वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 3
From जैनकोष
ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो हु सुद्धणओ ।
भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठीं हवइ जीवो ।। 11 ।।
486-भूतार्थ के आश्रयी के सम्यग्दृष्टित्व—व्यवहारनय का क्यों नहीं अनुसरण करना चाहिये इसका उत्तर इस गाथा में दिया है । व्यवहारनय को अभ्युतार्थ कहा गया है और शुद्धनय को भूतार्थ कहा गया है । जो अभूतार्थ का आलंबन लेता है, अभूतार्थ को ही परमार्थ सत्य समझता है वह तो सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर पाता और जो भूतार्थ का आश्रय लेता है अर्थात् परमार्थस्वरूप का आश्रय करता है, सहज सत्य तथ्यभूत यह आत्मतत्त्व है, ऐसी समझ जब बनती है तब सम्यक्त्व की स्थिति होती है । व्यवहारनय सारा ही अभूतार्थ है । जो स्वयं सहज पदार्थ मैं नहीं हूँ, वह अभूतार्थ कहलाता है । जो उपाधि के संबंध से हों अथवा किसी दूसरे का मुकाबला करके तथा अपेक्षा करके जो धर्म बताया जाय वह सब अभूतार्थ है, किंतु शुद्धनय ही एक भूतार्थ है । वह भूत अर्थ को बताता है । शुद्धनय पदार्थ के सहजस्वरूप की ओर दृष्टि दिलाता है । अभूतार्थ में नर नारक तिर्यंच मनुष्य नाम वाला, पोजीशन वाला, धनी, ज्ञानी, पंडित, मूर्ख आदिक सभी परिणमन आ जाते हैं । ये ही परमार्थ स्वभाव है क्या, परमार्थ द्रव्य हैं क्या? नहीं हैं, क्योंकि ये सहज नहीं हैं । जो सत्त्व के कारण ही दूसरे की अपेक्षा लिए बिना अपने में ही अनादि अनंत स्वरूप मात्र हो वह है भूतार्थ का विषय । ऐसे उस आत्मतत्त्व पर दृष्टि हो, आलंबन हो, वैसा ही उपयोग लगे, तृप्ति बने, संतोष हो, प्रसन्नता बने तो यह है धर्मपालन का मार्ग । जो पुरुष भूतार्थ का आश्रय करता है वह सम्यग्दृष्टि है । 487-अभूतार्थ और भूतार्थ नय के आश्रययण का प्रभाव—जैसे गंदला पानी है तो गंदला यह देखना अभूतार्थ की दृष्टि है और उस गंदले में भी पानी का स्वभाव वह तो पानी रूप ही है स्वच्छ है, यों निरखना भूतार्थ की दृष्टि है । अथवा पानी गर्म हो गया, खौल गया ऐसा दिखा तो (एक दृष्टांतमात्र की बात है) अभूतार्थ और उसमें उसके स्वभाव को देखो तो वह भूतार्थ है । तो इसी प्रकार आत्मा में जो परिणमन हो गए हैं विभावरूप रागद्वेषादिकरूप उनको तकना सो अभूतार्थ का आश्रय हैं और अपने आत्मा में जो सहजस्वरूप बसा है उस पर दृष्टि होना सो है भूतार्थ का आश्रय । जो भूतार्थ का आलंबन लेता है वह सम्यग्दृष्टि है । जैसे गंदले पानी में कोई अपना व्यवहार करे—अर्थात् पीवे तो उसका जो प्रभाव हो सकता है दर्द करना, कोई रोग होना या बे स्वाद जंचना आदिक, होता है । विवेकी पुरुष होते हैं तो उसमें औषधि डालकर उसकी गंदगी अलग करते और उसका स्वभाव उसके शुद्ध स्वरूप के जल को अलग करके पी लेते हैं उसी तरह इस हालत में जब वह अशुद्ध और विकाररूप परिणमन चल रहा है इस हालत में अलग भी क्या किया जा सकता । अलग करना केवल ज्ञान के द्वारा ही होगा । भेदविज्ञानरूप औषधि को उन स्वभाव विभाव की संधि में डाल दिया जाय तो उपयोग में विभाव से विविक्त स्वभाव दिखेगा । फिर उस स्वभाव का ही आश्रय करके उपयोग में ले-ले तो उसका फल होगा, विशुद्धआनंद का अनुभव, सम्यक्त्व आदिक वे सब प्रभाव प्रकट हो जाते हैं । 488-एकांत अभिनिवेश में व मूढ़ भाव में एकत्व के दर्शन का अनवकाश—कुछ लोग विद्यावान होकर भी किसी आशायश, कषायवश अभूतार्थ के पोषण में ही समय गुजारे और अभूतार्थ की महिमा बड़प्पन ही सिद्ध करने में रातदिन ग्रंथों का उलटफेर करे तो इसका क्या प्रभाव होगा खुद के आत्मा पर । किसी भी क्षण भूतार्थ के विषयभूत शुद्ध ज्ञायकस्वभाव का आदर न जगेगा, उसकी आदेयता विदित न होगी, उसका दर्शन न होगा और शुद्ध स्वरूप के अनुभवन बिना, ज्ञान बिना, परिचय बिना यह सब बेकार है । कोई पुरुष ऐसे ही कषायवश अथवा आने सम्मान आदिक वश अपनी किसी भी आशा से जितना जो कुछ यथार्थ निमित्त नैमित्तिक संबंध है या जो कुछ कार्य कारणभाव है उसका निषेध करने के लिए शब्दों में यही खोजा करे और इस अभिनिवेश में यद्यपि कथन तो किया जायगा निश्चय का किंतु उसका अर्थ क्या है यह पता नहीं । वे शब्द बोल देने मात्र से वाच्य जो अंत: तत्त्व है उसका दर्शन और अनुभवन नहीं हो सकता क्योंकि उद्देश्य में अब दूसरी लौकिक बात आ गई है । व्यवहार-नय से सब कुछ जानो, पर जो वह क्षणिक है, औपाधिक है, प्रभाव है संबंध की बात है उससे तो उपेक्षा करना, चीज है वहाँ ऐसा मिलन है निमित्त नैमित्तिक संबंध, तो उस ज्ञान का निषेध तो न करना क्योंकि वह भी एक ज्ञेय है, व्यवहारनय से जाना गया है, सो व्यवहारनय का निरोध न करके मध्यस्थ होकर फिर निश्चय का आलंबन लेकर मोह को दूर करे तो यह शांतिलाभ की बात है । यह बात कही जाना चाहिये उनके बीच, जो इस तत्त्व के रुचिया हों और वहाँ ही कल्याण के लाभ की बात प्राप्त होती है किंतु जो पुरुष शरीर के आराम के लिए लोभी हुए हों अत्यंत आलसी हुए हों, अपने कर्तव्य में भी जिन्हें प्रमाद आये, ऐसे मोहयुक्त आशय वाले लोगों में भी इस भूतार्थनय के एकत्व की बात आ नहीं सकती । 