के कारण अथवा बहुत मकान हैं तो क्या करेगा, किसी कारण बेच दिया जाय तो फिर उस मकान की ओर तेरी रागदृष्टि फिर रहती है क्या ? मकान तो वही है, पत्थर तो वही है, ढांचा वही है, तो मालूम देता है कि मकान में तेरा कुछ न था। जब भी मकान था अब भी मकान है। तू तो परपदार्थों को लक्ष्य में लेकर केवल अपने उपयोग परिणमन को कर रहा है। आज जिसको तुम अपना लड़का समझते हो, मरकर वही पड़ोस में पैदा हो जाय तो बड़ा हो जाने पर क्या आप उसे अपना समझते हो ? नहीं समझते। अथवा तुम्हारा ही लड़का गुजर कर पड़ोस में क्या जिठानी के भी बच्चा हो जाय तो क्या वह जिठानी उसे अपना समझती है ? नहीं। पर वही तो बच्चा है, मरकर जिठानी के हो गया। अचेतन विषयों में आत्मा के गुणादिक का अभाव―भैया ! किसी में कुछ नहीं हैं तेरा। तू तो अपने राग के बेसमझे प्रभाव में बहा बहा जो सामने आता है जिस पर प्रीति उत्पन्न होती है उसे ही अपना समझने लगता है। इन अचेतन विषयों में न तेरा दर्शन है, न ज्ञान है, न चारित्र है। फिर भी इन विषयों में पड़कर तू अपना घात क्यों करता है ? वर्तमान में बहुत मीठा लग रहा हैं―घर में रहना, घर वालों से राग करना, मस्त रहना, किसी के पीछे दूसरे से विद्रोह कर लेना, ये सारी बातें आसान लग रही हैं। किंतु फल क्या होता है सो बहुतों को तो आंखों देखा है। अभी कल परसों तक नेहरू का उपयोग, उस आत्मा का उपयोग इस भारत के साथ था, अब जहां भी होंगे वहां भारत का कुछ होगा क्या उनके साथ ? कदाचित् मर कर उन देशों में पैदा हो जाये जिनका विरोध करते थे तो बड़े होने पर उनका क्या उपयोग बनेगा ? तो खुद सोच लो। यही हैं संसार की गति। इन अचेतन विषयों में हे आत्मन् ! तेरा कुछ नहीं है। तू इन विषयों में क्यों अपना घात करता है ?
व्यामोह में सुगम की कठिनता व कठिन की सुगमता―ये विषय तो सब जड़स्वरूप है। तू आत्मा चैतन्यस्वरूप है। तेरा इन जड़ विषयों में क्या रखा है ? कुछ भी तो नहीं है। फिर उन विषयों के खातिर क्यों घात करता है ? देखो भोग भोगना बड़ा आसान, भोग तजना शूरों का काम। राग करना बड़ा आसान लग रहा है, पर सद्बुद्धि जगे, स्वभाव दृष्टि बने, अपने आपमें अपना सत्य पुरूषार्थ जगे, यह बात इस जीव को कठिन लग रही है। जो स्वाधीन है, परद्रव्य की अपेक्षा से रहित है, जिस साधना में किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है वह तो इस मोही जीव को लगता है कठिन और जिसमें चूल्हा लकड़ी, पैसा सब कुछ जुटाने पड़ते हैं, मकान दुकान आदि आरंभ करने पड़ते हैं वह काम इसे लग रहा है सरल। देखो तो भैया ! खुद की खुद को लग रहा है कठिन। इस अज्ञानभाव का विलय करें तब ही शांति प्राप्त हो सकेगी। अध्रुव के व्यामोह की अत्यंत हेयता―यह सर्वसमागम चंद दिन का है। रहेगा कुछ नहीं। मुट्ठी बांधकर आए हैं और हाथ पसार कर जायेंगे। इतना भी नहीं है कि मुट्ठी बांधकर जायें। जो परभव से कमाकर लाए हैं, मुट्ठी बांधकर आए हैं वह सब खोकर हाथ पसार कर जायेंगे। जब कुछ रहना ही नहीं है इन बाह्य वस्तुवों में से तो इन बाह्य वस्तुवों में क्यों दिल फँसाकर समय बरबाद करें ? आत्मा का ही कोई काम ऐसा कर जावो जो आगे भी साथ देगा। ये अचेतन विषय दुर्गति के कारण हैं, पाप के बीज हैं, अस्थिरता को उत्पन्न करने वाले हैं। इन विषयों के खातिर अपने आप की ऐसी अनंत प्रभुता को खो दिया यह