वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 372
From जैनकोष
गुरु द्वारा भ्रान्तिनिवारण का यत्न-- आचार्य देव यहाँ समझाते हैं कि अरे भव्य पुरुषों ! जरा तत्वदृष्टि बनावो, रागद्वेष को उत्पन्न करने वाला कोई दूसरा पदार्थ नहीं है। सर्व द्रव्यों की जो अवस्था बनती है वह उस ही द्रव्य के अन्दर विलसित होती है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ अन्य समस्त पदार्थों से अत्यन्त भिन्न सत्त्व रखता है। एक का दूसरे के साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है? इस ही रहस्य को पूज्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव प्रकट कर रहे हैं।
अण्णदवियेण अण्णदवियस्स ण कीरए गुणुप्पादो।
तम्हाउ सब्बदब्बा उप्पज्जंते सहावेण ।। 372।।
सिद्धांत और भ्रम का कारण- अन्य द्रव्य के द्वारा अन्य द्रव्य के गुण का न तो उत्पाद किया जाता है और न विघात किया जाता है, क्योंकि समस्त द्रव्य अपने अपने भाव से ही उत्पन्न होते हैं। लोगों को भ्रम इस कारण हो जाता है कि एक द्रव्य के विभाव परिणमन में परद्रव्य निमित्तभूत हैं, सो हुआ तो वह बहिरंग निमित्तभूत क्योंकि अन्य द्रव्य के द्वारा उपादानरूप अन्य द्रव्य का गुण नहीं उत्पन्न किया जाता है और न मेटा जाता, किंतु इतने मात्र संबंध से आगे बढ़कर कर्तृत्व का भ्रम कर लिया जाता है। जैसे घड़े के बनाने में कुम्हार बहिरंग कारण है, तो बहिरंग कारण कुम्हार के द्वारा व इन चाकादिक के द्वारा मिट्टी में कोई गुण पैदा नहीं किया जाता है। मिट्टी का स्वरूप, मिट्टी का गुण किसी अन्य द्रव्य के द्वारा नहीं डाला जाता है। ये बहिरंग निमित्तभूत है अर्थात् कुम्हार अपने गुण मिट्टी में डालकर मिट्टीरूप बन जाय, ऐसा तो नहीं है । फिर मात्र निमित्त संबंध से आगे बढ़कर लोग कर्तृत्व का भ्रम कर डालते हैं।
पर के द्वारा पर के घात का अभाव ▬ चेतन का अचेतन रूप से गुणघात या गुणोत्पत्ति नहीं होती। अचेतन का चेतनरूप से गुणोत्पाद अथवा गुणविघात नहीं होता क्योकि सभी द्रव्य अपने भाव से उत्पन्न होते हैं। जैसे वहाँ कुम्हार अपने भाव से परिणमन कर रहा है, चक्र-चीवरादिक अपनी परिणति से परिणमन कर रहे हैं और उस स्थिति में मिट्टी अपने आप की परिणति से बढ़ रही है, उसमें आकार बन जाता है, घर बन जाता है। यहाँ निमित्तनैमैत्तिक भाव का निषेध नहीं है, किंतु कर्तृकर्मभाव एक दूसरे का रंच भी नहीं है। और इस वस्तुस्वातंत्र्य की दृष्टि से देखा जाये तो प्रत्येक निमित्त उदासीन है, बाहर–बाहर ही लोटता है, कोई प्रेरक नहीं है, पर निमित्त की क्रिया की विशेषतावों पर दृष्टि दी जाती है तो कोई निमित्त प्रेरक मालूम होता है, कोई निमित्त उदासीन मालूम होता है, पर जहाँ कार्य का प्रसंग है, परिणमन को देखा जा रहा है, वहाँ प्रत्येक द्रव्य उपादान से बाहर ही रहता है, और वह चाहे कोई भी क्रिया हो, उन की क्रियावों का उपादान में स्पर्श नहीं होता। इस कारण सब निमित्त उदासी निमित्त हैं।