489-एकत्वामृत व विषयविष की परस्पर प्रतिपक्षता—यह एकत्व ऐसा अमृत है कि इसकी रुचि, इसकी प्राप्ति के लिए तो तन, मन, धन वचन सब कुछ भी न्योछावर कर दिये जायें, ये क्या है? विनाशी का यह तन क्या सदा रहनेवाला है जो शरीर से काम करने का कष्ट न हो ऐसा लोभ रखा जाय? क्या यह मन सदा रहने वाला है? जो मन किसी विद्या के आदर के लिए न चले, कल्याण की प्रीति के लिए न चले, केवल विषय साधनों की ओर चले? क्या ये वचन यहाँ वहाँ की गप्पें करने के लिए ही है? इनका उपयोग आत्मतत्त्व की चर्चा करने में उसकी वार्ता करने में करना चाहिये था । तो ऐसे अनेक पुरुष जो अभूतार्थ के हठी हैं, जो अभूतार्थनय का विरोध करके भूतार्थनय के हठी हैं, जो अपने शरीर के आराम के लुब्ध हैं अथवा अपने कुटुंब के मोह में पड़े हुए हैं ऐसे अनेक पुरुषों को एकत्व की बात निश्चय की बात स्वप्न में भी नहीं समा सकती । कोई विधि होती है, कोई काम होता है तो किसी पद्धति से ही होता है । तो आत्मा अखंड प्रदेशी है । अब यहाँ जब अभेद क्षेत्र की अपेक्षा से आत्मा है, भेद क्षेत्र की अपेक्षा से वह आत्मा नहीं है । अभेद क्षेत्र की अपेक्षा से जब हमने पट देखा तो कपड़ा पूरा एक अभेदरूप हैं । जब कपड़े जुदे-जुदे तंतु रूप देख तो कपड़ा नाना तंतु रूप है 474-काल की अपेक्षा से वस्तु का कथन—काल माने समय । समय माने वस्तु का परिणमन । पर्याय दो प्रकार की है—1. सामान्य पर्याय, 2. विशेष पर्याय । सामान्य पर्याय विधि रूप है । विशेष पर्याय निषेध रूप है । सब पर्याय है, इसी को सामान्यकाल कहते हैं । विशेष पर्याय में निषेध चलता है । सामान्यपरिणमन का नाम सामान्यकाल है । विशेष परिणमन का नाम विशेषकाल है । मतलब यह हे पर्याय में विशिष्ट कल्पना न करो यह विधि कहलाता है । विशिष्ट पर्यायों का नाम लेते रहो, उसे प्रतिषेध कहते हैं । द्रव्य भेदाभेदात्मक है । द्रव्य यह तो पूर्ण सत् है । द्रव्य में अभेदविवक्षा से एक परिणमन होता है । अभेदविवक्षा से असंख्यात परिणमन हो जाते हैं । जब विशेष पर्याय का कथन है, विशेष की अपेक्षा से है, सामान्यकाल की अपेक्षा से नहीं है । जब सामान्य की अपेक्षा से कथन है, तब सामान्यकाल है, विशेषकाल नहीं है । इस प्रकार काल की अपेक्षा में वस्तु में अस्ति नास्ति घटाया । उदाहरण:—पट का परिणमन सामान्य परिणमन की अपेक्षा से है तो विशेष की विवक्षा से नहीं है । जब विशेष की अपेक्षा करें तो विशेष परिणमन से पट है, सामान्य परिणमन से पट नहीं है । तात्पर्य यह है कि काल की अपेक्षा से अस्तिनास्ति-2 प्रकार से है—1. सामान्य परिणमन और विशेष परिणमन की अपेक्षा से, 2. अभेद परिणमन और भेदपरिणमन की अपेक्षा से । 1. आत्मा की तीनों कालों की अनंत पर्यायें जाति अपेक्षा पर्यायें ही है । सो पर्याय है यह सामान्य परिणमन है । भिन्न-भिन्न समय के परिणमन विशेष परिणमन है । जो काल सामान्यकाल (सामान्य परिणमन) की अपेक्षा से है वह विशेषकाल की अपेक्षा से काल नहीं है । जो काल विशेषकाल की अपेक्षा से हैं वह सामान्यकाल की अपेक्षा से नहीं है । 2. आत्मा एक वस्तु है । इसका एक स्वभाव है और एक समय में एक परिणमन है । वह एक परिणमन अभेद परिणमन है । वस्तु के इस एक स्वभाव को समझने के लिये जो भेद किये जाते हैं वे अनेक शक्तियां (स्वभाव) गुण कहलाते हैं । इस दृष्टि से समझे गये गुण अनेक हैं । जितने गुण हैं उतनी ही उन गुणों की परिणतियाँ हैं । तब एक समय में अनंत गुणों की अपेक्षा से अनंत पर्यायें हुईं । अब अभेद परिणमन की दृष्टि से देखा गया जो काल है वह भेद परिणमन की दृष्टि नहीं है । भेद परिणमन की दृष्टि से देखा गया जो काल है वह अभेद परिणमन की दृष्टि से नहीं हैं । आत्मा का ज्ञान गुण आत्मा के स्वक्षेत्र में परिणमता है । ज्ञान-ज्ञान को ज्ञान से ज्ञान के लिये जानता है । निश्चयनय से आत्मा आत्मा को ही जानता है, लेकिन मालूम पड़ता है कि बाह्य पदार्थों को जान रहे हैं । आत्मा का ज्ञान आत्मा से बाहर के पदार्थों को नहीं जानता है । आत्मा जो कुछ करता है, वह सब अपने आपके लिये करता है, दूसरे के लिये हमारा आत्मा कुछ नहीं कर सकता है । प्रत्येक पदार्थ का काम परिणमना है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ सत् है । जो सत् होगा, वह अवश्य परिणमेगा । जो जैसा परिणमें, वह सब उसकी निजी योग्यता पर निर्भर है । हमने घड़ी जानी यह व्यवहार की भाषा है । परमार्थ की भाषा में हम घड़ी के आकार रूप जानने वाले आत्मा को ही जानते हैं । 475-व्यवहार की प्रयोजकता बताने का प्रसंग—समयसार में शंका की गई है कि व्यवहारनय को मत कहो, केवल परमार्थ के कहने से काम चल जायेगा, क्योंकि वही तो प्रयोजनीभूत हैं । इस शंका के उत्तर में यह समाधान दिया कि परमार्थ को कहने का उपाय ही व्यवहार है । जैसे श्रुत केवली उसे कहते हैं जो द्वादशांग श्रुत को जाने । लेकिन क्या आज तक किसी ने बाह्य द्वादशांग श्रुत को जाना? नहीं, यह तो व्यवहार की भाषा है । परमार्थ की भाषा में उसने द्वादशांगश्रुत के आकार रूप जानने वाले ज्ञेयाकार परिणमन में आत्मा को ही जाना । द्वादशांगश्रुत के जानने का ही अर्थ है, आत्मा को जानना । व्यवहार के बिना परमार्थ के समझने का काम नहीं चल सकता । व्यवहार परमार्थ का प्रतिपादक है । द्वादशांग श्रुत की ही बात क्या? किसी भी पदार्थ को जानने का ही अर्थ है आत्मा को जानना । इसका कारण है कि द्रव्य के गुण का परिणमन उस ही द्रव्य में है उसका प्रयोग भी उसी द्रव्य में है । अब आपने जान लिया होगा कि आत्मा निश्चय से किसको जानता है । इस तत्त्व को बताना यथार्थ में कठिन है सो जिस ज्ञेय पदार्थ के ग्रहणरूप निज ज्ञानवृत्ति रूप आत्मा परिणमता है उस ज्ञेय पदार्थ का नाम लेकर बताया जाता है । यह व्यवहार है और वह उस परमार्थतत्त्व का प्रतिपादक है । 