वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 4
From जैनकोष
सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्सवि कामभोगबंधकहा ।
एयत्तस्सुवलंभो णवरिण सुलहो विहत्तस्स ।।4।।
303-संसारी जीवों के कामभोगबंधकथा की सुलभता—इस संसारी सब ही जीव लोक ने काम व भोग संबंधी कथा सुनी है, उस ही का इसने परिचय किया है और उसी बंधकथा का इसने अनुभव भी किया है । इतना ही नहीं, अहर्निश उस काम भोग बंध वाली वासना का ही संस्कार बनाये रहता है इस कारण इस जीवलोक को अपने आत्मा के पवित्र अद्वैत सहजस्वरूप की उपलब्धि सुलभ नहीं है । यह आत्मतत्त्व स्वभावत: सर्व अन्य द्रव्यों से विभक्त है, जुदा है तो भी इस मोही जीवलोक के वासना में सभी अन्य पदार्थों में तन्मय है और व्यक्तित: जिन अन्य पदार्थों के संसर्ग प्रसंग में इष्टबुद्धि बनाये हैं उनमें आसक्त रहता है । इसी कारण पवित्र निज आत्मतत्त्व की इसके खबर भी नहीं, रुचि भी नहीं । फिर इस मोही प्राणी को अपने एकत्वस्वरूप की उपलब्धि कैसे हो । इस बहिरात्मा ने बाह्यपदार्थों को विषय बनाकर कर्मउपाधि का निमित्त पाकर राग द्वेष मोहमय अध्यवसान चक्र के मध्य में अपने आपको रोप दिया है ऐसा करते हुए इस जीव को कोई 20-25 वर्ष ही नहीं हुए, किंतु अनंतकाल से ऐसा करता चला आ रहा है अर्थात् जब से इस जीव की सत्ता है तब से यह मोही रागी द्वेषी बनता चला आ रहा है । इसकी सत्ता अनादि से है सो अनादि से ही ऐसी मलिनता भी इस बहिरात्मा में चली आ रही है । देखो इस सारी सृष्टि में वैज्ञानिक तथ्य है जीव के कषाय परिणाम होते हैं उसको निमित्त पाकर कार्मण वर्गणायें कर्मत्वरूप से बंध जाती है, उनमें उसी समय स्थितिबंध भी हो जाती है, प्रकृति भी उसी समय पड जाती है, अनुराग भी उसी समय पड़ जाता है । प्रदेशों का अर्थात् परमाणुवों का तो वह पुंज है ही । इसी तरह यहाँ भी देखो पूर्वबद्ध कर्मों का जब उदयकाल आता है तब जीव में रागादि परिणति होती है । ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध होने पर भी न तो कर्म की किसी भी परिणति के कारण जीव की कोई परिणति हुई और न जीव की किसी परिणति के कारण कार्मण वर्गणावों की कोई परिणति नहीं हुई । सम्यग्ज्ञान में ही इस अलौकिक मर्म का बोध होता है । 304-मोहपिशाच का उपद्रव—आत्मा की एकता अनादि से अनंत तक अंतरंग में है, फिर भी मोह के द्वारा इस जीव को वह असुलभ रही । मोह रूपी पिशाच जीव के पीछे इस तरह से पड़ा है कि वह एक मिनट को भी उसका साथ नहीं छोड़ता । जीव को आत्मतत्त्व की कथा जिससे आत्मकल्याण हो ऐसा वर्णन सुनने को नहीं मिला, और भाग्यवशात् कभी प्राप्त भी हुआ तो उसका उपयोग नहीं कर सका । किंतु काम आदिक कथायें अनादिकाल से सुनता आ रहा है और उन्हीं में सुख मानता आ रहा है । यदि इस जीव को मोक्ष संबंधी कथा सुनने को मिले और वह उस पर उपयोग दे तो उसका दुःख नष्ट हो जावे । राग-द्वेष ही दुःख हैं ये जहाँ नष्ट हो जावे वही दुःखों का नाश है । यह जीव अनंत संसार में अनादिकाल से भ्रमण कर रहा है । इनके मुख्य कारण हैं राग-द्वेष । जैसे कुम्हार का चाक एक कीली पर रखा है और कुम्हार उसे डंडे से घुमाता है तो वह घूमता है और बहुत देर तक घूमता रहता है । यदि उस चाक को, उस पहिये को उस कीली के नीचे उतार दिया जावे और फिर उसे डंडे से घुमाया जाये तो वह चाक घूम नहीं सकता है । उसी तरह से यह जीव यह आत्मा इस अनंत संसार में घूम रहा है और उस घूमने में पंच परिवर्तनों को पूरा कर रहा है । इस घूमने के कारण हैं राग-द्वेष । सो पहले इन राग-द्वेष को दूर करो, तभी सुख मिलेगा । संसार में कौनसा प्राणी ऐसा है जो सुख नहीं चाहता हो? 305-दुःख का बीज स्वयं की भूल—प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक जीव सुख चाहता है और दुःख से निवृत्त होना चाहता है । प्राणी जितने भी कार्य करता है वह सुख के लिये ही करता है किंतु सबसे बुरी बात यह हैं कि उसे यह ज्ञान नहीं है कि जो मैं कर रहा हूँ वह ठीक है या नहीं? वह सुख का मार्ग है या नहीं? इस जीव ने अनंत भव धारण किये और जो हुआ सो मानता रहा कि मैं अमुक हूँ । उसी में अपने को फंसाये रहा । मानता रहा मैं हूँ यह मैं बड़ी भारी व्याधि है जहाँ यह अहंकार का भाव न रहे वहाँ पर आनंद और सुख हो जावेगा । यह जीव अनादिकाल से मानता आ रहा है कि— मैं सुखी दुःखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव । मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, वे रूप सुभग मूरख प्रवीण । मैं सुखी हूँ थोड़ासा पैसा पास में हो गया अथवा कोई इष्ट वस्तु की प्राप्ति हुई सो मान लेता है कि मैं सुखी हूँ और थोड़ीसी आपत्ति के आते ही अथवा अनिष्ट का संयोग होने पर अपने को दु:खी मान लेता है मैं राजा हूँ, मैं गरीब हूँ इस तरह के विचार करता रहा । यह मोह में मेरे घर है, मेरे गाय, भैंस, हाथी, घोड़े आदिक धन है, मेरा प्रभुपना है, दुनिया के लोग मुझे आदर देते हैं, मैं बड़ा भारी नेता हूँ, मेरे लड़के स्त्री हैं, मैं बहुत बलवान हूँ तथा मैं दीन हूँ भिखारी हूँ और मैं रूपवान् हूँ तथा मैं कुरूप हूँ, मूरख हूँ मैं चतुर हूँ आदि नाना तरह से पर वस्तुओं को अपना मानता रहा है । अपने को राग-द्वेषरूप मानता आया है यह जीव अज्ञान में । 306-अपनी किस रूप में दर्शनीयता—जब इस जीव को अपनी असली हालत का पता लग जावेगा तब बोध होगा कि अभी तक मैं किस अंधकार में पड़ा हुआ था । मैं किन-किन को अपना मान रहा था । जिनसे मेरा रंच मात्र भी संबंध नहीं है, उन्हें मैं अपना मान रहा था । मैं तो एक हूँ । न मैं पुरुष हूँ, न मैं स्त्री हूँ और न परिवार खंडेलवाल आदि ही कोई हूँ; किंतु मैं तो शुद्ध ज्ञायक स्वरूप चेतन, ध्रुव निज रूप हूँ । मैं एक हूँ अच्छा, आप बताओ कि मनुष्य कौन है ? मनुष्य की बालक, वृद्ध, तरुण ये तीन अवस्था हैं तो बताओ इन तीन अवस्थाओं में से कौनसा मनुष्य है? यदि बालक को मनुष्य कहते हो तो तरुण जो है वह मनुष्य नहीं कहा जा सकता है तथा बालकपन मिटने पर मनुष्य का भी अभाव हो जायेगा ऐसा है नहीं । ऐसा मानो तो ठीक रहेगा कि जो इन तीनों में गया अर्थात् बूढ़ेपन में भी रहा तथा पहिले तरुणपन में गया और बालकपन में गया वही मनुष्य है । जिस मनुष्य को हम आंखों से नहीं देख सकते हैं, किंतु अपने ज्ञान से जान सकते हैं । इसी तरह से जो सब निज पर्यायों में एक हैं वह आत्मा है । आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होने पर ही आनंद का अनुभव होता है । 307-अपनी वर्तमान परिणति में प्रीति की अकर्तव्यता—अवस्था में लोभ न जावे तो क्रोध मान, माया आदिक कुछ भी न हो, किंतु अवस्था में जब लोभ जाता है तभी क्रोध मान माया आदि होते हैं । दुनिया में जो पदार्थ भी दिखते हैं वे सभी माया है और यह मोही जीव उन्हीं पर इतराता है उन्हीं पर घमंड करता है । उन्हीं पर काम भोगादि करना चाहता है यह अथवा करता है । अच्छे-अच्छे कपड़े जेवर गहने पहन लिये सो स्पर्शन इंद्रिय का भोग है । अच्छे-अच्छे मिष्टोसुस्वाद फल भोजन खाने वाले को मिले सो रसनाइंद्रिय का भोग । इसी तरह से यह जीव पंचेंद्रियों को भोगों में आसक्त हैं, उन्हीं की ओर इसका ध्यान है । अच्छे-2 पदार्थ देखे सो नेत्र इंद्रिय का भोग है । इसी भोग में आश्रय पड़ता है उसे कह देते हैं कि यह इस वस्तु का भोग है । वस्तुत: जीव पर पदार्थों का भोग कर नहीं सकता है । वह अपना ही भोग करता है । जीव पर में आसक्त हो नहीं सकता है किसी अन्य वस्तु के परिणमन से वह नहीं परिणमता, किसी अन्य पदार्थ की परिणति पदार्थ में नहीं होती है । मोही जीव मोह में ही आसक्त होता है देह में आसक्त हो नहीं सकता है किंतु फिर भी ऐसा मानता है, ऐसा कहता है कि देह मेरी है । जब शरीर से आत्मा अलग हो जाता है आत्मा का वियोग शरीर से हो जाता है तब शरीर मुर्दा हो जाता है । किंतु फिर भी यह जीव उस शरीर को ही अपना मानता है । एक क्षण भी अपनी आत्मा पर दया नहीं करता है, अपनी आत्मा का ध्यान नहीं करता है यह जीव की महान भूल है कि चेतनस्वरूप होकर भी अपनी आत्मा को नहीं पहिचान पा रहा है । 