विघातव्य विभाव▬ जितने भी कार्य होते हैं वे उपादान कारण के सदृश होते हैं। मिट्टी में जो कुछ बना वह मिट्टी की तरह बना या कुम्हार की तरह बना? मिट्टी की तरह बना। इससे यह सिद्ध है कि पंचेंद्रिय के विषय रूप से उपस्थित ये शब्द रूपादिक केवल बहिरंग निमित्तभूत हैं, उनका आश्रय पाकर, लक्ष्य कर के अज्ञान से जीव के रागादिक उत्पन्न होते हैं तो भी वे रागादिक जीवस्वरूप ही हैं शब्दादिक रूप नहीं हैं चेतनस्वरूप हैं, अचेतन नहीं हो जाते। यह बात इसलिय समझायी जा रही है कि कोई नवीन शिष्य जिस के धर्म की धुनी तो आयी कि मैं धर्म करूं किंतु धर्म का मर्म नहीं समझा है, वह तो नहीं जानता मुख्यता से कि मेरे चित्त में ही रागादिक उत्पन्न होते हैं और ये रागादिक ही मुझे पीड़ा देते हैं, मुझे इन रागादिकों का विलय करना है ऐसा तो नहीं जानते किंतु, यों सोचते हैं कि ये बाह्य शब्द रूपादिक, परिजन आदिक विभावों को उत्पन्न करते हैं, इसलिए उनका घात करें, उनका विग्रह करें, वियोग करें। क्यों यह चित्त में नहीं आता कि मैं अपने आत्मा में उत्पन्न हुए रागादिक का विनाश करूं ?
परमार्थविरोध की विधातव्यता ▬ किसी पुरुष पर गुस्सा आ जाता है तो यह भावना तो बनती है कि मैं पर का विनाश कर डालूं, पर यह भावना नहीं उत्पन्न होती है कि दूसरा पुरुष मुझे अपना विरोधी चाहे मान डाले, पर मैं न विरोधी मानूं। यह जो विभाव है वह बड़ा मलिन और अहितकारी है। मैं इस विभाव का विनाश करूं, ऐसा अपने आप पर जो दयाभाव नहीं लाता है उसको यह समझाया गया है कि अन्य द्रव्य का गुण अन्य द्रव्य में नहीं पाया जाता है, इसी कारण अन्य द्रव्य के द्वारा अन्य द्रव्य के गुण का विघात अथवा उत्पाद नहीं होता है। तू बाहर संग्रह विग्रह मत कर किंतु निर्विकल्प समाधि का अनुराग कर के भेदविज्ञान के बल से उन बाह्य पदार्थों को अपने से न्यारा जानो। अपने आप में ही रागादिक भावों को दु:ख का कारण मान कर इन को दूर करो।
व्यामोह दृष्टि▬ भैया-यह अज्ञानी जीव कुत्ते जैसी दृष्टि बनाए हुए है। जैसे कुत्ते को कोई लाठी मारे तो वह लाठी को मुंह से चबाता है। इसमें इतनी अकल नहीं दौड़ती कि मैं इस लाठी मारने वाले पर हमला करूं इसी तरह इस अज्ञानी जीव को ये भाव कर्म पीड़ित करते हैं ये रागादिक परिणाम इसमें कष्ट उत्पन्न करते हैं, ऐसा ये उन कष्टों के बहिरंग कारण आश्रयभूत बाह्य पदार्थों का तो संग्रह विग्रह करता है, किंतु यह नहीं जानता कि मेरे पर आक्रमण करने वाला तो मेरा अज्ञान भाव है। ये दूसरे मनुष्य जो मुझ से अत्यंत पृथक् है ये मेरे में क्या करते हैं ऐसा न जानकर अपने आप में अज्ञान बुद्धि से पर का संग्रह विग्रह कर के वासना बना डालता है।