476-वास्तविक बात को बताने का साधन व्यवहार—यदि व्यवहार न हो तो हम वास्तविक बात को प्रकट नहीं कर सकते । जैसे घड़े को जानने वाले का निश्चयनय से अर्थ यह है कि जो घट के आकार-रूप परिणमें हुए आत्मा को जाने, इसी को व्यवहार में, जो घड़े को जाने, कहते हैं । प्रत्येक द्रव्य अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में स्थित है, पर के द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव में कुछ भी नहीं कर सकता । अत: आत्मा परपदार्थ को कैसे जान सकता है अपनी आत्मा को ही तो जानेगा आत्मा अपने द्रव्य क्षेत्रकाल भाव से है पर के द्रव्य क्षेत्रकाल भाव से नहीं है यह परसापेक्ष स्याद्वाद है । अब स्वसापेक्ष स्याद्वाद से वस्तु का स्वरूप परखिये । अभेददृष्टि से आत्मा अखंड एकरूपवत् है और भेददृष्टि से गुण सत् पर्यायसत् आदि भेदरूप है । सो जो आत्मतत्त्व अभेददृष्टि से है वह भेददृष्टि से नहीं, जो भेददृष्टि से आत्मतत्त्व है वह अभेददृष्टि से नहीं । अभेद क्षेत्र एक अखंड क्षेत्र है, उसका कोई प्रदेश भेद नहीं है । तो जो अभेद क्षेत्र की दृष्टि से है, वह भेद क्षेत्र की दृष्टि से नहीं है । जीव असंख्यात प्रदेशी है तो भेद क्षेत्र की दृष्टि से । भेददृष्टि में जाना गया जो असंख्यात प्रदेशी जीव है वह अभेद क्षेत्र की दृष्टि से नहीं है । विशेष पर्याय की अपेक्षा से जो पर्याय है, वह सामान्य पदार्थ की अपेक्षा में नहीं है । सामान्य पर्याय की अपेक्षा से जो पर्याय है, वह विशेष पर्याय की दृष्टि से नहीं है । एक समय की हालत को एक पर्याय अभेद पर्याय कहते हैं उनमें गुणों की अपेक्षा से भेद करना भेद पर्याय है । अभेद पर्याय की दृष्टि में जो पर्याय है, वह भेद पर्याय की अपेक्षा से नहीं है । भेद पर्याय की दृष्टि से जो पर्याय है, वह अभेददृष्टि से नहीं है । इस प्रकार काल की अपेक्षा से अस्तिनास्ति है । भाव की अपेक्षा से जीव में अस्तिनास्ति इस प्रकार है—भाव को गुण शब्द से कहते हैं । गुण माने वस्तु का स्वभाव । वह भाव दो प्रकार से देखा जाता है—1. सामान्यभाव 2. विशेषभाव । आत्मा में अभेदरूप से एक गुण है । उसका नाम चैतन्य गुण है । भेद विवक्षा से ज्ञान, दर्शन, आदि अनंतगुण एव अनंत शक्तियां हैं । सामान्यभाव की अपेक्षा से जो वस्तु है, वह विशेषभाव की अपेक्षा से नहीं है । विशेषभाव की विवक्षा से जो वस्तु है, वह सामान्यभाव की अपेक्षा से नहीं है । 477-द्रव्य के सामान्यविशेषात्मक होने से द्रव्य को चतुष्टय की भी सामान्य विशेषात्मकता—द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव ये चारों सामान्य रूप हैं और विशेषरूप । सामान्य विवक्षा से जो वस्तु है, वह विशेष-विवक्षा से नहीं है । जो वस्तु विशेष की अपेक्षा से है वह सामान्य की अपेक्षा से नहीं है । जैसे पीला कपड़ा है, उसे दो दृष्टियों से देखा जा सकता है । 1. पीला कपड़ा, 2. सामान्य कपड़ा । जिस समय कपड़े को सामान्य दृष्टि से देखा, तब पीला कपड़ा नहीं है और जब विशेष कपड़े की (पीले कपड़े की) दृष्टि से देखा तो पीला कपड़ा है, सामान्य कपड़ा नहीं है । शंका—अस्ति नास्ति में से एक के कहने से काम चल जायेगा, फिर इतने वाग्विलास की क्या जरूरत है? समाधान—प्रत्येक वस्तु अपनी अपेक्षा से है, पर द्रव्य की अपेक्षा से नहीं है ऐसा जब है तब उसही तत्त्व को बताया है वस्तु को भली प्रकार समझाने के वास्ते अस्ति-नास्ति कहना आवश्यक है । अस्तिनास्ति में से यदि एक न मानो तो वस्तु ही मिट जायेगी । दोनों की श्रद्धा पर ही पर पदार्थ की पहिचान है—यह यही है, यह अन्य नहीं है । वस्तु अनेकांत स्वरूप है । अतएव वस्तुओं की व्यवस्था है । यदि अनेकांत सिद्धांत न हो तो वस्तु की व्यवस्था बैठ ही नहीं सकती दुनिया में जो वस्तु परिणमन करती है, वही वस्तु है । जो परिणमन ही नहीं करती, वह हो ही नहीं सकती । व्यवहारनय से ही पदार्थ का विशेष रूप में ज्ञान होता है । अस्ति न माने तो नास्ति नहीं, नास्ति न माने तो अस्ति का कोई अस्तित्व नहीं है । दोनों एक दूसरे के अभाव में मिट जायेंगे । वस्तु परमार्थत: जैसी है उसे क्या शब्दों से कहा जा सकता है? उसको बताने का व्यवहार है । जैसे आत्मा है और परिणमन करता है । यदि पूछा जाये कि बतावो आत्मा परमार्थत: क्या करता है । उत्तर मिलेगा जनता है । फिर प्रश्न होगा क्या जानता हें । अब उत्तर परमार्थ से दीजिये । बहुत ज्यादह गहरे उतरोगे तो बोलेंगे जो ज्ञेयाकार परिणमन ज्ञान का होता है उसे जानते हैं तो लो, ज्ञेय का (पर का) नाम लेकर व्यवहार तो बनाना ही पड़ा । अब सीधा कह दो ना व्यवहार से कि आत्मा अमुक पदार्थ को जानता है । परमार्थ से तो वह आत्मा को जानता है । कैसे परिणत आत्मा को जानता है यह बात भी वहाँ अवश्य है यहाँ तक भी निश्चय की बात रह गई मगर इसका प्रकटीकरण व्यवहार के बिना कैसे होगा? अत: व्यवहार परमार्थ का प्रतिपादक है । 478-प्रत्येक एक-एक की स्वतंत्रता—दुनिया में जितने भी पदार्थ हैं, वे सब एक दूसरे से बिल्कुल अलग है । हम जो विचार करते हैं, वह विचार भी हम नहीं हैं, वह विचार मेरा ध्रुव निरपेक्ष स्वभाव नहीं है जो जितना परिणमन करता है, वह अपने में ही कर सकता है, अपने से बाहर बिल्कुल परिणम ही नहीं कर सकता । एक परमाणु का कोई दूसरा टुकड़ा नहीं हो सकता । परमाणु ही उसे कहते हैं, जिसका दूसरा टुकड़ा न हो । अनेक परमाणुओं (स्कंध के) टुकड़े हो सकते हैं । वस्तु अखंड वहीं है, जिसका दूसरा हिस्सा न बन सके । एक हालत या परिणमन जितने में होवे उसे एक कहते हैं । जैसे पूरे आत्मा में एक साथ दुख होता है । क्योंकि वह एक है । जैसे हमारे हाथ की उंगली जल गई, लेकिन पूरा शरीर नहीं जला, अत: शरीर को अनेक परमाणुओं का पिंड समझना चाहिये । अंगुली भी एक वस्तु नहीं