मिथ्यात्व का ही काम है। सुगम सत्य साधना―आनंदनिधान ज्ञानज्योतिर्मय इस आत्मप्रभु की दृष्टि न होने पर यह जीव कैसा बेतहासा पर की ओर झुककर दुःखी होता है, इस तथ्य को भी नहीं देख जान सकते हैं। जो ज्ञानी पुरूष हैं। वे ही जगत के क्लेशों का सच्चा ज्ञान कर पाते हैं। दुःखी होते जा रहें हैं और खुद के ही दुःख का असली पता नहीं पड़ता। यह है अज्ञानी की अवस्था। तीर्थंकरदेव जिसने जब तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया तब यही भावना तो भायी थी कि अहो जगत के ये प्राणी केवल भ्रम में व्यर्थ ही क्लेश पा रहे हैं। थोड़ा ही तो काम करना है, ये अंतर से अपने ज्ञानपरिणमन को बहिर्मुख करके जान रहे हैं, ऐसा न देख करके अंतर्मुख होकर जानना है। मुक्ति का सुगम मोड़ और तीर्थंकर की भावना―एक खड़ा हुआ पुरूष पश्चिम दिशा को मुँह करके देख रहा है, थोड़ा घूमकर पूरब को मुँह करना है तो ऐसा करने में उसे कठिनाई ही क्या पड़ती है ? कुछ भी तो कठिनाई नहीं पड़ती है या बैठे-बैठे ही उत्तर को अभी देखना है तो जरा गर्दन हिलाकर थोड़ा उत्तर को मुँह करना है तो उसमें कौनसी अधिक मेहनत पड़ती है ? इसी तरह अपने आपके ही स्वरूप में पड़ा हुआ यह आत्मा कुछ बाह्य पदार्थों की ओर दृष्टि करके तक रहा है। बस उस बाह्य की ओर दृष्टि नहीं करना है, केवल अपनी ओर ही तो दृष्टि करना है। इतना कार्य कितना कठिन लग रहा है जगत के जीवों को, इसकी दृष्टि जगह और संसार के संकट मिटें ऐसी भावना तीर्थंकर में हुई थी। ऐसी भावना नहीं हुई थी कि मैं इन जीवों को पकड़-पकड़कर संसार से उठाकर मोक्ष में पहुंचा दूं। ऐसी कोई कर्तृत्व के आशय वाली बुद्धि नहीं जगी थी। जो महंतपुरूष होते हैं वे लोग वचनों में भी ऐसा नहीं कहा करते है कि मैं ऐसा कर दूंगा, मैं ऐसा कर सकता हूँ। यह तो थोड़ा जानने वाले ही छाती ठोंककर कहा करते हैं। विषयों के प्रसंग का विपाक केवल पछतावा―हे आत्मन् ! जिन विषयभोगों में तू दौड़ लगा रहा है, उनमें रम-रम कर आखिर तू पायेगा क्या सो तो बता। अब तक मानों कि जैसे 60 वर्ष की उमर है तो कभी छटांक भर खाया, कभी तीन पावा खाया, तो आध सेर का ही अनुपात लगा लो, तो 1 माह में हो गए 15 सेर और एक साल में हो गए 4।। मन और 60 साल में कितने हो गए सो जोड़ लो। पूरी एक वैगन भर जायेगी। इतना तो खा डाला फिर भी अभी पेट में देखो तो वे ही चूहे लड़ रहे हैं। कुछ दिखता ही नहीं हैं। खैर यह तो जीने के सवाल वाली बात है। भोगों की बात तो देखो। कितने ही सुगंधित तेलों को सूँघ डाला, पर उसमें मिला क्या ? गंध लेना, सुगंध लेना ये नासिका के फायदे की चीजें नहीं हैं। आंखों को फाड़-फाड़कर सुहावना रंग रूप देख लिया तो उससे क्या मिल गया ? समय ही गुजर गया पर हाथ कुछ भी नहीं आया। पांचों इंद्रियों के भोगों में यह बेहतासा होकर लगा फिरा, अंत में पाया क्या ? बस पछतावा ही हाथ लगा। व्यर्थ का श्रम―जिनको हम गैर समझते हैं उन बेचारों के द्वारा मुझे कोई नुकसान होता नहीं और जिन्हें हम अपना समझते हैं उनके लक्ष्य से, उनकी प्रीति से, उनके मोह से यहां देखो तो बरबादी हो रही है। हे आत्मन् ! तेरा दर्शन, ज्ञान, चारित्र कुछ भी तो नहीं है, अचेतन विषयों में तू उन अचेतन विषयों का क्यों संग्रह विग्रह करता है ? प्रेम में जिससे प्रेम करे उसकी बरबादी है और जो प्रेम करे उसकी