308-आत्मसेवा ही परमार्थ आत्मदया—एक राजा था । वह कहीं दूसरे राजा पर चढ़ाई करने गया, इधर अवसर देखकर एक दूसरे राजा ने उसके ऊपर चढ़ाई कर दी वहाँ का राज्यभार सब रानी के ऊपर था, तब रानी ने अपने सेनापति को बुला करके फौज ले जाकर युद्ध करने भेजा । सेनापति सेना लेकर चला रास्ते में शाम हो गई । सेनापति जैन था सो वह अपने हाथी पर बैठे ही बैठे सामायिक करने लगा । सामायिक में बोले कि हे पेड़ पत्तो मुझ से मेरे द्वारा तुम्हें जो भी कष्ट हुये हों उन्हें क्षमा करना । हे कीड़े मकोड़ों ! तुम्हें क्लिष्ट किया हो सो क्षमा करना, इस तरह से वे सामायिक करने लगे, किसी ने उनके ये वचन सुन लिये सो जा करके रानी से चुगली कर दी—कि रानी जी आपने अच्छा सेनापति भेजा वह क्या युद्ध करेगा जो कि पेड़ पौधों से कीड़े मकोड़ों से क्षमा याचना करता है? इधर सेनापति 3-4 दिन में विजय प्राप्त करके वापिस लौट आया । तब रानी ने सेनापति से पूछा कि सेनापति तुम तो पेड़ पौधों से क्षमा याचना करते थे फिर युद्ध में कैसे लड़े होंगे? तब सेनापति ने कहा कि महारानी में 24 घन्टे आपका नौकर नहीं हूँ । सुबह शाम मैं अपनी नौकरी करता हूँ । अपनी आत्मा की दया करता हूँ । उतने समय में मैं आपका कार्य नहीं करता हूँ । सो उतने समय में मैं अपनी आत्मा की दया अपनी आत्मा का ध्यान करता था । और आपके काम के समय आपका काम करता था । भैया आप बताओ कि आप लोगों ने अपनी आत्मा की दया के वास्ते कितना समय रखा है? अपनी आत्मा का ध्यान करने के लिये कितना समय निकाला है । 309-आत्मधर्म व मानवधर्म का अंतर—आत्मधर्म और मानवधर्म ये दो भिन्न स्वरूप हैं मानव-धर्म से तो पुण्य का बंध होता है और आत्मधर्म से मोक्षमार्ग चलता है जो कि वर्तमान में सुख का कारण तो है ही किंतु अगले भव में भी वह सुख का कारण है और निर्वाण पाने पर तो वह शाश्वत सुख पिंड है ही । मुझे अनाकुल अवस्था को सुख शब्द से कहना रुचता नहीं है किंतु रूढ़ि इस शब्द की अधिक है इसलिये कहा करता हूँ । अनाकुल अवस्था को आनंद शब्द से कहना मुझे अभीष्ट है । हां मैं न तो पुरुष हूँ और न स्त्री हूँ न नपुंसक हूँ, क्योंकि मैं यह कोई भी लिंग नहीं हूँ । पुरुष कहता है, मैं जाता हूँ । स्त्री कहती है, मैं जाती हूँ । यहाँ पर दोनों के लिये मैं का प्रयोग हुआ है इसीलिये अंग्रेजी में I यह भी तीनों लिंगों में एक सा है । देखो शाब्दिक दृष्टि से भी लिंग नहीं ऐसा विचार करो कि मैं तो कोई भी लिंग नहीं हूँ किंतु मैं सिर्फ चैतन्य मात्र हूँ जब ऐसी प्रतीति पैदा हो जावेगी तभी वास्तविक आनंद की प्राप्ति होगी । 310-पर को निज मानना ही क्लेश—पर वस्तु को अपना मानने में तो आकुलता बढ़ती है । जैसे शरीर को अपना मान लिया अपना मानने पर उसकी सेवा करनी होगी । सबेरे से उठकर तेल आदि की मालिश करना, साबुन से उसे नहलाना अच्छे सुगंधित तेल लगाना आदि । इज्जत बढ़ गई हर्ष हुआ । और इज्जत घट गई तो दुःख हुआ । यह हर्ष विषाद क्यों करना? आज मनुष्य पर्याय है किंतु वह कल नहीं है । इसलिये यह जो माया है इसके मोह का त्याग करो । मोह में बड़ा भारी दुःख होता है । जैसे किसी को एक रस्सी में सर्प का भ्रम हो गया कि यह तो सर्प है सो उसे नाना तरह के विकल्प पैदा होने लगे, अनेक संकट सामने आये, किंतु कुछ हिम्मत करके जब आगे बढ़कर देखा तब यह ज्ञात हुआ कि यह तो रस्सी है । उसी समय से सारे विकल्प, सारे दुःख नष्ट हो गये । सो अगर आप लोग सुखी होना चाहते हो, तो मिथ्या भ्रम को छोड्कर सम्यक्त्व की प्राप्ति करो उसी में सुख है । निर्विकल्प अवस्था में ही सुख है । 311-अपना शत्रु अपने में छुपा हुआ विकल्प—एक राजा था । वह जंगल में निकला । वह कहीं लड़ने जा रहा था । जंगल में मुनि महाराज मिल गये । सो वह राजा मुनि के पास बैठ गया और धर्मोपदेश सुनने लगा-इतने में ही उसका शत्रु उसी ओर बढ़ रहा था । सो वह राजा की सेना के शब्दों का, बाजों का, कोलाहल सुनकर कुछ सचेत हुआ । जब आवाज और पास आ गई तो राजा जो पहले पालथी लगाये बैठे थे तो अब पैरों के बल बैठ गया जब आवाज बिल्कुल पास आ गई तब राजा ने अपनी तलवार निकाल ली और उठकर खड़ा हो गया तब मुनिराज बोले राजन् क्या बात है जो तुम इतने व्याकुल हो रहे हो? राजा ने कहा प्रभो ! मेरा शत्रु पास आ रहा है सो मुझे क्रोध आ रहा है कि शत्रु को समाप्त कर दू । मुनिराज बाले—राजन् तुम ठीक कह रहे हो शत्रु को पास आने पर गुस्सा आना ही चाहिये । उसका नाश ही कर देना चाहिये । किंतु जो शत्रु तुम्हारे अंदर है, अत्यंत पास है पहले उसका नाश करो । राजा ने पूछा वह कौनसा शत्रु है? मुनिराज ने बताया कि जिससे तुम्हारे यह भाव पैदा हुआ कि मेरा शत्रु मेरे पास आ रहा है वही भाव सबसे बड़ा शत्रु है । राजा के ध्यान में बात आ गई और तुरंत ही दिगंबरी दीक्षा लेकर ध्यान में बैठ गया । इधर सारी सेना आई किंतु राजा को ध्यान करते देखकर राजा सहित पूरी सेना चरणों में नमस्कार करके लौट गई । कहने का मतलब यह है कि जब तक अपने स्वरूप का बोध नहीं हुआ तब तक ही आत्मा को सुखानुभव नहीं होता है आत्मा के मित्र आत्मा के शत्रु आत्मा के हितैषी सभी उसके अंदर ही मिलेंगे, बाहर इसका कुछ भी नहीं है । बाहर तो यह माया है सो दुःख देने वाला है, किंतु जीव इसे सुख समझता है । 312-पर का संग्रह व पर की चाह में क्लेश—एक ब्राह्मण था उसकी लड़की की शादी होने वाली थी सो वह राजा के पास पहुँचा और प्रार्थना की कि राजन् लड़की की शादी है सो कुछ मिलना चाहिये । राजा ने कहा कि अच्छा जाओ कल आना सो जो मांगोगे वही मिलेगा । ब्राह्मण खुशी-2 घर गया और अपनी टूटी हुई खाट पर जा लेटा । रास्ते में वह विचार करता है कि राजा ने मुझ से कह दिया है कि जो मांगोगे सो वही मिलेगा । सो मैं क्या मांगू । विचार किया 100) रुपये मांगूगा, किंतु फिर विचार करता है कि 100) रुपये से क्या होगा? मांगना चाहिये हजार । हजार-हजार से लाख करोड़ और फिर आधा राज । इस तरह से विचार करने लगा फिर बोला आधे राज से भी काम नहीं चलेगा । लोग तो यही कहेंगे कि यह उनका दिया हुआ राज्य है । इस तरह विचार करते-2 सुबह हो गया । सुबह भजन में बैठा, कुछ उसके अच्छे परिणाम हुए उसे ज्ञान हुआ कि बिना कुछ लिये तो हमें इतना विकल्प है और जब मैं राज्य ले लूंगा तो कितने विकल्प होंगे सुबह हुआ और झट उठकर नहा धो करके पूजा करने जाता है । इतने में ही बादशाह अपने घोड़े पर सवार हुये वहीं आता है । और पूछता है कहो ब्राह्मण देव क्या चाहिये । तब ब्राह्मण बोला कि राजन् मुझे कुछ नहीं चाहिए । क्योंकि बिना कुछ लिये तो रात में नींद नहीं आई और जब मैं कुछ ले लूंगा तब क्या हालत होगी? 313-आत्मकल्याण बाह्य संयोग से नहीं—देखो भैया ! आत्मकल्याण धन से नहीं होता है । और न वह कुटुंब पुत्रादि से होता है । आत्मकल्याण तो निजस्वभाव की दृष्टि से ही होगा । इस लिये प्रत्येक को चाहिये कि बाह्य पदार्थों से अपना संपर्क हटा करके अपनी आत्मा में एकत्व भाव पैदा करे उसी से कल्याण होगा । स्वभाव ज्ञान के बिना रंच मात्र भी सुख नहीं मिलेगा । इसलिये उस आत्मा के स्वभाव तक पहुँचना है । उसके पास पहुँचने पर ही अलौकिक एवं अनंत सुख की प्राप्ति होगी । यहाँ संसारी जीवों की कथा चल रही है कि वे मोह में किस तरह से भूले हैं । मोह के कारण उन्हें अपनी आत्मा की पहिचान नहीं है उन्हें अपने स्वभाव का ज्ञान नहीं हैं उसे पता नहीं है कि मेरा आत्मा ही मेरा पुत्र है । आत्मा ही मेरा पिता है एवं आत्मा ही मेरा गुरु और बंधुजन, मित्र है । उसे यह ज्ञान नहीं है कि मैं एक चेतन स्वरूप हूँ इन बातों का बोध न होने से यह जीव अनेक कष्ट अनेक तरह के दुःख उठा रहा है । इस जीव को महामोह रूप पिशाच लगा है । पिशाच के लगने पर जीव की क्या हालत होती है । वह अपने को भूल जाता है । उसे हिताहित का विवेक नहीं रहता है । इसी तरह से इस संसारी जीव को यह मोहरूपी पिशाच लगा है जिसके कारण यह अपना हित अहित नहीं विचार पाता है । 