भोगव्यामोहदृष्टि ▬ इस अज्ञानी जीव के भोग के संबंध में भी कुत्ते जैसी दृष्टि है। जैसे श्वान कहीं से सूखी हड्डी पा ले तो उस हड्डी को मुँह में दबाकर एकांत में पहुंचता है और उस हड्डी को खूब चबाता है। उस के चबाने से कुत्ते की दाढ़ में से खून निकलता है, उस खून का कुछ स्वाद भी आता है तो वह मानता हैं कि मुझे इस हड्डी से सुख मिल रहा है और लोभ से उस हड्डी को वह एकांत में ले जाकर चबाता है, उसे सुरक्षित रखता है और कर रहा है अपने मसूड़ों पर प्रहार। कोई दूसरा कुत्ता आ जाय तो वह गुर्राता है, यह मेरी हड्डी न छीन ले। इसी तरह संसार के जीव पाते तो हैं अपने आन्नद गुण के परिणमन में सुख, चाहे वह विकार परिणमन सही, किंतु मानते हैं कि मुझे यह सुख अमुक विषय से आया। सो विषयभूत बाह्य पदार्थों का वह संचय करता है, उन की वृद्धि करता है और परदृष्टि कर कर के हैरान होता है। यह है अज्ञानी जीव की वृत्ति। उनके संबोधन के लिए पहिले जो कुछ वर्णन किया था उस ही के समर्थन के रूप में यह कहा जा रहा है कि अन्य द्रव्यों के द्वारा अन्य द्रव्य के गुण का उत्पाद अथवा विघात नहीं होता। इसलिये क्यों तू पर के संचय और विग्रह में लगा हुआ है ?
कर्ता कर्म की अभिन्नता▬ भैया ! व्यवहार में तो यह भेद कर दिया जाता है कि अमुख निमित्त ने अमुक उपादान में देखो यह कार्य किया ना, यह व्यवहार से तो भेद हो जाता है, पर उसका अर्थ भी परमार्थ से अविरोध करता हुआ होना चाहिए। निश्चय से देखा जाय तो जो कर्ता है वह ही कर्म होता है। कर्ता और कर्म भिन्न-भिन्न तत्त्व नहीं हैं। जीव में जो रागादिक होते हैं उन को परद्रव्य उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हैं। जीव में रागादिकों को परद्रव्य उत्पन्न कर सकें ऐसी रंच शंका न करना, क्योंकि अन्य द्रव्यों के द्वारा अन्य द्रव्यों के गुण का उत्पाद अथवा विघात किया ही नहीं जा सकता। सर्व द्रव्य अपने-अपने स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं।
निमित्त स्वभाव से उपादान का अनुवाद - अच्छा बताओ भैया ! मिट्टी का घड़ा बन गया तो क्या वह मिट्टी कुम्हार के स्वभाव से घड़ारूप उत्पन्न हुई? मिट्टी के स्वभाव से ही घड़ारूप बना अर्थात् उस घड़े में मिट्टी के स्वरूप की तन्मयता है या कुम्हार के स्वरूप की तन्मयता है? यदि वह मिट्टी कुम्हार के स्वभाव से घड़ा रूप बन जाय तो बतावो घड़ा किस आकार का बनना चाहिये? जैसा फैलफुट कुम्हार है, ऊटपटांग हाथ फैलाए हुए, जैसा वह कुम्हार अपने निर्माण के प्रसंग में जिस आकार का है उस आकार का घड़ा बनना चाहिये और फिर इतनी ही बात नहीं हैं, उसमें जान भी आनी चाहिये, क्योंकि कुम्हार के स्वाभाव से घड़ा बना है ना । फिर तो खेल के बिच्छू न बनेगें, बिच्छु बनेंगे और दौड़ने लगेंगे, क्योंकि बनाने वाले आदमी के स्वभाव से वे सब उत्पन्न हो गए, किंतु ऐसा तो नहीं है, क्योंकि अन्य द्रव्य के स्वभाव से अन्य द्रव्य के परिणमन का उत्पाद नहीं देखा जाता है। ऐसी बात है ना। ध्यान में आया ना? हां। तब ऐसा मानो कि घड़ा कुम्हार के स्वभाव से उत्पन्न नहीं होता, वह घड़ा मिट्टी के स्वभाव से ही उत्पन्न होता है, क्योंकि अपने ही स्वभाव से द्रव्य के परिणमन का उत्पाद देखा जाता है। कोई भी पदार्थ अपने स्वभाव का उल्लंघन नहीं कर सकता।