बरबादी है। आपको चाहिए गोलमटोल लड्डू। आपका बूँदी के लड्डूवों से प्रेम हो गया, तो अब बतावो लड्डूवों का क्या हाल होगा ? कुचले जायेंगे, उनकी दुर्दशा होगी। और उस खाने वाले का क्या होगा ? उसकी भी दुर्दशा होगी। उसके भी पेट दर्द करेगा, पड़ा रहेगा या उनके खाने की तृष्णा बन जायेगी। दूसरे दिन ललचायेगा। और फिर उनके प्राप्त करने की आकुलता करेगा। क्या मिला जिससे प्रेम किया, क्या मिला जिसने प्रेम किया ? घर गृहस्थी और होती क्या है ? रात दिन उसमें अनेक तरह के क्लेश रहते हैं। सभी को रोग शोक लगा है, दूसरों का संयोग वियोग लगा हैं। हैं खाली प्रत्येक जीव अपने स्वरूपमात्र, दूसरों से उनका लगता कुछ नहीं है, किंतु मोहवश यह जीव पर की ओर दृष्टि लगा कर बेचैन होता है। आचार्यदेव समझाते हैं कि हे आत्मन् ! इन विषयों में पड़कर तू अपना क्यों घात करता है ? तू अपने आपका जो निरंतर घात कर रहा है उसको नहीं देखता। उस घात से तू बच। ये रागद्वेष तब तक ही उदित होते हैं जब तब ज्ञान-ज्ञानरूप नहीं हो जाता, ज्ञेय-ज्ञेयरूप नहीं हो जाता। जब कोई बड़ा विवाद और समस्या उलझ जाय तो कहते हैं कि लो भाई हो चुकी, अब तुम तुम हो, हम-हम हैं। अब कोई झगड़े की बात नहीं है। और झगड़े की बात तो तब तक थी जब तक यह भाव था कि हम तुम्हारे कुछ बने, तुम हमारे कुछ बने। हे आत्मन् ! अपने चित्त में जो रागद्वेष हो रहा है उनका घात करना चाहिए, तू विषयों में पड़कर अपना घात क्यों करता है अथवा कोई तत्त्व से अपरिचित पुरूष इन विषयों को दुखदायी समझकर इनका घात करे, इनका त्याग करे, यह अच्छी बात है, मगर ये विषय उसके लिए दु:खदायी है, क्योंकि उसका त्याग ज्ञान से भरा हुआ नहीं है। इन विषयभोगों से परे हो जाना चाहिए और अपनी संभाल में लगना चाहिए। इस आशय से त्याग किया जाता है वह तो है पद्धति का त्याग और जैसे किसी से लड़ाई हो तो त्याग कर विदेश भाग जाय तो जैसे उसके घर छोड़ने का कारण रोष है, इसी तरह त्याग के मर्म से अपरिचित पुरूष के बाह्य पदार्थों के त्याग का कारण या तो रोष होता है या चाह होती है या आराम से जिंदगी गुजारें, यह परिणाम होता है। भैया ! जब सही पद्धतियों से कदम नहीं रखा जाता है तो फिर जीवन में अनेक विडंबनाएँ आती हैं। सो रात दिन कल्पनाएँ करके दुःखी होते हैं। जैसे मान लो अपने यश प्रतिष्ठा के लिए त्याग किया तो त्याग तो कर दिया अब मनचाही बात न हुई, प्रतिष्ठा न मिली, अपनी पोजीशन बनती न देख सके तो रात दिन दुःखी ही होंगे। मान लो रूठ करके यह चला आया, लड़ाई हुई घर में, लो अब हम भये जाते हैं त्यागी और स्त्री अगर बड़े दिल की हो तो कहे कि अच्छा हो जावो त्यागी और हो भी गए त्यागी तो वह त्याग तो वैराग्यपूर्ण था नहीं, सो फिर कल्पनाएँ जगती हैं। सो बाह्य पदार्थों के संग्रह विग्रह में ही अपना श्रेय मत मानो किंतु चित्त में जो रागद्वेष का परिणमन बसता है उसका त्याग करो।