314-अज्ञान से दुष्पथ में सत्पथसी प्रतीति—इस मोह के कारण जीव कोल्हू के बैल की सदृश लादा जाता है । जैसे कोल्हू के बैल की आंख बंद हैं और वह कोल्हू में जुत रहा है वहाँ गोल चक्कर लगता हुआ भी वह अपने को यह मानता है मैं सीधा चल रहा हूँ । ठीक यही हालत इस जीव की है यह जीव भी मोह के कारण गोल-2 फिर रहा है । कभी नारकी कभी तिर्यंच और कभी आदमी इस तरह से चतुर्गति में पंच इंद्रियों के विषयों की चाह में, कभी स्पर्श में, कभी स्वाद में, कभी देखने में, सुनने में आदि विषय बाधा में चक्कर लगा रहा है जिस पर भी वह अपने को यही मानता है कि मैं ठीक चल रहा हूँ । मैं सीधा चल रहा हूँ । यदि इसे पता हो जावे कि मैं जिस मार्ग पर चल रहा हूँ वह ठीक नहीं है तो वह उस पथ से चलता हुआ रुक जावेगा । जैसे बैल को यह ज्ञान हो जावे कि मैं गोल-गोल चल रहा हूँ तो आंखें बंद रहने पर भी उसे चक्कर आ सकते हैं वह रुक जायेगा ज्ञान होने पर आत्मा का कल्याण हो सकता है । बिना ज्ञान के मोह-अज्ञान के ही कारण बैल के सदृश लदना पड़ता है । इसलिये मोह को छोड़ना चाहिये । मोह से अनेक इच्छायें पैदा होती है और इच्छाओं से अनेक दु:ख होते हैं । वह इच्छा चाहे सत् हो चाहे असत् । 315-सुख इच्छाओं के अभाव में—आपने इच्छा की कि आज पूजन करना है इच्छा होते ही व्याकुलता पैदा हो गई । सुबह हुआ जल्दी से शौच क्रियादि से निपटकर स्नान किया और मंदिर में पहुंचे, पूजन की । उसके बाद कुछ शांति का अनुभव हुआ सो वह शांति क्या पूजन करने से आई? नहीं । आपके अंदर जो इच्छा थी, इच्छा के कारण जो व्याकुल भाव थे उन व्याकुल भावों का मिटाना ही इच्छा का दूर होना ही शांत्यनुभव हुआ । पूजन के बाद और-और इच्छायें होती रहती हैं जैसे कि अब शांति पाठ विसर्जन आदि करना है । देखो शुभ इच्छाओं का जिन्हें लोग धर्म तक कह डालते हैं, परिणाम व्याकुलता ही मिला तब फिर अन्य इच्छावों के दु:ख का तो कहना ही क्या है? इस तरह से इच्छा मात्र से वेदना होती है । कहने का अर्थ यह है कि स्वानुभव से ही पूर्ण सुख मिलता है । इसलिये समस्त विकल्प को छोड़ करके आत्मचिंतन करना चाहिये । भगवान जिनेंद्र प्रभु ने तो यहाँ तक कहा है कि हे जीव तू यदि सुख चाहता है तो राग को छोड़ मुझ से भी राग को छोड़ । मेरे राग से मेरे ध्यान से तुझे सुख की प्राप्ति नहीं होगी । सुख तो स्वानुभव से ही प्राप्त होगा । इच्छाओं से सुख नहीं मिलने का । क्योंकि कई इच्छायें तो मनुष्य को बालक के समान होती हैं । बालक कहते हैं अज्ञानी को बालक जैसे इच्छा करता, उसका पूर्णहोना कठिन हो जाता है । 316-पर पदार्थ का हठ विपत्ति का स्वागत—एक बालक था; सो एक दिन वह हाथी को देख करके रीझ गया कि हमें तो हाथी चाहिए, खेलने का हाथी नहीं वरन् जानवर हाथी । घर के लोगों ने बहुत समझाया किंतु सभी समझावट निष्फल रही । उस शहर में एक के पास हाथी था । तब वे उनके घर जाकर बोले कि हमारा बच्चा हाथी के लिये मचला है सो आप कुछ देर के लिये अपना हाथी मेरे बच्चे के सामने कर दीजिये तो ठीक होगा । महावत हाथी लाया; तब बच्चे से कहा कि देख ये हैं सामने हाथी । तब बच्चा बोला कि नहीं सामने से क्या? हमें तो यह मोल खरीद दो । इसे हमारे घर में बाँध दो । घर बहुत बड़ा था हाथी घर में ले जा करके बांध दिया गया । अब वह बच्चा बोला कि हमारे खेलने का यह डिब्बा है ना, सो यह हाथी इसमें बंद कर दो । हम तो उससे खेलेंगे । आप विचार करो हाथी डिब्बी में कैसे रखा जा सकता है तो इस तरह की इच्छायें कभी भी पूर्ण नहीं हो सकती है और बच्चा हठ पकड़ लेता है । हठ भी बुरी बला है । हठ में कभी-2 धोका हानि उठानी पड़ती हुँ । हठ भी तो देखो संसारी जीवों की, असार न कुछ चीज पर ये हठ करते; सो उसके फल में हाथ कुछ नहीं लगता । एक सेठ साहब थे । एक दिन वे नाई से बोले कि हमारे बाल बनाओ हम तुझे कुछ देंगे । नाई ने पूछा हुजूर क्या देंगे? सेठ बोला कुछ देंगे । नाई ने हजामत बनाई । हजामत बन चुकी तब सेठ साहब ने अठन्नी निकालकर उस नाई को दी; किंतु नाई बोला-अठन्नी मुझे नहीं चाहिए मुझे तो आप कुछ दीजिये । सेठ साहब ने रुपया निकाला किंतु नाई तो हठ पकड़ गया था कि कुछ दीजिये । होते-2 सेठ साहब 5-10-100 एवं अशर्फी तक आये लेकिन नाई कुछ के सिवाय और लेने पर राजी हो न होवे । इधर सेठजी का समय दूध पीने का हुआ सो उन्होंने नाई से कहा कि पहले हमारा दूध लाओ । वह सामने लोटा रखा है उसे उठा दो फिर हम तुझे कुछ देंगे । नाई दूध का लोटा उठाकर लाया । दूध में कोयला पड़ा था कोयले को देख नाई बोला कि सेठ साहब दूध में तो कुछ पड़ा है । सेठ साहब प्रसन्नता से बोले भाई कुछ पड़ा हैं, तो तू निकाल ले क्योंकि तुझे कुछ देना है, तूने ही कुछ बता दिया सो उसे तू ले-ले । देखा कुछ की हठ में मिला कोयला । यह हठ बुरी चीज है । 317-तृष्णा का फल क्लेश—हठ आदि यह सब माया के कारण हैं । तृष्णा का परिणाम है । तृष्णा में यह जीव उतना व्याप्त है कि इसे अपनी सुध नहीं है । तृष्णा दुःख का घर है । एक सेठजी के पास एक बढ़ई रहता था । वह प्रतिदिन दो रुपया कमाता और बढ़िया से बढ़िया भोजन करता, अच्छे कपड़े पहिनता था । किंतु सेठजी के यहाँ पर साधारण भोजन बनता था । यह देख सेठानी जी ने सेठजी से कहा कि आपके पास इतनी संपत्ति है फिर भी आप ये निम्न श्रेणी का भोजन करते हो । आप देखो आपके पास यह बढ़ई रहता है जो कि प्रतिदिन दो रुपया पैदा करता है किंतु भोजन कितना अच्छा खाता है तब सेठजी ने कहा कि तुम इस बात को नहीं जानती हो । अभी यह निन्यानवे के चक्कर में नहीं पड़ा है और जिस दिन उसके चक्कर में पड़ जायगा उसी दिन से यह सारी बातें, ऐसो आराम भूल जायेगा । सेठानी ने कहा तो आप 99 वे के चक्कर में डाल दो जिससे मेरा दु:ख तो कम से कम दूर हो ही जावे । रात को सेठजी ने 99 रुपये एक थैली में भरकर उस बढ़ई के आंगन में फेंक दिये आदि । (ये कथा पीछे हो चुकी है) । रुपये पाकर वह बहुत प्रसन्न हुआ और फिर किस तरह से 99 के चक्कर में पड़ गया । वह शत-पति व हजारपति बनने के फिकर में हो गया । जब उसके यहाँ भी साधारण भोजन होने लगा तब सेठानी से सेठजी बोले कि अब देख लो वह 99 वे के चक्कर में आ गया है । कहने का मतलब यह है कि जीव तृष्णा से दुःख पाता है । सुख की कमी नहीं है किंतु कमी है आत्मा की और प्रवृत्ति की, लगन की । उस ओर लगन ही नहीं है । पांच इंद्रियों के विषय में फंसकर यह जीव भले बुरे का विवेक नहीं रखता है और उन्हीं में सुख समझता है। 