भैया ! बहुत से लोग तो बड़ी अवस्था में और वृद्धावस्था में यह सोच कर दु:खी होते हैं कि मैंने तो इतना परिश्रम कर के पढाया लिखाया इस बेटे को और इतना धन सौंपा है, धनी बनाया है और आज यह हमारी बात नहीं मानता। इसका दु:ख ज्यादा है, बेटों का दु:ख कम है। तो यह दु:ख उन को मूढ़ता से होता है। यह पक्की बात है कि नहीं? पक्की बात है, क्योंकि बाप ने उस बेटे को नहीं पढ़ाया और न ही धनी बनाया, किंतु पुत्र के पुण्य का उदय था जिस से यह बाप चाकर बनकर निमित्त बना था। अब कोई चाकर जो राजा का सेवक हो और वह अभिमान करे कि मैंने देखो राजा को इतनी तो सुविधाए दीं, इतनी तो राजा की मैं सेवा करता हूँ और यह मेरी ओर निहारता तक भी नहीं है तो वह सब अज्ञानता है। यदि वह यह बुद्धि रखे कि मैं तो एक अर्मूत ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा हूँ। यह तो केवल अपने भाव कर सकता है। इसने सारी जिंदगी भर केवल अपना परिणाम ही किया। इसके अतिरिक्त किसी अन्य चीज में उसका कुछ कर्तत्व नहीं होता, ऐसी बुद्धि रहे तो वृद्धावस्था में क्लेश नहीं रह सकते हैं।
प्राकृतिक व्यवस्था और ज्ञानभावना का फल▬ लोग सोचेंगे कि बड़ा उल्टा काम हो गया, यह आदमी पैदा होते ही बूढ़ा बनता, इसके बाद बनता बच्चा और मरते समय रहता जवान, तो क्योंजी, यह प्रस्ताव आप को मंजुर है ना? मंजूर होगा, पर ऐसा नहीं होता कि पहिले पैदा हो तो बूढ़ा हो, फिर मरते समय जवान रहे, ऐसा नहीं होता। यह तो बूढ़ा होकर मरता है। अब बूढ़ा होकर मरते समय वे बातें ज्यादा उपभोग में आती हैं जिन बातों में अपनी सारी जिंदगी बितायी। तो यदि ज्ञानभावना में जिंदगी व्यतीत हुई है तो वृद्धावस्था में ज्ञान भावना बढ़ेगी और मोहवासना में जिंदगी बितायी है तो वृद्धावस्था में मोहवासना बढ़ेगी। अब बताओ मोहवासना में ही मरकर कौनसा वैभव लूट लोगे? और ज्ञानभावना सहित मरण हो ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि अगला भव संपन्न और धार्मिक मिलेगा।
निजस्वभाव की अनुल्लंघनीयता ▬ भैया ! अपने अपने स्वभाव का कोई द्रव्य उल्लंघन नहीं करता है। इस कारण जैसे कुम्हार घड़े को उत्पन्न करने वाला नहीं है इसी प्रकार बाह्य पदार्थ शब्दादिक जीव के रागादिकों को नहीं उत्पन्न करते, किंतु जैसे मिट्टी कुम्हार के स्वभाव से घड़ा रूप नहीं बनी है, अपने ही स्वभाव से घड़ा रूप बनी है, इसी प्रकार यह जीव विषयों के स्वभाव को छूता हुआ अपनी ही विभाव प्रकृति से रागादिक रूप बनता है, किसी दूसरे पर सुधार बिगाड़ का ऐहसान देना कोरा व्यामोह है। प्रत्येक दु:ख में अपने अपराध की दृष्टि जानी चाहिए । दूसरे के अपराध से कोई दूसरा दु:खी नहीं होता, परंतु जैसे अपनी आंख का टेंट अपने को नहीं दिखता दूसरे के आँख की छोटी सी फूली भी खूब दिखती है, इसही प्रकार इस मोही जीव को अपने आप का अपराध नहीं दिखता है और दूसरे का अपराध हो अथवा न हो, अपनी भावना के अनुसार वे दूसरे के दोष दिखा करते हैं। पर यह निर्णय रखना कि मुझे जो भी क्लेश होता है वह मेरे ही अपराध से होता है। दूसरे के अपराध से नहीं होता है।