है । हर एक के आत्मा न्यारा-न्यारा है, कोई आत्मा किसी दूसरे आत्मा से मिला हुआ नहीं है । जिसने दूसरे को देखकर मोह बना लिया कि यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा पिता है । वह अज्ञानी है । किसी के घर में कोई बीमार है, उसको देखकर यदि उसे दया आती है वह दया नहीं है, वह मोह है । यदि अन्य दूसरों पर भी दया आती हो तो वहाँ भी दया की संभावना है । जो जीव संबंधियों से न्यारा हो जाता, है उस समय यदि सुमति उत्पन्न हो जाये तो समझो, उसने अपने दुःखों को दूर करने का रास्ता साफ कर लिया है और सत्पथ पर आरूढ़ है । यह संसार तो चार दिन की चाँदनी फिर अंधेरी रात है । कोई इस पर्याय को पाकर सदा नहीं रह सकता । सभी जीव अलग-अलग पर्यायों से आये हैं, और आयु पूर्ण होने पर सबको पर्याय बदलनी ही पड़ेगी । फिर भी यह जीव इन पर्यायों को अपना मानकर दुःख प्राप्त कर रहा है । इन पर्यायों को अपना मानने से बड़ा कोई दूसरा दुःख नहीं है । 479-भिन्न पदार्थों में एकत्व की कल्पना करना ही क्लेश का मूल—जगत् के जितने भी पदार्थ हैं वे सब न्यारे-न्यारे हैं । नाम चाहने से नाम नहीं मिलता और नाम की इच्छा करने से जिंदगी भर उलझनें नहीं मिट सकती । नाम साथ में भी तो नहीं जाना है । फिर यह मोही इस नाम के पीछे इतना क्यों पड़ा रहता है । नाम चाहना पर पदार्थ को अपना मानना, शरीर की रात दिन सेवा करना शरीर को सुंदर बनाने में ही अधिक समय गवाना—इन्हीं का नाम तो विपत्तियाँ हैं । कोई विपत्ति इनसे अलग चीज नहीं है । जब शरीर दुःख का खजाना है, तो यह मोही अज्ञानी इस क्षण नश्वर शरीर की इतनी क्यों सेवा करता है? एक दिन वह आना है, जिस दिन यह दिखने मात्र का सुंदर चमन मिट्टी बन जाना है । इसकी व्यर्थ में इतनी सेवा क्यों की जाये । जो शरीर का होना होगा, वह होगा । मुझे अपने आपको शांत विनयशील लोभरहित, क्षमाशील और ज्ञानोपयोगी बनाना है । इसके लिये आप में सर्वप्रथम प्रत्येक बात को सहने की शक्ति होना चाहिये । यदि कोई आपके प्रति गलती करता है, वह आपकी दृष्टि में पहले से ही क्षम्य होनी चाहिये । यदि कोई आप से छोटा गलती करता है, उसे छोटा अबोध समझकर माफ कर देना चाहिये । यदि आप से बड़ा कोई गलती करता है तो वस्तु स्वरूप विचार कर उसे क्षम्य समझो । इस संसार में कोई जीव किसी जीव का उपकार नहीं कर सकता है, न बुराई कर सकता । सब अपने आप में परिणमन करते हैं, मैं अपने आप में परिणमन करता हूँ फिर मैं क्रोध करके क्यों अपनी आत्मा को दूषित करूं? इस प्रकार के विचार करके सदा अपनी आत्मा के उत्थान में लगना चाहिये । अपमान को मानकर उसे समता पूर्वक सहन कर लेना चाहिये यही तो तप है । सहधर्मी बंधुओं के अपमानजनक वचनों को सहन कर लेना चाहिये । जब तुम्हें अपनी आत्मा का कल्याण करना है, फिर दूसरे की चिंता या मोह क्या करते हो? तो क्या मोह से कभी आत्मकल्याण हुआ है या होगा? नहीं, कदापि नहीं, हे आत्मन् ! दुखियों में बसकर और उनकी सेवा करके भी एक धर्मोत्साह बनाया जा सकता । मरने वाले के पास बैठना उसकी यथा शक्ति सेवा करना समाधिभाव का उपदेश करना यही वहाँ धर्म है । जब लोगों का अपने सहधर्मी भाइयों की दुखियों की सेवा की और ध्यान नहीं रहा, और भगवान की मूर्ति की भक्ति में ही कल्याण समझने लगे तभी तो अन्य लोगों ने देवपूजा (मूर्तिपूजा) का खंडन किया है । सदा सुखी रहना ही धर्म है । देवपूजा, स्वाध्याय, संयम, गुरुओं की सेवा तप व गरीबों की सेवा ये गृहस्थों के लिये षड् आवश्यक है । आचार्यों ने इन कृत्यों को आवश्यक (करणीय) की संज्ञा दी है । 480-ज्ञान ही सुख का मूल—ज्ञान है तो सब है, ज्ञान यदि नष्ट हो गया तो सब कुछ नष्ट हो गया अत: ज्ञान करो । विद्यार्थियों की तरह से अध्ययन करो तभी अच्छी तरह ज्ञान की प्राप्ति होती है । आप लोग अध्ययन करना केवल लड़कों का काम समझते हैं । अरे, जो-जो नहीं जानता, वह उसी विषय में बालक (अज्ञानी) है । अत: लड़कों की तरह अध्ययन करने में क्या शर्म? सिंह, सज्जन, हाथी—ये सब अपना स्थान छोड़ कर, दूसरे स्थानपर जाकर मरते हैं । कौआ, कायर पुरुष मृग—ये दूसरे स्थान पर भी हों तो भी अपने स्थान पर ही आकर मरते हैं । इनमें इतना शौर्य नहीं कि अपना स्थान छोड़कर मरे । इन्हें अंत तक कुटुंबियों का मोह सताता रहता है । जिसे मरते समय निरपेक्ष सद्गृहस्थों की लकड़ी मिले वह अच्छा है । कुटुंबियों के सामने मरने में मोह आ ही जाता है । यह मनुष्यभव इसलिये प्राप्त हुआ कि दिल का या विवेक का फक्कड़ न बन जाओ । मैं तीनों लोकों और तीनों कालों में मैं अकेला स्वयं हूँ । मेरा कोई साथ देने वाला नहीं है—ऐसा विचार करके ज्ञान साधना में जुटना चाहिये । आत्माज्ञान साधना से पुष्ट होता है । सुंदर भोज्य पदार्थों से तो शरीर पुष्ट होता है । ‘शरीर’ माने दुष्ट ‘शरारती’ । अर्थात् जो सदा शरारत करता रहे, उसे शरीर कहते हैं । इस शरीर को अहितकर जानकर आत्मसाधना में जुटाना चाहिये । ज्ञानप्राप्ति के साथ आत्मपरिणामों की निर्मलता होना जरूरी है । जितना अपने परिणामों की निर्मलता बना लीं, समझो । उतनी विभूति प्राप्त कर ली । आत्म परिमाणों की निर्मलता उत्कृष्ट विभूति है । जितनी परिणामों में मलिनता आई, समझो उतने गरीब हो गये । गरीब धनवान् होना आत्म-परिणामों पर निर्भर है । परिणामों की निर्मलता के विषय में चर्चा करना भी तो अच्छा है । विवेक से उसकी कषायों में शिथिलता तो आ जाती है । जिसे सम्यक्त्व प्राप्त है, वह कषायों को जीत ही लेता है । जैसे सम्मेदशिखर जी की यात्रा करने के लिये जवान और के जल्दी पहुंच जाते हैं और बड़े देर में पहुंच पाते हें—लेकिन पहुंच सभी जाते हैं । प्रयोजन यह है कि ज्ञानोपयोग में अधिक से अधिक समय व्यतीत होना चाहिये । शुद्ध आत्मतत्त्व को जानने के लिये प्रयत्न यह करना पड़ता कि सबसे भिन्न आत्मा समझे । सबसे भिन्न तब समझे जब सबका भी तो ज्ञान हो । सब पदार्थ चूंकि द्रव्य ही तो है अत: सब एक लक्षण से लक्षित हो सकते हैं । ऐसा जानने के पश्चात् असाधारण गुणों को जानकर भेदविज्ञान करे।