318-विषयवृत्ति के लिए पर की चाह—एक राजा था वह विषयों में बहुत आसक्त था । रानी को छोड़कर वह रहना ही नहीं चाहता था । दिन रात रानी के साथ ही रहता था । उसे अपने राज्य का भी कोई ध्यान नहीं था इस अवस्था को देख करके मंत्रियों ने राजा से निवेदन किया कि महाराज आप राजकाज की ओर दृष्टि ही नहीं रखते हैं इस तरह कैसे काम चलेगा? या तो आप रानी जी को ले करके जंगल में चले जावें अथवा दो चार घंटे राज-काज देखें । राजा को पहली बात ठीक जंची और वह रानी को लेकर अपना राज छोड़कर चल दिया, चलते-चलते एक शहर के नजदीक पहुँचे । राजा रानी को उस गांव के बाहर छोड़ करके खुद अंदर गये कि कुछ खाने का सामान ले आवे । इधर जहाँ पर रानी बैठी थी वहीं पास में एक गांव वाला अपना चरस चला रहा था । वह कुबड़ा था किंतु उसका गला इतना सुंदर था कि उसकी आवाज को सुन करके रानी उस पर मोहित हो गई और उसके पास जा करके अपने को दासी बनाने की प्रार्थना की । किसान बोला कि आप इतने बड़े राजा की रानी हैं, कहीं राजा इस बात को सुन पावेंगे तो मुझे जिंदा ही जमीन में गाड़ देंगे । तब रानी बोली कि तुम इसकी चिंता मत करो, इसका प्रबंध मैं सब कर लुंगी । राजा जब खाद्य सामग्री ले करके लौटा तो रानी को उदास पाया । रानी से कारण पूछा, तब रानी ने कहा कि आज आपकी वर्षगांठ है, यदि आप अपने शहर में होते तो आज मैं आपकी वर्षगांठ कितने आनंद से मनाती । राजा ने कहा कि तुम्हें चिंतित होने की कोई बात नहीं है । तुम्हारे पीछे मैंने अपना राज्य छोड़ा और इधर उधर फिर रहा हूँ, फिर भी यदि तुम अप्रसन्न रही तो मुझे बहुत दुःख होगा । तुम जैसा कहोगी मैं वैसा करने को तैयार हूँ । कहो क्या चाहती हो? तब रानी ने कहा कि स्वामिन् ! आप फूल मंगाओ, उन फूलों की मैं मालायें बना करके आपको उनसे सजाऊंगी । तब मेरा हृदय प्रसन्न होगा । राजा ने फूल मंगाये और रानी ने मालायें बना करके राजा से ऊपर पर्वत पर चलने को कहा क्योंकि ऊपर से यह दृश्य अच्छा लगेगा । पर्वत के नीचे नदी बहती थी । रानी राजा को ले जाकर ऊपर पर्वत पर गई और मालाओं से राजा के सारे अवयव शरीर के बांध दिये और जब सब जगहों में माला पहना दी तब राजा को जोर का धक्का दिया, जिससे राजा नदी में गिरा और उसकी धार में बह निकला । बहते-बहते राजा एक देश के किनारे जा लगा । उस देश का महाराजा मर चुका था । उसी दिन मंत्रियों ने यह सलाह करके एक हाथी छोड़ा था कि हाथी जिसे अपनी पीठ पर बिठाकर लावेगा वही यहाँ का राजा होगा । हाथी इन्हीं महाराज को अपनी पीठ पर बिठलाकर ले गया । पुण्य के प्रताप से लौकिक सब कुछ ठीक होता है । राजा साहब इधर राज-काज को ले करके आनंदपूर्वक रहने लगे । अब जरा सा रानीजी का हाल भी सुनिये । रानी कुबड़े को लेकर एक डलिया में रख करके गली-2 नाचने लगी । उस कुबड़े से चलते तो बनता नहीं था । सो रानी उसे अपने सिर पर रखकर यह कहा करती थी कि मैं पतिव्रता नारी हूँ इसलिये अपने पति को अपने सिर पर रखे फिरती हूँ । इस तरह से वह ऐसा प्रचार करते-2 नाचते गाते उसी शहर में जा पहुंची । राजा के पास भी यह खबर पहुँची कि महाराज एक पतिव्रता नारी आई है । वह अपने पति को अपने सिर पर ही रखे फिरती है । राजा ने उसे बुलाया । रानी को देख करके राजा तुरंत पहिचान गया और वैराग्य को प्राप्त हुआ । इस तरह से शास्त्रों में विषयासक्तियों की अनेक कथायें मिलती हैं फिर भी यह जीव उनकी सुनकर उनसे नहीं छूटता है उन्हीं में फंसा हुआ है । क्रोध, मान, माया, लोभ, अनंत कथायें यह जीव अनादि काल से सुनता आ रहा है किंतु इन कथाओं से आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता है । आत्मा का कल्याण तो सम्यग्दर्शन से ही होगा । स्वानुभव प्राप्त होने पर सम्यग्दर्शन होता है । इसलिये स्वानुभव को प्राप्त करने की चेष्टा करना चाहिये । स्वानुभव के प्राप्त होने पर ही आपका कल्याण होगा । 319-जहाँ बसे उसी का राग—सब जीवलोक में पांचों इंद्रियों के विषयों की कहानी, बातचीत सुनी वे ही अनुभव में आई । कोई कहता है कि पांचों इंद्रियों के विषयों की कथा ही क्यों अनुभव में आई? क्योंकि उसे आत्मा का अनुभव नहीं था । आत्मा का ज्ञान इस जीव ने प्राप्त नहीं कर पाया, इंद्रिय सुख से ही यह सुख मानता रहा, इंद्रियों के अंदर ही वह अपने सुख को सीमित किये रहा । कोई जीव स्पर्शनइंद्रिय के विभव में सुखी है, तो कोई रसना इंद्रिय के विषय में सुखी है । अच्छे भोजन मिलना, स्वादिष्ट फलादि खा लेना ही वह सुख मानता है, किंतु वह वास्तव में सुख नहीं, मात्र अभाव है । यदि भोज्य पदार्थों में ही सुख है, तो जब उसका पेट भर जाता है तब खाना क्यों बंद कर देता है? उसे हमेशा खाते रहना चाहिये । पेट भर जाने पर भी 1-2 लड्डू जबरन उसके पेट में डाले जावें क्योंकि लड्डूओं से तो सुख मिलता है । किंतु पेट के पूर्ण होने पर यदि उससे कहा जाये कि 1 लड्डू खाने पर तुम्हें 50) दिये जावेंगे तो शायद वह दो एक लड्डू खा जावें, लेकिन उसके पश्चात् उससे कहा कि 1 लड्डू और खा लो हम तुम्हें 200 रुपया देंगे तो वह खाने को तैयार नहीं होता है । देख लो भैया ! अब भोग में दुःख होने लगा । इसका नाम सुख नहीं है । सुख तो वह है जिसके पाने पर कभी इच्छा ही न हो अथवा यों कहो कि जिस सुख का अंत नहीं वही सुख है । किंतु संसारी जीव पंचेंद्रियों के विषय में ही सुख मानता है । सभी प्राणियों की सभी जीवों की यही दशा है । इसका ही यह परिणाम है कि, आत्मज्ञान की ओर न यत्न है और न दृष्टि है । तभी तो देखो भैया ! तत्त्वचर्चा में धर्मोपदेशों में शास्त्र श्रवण में मनुष्यों को नींद आने लगती है । वहाँ पर मनुष्यों का मन नहीं लगता है । धर्म स्थानों में जनसंख्या बहुत कम होती है । धार्मिक पुस्तकों के पढ़ने में मन बहुत कम लगता है, किंतु उपन्यास आदि की गंदी पुस्तकें हैं उनके पढ़ने में मन बहुत ज्यादा लगता है । मनुष्य कहीं सफर को जाता है तो वह टाइम व्यतीत करने के लिए एक उपन्यास खरीद लेता है और उसके पढ़ने में ही आनंद तथा समय को खर्च करता है । जीव को जो रुचता है वह उसी को पाने की चेष्टा करता है उसी में अपना तन मन धन खर्च करता है और उसी में वह अपने को लगाता है । 320-धर्म की ओर नैसर्गिक रुचि—पहले के व्यक्तियों की रुचि धर्म की ओर अधिक रहती थी । वे लोग न्यायप्रिय भी होते थे । जिसके यहाँ जितना खर्च होता था उसकी उसको प्राप्ति होने पर दुकान बंद करके मंदिरजी में आकर बैठकर शास्त्र स्वाध्याय तत्त्वचर्चा में ही अपना समय व्यतीत करते थे । किंतु आजकल देखा जाता है—कि लोग फालतू में दुकान पर ही बैठे रहेंगे । ताश शतरंज आदि में अपना समय नष्ट करते रहते हैं आत्मोत्थान की ओर ध्यान नहीं देते हैं वे पंचेंद्रियों के विषयों को भोगते हैं उनमें ही सुख मानते हैं और दूसरे मनुष्यों के उपदेश देते हैं उन विषयों को भोगने की ओर अग्रसर करते हैं । उस ओर उन्हें प्रेरित करते हैं, उनके आचार्य बनते हैं । 321-श्रेष्ठ मन पाकर इसे विषयों में लगाना मूढता—इस जीव ने इतना उत्कृष्ट मन पाया कि अन्य किसी गति वाले को प्राप्त नहीं है, फिर भी यह जीव उस मन को पा करके उसका सदुपयोग नहीं करता है, उसे व्यर्थ में नष्ट करता है पंचेंद्रियों के विषय में रत रहता है । हाथी स्पर्शन इंद्रियों के विषय की लोलुपता में आ करके गड्ढे में गिर पड़ता है । मछली रसना इंद्रिय की लोलुपता में फंस करके अपने प्राण खो देती है भौंरा घ्राण इंद्रिय की लोलुपता में फंस करके कमल में बंद हो जाता है और अपने प्राणत्याग देता है किंतु मनुष्य पांचों इंद्रियों के विषयों से हमेशा ही रत रहता है किसी कवि ने कहा है कि:—
आहार-निद्रा-भय मैथुन च, सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणां । धर्मो हि तेषामधिको विशेषो, धर्मेण हीन: पशुभि: समान: ।
कवि के कहने का आशय है कि आहार (भोजन), सोना, भय और मैथुन इन चार बातों में पशु और मनुष्य बराबर हैं—किंतु मनुष्य में यदि अधिकता है तो धर्म की है जिसके कारण वह श्रेष्ठ है, धर्म से रहित पशु के समान है । यहाँ पर कवि ने मनुष्यों की ओर से पक्षपात किया है । क्योंकि कवि भी तो मनुष्य ही है । या यों कहो कि मनुष्य से डरकर कवि ने उन्हें पशुओं की समानता की श्रेणी में ले लिया है । किंतु वह मनुष्य जो धर्म से रहित है, धर्म से हीन है, पशुओं से भी नीच है । 322-धर्महीन मनुष्य से पशु की श्रेष्ठता—आप देख लो पशु-पक्षी जब पेटभर भोजन कर लेते हैं, उनका पेट भर जाता है तो ये रात्रि को नहीं खाते हैं, खैर पशु तो खा भी लेते हैं किंतु पक्षी तो एक भी ऐसा नहीं है कि जो रात को खाता हो । किंतु मनुष्य भोजन कर चुकने पर भी यदि कोई बढ़िया चाट वाला निकल पड़ता है तो एक दो आने की चाट खा लेता है । तो यहाँ पर भी पशु मनुष्य से श्रेष्ठ रहा । निद्रा में देख लीजिये । पशुओं की नींद प्रसिद्ध है, जरा सा आहट होने पर वे तुरंत जग जाते हैं उनका नियमित समय रहता है वे अपने ठीक समय पर जग जाते हैं । उन्हें जगाने के लिए कोई व्यक्ति नियुक्त नहीं रहता है और न होती है उनके लिए अलार्मवाच । मनुष्यों को घड़ी चाहिए घड़ी की घन्टी कान पर बज रही है फिर भी नींद नहीं खुलती है । इस तरह से निद्रा में भी मनुष्य पशु से कम है । अब भय में देखिये मनुष्य 24 घन्टे भयभीत रहता है किंतु पशु तो तब भयभीत होता है जब उसके ऊपर कोई लाठी डंडा उठाकर मारने आ जाता है तो भय जीतने में भी मनुष्य पशु से कम है । चौथी बात है मैथुन, सो मैथुन में देखिये कि मनुष्य ने रिकार्ड तोड़ दिया है । मनुष्य प्राय: दिन रात उसी में लगे रहते हैं । किंतु पशुओं का सालभर में 1 महीना या कोई भी समय निश्चित रहता है वे अपने उसी समय में भोग-मैथुन सेवन करते हैं । तो इस तरह से हम देखते हैं कि पशु इनमें भी इनसे कहीं ठीक है । 