निमित्त से पृथक् उपादान का परिणमन▬ जब मैं दु:खी होता हूँ तब यह मैं आत्मपदार्थ अन्य द्रव्य के स्वभाव को न छूता हुआ केवल अपने ही परिणमन में तन्मय होता हुआ दु:खी हुआ करता हूँ। इसी प्रकार समस्त द्रव्य अपने ही परिणमन पर्याय से उत्पन्न होते हैं, उनके विषय में जरा विचार तो करिये। क्या ये पदार्थ निमित्तभूत परद्रव्य के स्वभाव से उत्पन्न होते हैं या अपने ही स्वभाव से उत्पन्न होते हैं? किसी मनुष्यने मान लो इस अंगुली को टेढ़ी कर दिया तो यह अंगुली अपने परिणमन से टेढ़ी हुई है या दूसरे के परिणमन से टेढ़ी हुई है। प्रत्येक पदार्थ अपने ही भावों से अपना परिणमन किया करता है। तो जब निमित्तभूत उस द्रव्य के स्वभाव से उत्पन्न नहीं होता है तो अब यह दृष्टि लावो कि यह मैं आत्मा परद्रव्य का निमित्त मात्र पाकर अपनी ही अज्ञान कल्पना से अपने आप में अपने को दु:खी किया करता हूँ। दूसरा कोई दु:खी नहीं करता।
अज्ञानवृत्ति, निर्णय और शिक्षा▬ भैया ! जरा बच्चों के रिसाने को तो देखा करो,वे किसी मूल मुददे पर नहीं रिसाया करते हैं, वे तो जो मन में अटपट आया उसी में रिसाया करते है। इसी तरह ये अज्ञानी मोही अटपट जिस का कोई आत्मा से संबंध नहीं, ऐसी परवस्तुवों की घटनावों में रूसा करते हैं, राग किया करते हैं। परवस्तु के स्वभाव में देखो, उन की स्वतंत्रता निरखो। किसी द्रव्य के द्वारा किसी अन्य द्रव्य के गुण का न उत्पाद होता है न विघात होता है। यदि निमित्तभूत परद्रव्य में स्वभाव से यह उपादान उत्पन्न होने लगे तो निमित्तभूत परद्रव्य के आकार में ही इसका परिणमन होगा किंतु ऐसा देखा ही नहीं जा रहा है। इससे यह मानना कि प्रत्येक पदार्थ निमित्तभूत परद्रव्य के स्वभाव से उत्पन्न नहीं होते, किंतु अपने ही स्वभाव से उत्पन्न होते हैं। इससे यह शिक्षा लेनी है कि मेरा मैं ही निर्माता हूँ ज्ञान भावना में रहूं तो ज्ञानमय सृष्टि होगी और अज्ञान भावना में रहूं तो अज्ञानमय सृष्टि होगी। अपना कुछ ध्यान न जाना, दूसरों के पीछे अपना विघात करना, आकुलता करना- ये सब अज्ञानमय सृष्टियां है। पर का तो कुछ किया नहीं जा सकता। यह तो मात्र अपने आप की सृष्टि रचता हुआ चला जाता है। अब कुछ विराम लें, इन झगड़ों को कम कर के अपनी ओर तृष्टि दें और अपने स्वरूप में विश्राम पायें।