एक-एक वस्तु है । काल द्रव्य लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक है सो काल द्रव्य असंख्यात हैं वे वस्तु हैं । पहले वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानो, क्योंकि वस्तु के स्वरूप के ज्ञान बिना वस्तु का ज्ञान होना असंभव है । इसलिये वस्तु के यथार्थ स्वरूप से ही वस्तु का ज्ञान होगा ।
भैया ! यह बताओ कि आप जो पिंड स्वरूप यहाँ पर बैठे है वह एक वस्तु है या अनेक? अनेक है । यह जो पिंड दिख रहा है औदारिक शरीर इसमें अनंत पुद्गल परमाणु द्रव्य हैं और एक आत्मा है । इतने ही द्रव्य नहीं इस शरीर में असंख्यात त्रस जीव हैं । अनंत वादरनिगोद है और प्रत्येक जीव के साथ औदारिक शरीर के अतिरिक्त तेज शरीर और कार्मण शरीर है । प्रत्येक तैजस शरीर में अनंत परमाणु हैं और प्रत्येक कार्मण शरीर में तैजस शरीर से भी अनंत गुणे परमाणु द्रव्य है । अब देख लो भैया इस पिंडोला में अनंतानंत द्रव्य हैं किंतु मोही जीव इस सारे पिंड को समझता है कि यह सब इतना मैं ही हूँ । 246-अनेक को एक व एक को अनेक मानना मिथ्यात्व—अनेक वस्तु को एक मान लेना यही मिथ्यात्व है, इसी से मोह राग द्वेष पैदा होते हैं और ये ही सुख के नाश करने वाले तथा दुःख के कारण हैं । अनेक वस्तु को एक मान कर बाह्य पदार्थों को अपना मानकर यह जीव दुःख उपार्जन करता है । इस तरह संसार के सभी जीव दुखी हैं, वे सभी दुःख से छुटकारा पा करके सुखी बनना चाहते हैं, किंतु मोह राग द्वेष के वशीभूत होकर यह जीव निर्णय नहीं कर पाता कि सुख क्या वस्तु है और उसकी प्राप्ति कहां पर है ? मोह से हटिये, और निर्णय कीजिये सुख आत्मा का अभिन्न गुण है, इसका अपर नाम आनंद है इस गुण की व्यक्ति को सुख कहते हैं । वैसे तो सुख दु:ख दोनों आनंद गुण की व्यक्तियां हैं परंतु ये सुखदु:ख आनंद गुण की विकृत अवस्थायें है । आनंद गुण की स्वाभाविक दशा का नाम अहेतुक आनंद या सुख है । शब्दार्थ से देखो तो आनंद शब्द ही उपयुक्त है । सुख तो उसे कहते हैं जहाँ ख याने इंद्रिय को सु कहिये सुहावना भला लगे, वह विकार ही है यह सुख भी आनंदशक्ति से प्रकट होता है, आत्मा से प्रकट होता है । 247-क्लेश का कारण बाह्यसंपर्क—मोही जीवों की जरा दशा तो देखो; किसी के विचार से धन में सुख है, क्योंकि वह सोचता है कि धन से सभी कार्य किये जा सकते हैं, बड़े से बड़ा कर्म भी धन के द्वारा किया जा सकता है । धन के द्वारा जगत को अपना दास बनाया जा सकता है ऐसा मोही मानता है ।किंतु ऐसा विचार करना, धन से सुख की प्राप्ति चाहना नितांत मूर्खता है क्योंकि लौकिक रीति रिवाजों में भी देखा जाता है कि धन वालों को डाकुओं, चोरों का भय लगा रहता है । वे सुखपूर्वक रात्रि में सो भी नहीं पाते, कभी-2 प्राण रक्षा के हेतु धन को छोड़ कर भागते हैं । अत: धन से सुख है ऐसी मान्यता यह भ्रम है । भोजन के भोगों में भी सुख नहीं है, क्योंकि जो भोजन कुछ समय पूर्व सुखकर प्रतीत होता है वही भोजन पेट भर जाने पर अरुचिकर प्रतीत होता है । सभी इंद्रियों की ऐसी ही बात है, विषय की उन्मुखता में आकुलता ही है । भैया सुख तो आत्मा में लीन होने पर, आत्मा के स्वरूप को जानने पर ही प्राप्त होगा; इसके लिये यही ज्ञानोपयोग रहो । 248-वस्तु की स्वतंत्रता को प्रतीति की प्राथमिकता—एक वस्तु को एक मानों अनेक वस्तु को अनेक मानो । संसार के विषय भोगों को त्यागकर आत्मलीन होना ही सुख का मार्ग है । यह मार्ग वस्तु के यथार्थ ज्ञान से शीघ्र अभिव्यक्त होगा । वस्तु का ज्ञान करने के लिये दूसरी बात यह है कि जो अपने परिणमन से अपने में परिणमें दूसरे के परिणमन से न परिणमे वह वस्तु है । दुनियां में जितनी भी वस्तुएं हैं वे सभी अपने-अपने परिणमन से परिणमती हैं । एक के परिणमन से दूसरी नहीं परिणमती । इन दो बातों को जानने से ही वस्तु का ज्ञान होगा । अपनी परिणमति का ज्ञान कर लेने पर दु:ख नहीं होता हें । जैसे हम आपको शास्त्र सुनाते हैं, हम विचार करले कि हम तो अपना कार्य करते हैं, हम किसी को न सुनाते हैं न किसी को समझाते हैं किंतु अपनी कषाय चेष्टा में अपना कर्तव्य कर रहे हैं । इस चेष्टा के निमित्त से जिसे लाभ होना होगा वह हो लेगा । इस तरह की वस्तु की स्वतंत्रता वस्तु की दृष्टि होने पर कहीं कुछ परिणमों कभी यहाँ पर दु:ख पैदा न होगा । किंतु यदि हम यह सोचें कि हम तो इन्हें शास्त्र समझा रहे हैं और ये समझते नहीं हैं तो हमें दु:ख क्रोध पैदा होगा । इसलिये हमें विह्वलता के संताप से बचने के लिये अपनी निज परिणति का ज्ञान करना चाहिये । गुण, पर्याय को एकता की दृष्टि से द्वैत बुद्धि नष्ट होती है जिससे निज का अनुभव हो सकता । यदि अपने में स्वानुभव पैदा हो जाय तो दु:ख का नाम लेश भी न रहे । यह जीव एकता पर नहीं जाता है किंतु अनेकता पर जाता है और अनेकता पर भी एकता की मान्यता करता है । अनेकता को पकड़े हुए है । यदि वह जीव एक को एक और अनेक को अनेक माने तो सारे झगड़े ही मिट जावे । निज एक सत् है वह कभी नष्ट नहीं होता । देह वियोग के बाद भी रहेगा । अगर यह प्रतीति भी हो जावे कि