323-बिना सिखाये ही मोही के विषयों की सीख—यहां पर आचार्य पूज्य कुंदकुंद प्रभु कह रहे हैं कि इस जीव को विषय भोगों की कथा याद है । इनका उपदेश किसीने नहीं दिया । चोरी करने की शिक्षा कहीं नहीं दी जाती है, चोरी करना किसी को भी नहीं समझायी जाती है । विषय भोग करने की किसी को शिक्षा नहीं दी जाती है । किंतु ये काम प्राणी स्वयं ही करने लगते हैं । इनका ज्ञान जीव को स्वयं हो जाता है, स्वयं इन बातों को करता है । छल कपट की वार्ता में यह अपनी कीर्ति समझता है । जैसे कोई व्यक्ति छल पूर्वक बिना टिकट रेल में बैठकर टिकट चेकर की आंखों से बच निकलता है, तब वह अपनी प्रशंसा करता है कि मैंने फलाने को कैसा उल्लू बनाया आदि । कहने का मतलब इतना है कि इन कामों को यह जीव स्वत: करता है और दूसरों को उपदेश देता है, प्रेरणा करता है दूसरों का गुरु बनता है । 324-निज स्वभाव का एकत्व समझमें में श्रेय—इन पांच इंद्रियों के विषय की कथा अनेक बार सुनने में आई किंतु इस जीव ने अपने एकत्व की भावनारूप आत्मकथा को नहीं सुना, नहीं देखा । इस दुर्लभ मनुष्य भव को पा करके स्वभावभान बिना यदि व्यर्थ में नष्ट कर दिया तो अनंतकाल तक इसी संसार में भटकना पड़ेगा । जैसे कोई व्यक्ति अंधा है और उसके सिर में खाज है । वह व्यक्ति किसी नगर में घुसना चाहता है ऐसा नगर जिसके चारों ओर परकोटा खिंचा हुआ है । वह व्यक्ति परकोटे को पकड़ कर चलता है और चलते-2 जब नगर में घुसने का दरवाजा आता है उसी समय उसके सिर में खुजली पैदा होती है और वह दोनों हाथों से खाज को खुजाने लगता है । और वह दरवाजे को छोड़ करके आगे बड़ जाता है ।वह बाहर ही बाहर चक्कर लगाता रहता है, नगर के अंदर नहीं घुस पाता । इसी तरह यह जीव अपने विषय रूपी खाज को खुजाता रहा और इसी संसार में भटकता रहा है । इसका कारण है कि इसने अपनी आत्मा को नहीं पहचान पाया—आत्मा के एकत्व तक नहीं पहुँचा । मैं ध्रुव हूँ, चैतन्यमय हूँ, अहेतुक हूँ—सहजसिद्ध हूँ आदि तात्विक बातोंपर इसका ध्यान नहीं गया, इनकी कथा इसने नहीं सुनी अपने स्वभाव को नहीं जाना । जहाँ स्वभाव की बात आई वहीं पर भटक गया । शास्त्र में जहाँ यह वर्णन आता है कि 9 पूर्व 11 अंग के पाठी मुनि समता भावों को धारण किए होने पर भी उनके मिथ्यात्व का उदय है, व मिथ्यात्वी है । इसका कारण है कि वह वर्तमान पर्याय में अटककर रह जाता है । 325-भ्रम ही बड़ी विपदा—भ्रम होने पर यह जीव सच्ची बात को भी स्वीकार नहीं करता है । सच्ची बात को भी उल्टी असत्य मानता है । एक गांव में एक बढ़ई रहता था उसका मकान गांव के कोने पर ही था सो जितने भी रास्तागीर वहाँ से निकलते थे सो वे उससे रास्ता पूछे कि फलाने गाँव का कौनसा रास्ता है तो वह हमेशा उल्टा रास्ता बताता था जैसे कि है पूरब में पश्चिम की ओर बताता था एवं उस आदमी को समझा देता था कि इस गांव के लोग बहुत मजाकिया है इसलिये वे तुम्हें उल्टा रास्ता बतलावेंगे सो तुम किसी का विश्वास मत करना वह व्यक्ति बढ़ता । तब कुछ व्यक्ति, ग्राम वाले उससे पूछते कि भाई कहा जा रहे हो । वह बताता कि अमुक गाँव में । तब वे कहते कि भैया रास्ता ये नहीं है इसका रास्ता तो पूरब में है और तुम पश्चिम की ओर जा रहे हो किंतु वह किसी की बात नहीं मानता है और आगे बढ़ता जाता है । जब किसी दूसरे गाँव में पहुँचता है तब उसे अपनी गल्ती याद होती है । इसी तरह इस जीव को भ्रम है— इसलिए उसे सही मार्ग भी उल्टा प्रतीत होता है । क्रोध के फल क्या मिलेंगे या मिलते हैं? देखो अधिक क्रोध हुआ तो किसी को बुरा भला कह दिया तब मार पिटती है आदि अनेक दुर्दशायें होती है, फिर भी उसका क्रोध नहीं छूटता है इसका कारण है कि उसने क्रोध में ही हित समझ रखा है ऐसे ही मान माया के हाल हैं मायाचारी का कहीं आदर नहीं होता है मायाचारी कहता है कुछ करता है कुछ और मन में कुछ और ही रहती है हमेशा उसे अपनी बात खुल न जावे इसका भय बना रहता है । 326-माया एक शल्य है वह छुपाये भी नहीं छुपती—एक राजा था एक दिन वह बगीचे में घूमने गया । वहाँ एक सेव पेड़ से टूट करके नीचे गोबर में पड़ा था । राजा को वह सेव बहुत ही पसंद आया सो राजा ने उसे उठा करके गोबर पोंछ करके चारों ओर देखा कि कोई मुझे देख तो नहीं रहा है और उस सेव को खा लिया । वापिस जब महलों में आये दरबार लगा । बड़े-2 सेठ धनी व्यक्ति इकट्ठे हुये नाच गाने शुरू हो गये । नर्तकी ने कई गाने गा चुकने के बाद यह गाना गाया । ‘‘कह दूंगी ललन की बतिया।’’ इसको सुनकर राजा को शंका हुई, कि सेव खाते समय इसने मुझे देख लिया है सो कहती है कि मैं तो कह दूंगी । कहीं यह कह न देवे ऐसा विचार करके राजा ने अपना अमूल्य एक आभूषण उसे दे दिया । नर्तकी ने फिर वही गाया राजा ने दुबारा एक आभूषण दे दिया । नर्तकी ने अब की बार अन्य गाना गाया किंतु उसका कोई इनाम नहीं मिला । नर्तकी ने उससे बढ़िया से बढ़िया कई गाने गाये किंतु एक पर भी राजा ने इनाम नहीं दिया । तब ऐसा सोच करके कि महाराज को वही गाना पसंद आया है सो उसने फिर वही गाना गाया कि ‘‘कह दूंगी ललन की बतिया।’’ राजा ने फिर उसे एक आभूषण उतार कर दे दिया इस तरह से नर्तकी ने राजा के सारे आभूषण ले लिये । जब राजा के पास आभूषण नहीं बचे और नर्तकी ने फिर वही गाना गाया तब राजा क्रोधित होकर बोला कि जा कह देना, क्या कहेगी? यही ना, कि गोबर का सेव खाया था । कहने का अर्थ है कि कषाय मायाचार छुपाये छुपता नहीं है, माया खुल जानें पर फिर इज्जत नहीं रहती । छुप भी जावे तो क्या हित है अहित ही है । खोटे भावों से आत्मा का हित नहीं है । कषाय रहित अवस्था में ही सुख है, आत्मा का हित है । इस जीव के पास अनंत वैभव है अनंत ज्ञान शक्ति है, किंतु उसका ज्ञान नहीं है सो यह जीव दूसरों से आत्मा का हित पूछता फिरता है । 327-क्षणिक में ध्रुव को परिचय का उपाय—यह जीव पर्याय में आत्मा की खोज करता है और सुख चाहता है किंतु वह कैसे मिले । जीव की यह सबसे बड़ी मूर्खता है कि अपने अंदर अनंत सुख अनंत ज्ञान विद्यमान रहने पर भी उसे प्राप्त नहीं कर पाता है । जैसे कहते हैं कि मुझे सुन-2 आवे हांसी पानी में मीन प्यासी । पानी में रहते हुये भी मछली प्यासी अपने आत्मस्वभाव को पहिचानो तभी अनंतआनंद की प्राप्ति होगी । अहो ! भगवान स्वरूप यह समस्त जीव लोक संसार चक्र की कीली रूप जो अध्यवसान भाव है, उसमें अधिरोपित है । इसी कारण अनवरत परिवर्तन करता है, जिससे बुद्धि अव्यवस्थित है । यह मनमाना जो चाहे चाहा फिरता है । सारे इस विश्व पर एकच्छत्र राज्य करना चाहता है कदाचित यह असंभव भी संभव हो जाय तो भी संतोष नहीं हो सकता क्योंकि मोहपिशाच से ग्रस्त है । यह मोहग्रस्त प्राणी स्वभाव से च्युत होकर बाह्य पदार्थों की ओर उठकर पंचेंद्रिय के विषयों को संग्रहीत करता, अंगीकार करता । वहाँ भी किसी विषय में संतोष नहीं सो फिर-फिरकर उन्हीं विविध विषम विषयों में फंसा रहता है । हाय ! इस जीव को विषम विषयों की कथा आपत्स्वरूप भोगों की कथा तो अनंत बार श्रुत हुई, अनंत बार परिचित हुई, अनंत बार अनुभूत हुई । तभी तो इसी में अपने को रमाये रहता और कुछ भाषण योग्यता पाई तो दूसरों को भी काम भोग संबंधी बातों में लगाने को आचार्यसा बन जाता है । अहो मोहावृत प्रभो । तेरी प्रभुता तुझ में अनवरत अंत: प्रकाशमान है, किंतु अपनी स्वभाव प्रभुता पर दृष्टि न देकर विभावों को ही आत्मसर्वस्व मान लिया है इससे अखंड चित्पिंड निज तत्त्व की बात तेरे सुनने में भी नहीं आई, तब परिचय में नहीं आई, अनुभव को फिर अवकाश कहां? हे प्रभो ! निज एकत्व ही तो स्वभाव में देखना है । इतना काम तो कर । 