वस्तुगत निर्णय▬ लोक में जितने भी पदार्थ हैं वे परिपूर्ण सत् हैं। सत्का लक्षण बताया है―उत्पादव्ययध्रौव्य युक्तं सत् । जो उत्पाद व्यय ध्रौव्य से सहित हो उसे सत् कहते हैं। पदार्थ में स्वयं ऐसी प्रकृति पड़ी है कि वह प्रति समय उत्पन्न होते हैं और पूर्व पर्यायों का उनमें विलय होता है फिर भी वह शाश्वत ध्रुव रहा करते हैं। जब पदार्थ का ही इस प्रकार का स्वभाव है तो उसमें कोई दूसरा क्या करे? प्रत्येक पदार्थ जो विभावरूप परिणत हो रहे हैं वह निमित्तभूत परद्रव्य को छूते नहीं, उनका निमित्त मात्र पाकर अपने आप के परिणमन से परिणमते हैं। इससे यह निर्णय करना कि परद्रव्य जीव के रागादिक भावों का उत्पादक नहीं है। जब कोई परद्रव्य मेरे रागादिक भावों का उत्पादक नहीं है फिर मैं किस के लिये क्रोध करूं? जितने जो कुछ भी रागद्वेष उत्पन्न होते हैं उनमें दूसरों का रंच दूषण नहीं है। यह स्वयं ही वहाँ अपराधी है इस कारण दु:खी होता है।
मिथ्या आशय की क्लेशोत्पादकता▬ जिसकी ऐसी दृष्टि है कि दूसरे मुझे दु:खी करते हैं उसकी दृष्टि मिथ्या है। परद्रव्य परजीव को किसी भी प्रकार से दु:खी नहीं करता। हां दु:खी होने का आश्रयभूत हो सकता है, परंतु जीव तो मेरे दु:खादिक में निमित्त भी नहीं होते। मेरे दु:ख आदिक परिणमनों में कर्मों का उदय निमित्त है और यह बाह्यविषय कल्पना के आश्रयभूत हैं, ज्ञेय हैं। परपदार्थ तो सदा ज्ञेय ही रह पाते हैं किंतु उनमें जब यह जीव कल्पना कर के अपने में इष्ट और अनिष्ट भाव बनाता है तो यह दु:खी होता है। तो यह जीव स्वयं ही अपराधी होता है और वहाँ अज्ञान का प्रसार होता है। सो कहते हैं कि अज्ञानभाव अस्त को प्राप्त हो और यह मैं तो बोध मात्र हूँ। जो जीव राग की उत्पत्ति में परद्रव्य को ही निमित्त मानता है उस के शुद्ध ज्ञान विधुर हो गया है, जुदा हो गया है। अतएव उन की बुद्धि अंध हैं, वे मोहवाहिनी को कभी नहीं तैर सकते।
विकल्पों की अपनायत▬ भैया ! यह बात निश्चित हो चुकी है कि आत्मा का दर्शन, ज्ञान, चारित्र गुण अचेतन विषय कर्म और शरीर में नहीं हैं, बाह्य वस्तुवों की ओर दृष्टि देकर केवल अपना घात ही किया जा रहा है। जो लोग पर की ओर ही दृष्टि रखकर धर्मबुद्धि से पर का त्याग करते हैं वे भी अपना बचाव नहीं कर पाते हैं। उनका वहाँ भी घात हो रहा है। कोई परद्रव्य को अपनाने का विकल्प करता है और उस विकल्प को अपनाता है तो कोई परद्रव्य की तैयारी करने का विकल्प करता है और उस विकल्प को अपनाता है। परवस्तु तो आत्मा में थी ही नहीं, फिर दूर ही क्या होगी? केवल अपनाने का भाव करता था। सो पहिले परवस्तु को अपना मानने के विकल्प को अपनाता था, अब परवस्तु के त्याग के विकल्प को अपनाता व चीज जहाँ की तहां रही। थोड़ा बाहरी क्षेत्र का अंतर पड़ा है।
उक्त कथन से शिक्षण▬ यहाँ उन मुग्ध पुरुष को समझाया जा रहा है कि मर्म की बात तो समझो बाह्य वस्तुवों का घात नहीं करना है, किंतु अपने चित्त में रहने वाले रागादिक विकल्प दूर करने हैं। इन शब्दादिक विषयों में तेरा गुण या अवगुण नहीं है। तू उन विषयों की ओर क्यों आसक्त होता है या परवस्तु के संचय और विघात का विकल्प करता है? इस शिक्षा को विशेष वर्णन के साथ समझाने के लिए आचार्यदेव कहते हैं।