हम तो मरने के बाद भी रहेंगे मरने पर यह शरीर नष्ट हो जायेगा किंतु हम तो रहेंगे उस समय हमारी क्या गति होगी? क्या हालत होगी? ऐसी प्रतीति होने पर धर्म की ओर अधिक लगन लगेगी । ज्ञान होने पर मोह के स्वप्नों की असारता का ज्ञान—ये बाह्य वस्तुओं के समागम तो क्षणिक है नश्वर हैं, सभी स्वप्नवत् हैं । जैसे स्वप्न में राजा बन जाना, अनेक प्रकार के ऐश्वर्यों को प्राप्त कर लेना दिखता किंतु उसी बीच में कोई जगा दे अथवा नींद खुल जावे, उस समय क्या हालत होती है, कुछ भी अपने पास नहीं रहता है । इसी तरह से ये बाह्य पदार्थ भी अपने नहीं हैं इनसे हमारा आपका कोई संबंध नहीं है । भैया आप लोगों में वस्तुओं का स्वस्वलक्षण देखकर पक्का निर्णय करलो । ज्ञान में आपदायें दूर होंगी । सबसे बड़ी दो कमजोरियां है, एक तो यह है कि आप कोई पुस्तक विद्यार्थी की भांति नहीं पढ़ते हो तथा दूसरी ये हैं कि आप शास्त्र में जो कुछ भी सुनते हो उसे दुहराते नहीं हो । इसलिये जो हालत प्राय: 10 वर्ष पूर्व थी वही हालत आज है । इस तरह से ज्ञान के आनंद की प्राप्ति नहीं होती है । आनंद तो भैया ज्ञान से मिलेगा, यह निश्चित समझो बिना ज्ञान के आनंद नहीं होगा । जैसा ज्ञान होगा वैसा ही आनंद मिलेगा, ज्ञान यदि उत्कृष्ट होगा तो आनंद भी उत्कृष्ट मिलेगा । इसलिये हमेशा ऐसे प्रयत्न करो कि ज्ञान की वृद्धि होवे । इन बाह्य पदार्थों से क्या मिलेगा? इनके संबंध से दुःख ही मिलेगा सुख नहीं मिल सकता है । 249-सुख में और आनंद में अंतर—सुख कहते हैं जो इंद्रियों को अच्छा लगे । सु माने अच्छा और ख नाम है इंद्रियों का, इंद्रियों को अच्छा लगे सो है सुख । सो सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख । ये परिवर्तन इन इंद्रिय के सुखों में लगे हैं, ‘चक्रवत् परिवतंते दु:खानि च सुखानि च ।’ इस तरह से इन परिवर्तनों में आत्मा का जो शाश्वत सुख है, जो अविनाशी सुख है वह प्राप्त नहीं होता है । इसलिये ऐसा प्रयत्न (उपाय) करना चाहिये जिससे आत्मा को अविनाशी सुख प्राप्त हो सकता है और वह तभी जब आत्मा का ज्ञान (स्वानुभव) खुद में होगा । जब आत्मा चारों ओर से समृद्धिशाली बनती है उसे आनंद कहते हैं और वह आनंद ज्ञान के द्वारा प्राप्त होता है, इसलिये उस आनंद को पाने की दृष्टि करो ।आनंद का समय तभी आवेगा जब कुटुंबी जन तथा शत्रु और मित्रों में समता आ जायगी । श्रीमत्पूज्य कुंदकुंद प्रभु ने कहा है कि एकत्व की दृष्टि से प्राप्त वस्तु ही सुंदर है । जैसे खालिस घी ही अच्छा है, मिला हुआ ठीक नहीं है । उसी तरह से आत्मा भी खालिस (यानि एकत्व का उपयोग) सुंदर है । आप में सभी शक्तियां मौजूद है, सब कुछ कर सकते हो आत्मा को देखने पर ही आनंद की प्राप्ति होती है; आत्मा के देखने पर आत्मा का ध्यान करने पर जो आनंद प्राप्त होता है वह तो वर्णनातीत है । वह आनंद तो पर्याय, इंद्र नागेंद्रों को भी प्राप्त नहीं होता है । बाह्य वस्तुओं के लक्ष्य से दुःख होता है, विकल्प उठते हैं और विकल्प उठ कर मरते हैं, फिर भी मनमाना हो नहीं पाता, सो देख लो दुःख ही दुःख है । 250-कोई किसी के सुख को न चाह सकता और न कर सकता—एक सेठ थे । उनके पाँच लाख की दौलत थी । एक दिन सेठ ने अपने चारों पुत्रों को बुला करके एक-एक लाख रुपया बांट दिया और अपने हिस्से का एक लाख रुपये के हीरे जवाहरातों को लेकर अपने मकान की दीवारों में गाड़ दिया । कुछ दिन बाद सेठजी बीमार पड़े और अंत समय में उनकी बोलती बंद हो गई यानी उनके वचन ही नहीं निकले । पंचलोग जुड़े और बोले कि—सेठ साहब आपका अंतिम समय है सो इस समय तो कुछ दान कर लो । सेठ साहब ने हाथ के इशारे से दीवार को बताया कि जो कुछ भी इनमें है वो सब मैंने दान किया ।किंतु वहीं पर सेठ के लड़के खड़े थे, सो वे बोले कि पिता जी कह रहे हैं कि मेरे पास तो जो कुछ था सो इन्हीं दीवारों में लगा दिया यानि ये घर खड़े कर दिये, अब मेरे पास तो कुछ भी नहीं, दान काहे का करूं ।उस समय सेठ साहब के मन में भारी विकल्प उठते थे किंतु क्या करे मुंह से कुछ कह ही नहीं पाते थे । बताओ विकल्पों का संकट झेल कर उम्र गुजारी और अंत में यह दुष्फल मिला । भैया ! जो कुछ करना है सो पहले कर लो क्योंकि यह जवानी अपेक्षाकृत बहुत ही उपयोगी वस्तु है । जिसने इस जवानी में ज्ञानोपार्जन नहीं किया वह वृद्धावस्था में तो क्या करेगा? जवानी में आप जैसा ज्ञान उपार्जन कर लेंगे वैसे ही संस्कार वृद्धावस्था में बने रहेंगे और उस समय विशेष ज्ञान भी पैदा कर सकते हो । यदि शुरू में ही ज्ञान की ओर ध्यान नहीं दिया तो आगे प्राय: कुछ भी नहीं कर सकते हो । 251-जड़समागम से आनंद के माप का अभाव—भैया ! यह बात तुम निश्चय से मानो कि यदि सुख अथवा आनंद मिलेगा तो ज्ञानभाव के द्वारा ही मिलेगा, आनंद के अनुकूल ज्ञान होगा तो आनंद मिलेगा । बाह्य पदार्थों से राग द्वेष मोह ममता आदि से सुख (आनंद) नहीं मिलता पै । लौकिक अमीरी गरीबी से सुख दुख नहीं मिलता है। एक राजा था, वह अपने शत्रु के ऊपर चढ़ाई करने जा रहा था । रास्ते में एक साधु को कोई एक पैसा भेंट में चढ़ा गया, जब साधु अपने ध्यान से उठे तो उन्होंने सोचा कि यह पैसा किसी गरीब व्यक्ति को दूंगा । उन्होंने गरीब को ढूँढ़ा किंतु उन्हें अत्यंत गरीब व्यक्ति न मिला । इतने में ही राजा की फौज वहाँ से निकली । साधु जी ने एक सिपाही से पूछा कि ये फौज कहां जा रही है? तब सिपाही बोला कि हमारा राजा अन्य राजा को जीतने उसकी धन दौलत को अपने कब्जे में करने के लिये जा रहा है । तब साधु ने विचार किया कि यह पैसा इसी राजा को देना चाहिये, क्योंकि इसे पैसे की सबसे अधिक आवश्यकता है, यह बड़ा गरीब है । ऐसा विचार कर उस पैसे को राजा की गोद में फैंक दिया । तब राजा बोला कि तुमने यह पैसा मेरे ऊपर क्यों फेंका? तब साधु ने कहा कि तुम गरीब हो इसलिये यह पैसा मैंने तुम्हें दिया है । राजा बोला कि मैं गरीब हूँ? मेरे पास इतनी दौलत इतनी फौज है फिर भी आप मुझे गरीब बताते हो? तब साधुजी बोले—कि राजन् यदि तुम गरीब न होते तो यह तृष्णा क्यों बढ़ती? राजा को बोध हुआ और वापिस लौट गया । जिसने स्वभाव की दृष्टि से अपने को देख लिया वह अमीर है और जिसने स्वभावदृष्टि से अपने को नहीं देखा वह गरीब है, इस वास्तविकता की प्रतीति करलो भैया ! 