328-इच्छा पीडित जीवों को कामभोगबंधकथा सुलभ होने से एकत्व की असुलभता—इन नाना जीव पर्यायों को निरखकर भो पर्याय में बुद्धि को न अटकाकर केवल जीव के सहज ज्ञान स्वभाव की दृष्टि करना श्रेयस्कर है और ऐसे एकत्व की दृष्टि बहुत कठिन है, बिरले ही पुरुष कर पाते हैं इसका कारण क्या है? जो बात मूल वस्तु है अपने में शाश्वत विराजमान है, जिसके आधार पर हम आप नाना विधिनिषेध सुख दुःख मौज रंज आदि किया करते हैं, ऐसे आधार मूल कारण पर आत्मतत्त्व को नहीं समझ पाते असुगम हो रहा है आत्मदर्शन, तो क्या वजह है? इसका कारण इसके वर्णन में ही आ जाता है । संसार के इन समस्त जीवों को काम भोग बंध की कथा रुचिकर हो रही है क्योंकि यह बराबर सुनने में आयी, वही परिचय में आयी, इसका ही अनुभव हुआ । बार-बार बात सुनकर उस प्रकार का दृश्य देखकर भी उसमें न लुभायें यह बिरले संत ही कर पाते हैं, यह काम विषय भोग के संबंध की बात क्यों लगायगी जीव को क्यों प्रवृत्ति करता है? यों प्रवृत्ति करता है कि उसे अंतरंग में कोई वेदना होती है वह अंतरंग वेदना है इच्छा । इस इच्छा से दु:ख होता है और उस दुःख को सह नहीं सकता इस कारण विषयों में प्रवृत्ति करता है । जैसे एक छोटीसी बात ले लो किसी को गुलाब के फूल की सुगंध लेने की इच्छा हुई अब बतलावो इस इच्छा की पूर्ति न हो तो उसका बिगाड़ क्या? बैठा है आराम से । क्या उसका नुकसान है? न दौड़े बाग में न करे बड़े उद्यम, आराम से बैठा रहे तो उसका क्या बिगाड़ है? क्या फूल न सूँघ पाने से वह मर जायगा? यह बात तो नहीं है लेकिन उसकी वह इच्छा ही उस प्रकार की है कि उसकी पूर्ति न होने से अंतरंग में अधीरता उत्पन्न होती है । एक बेटा माँ की गोंद में बैठा है सबके बीच मंदिर में या कहीं बच्चे को इच्छा हुई कि घर चले घर को अभी वह समझ भी नहीं पाया कि क्या कहलाता है घर? उसका घर तो उसकी माँ की गोद है, ईट पत्थरों में उस बच्चें का रखा क्या है? उसकी माँ यदि घर न जाय तो उसका बिगड़ता क्या है? लेकिन उस बच्चे को यदि यहाँ से घर जानें की इच्छा हो गयी तो वह बड़ी आफत मचा देता है । तो चाहे मामूली सी इच्छा लेकिन इच्छा का स्वरूप ही ऐसा है कि जीव को बेचैन कर देती है । तो क्यों काम भोग संबंधी कथा लग गयी? इस कारण लग गयी कि एक इच्छा जगी अंतरंग में, बस उसके अधीरता पैदा हो गई, बड़े वेग से उसके तृष्णा जगी । 329-तृष्णावश बेचैनी—भैया ! तृष्णा का भी हाल सुनो । पेटभर खाकर बैठे हैं और इतने में कोई चाट चटपटी वाले ने चाट की आवाज दी । पेट में जगह नहीं है मगर तृष्णा का आतंक तो आ गया । खायगा, खा भी न पायगा तो फेंक देगा मगर वह उस इच्छा के उत्पन्न हो जाने से अपने में बड़ी अधीरता उत्पन्न कर लेगा तो छोटी-छोटी बात की इच्छा भी तृष्णा का, अधीरता का रूप धारण कर लेती है । जीवन में ऐसे कई प्रसंग आये होंगे कि बड़ी-बड़ी बातें तो सहन हो गई और कोई छोटी बात ऐसा रूप धारण कर लेती कि उसकी विडंबना बन जाय और फिर इस जीव ने मामूली सपने जैसी इच्छा की कि मानसिक पीड़ा हुई । ‘‘तन की भूख है तनिक सी, तीन पाव या सेर । मन की भूख अपार है, लीलन चहे सुमेर।’’ तन की भूख की चिकित्सा ही यदि कुछ करनी पड़ रही तो वह कुछ विडंबना की बात नहीं पर इस मन को भूख तो अपार लगी है । तो तृष्णा का आतंक छाया है इस जीव में जिससे प्रेरित होकर यह कामभोग की व्यथाओं में लगता है । ये तृष्णायें क्यों लग गयी कि साथ में मोह पिशाच लगा है। जैसे जिस किसी महिला को भूत लग जाय तो उसे जरासी देर में प्यास लगने लगती है । तो जैसे पिशाच से गृहीत होने से तृष्णा लगती है इसी तरह मोह से उस गया जीव है सो उसके तृष्णा उठ गयी है । आत्मा की दृष्टि हो, जिनेंद्र देव पर विश्वास हो ऐसे हृदय में भूत तो आ ही नहीं सकता । श्रद्धा की हीनता हो और अपने में मायाचार बढ़ा हुआ है तो उसका ही दिल भूत बन जाता है । और कभी बहाने से भी भूत बताया जाता है कि इस बहाने जेठ जेठानी स्वसुर आदिक सभी लोग हमारे हाथ जोड़ लें नहीं तो ऐसे हाथ जोड़ता कौन है? किसी भी प्रकार हो, मोह ग्रस्त लेने पर तृष्णा का वेग बढ़ जाता है । 330-जीव पर आंतरिक आंधि का महान् संकट—इस जीव पर बहुत बड़ा संकट है उसे तो जानता नहीं और अज्ञानी जन धन पायेंगे तो धन के अभिमान में गरीबों को कुछ गिनते हो नहीं । दुनिया के लोगों को अपनी बहुत बड़ी शान बताते हैं । उन निर्दय पुरुषों के चित्त में इतनी भी दया नहीं है कि मैं यदि इस धन को इस तरह से बढ़ा रहा हूँ और शान दिखाकर आसमान में उठा जा रहा हूँ तो इससे इन बेचारे गरीबों के हृदय पर क्या बीतती होगी? उन निर्दय ज्ञान हीन धनिकों को इतनी भी दया नहीं है कि गरीबों के हृदय को भी तो छू सके । कोई सभ्य पुरुष अपना व्यवहार इस प्रकार रखता है कि मेरी ओर से लोगों पर अन्याय न हो और मेरी ही ओर से लोगों के चित्त पर कुछ आंधियां उत्पन्न न हों । तो मोह में यह जीव सारी अपनी शान बतावेगा किंतु अपने आपका ज्ञान न होने से वह बेचारा धनिक पुरुष बड़ा दयनीय है दया का पात्र है, कहां उपयोग गया है बाहर-बाहर ही रम रहा है, अपने अंत: आत्मदेव का स्पर्श करने का उसे कुछ ख्याल ही नहीं है । योग्यता भी नहीं है । तो होता क्या है? मोह पिशाच से वह दबा हुआ है । वह चाहता है कि सबकी संपत्ति पर मैं राज्य करूँ, तीन लोक की संपदा मेरे घर आये, सारे विश्व पर एक छत्र राज्य करूँ, तो इसका अर्थ यह हुआ कि ये सारे लोग भूखों मरें । सारे जग की संपदा मेरे घर आये पर धन की तृष्णा में आंतरिक असभ्यता बढ़ ही जाती हैं ऐसा करते समय कितना समय गुजर गया, करोड़ खरब वर्ष नहीं, करोड़ खरब सागर नहीं, अनंत काल व्यतीत हुआ । क्या अनंत काल से दुःख भोगते आने से यह दुःख का आदि हो गया और सहन शील हो गया, क्या यह बात हो गयी? यह तो बड़े सुभटपने की बात है? दुःख सहते जाते हैं और दुख के कारण में ही रमते जाते हैं, यह वृत्ति हो गई हे । 331-विकारों से बचने के लिये असत्संग की प्रतिपेध्यता—शास्त्रों में जो लिखा है कि असत्पुरुषों का संग क्षणमात्र को थी न हो, सत्पुरुषों का संग जान जानकर किया जाना चाहिये । और की तो बात क्या—यहाँ तक लिख दिया है कि जो अयोग्य हैं ऐसे पुरुषो को सुनाना और अध्ययन कराना यह संसार को बढ़ाने वाला है । इतने तीक्ष्ण शब्दों में जो वाक्य लिखे गए हैं उनका प्रयोजन क्या है? सब कोई अनुभव से जान सकते हैं । हमारी ज्ञानधारा निर्मल रहे और ज्ञान व शांति के लिए उत्साह बढता हुआ रहे ऐसा होने के लिए यही बात चाहिये थी जिसे कि समझाया गया है नीति शास्त्रों में । जब इन जीवों ने काम भोग बंध कथायें सुनी हैं, एक बार नहीं, अनंतबार परिचय में आया है और अनुभव भी करते आये, तो ऐसे जीवों को परभावों में विविक्त अपने आपके ही स्वरूप चतुष्टय में रहने वाले शुद्ध एकत्वस्वरूप की प्राप्ति कहाँ से हो? लोग बाह्य के ग्रहण में लाभ मानते हैं और ज्ञानीजन बाह्य के त्याग में लाभ मानते हैं । दृष्टि का कितना भेद है । देखो यह निज एकत्व नित्य व्यक्त है अज्ञानियों को अव्यक्त है । जिनके सम्यग्ज्ञान के नेत्र हैं उनको व्यक्त है और वे समझ रहे हैं कि जब से हमने समझ पाया तब से तो यह मुझे व्यक्त समझ में आ रहा है किंतु उसकी समझ से पहिले भी मुझ में यह एकत्व स्वरूप व्यक्त था, हम नहीं समझे । यह व्यक्त किस ढंग में था? परिणमन तो सारा विपरीत चल रहा है । भला जहाँ अज्ञान बस रहा है, मोह मिथ्यात्व जम रहा है, काम क्रोध, मान, माया लोभ के परिणमन चल रहे हे, खुद को समझ भी कुछ नहीं रहा, वहाँ भी यह एकत्व व्यक्त है । हां व्यक्त है । जैसे बिगड़ा होने पर भी चेतन जड़ नहीं बन सका इसका कारण क्या है? इसका जो कारण है वह यही है कि आत्मा का स्वभाव, चैतन्य का स्वभाव बिगड़ा होने पर भी किसी रूप से व्यक्त रहता है । उसका फल यहाँ समझमें आ गया । परिणमन की दृष्टि से देखो तो यह जीव अशुद्ध है । उस शुद्ध ज्ञान स्वभाव का कुछ आसार नजर नहीं आ रहा लेकिन मूल से मिटता नहीं, वह तत्त्व अंत: प्रकाशमान है । हाँ कषाय समुह से ऐसा एकमेक हो गया है कि तिरोभूत है । तिरोभूत होने पर भी अंत: व्यक्त कुछ चीज रह सकती कि नहीं? रह सकती है रहती ही है । 