ज्ञानसमान जगत में आनंद का कारण अन्य कुछ नहीं है। पहिले यही ज्ञान करो कि इस पर्यायरूप में उपस्थित हुआ यह मैं सच हूँ, कुछ परमार्थ रूप हूँ, यह भी मिट जाने वाला है और जिन जीवों में हम कुछ पोजीशन की बात रखना चाहते हैं वे सब भी मिट जाने वाले हैं। एक अनित्य पुरूष अनित्य पुरूष में अनित्य वस्तु की चाह करता है जो कि स्वयं अनित्य है, कितनी विडंबना की बात है, सारभूत रंच नहीं है। लोमड़ी अंगूर के गुच्छों को नहीं छू सकती तो यह कहकर भागती है कि अंगूर खट्टे हैं। ये मोही जीव भी इस निर्विकल्प अनाकुल सहज ज्ञानरूप ब्रह्मस्वरूप का स्पर्श नहीं कर पाते हैं, सो इस आत्महित की बात को बिगड़े दिमाग वालों की करतूत कहकर अलग हो जाते है। देखो, रीति ही ऐसी है―मोही मोहियों में ही घुल-मिलकर चैन पाते हैं, अज्ञानी अज्ञानियों के ही संग में रहकर चैन पाते हैं। अच्छा बतावो, यहां जो बहुत से कबूतर फिर रहे हैं, उनसे तो आदमी अच्छे हैं कि नहीं ? अच्छे हैं। कबूतरों से कहो कि अरे कबूतरों ! तुम अपनी-अपनी गोष्ठी में घुसे रहते हो, हमारे संग में आकर बैठो करो, क्योंकि हम तुमसे अच्छे हैं। वे हमारे पास आकर नहीं बैठेंगे, वे तो अपनी ही गोष्ठी में बैठेंगे। जो जिस पर्याय में है, उसको उसी पर्याय की बिरादरी अच्छी है। जब तक जगत् के जीवों पर जीवत्व के नाते से दृष्टि नहीं होगी, तब तक हम धर्म के पात्र नहीं हो सकते। बिरादरी, कुल, जाति―इनकी बात धर्मतृष्टि के समय, धर्मपालन के समय चित्त में न भूलनी चाहिये। हे आत्मन् ! तुम उन अचेतन विषयों में क्यों लगा रहे हो ? उनसे हटो और अपनी ओर आवो। देखो भैया ! हाथी जैसा बड़ा जानवर जो मनुष्य की पीठ पर लात रख दे तो वह जीवित न रह सकेगा, किंतु स्पर्शन इंद्रिय के वश में आकर वह गड्ढे में गिरता है और अंकुश से पीडि़त हो-होकर वश में कर लिया जाता है या वह हाथी भूख के मारे मर जाता है। रसनाइंद्रिय के वश में होकर मछली लोहकंटक को अपने गले में फंसा लेती है और अपने प्राण गंवा देती है। नासिका इंद्रिय के वश होकर भँवरा जिसमें इतना बल है, कला है कि मोटे काठ को भी छेदकर आरपार पहुंच सकता है, किंतु कमल की सुगंध के वश होकर जब फूल में बैठ जाता है और संध्या के समय फूल में बंद हो जाता है, पर उसको यह बुद्धि नहीं जगती है कि कमल के पत्ते को छेदकर बाहर निकल जावे। वह वहीं भीतर पड़ा हुआ ही मर जाता है। नेत्रेंद्रिय के आधीनता की बात तो सामने ही खूब रात-बिरात देख लो-चिराग जल रही हो तो ये पतंगें आ-आकर उस पर बैठते हैं और मर जाते हैं। कर्णेंद्रिय की बात देखो―सर्प, हिरण आदि इसी तरह पकड़े जाते हैं। उन को बीत की मीठी तान सुनाई देती है तो उस आवाज में मस्त होकर वे निकट आ जाते हैं और पकड़े जाते हैं। एक-एक इंद्रिय के वश होकर जीवों ने प्राण गंवाए तो इन मनुष्यों के लिए क्या कहा जाए ? ये तो पांचों इंद्रियों के वश हैं। जब से पैदा हुए और जब तक मरते नहीं हैं―बूढ़े तक क्लिवित मची रहती है, चैन नहीं पाते हैं। हे आत्मन् ! देख तेरा स्वरूप तो दर्शन, ज्ञान, चारित्र है अथवा तू तो तू ही है, तेरा स्वरूप अवक्तव्य है, किंतु जो परिणति विदित हुई है, उस परिणति के द्वार से निरखकर यह तो निर्णय कर कि तेरा तो स्वरूप दर्शन, ज्ञान, चारित्र है। इसका बिगाड़ हुआ तो तेरे सर्वस्व का बिगाड़ हुआ। यह गुण अचेतन पदार्थों में नहीं है, फिर अचेतन पदार्थों में क्यों उपयोग लगाए है और अपना घात करता है ? वस्तुस्वरूप का वर्णन करके आचार्यदेव अब अगली बात का उपदेश कर रहे है। माना जायेगा तो भला होगा, न माना जायेगा तो संसार में रूलेगा। अब जिस प्रकार अचेतन विषयों से निवृत्त होने का उपदेश किया है तो अब कुछ पढ़े-लिखे लोगों के ही लिए उपदेश किया जा रहा है कि अचेतन कर्मों में भी तू क्यों उलझ रहा है।