252-आत्मा का वैभव—यह आत्मा कितनी वैभवशाली है, आंखें बंद करके याने सभी इंद्रियों का व्यापार रोककर सभी विकल्पों को छोड़कर एकाग्रचित्त हो करके आत्मा को देखो तो आत्मा ज्योतिर्मय ज्ञानमय दिखेगा । आत्मा स्वतत्त्व है किसी के बंधन में नहीं है, उस एक आत्मा में समस्त, रस है, अथवा आत्मा स्वरस पूर्ण है । आत्मा को एक शक्ति में समस्त शक्तियां विद्यमान हैं । जैसे आप 50 दवाइयों को मिला करके कोई गोलियां बनाइये और उनमें से एक गोली का रंच भी हिस्सा खाओ तो 1 दवा का स्वाद आवेगा या 50 दवाओं का? 50 दवाओं का स्वाद ही उस एक गोली के अंश में आवेगा । यह तो, अभिन्नता बताने के लिये मोटा दृष्टांत दिया है । आत्मा की बात इससे भी ऊपर है । आत्मा में समस्त रस समस्त शक्तियां विद्यमान हैं । आत्मा के अनुभव से ही आत्मा का कल्याण होगा । बड़े-बड़े राजा लोग चक्रवर्ती आदि के आत्मानुभव करके ही अपनी आत्मा का कल्याण कर गये हैं । इसलिये भैया अगर आत्मकल्याण करना चाहते हो तो ज्ञान उपार्जन करो । शान उपार्जन के लिये एक पुस्तक क्रम से नियमपूर्वक पढ़ो और शास्त्र में जो सुनते हो उसे एक बार अवश्य दुहराओ । इन बातों से ज्ञानवृद्धि होगी और ज्ञानवृद्धि से ही आत्म तत्त्व की जानकारी प्राप्त होगी । 253-आत्मतत्त्व के आश्रय से ही कल्याण—आत्मतत्त्व के परिज्ञान होते ही विकल्प अवस्था में प्रतीतिपूर्वक कह उठोगे—एयत्तणिच्छयगओ समओ सव्वत्थ सुंदरोलोए । अब जग एकत्व-निश्चयगतता सप्ततत्त्वों में भी देखिये । सम्यग्दर्शन के स्वरूप के निश्चय के लिये प्रथम कारण कार्यों का ज्ञान यथार्थ करना होगा यहाँ सम्यग्दर्शन के स्वरूप व कारणों का कुछ वर्णन होगा कि वह सम्यग्दर्शन कैसे होता है । ये शरीर संपत्ति कुटुंब परिवार कभी भी आत्मा के नहीं हो सकते हैं, क्योंकि ये सभी नाशवान हैं व आत्मा से अत्यंत भिन्न है । जब कि आत्मा एक अविनाशी पदार्थ है वह अपने ही चतुष्टयमय है । जब तक दुनियां के पदार्थों में जीव का मोह रहता है तब तक वह कभी भी सुखी नहीं हो सकता है किंतु ज्ञानी जीव इन परपदार्थों के योग-वियोग में हर्ष विषाद को नहीं करता है क्योंकि वह पदार्थों के स्वभाव को जानता है कि सारे पदार्थ तो पर्याय से नाशवान हैं इनसे न तो मुझे कोई हानि है और न कोई लाभ है । कहने का मतलब है कि बिना सम्यग्दर्शन के यह जीव कभी भी सुखी नहीं हो सकता है । 254-तत्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शनम्—सात तत्वों का जैसा स्वरूप है उसी प्रकार से श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है । या यों कहिये कि आत्मा के स्वभाव का अटल विश्वास होना, वस्तु में अटल श्रद्धान होना सो सम्यग्दर्शन है । आत्मा का हित सम्यग्दर्शन में है, सम्यग्दर्शन पा लिया तो समझ लो कि त्रिलोक की विभूति पा ली है । यह शरीर तो जड़ है एक शरीर के बाद दूसरा शरीर मिलता है, यही सबसे बुरा है क्योंकि आज मनुष्य शरीर है तो न मालुम आगे किसका शरीर मिलता है, अथवा मनुष्य व देव का भी मिले तो भी क्या हित है? इसलिये इन बाधाओं को मिटाने के लिये प्रथम तो सम्यग्दर्शन को प्राप्त करो जिसके बिना लौकिक अच्छे भी कार्य मोह के नशे के काम हैं । सम्यक्त्व के बिना भगवान की पूजा भी एक व्यवसाय मात्र है । सम्यक्त्व पाने के लिये तुम्हें जो भी करना पड़े सो करो, तुम्हें कष्ट उठाना पड़े; तन मन खर्च करना पड़े तो करो । किसी भी हालत से सम्यक्त्व को प्राप्त करो । भैया यह उपचार से कहा जा रहा है । वस्तुत: सम्यग्दर्शन स्व के ही सहाय से होता है । 255 A-आत्मसुखसाधन में सम्यत्व का महत्व—विज्ञान का यह नियम है कि जो वस्तु सत् है उसका तो कभी नाश नहीं होता है, उनकी पर्यायों में भी तबदीली होती रहती है किंतु जो चीज है वह नहीं बदलती है । आत्मा सत् है आत्मा का नाश तो कभी होता ही नहीं है । अत: अपनी अब जुम्मेवारी समझो, इस आत्मा को सम्यक्त्व सहित बनाओ, क्योंकि सम्यक्त्व सहित आत्मा यदि है तो नरकों में भी दुःख नहीं है और यदि सम्यक्त्व नहीं है तो स्वर्ग में भी सुख नहीं है । इस तरह सम्यक्त्व का बड़ा भारी महत्त्व है । यह तो भावों में महत्त्व की बात है । वस्तुत: सम्यक्त्व का महत्त्व आत्मसुख से है । तो अब यहाँ विचार करना है कि वह सम्यक्त्व कैसे हो? कल के प्रकरण में वस्तु के बारे में दो बातें बूझी थीं । वस्तु वही है जिसका दूसरा टुकड़ा न हो सके तथा जो एक के परिणमन से दूसरा नहीं परिणमें सो वस्तु है । वस्तु के श्रद्धान से सम्यग्दर्शन होता है । जगत में वस्तुयें कितनी हैं? अनंतानंत जीव द्रव्य अनंतानंत पुद्गल द्रव्य, एक धर्मद्रव्य एक अधर्मद्रव्य, एक आकाश द्रव्य और असंख्यात कालद्रव्य । इस तरह से वस्तुयें अनंतानंत हैं और वे सभी अपने परिणमन से ही परिणमन हैं, दूसरे के परिणमन से नहीं । 