332-आत्मज्ञ व आत्मतत्त्व की उपासना की आवश्यकता—तिरोभूत होने की दशा में इस जीव ने उस स्वयं को जाना नहीं अपने को समझा नहीं, और जो समझने वाले पुरुष हैं विद्वान हैं आत्मज्ञ हैं उनकी उपासना नहीं की, देखिये भक्ति में वह सामर्थ्य है कि आप हजारों नया खर्च करके भी वह काम नहीं करा सकते किसी पुरुष से जो कि भक्ति उपासना सेवा से आप करा सकते हैं । खासकर विद्याध्ययन तो ऐसी चीज है । कोई कला सीखना हो तो उसका भी काम भक्ति और उपासना बिना नहीं होता है । आप स्कूलों में देख ले बहुत से लड़के पढ़ते हैं । कई लड़के धनिकों के भी पढ़ते हैं, बहुतसा रुपया भेंट भी करते हैं मास्टर को ट्यूसन रूप में वहीं कोई गरीब का भी लड़का है, लेकिन वह अपने गुरु के प्रति अनन्य भक्ति रखने वाला है, हृदय उसका सरल है कोई छल कपट नहीं है तो मास्टर जब सिखायेगा तो हृदय से उसकी अधिक दृष्टि उस गरीब पर होगी । हृदय कहाँ जायगा? पैसों से हृदय तो नहीं बनता । तो इस जीव ने न तो स्वयं आत्मतत्त्व को जाना और न आत्मज्ञ पुरुषों की उपासना की इन दो भूलों से इस जीव ने अपने आत्मतत्त्व की बात न कभी सुन पायी न परिचय में आ सकी न अनुभव में आ सकी, जिसका नुक्ता, जिसकी कुंजी अत्यंत सुगम है, लेकिन असंभव बन रही है । एक निर्मल भेद विज्ञान के द्वारा उस भेद विज्ञान में जो निर्मल विवेक प्रकाश है उस प्रकाश के द्वारा वह एकत्व पर से विविक्त करके निरख लिया जाता है । 333-धर्मपालन को स्वायत्तता—धर्मपालन कितना सुगम है । वाह्य दृष्टि बंद करें, अर्ंतदृष्टि लगायें, सब कल्पनाओं को ढीला कर दे तो आपको यहीं आत्मदर्शन हो सकेगा । यह कोई कठिन बात नहीं है, पर चाहिये हित की तीव्र रुचि । जिसे सम्यग्ज्ञान हो जाता है उसको यह स्पष्ट ध्यान में आता कि धन बहुत आये, बहुत बड़े तो उससे क्या, कहाँ धरना, कहा रक्षा करना, किसी को विभाग करना? ज्ञानी को तो सब आफत लग रही है और अज्ञानी जिसकी सम्हाल नहीं कर पाता, चाहे सब धन लुट रहा है लेकिन धन और आये यों फैलाव करना, दिमाग दौड़ाते रहना यह श्रम उसका जारी है लेकिन उसका जो निजी वैभव हैं वह सर्वोपरि हैं, उसकी प्राप्ति का उपाय कितना सुगम है । जब आत्मा में संतोष आता है तृप्ति आती है तो ये सब धन धूल समान लगते हैं । जैसे जब आपका पेट भर जाता है और अच्छा ठंडा पानी पीकर संतोष आ जाता है उस समय बहुत-बहुत स्वादिष्ट व्यंजन भी रख दिये जायें तो आपको वे धूल समान लगते कि नहीं । हाथ से वे व्यंजन अब छुवे नहीं जाते कि पेट भर गया, संतोष हो गया, तृप्ति हो गयी । ऐसी ही बात आत्मा की समझिये जब ज्ञान तत्त्व की उपासना करके अपने आत्मा में तृप्ति बन गयी, संतोष हो गया तब उसे और बाह्य धन मूल्यवान नहीं जंचते । तो एक यह सुगम नुक्ता कुंजी जब विदित नहीं हुई है जीवों को तो वे काम भोग बंध की कथाओं में लग गए । इन विकथाओं के इन कल्पनाओं के कारण अपने आपका यह सुंदर एकत्व सहज गंभीर धीर शुद्ध ज्ञानस्वभाव अब दुर्लभ हो गया, सुलभ नहीं रहा । सुंदर हैं तो यही एक अकिंचन शुद्ध ज्ञान स्वभाव । जब भी संकट कटेंगे तो इस ही अंतस्तत्व की दृष्टि से कटेंगे । जब काटने की इच्छा हो या समय आये तब इस अंतस्तत्व की दृष्टि करें । अभी कर लिया जाय तो अभी से संकट कटेंगे । 334-पर्याय में आत्मबुद्धि ही क्लेश का मूल—जीवों के पर्याय में आत्मबुद्धि है । यही जीव अनादि-काल से देह को ही आत्मा मानता आ रहा है इसलिए वह आत्मा को नहीं पहचान पाता है, आत्मा की पहिचान के बिना यह जीव चारों गतियों में भ्रमण करता आ रहा है बिना आत्मा के यह भ्रमण नहीं छूट सकता है इसलिये सबसे पहले आवश्यकता है आत्मा को पहिचानने की । आत्मा की पहिचान भेद विज्ञान से होती हैं । यह भेद विज्ञान दो में होता है । जैसे गेहूँ को बीनते समय दो ओर दृष्टि रहती हैं—गेहूँ और अगेहूं । गेहूँ को ग्रहण करना और अगेहूँ को छोड़ना उसी तरह से आत्मा और अनात्मा ये दो चीज हैं सो इनमें से आत्मा को ग्रहण करना, आत्मा को जानना और अनात्मा को त्यागना । यथार्थ भेद विज्ञान स्वभाव में तथा अस्वभाव में होता है । आत्मा का स्वभाव कैसा है? आत्मा ध्रुव है । चेतन है । अहेतुक है । सहजसिद्ध हैं । विभाव विपरीत भाव वाले हैं । स्वभाव और विभाव केवल सुक्षण का भेद ज्ञान किस नय से होगा ? व्यवहारनय से । क्योंकि दो वस्तुओं का ज्ञान व्यवहारनय से होता है । और एक वस्तु का ज्ञान होता है निश्चयनय से । स्वभाव और विभाव का ज्ञान कब होता है जबकि उसके अनंतानुबंधी कषाय कम होवे । अनंतानुबंधी कषाय के कम होने पर आत्मा को स्वभाव और विभाव का ज्ञान होता है । हां यह बात अवश्य है कि आत्मा के एकत्व को प्राप्त करना बहुत कठिन है दुर्लभ है । किंतु खाने पीने की बातें बहुत जल्दी प्राप्त कर लेता है । आप देखो जो वस्तु कठिन है—अथवा कठिनता से प्राप्त होती है उस वस्तु से हमेशा प्रेम रहता है उसे हमेशा पास रखने की कोशिश करता है, मोही उल्टा ही काम करता है । 335-अपनी ही बात की सरलता—आजकल लोग कहते हैं कि सरल उपदेश होना चाहिए सरल ग्रंथ हो क्योंकि कठिन उपदेश एवं कठिन ग्रंथ हमारी समझ में नहीं आते हैं सरल उपदेश सरल ग्रंथ पुस्तकें हम लोगों की समझ में आ जाती हैं । देखो तो मोह का प्रताप जो वस्तु निज है अभी भी है सदा है उसकी बात तो कठिन मालुम होती है और जो अपने से भिन्न है उसकी बात सरल मालूम होती है । अधिक से अधिक सरल आत्मा को निज आत्मा ही है । भेद विज्ञान स्वभाव दृष्टि व स्वभावाश्रय सरल है क्योंकि यह सब स्वाधीन है । विषयों के प्रसंग कठिन हैं क्योंकि वे सब पर हैं । मोहियों की सरल पुस्तकें तो भैया स्टेशनों पर बिकने वाले उपन्यास आदि हैं । संसार के विषय सुलभ हैं । किंतु आत्मा का ज्ञान कठिन है दुर्लभ है । यदि वह आत्मज्ञान एक बार इस जीव ने प्राप्त कर लिया तो इसका कल्याण हो जावेगा । सो भैया अगर तुम सुखी बनना चाहते हो तो अपनी आत्मा को पहिचानों । सांसारिक पदार्थों में जितना सुख है उतना ही दुःख है । जीवन भर जिस पुत्र, स्त्री, धन आदि को अपना माना और उनमें सुख का अनुभव किया मरते समय वे ही दुःख के कारण हो जाते हैं । मरणकाल में उन पदार्थों में मोह अधिक बढ़ जाता है, मोह की अधिकता से मन में नाना तरह के विकल्प उठते हैं और वे विकल्प ही दुःख के कारण अथवा विकल्प ही दुःख हो जाते हैं । बंबई में एक बड़ा भारी सेठ रहता था । स्त्री से उसका बहुत प्रेम था । वह हर काम स्त्री के साथ ही किया करता था । मंदिर जावे तो स्त्री के साथ, भोजन करे तो स्त्री के साथ । कहने का अर्थ कि बिना स्त्री के रहना उसे पसंद ही न था अपने में इतना अधिक अनुराग देखकर स्त्री बोली कि आप इतना अधिक प्रेम न करे क्योंकि अभी आप इतना प्रेम करते हो तो जब मैं मर जाऊंगी तब आप पागल हो जायेंगे । कुछ दिनों के बाद स्त्री मर गई और वह सेठ पागल हो गया । कहने का तात्पर्य, प्रेम में जितना सुख है उतना ही दुःख है। 336-मोहियों की कल्पना धोखे से खाली नहीं—सांसारिक पदार्थों में जितना सुख है उतना ही दुःख हैं । खाने में यदि सुख है तो उत्तमोत्तम पदार्थों को हमेशा खाते रहो—पेट भर जानें पर खाते रहो, किंतु देखा यह जाता है कि थोड़ा सा खाने पर (पेट के भर जानें पर) वही भोजन अप्रिय हो जाता है और भूख लगने पर वही प्रिय लगने लगता है । इस तरह से हम देखते हैं कि संसार के किसी भी विषय भोग में आनंद नहीं है किंतु जब तक इस जीव को स्वभाव का परिचय नहीं है तभी तक पंचेंद्रियों के विषयों में आनंद सुख मानता है । यह जीव अनेक बार सम्राट, चक्रवर्ती, देव-इंद्र हुआ खूब धन, संपत्ति, वैभव प्राप्त किया किंतु वे वर्तमान में कुछ भी काम नहीं आ रहे हैं । धन संपत्ति, पुत्र-स्त्री आदिक ये आपके नहीं हैं किंतु आप इन्हें अपना मान रहे हो, मरणसमय कोई भी आपका साथ नहीं दे सकता सब कुछ यहीं पर रहेगा । आपकी वस्तु आपमें है । वह आप से बाहर नहीं जा सकती है और जो वस्तु आपकी नहीं है वह आप में आ नहीं सकती है । पदार्थ न इष्ट है और न अनिष्ट । किंतु हमने आपने उन्हें जिसे जैसा मान लिया सो वह वैसा ही प्रतीत होता है । यदि पदार्थ इष्ट और अनिष्ट है तो एक चीज जो आपको अच्छी लगती है वही अन्य को खराब तथा अहितकार सिद्ध क्यों होती है । आपको नीम की पत्ती कटु प्रतीत होती है किंतु ऊंट को वही रुचिकर है । इस तरह से पदार्थों में हम और आपने जैसी बुद्धि बना रखी है, उसे उसी तरह का मान लिया है । यह संसार स्वप्न की तरह है, अंधेर है । 337-भोगोकासयोग अनित्य—एक साधु मार्ग में जा रहा था । रास्ते में एक सेठ साहब की हवेली मिली । द्वार पर पहरेदार खड़ा था । साधु ने पहरेदार से पूछा कि यह धर्मशाला किसकी है, पहरेदार बोला कि साधु जी धर्मशाला आगे मिलेगी, यह धर्मशाला नहीं है । साधुजी बोले—हम यह नहीं पूछते हैं, हम तो यह पूछते हैं कि धर्मशाला किसकी है । पहरेदार ने फिर कहा कि साधुजी यह धर्मशाला नहीं है । साधु ने फिर कहा कि हम तो यह पूछते हैं कि धर्मशाला किसकी है । इस तरह से जब कुछ कोलाहलसा हुआ तब सेठ ने पहरेदार से पूछा कि क्या बात है? पहरेदार ने सारी बात बताई । सेठजी ने साधुजी को ऊपर बुलवाया और कहा कि साधुजी यह धर्मशाला नहीं है, यह तो हवेली है । तब साधुजी ने कहा कि आपकी यह हवेली किसने बनवाई थी । सेठजी बोले कि हमारे परदादा ने बनवाई थी । साधु बोले कि आपके परदादा इसमें कितने समय तक रहे थे । तब सेठजी ने कहा कि वे तो बनवाते ही मर गये थे, फिर हमारे पिताजी ने इसे बनवाई । वे कितने दिन इसमें रहे । 10-12 वर्ष के करीब । और आप कितने समय से इसमें रहते हैं? 20 वर्ष से । तब साधुजी ने कहा कि धर्मशाला में आदमी कितने दिन ठहर सकता है? 7 दिन । और, अगर आगे रहना हो तो? मंत्री आदि की आज्ञा से कुछ अवधि और बढ़ सकती हैं । तब साधु बोले कि यह धर्मशाला नहीं तो और क्या है । दस-बारह वर्ष रहकर और फिर इससे अलग हो जाते हैं । धर्मशाला में तो कुछ अवधि भी बढ़ जाती है किंतु इसमें तो जहाँ आयु कर्म पूरा हुआ फिर एक मिनिट भी नहीं रह सकता है । 338-विषयों के त्याग बिना शांति की असंभवता—संसार के सुखों में, जिन में जीवों को प्रेम बढ़ा है, क्षणिक सुख को सुख मानता, उसे एक बार अच्छी तरह से देखो—उसका अच्छी तरह से परिचय प्राप्त करो और देखो कि क्या ये वास्तविक सुख है । इंद्रिय विषय भोग में सुख नहीं है, पुण्य से प्राप्त जो वस्तुयें हैं उनके ग्रहण करने में सुख नहीं है, किंतु उनके त्याग में ही सुख है । आप देखो—रामचंद्रजी को पुण्य के प्रताप से प्राप्त जो वस्तुयें थीं उनसे कितना दुःख रहा—किंतु उनको जब उन्होंने त्यागा तभी सुख और आनंद मिला, आत्मा का ध्यान किया तभी अनंत सुख को पाया । पांडवों को देखो । इस तरह के कितने ही उदाहरण मिलते हैं । आत्मा के कल्याण के लिए कषाय, मान माया आदि का त्याग करना अत्यंत आवश्यक है । किंतु कषाय त्याग सम्यक्त्व होने पर ही संभव है । सम्यक्त्व भूतार्थनय से सत्त्व स्वरूप जानने से संभव है । ऐसा अवगम भेदविज्ञान से संभव है । भेदविज्ञान स्वस्वलक्षण परिचय से संभव है । स्वस्वलक्षण परिचय वस्तुस्वरूप के अध्ययन मनन से संभव है । अत: स्याद्वादपद्धति से वस्तुस्वरूप को जानो । प्रत्येक वस्तु स्वतंत्र हैं, प्रत्येक वस्तु निज-निज अनंतशक्तियों में तन्मय है, प्रत्येक शक्ति का प्रतिसमय परिणमन होता ही रहता है । ऐसी व्यवस्था सभी पदार्थों की है । इत्यादि । वस्तुस्वरूप के अध्ययन, अभ्यास प्रतीति होने पर आकुलता की कारणभूत दुर्बुद्धियों का अभाव हो जाता है । हमेशा ऐसे विचार करो कि जो आत्मा के अहित करने वाले राग-द्वेष मोहादिक विभाव परिणाम हैं उनसे यह आत्मा दूर रहे । जब ऐसे विचार आत्मा में पैदा हो जावेंगे तब आत्मा में एक अपूर्व आनंद पैदा होगा—वही आत्मा का वैभव है, बड़प्पन है । बड़प्पन वही है जो हमेशा रहे । वह बड़प्पन आत्मा के एकत्व प्राप्त होने पर होता है इस बड़प्पन के होने पर कषायें रह नहीं पाती हैं, अत: आत्मा का एकत्व प्राप्त हो ऐसे सत्प्रयत्न इस जीव को हमेशा करना चाहिए । 339-गाली को सुनकर अज्ञानी रोष क्यों करता—यह जीव अनादिकाल से मोह माया, कषाय, राग द्वेषादि में फंसा है । इसने अनेक बार उनकी कथायें सुनी । किंतु उन्हें इस तरह परिचय में नहीं लाया, कि इसमें सही बात क्या है? अज्ञानवश यथार्थ बातों का भ्रम के कारण असत्य मान बैठा । दुनियां में कोई गाली का शब्द नहीं है । गाली का प्रचार ही नहीं हुआ है । किंतु छोटे पुरुषों से बड़ी बात कही, उसने उसे गाली समझी । जैसे किसी गरीब आदमी से आप कहो कि आइये कुवेरजी आइये सेठ जी तो वह व्यक्ति आपके उन वचनों का क्या अर्थ करेगा? वह तो उन्हें अपनी निंदा ही समझेगा । इसी तरह से छोटे आदमी से बड़े वचन कहे । जिसमें जो योग्यता नहीं है उससे प्रशंसा के शब्द कहे किंतु उन पुरुषों ने उन्हें गाली समझी । जैसे—कहा नंगा । नंगा का अर्थ है नग्न: अर्थात जिसके पास कुछ भी नहीं है, निष्परिग्रही साधु (मुनि) किंतु छोटे पुरुष इसे गाली समझते हैं । पुंगा, पुंगव:—श्रेष्ठों में श्रेष्ठ, सिद्ध भगवान । लुच्चा लुंचा: जो केशों का लोच करे । गदहा गद रोग, ह—नष्ट करने वाला (जो रोगों को नष्ट करे सो गदहा गधा) । पाजी जो पापों को जीते वह है पाजी । पागल—पापों को गलाने वाला—जानवर जान यानी ज्ञानी और उसमें जो श्रेष्ठ हो वह ( विद्वान) । इस तरह से दुनियाँ में गाली नाम का कोई शब्द नहीं है किंतु छोटे पुरुषों ने अथवा जिसे अपना स्वयं का कुछ बोध नहीं ऐसे पुरुषों ने उच्च शब्दों को गाली समझी । यह जीव पर्याय को ही सर्वस्व आत्मा मानता आ रहा है इसलिये यह संकटों को, दु:खों को पा रहा है । 340-एक बार भी अपनी बात जानने में तो जुटों—अनंतबार जगत के जीवों ने सब कुछ सुना किंतु उस पर तथ्य का विचार नहीं किया । धन प्राप्त किया—मनुष्य जन्म प्राप्त दिया, उत्तम कुल प्राप्त किया किंतु इनका सदुपयोग नहीं किया । क्यों? ज्ञान के अभाव से, अब भी अवसर है, इस अवसर को हाथ से मत जाने दो । आत्मकल्याण के लिये ज्ञानाभ्यास करो । एक प्रौढ़शाला का निर्माण करो और उसमें तरुण वृद्ध सभी अध्ययन करो, एक पुस्तक विद्यार्थी की तरह पढ़ो । देखो एक ही वर्ष में आप लोगों का कितना परिवर्तन हो जावेगा । बिना ज्ञान के आत्मकल्याण होना बहुत कठिन है । छहढाला में कहा है—कि कोटि जन्म तप तपें ज्ञान बिना कर्म झरे जे ज्ञानी के छिन माहि त्रिगुप्ति तें सहज टरें ते । यानी अज्ञानी जीव करोड़ों वर्ष तक तप करके जितने कर्मों का क्षय करता है ज्ञानी जीव उतने ही कर्मों का त्रिगुप्ति—मन वचन काय इनके निरोध से क्षय कर डालते हैं । सौ भैया अगर अपना हित चाहते हो तो खूब ज्ञानाभ्यास करो, 24 घन्टे में-2 घन्टे विद्यार्थी की तरह एकाग्रचित्त करके एक पुस्तक पढ़ो; इससे तुम्हें बहुत लाभ होगा । बिना ज्ञान के आत्मकल्याण होना कठिन है इसलिये ज्ञानोपार्जन में जुट जाओ तभी कल्याण होगा । विषयकषायों की आपदायें आत्मज्ञान से ही शांत होंगी । आत्मज्ञान वही है, जहाँ ध्रुव, शुद्ध आत्मा का भान है । वह शुद्ध आत्मा कैसा है इस विषय में परम पूज्य श्री कुंदकुंदाचार्य अभी ही कहेंगे । इससे पहिले वे उस शुद्धात्मा का प्रतिपादन करने का उद्देश्य आदि सूचित करते हैं—