255 B-वस्तुस्वरूप से विपरीत ज्ञान में दु:ख—सो भैया ! वस्तु का स्वरूप इस भांति है और मोही की मान्यता और भाँति है । यह महान दुःख की बात है कि यह जीव पर पदार्थ में बुद्धि को लगाये हुये हैं, जिसको देखकर यह जीव खुशी होता है, प्रसन्न होता है । जिनके संयोग से अपने को सुखी मानता है वे ही दुख के कारण है या बन जाते हैं । आत्मा के बिगाड़ के वे ही बाह्य कारण हैं ।अगर अपनी दया, आत्मा की दया समझ में आ जावे, उसकी प्रतीति हो जावे तो समझो कि आत्मा का कल्याण हो गया । आत्मा की हिंसा स्वभाव के विरुद्ध परिणति है और आत्मा की दया स्वभाव के अनुरूप परिणति है । आत्मा चैतन्य मात्र वस्तु है उसकी स्वाभाविक परिणति ज्ञाता दृष्टा रहना । इसके विरुद्ध जो श्रद्धा-विकार और चरित्र विकार है वही आत्मा की हिंसा है । पर चिंता में आत्मा विह्वल हो जाती है, पर के स्नेह करने में आत्मा कैसा विकल्पों से संतप्त होता है? फिर भी शांत होने का मार्ग नहीं पहचानता है, वह अनंत क्रोधी है, क्रूर है अपने आपकी करणा से शून्य है । 256-अपनी दया कब—अपनी दया तब समझ लीजिये कि जब यह भाव आ जावे कि आतम के अहित विषय कषाय इनमें मेरी परिणति न जाय । जिनके निज वस्तुत्व की प्रतीति हो जाती है, वह यदि चाहता है तो चाहता है निज वस्तुत्व विकास अथवा वह कुछ चाहता ही नहीं है ।यथार्थ रूप मैं जाता द्रष्टा रह जाता है और उसकी परिणति स्वाभाविकी हो ही जाती है । हाँ तो अपनी प्रतीति तभी समझना कि जब यह भावना पैदा हो जावे—आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय मैं रहूँ आप में आप लीन, सो करहु होऊं ज्यों निजाधीन । यानी आत्मा के अहित करनेवाले जो कषायादि भाव हैं उनसे मैं दूर रहूँ, मैं तो सिर्फ अपने में ही लीन रहूँ । उस निज की अमोघ अनुभूति कैसे हो इसका उपाय दर्शक श्री परम पूज्यपाद का वाक्य है—सर्वेंद्रियाणि संयम्यस्तिमितेनांतरात्मना । यत्क्षणं पश्यतो भाति तत्तत्वं परमात्मन: पांचों इंद्रिय तथा मन नामक अनिंद्रिय इन सबका संयमन करके विश्राम से रह जाओ स्वयं ही जो आप अनुभव करेंगे वही परमात्मा का स्वरूप है और वही स्वभाव की महिमा है । ये बाह्य पदार्थ सभी दुःख के कारण है । जब ऐसी भावना जागृत हो जावेगी तो वहाँ पर क्रोध, मान, माया, लोभ स्वत: मंद हो जावेंगे । यह जीव विचार करेगा कि ये राग द्वेष किसके लिये करना है—यह शरीर तो मेरा है नहीं । मैं तो शुद्ध चैतन्य स्वरूप अकेला हूँ । जहाँ मोह छूटा कि आत्मा का भला हुआ—किंतु सबसे बड़ा जंजाल है तो इस मोह का ही है । मलिन आत्मा इसी में फंसा है मोहियों के बीच में ही रहना पड़ता है इसलिये वैसाही अपने आपका अपने पर असर पड़ता है । यदि निर्मोही जीव की संगति मिले तो कुछ लाभ भी होवे । हां सम्यक्त्व हो जावे फिर भले ही मोहियों के बीच में रहना पड़े तो कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि ज्ञानी फिर तत्त्व कौतूहली हो जायगा । दुनियाँ में सम्यक्त्व ने बराबर कोई सुखकर नहीं है तथा मिथ्यात्व के बराबर कोई दु:खकर, अकल्याणकारी नहीं है । इसलिये अपने में सम्यक्त्व को जगाओ सम्यक्त्व को प्राप्त करो । सम्यक्त्व जगता है वस्तु विज्ञान से । वस्तु विज्ञान होता है वस्तु के स्वरूप जानने से । 257-वस्तु की स्वयं परिणमनशीलता—प्रत्येक द्रव्य हमेशा परिणमते रहते हैं, वे कभी भी खाली नहीं रहते हैं, सिद्ध भगवान भी हमेशा अपने में ही परिणमते रहते हैं । अगर आप कहो कि मैंने नौकर को आज्ञा दी सो उसने काम किया किंतु यह कोरा भ्रम है । आपकी आज्ञा से उसने काम नहीं किया किंतु उसकी इच्छा थी इसलिये उसने काम किया । उसे काम के बदले में कुछ मिले यह उसकी भावना है और इसी से काम करता है । हां आप उसमें निमित्त अवश्य हैं । काम भी देखो तो सबके अलग-अलग है, आत्मा का कार्य योग उपयोग है, भाषावर्गणा का कार्य वचन है, देह का काय वायु संचरण व प्रवृति है । जगत में सभी द्रव्य अपने ही परिणमन से परिणमते हैं, दूसरे का स्पर्श नहीं करते । हां यह बात अवश्य है एक दूसरे का निमित्त है, सो कोई सद्भावरूप निमित्त है और कोई अभाव रूप निमित्त है । सद्भावरूप निमित्त विभाव कार्यों का बाह्य हेतु है और अभावरूप निमित्त स्वभाविक परिणति तथा विषम परिणति का भी बाह्य हेतु है । काल द्रव्य सर्वत्र साधारण है वह चर्चा का विषय नहीं है । यह सब कुछ पद्धति हो तब भी प्रत्येक पदार्थ अपनी शक्ति के विकास से ही परिणमता है । देखो भैया ! व्यवहार में भी कोई किसी का बुरा करना चाहता है और इच्छा के अनुरूप देह चेष्टा भी होती है तथापि उसका परिणाम सावधान है अथवा पुण्योदयरूप बाह्य हेतु है तब बुरा नहीं होता । इसी तरह कोई किसी का भला करना चाहता है और इच्छा के अनुरूप वचन काय की चेष्टा होती हैं तथापि उसका परिणाम असावधान है अथवा पापोदय बाह्य हेतु है तब भला नहीं होता है । 258-अपनी सावधानी का सामर्थ्य—देखो गजकुमार मुनि, सुकौशल मुनि आदि के ऊपर कितने उपसर्ग हुए किंतु वे अपने परिणमन से ही अपने में अपनी दृष्टि द्वारा परिणमते रहे और मोक्ष चले गये । और उपसर्ग करने वाले अपने परिणमन से अपने में कषाय भाव पैदा करते रहे और पाप का बंध किया । आत्मा तो अमूर्तिक है वह तो सिर्फ इच्छा करता है, देहादि की क्रिया नहीं करता है । जैसे भोजन करने में आत्मा भोजन करने की इच्छामात्र करता है और क्रिया शरीर की होती है । हाँ भोजन पाने में इच्छावान् होने से आत्मा निमित्त कारण अवश्य है । एक वस्तु की बात उस एक ही में देखोगे तो वस्तु पद्धति शीघ्र समझ में आ जावेगी । हमने अपने हाथ की छाया पुस्तक पर की तो बताओ यह छाया पुस्तक की ही है अथवा हाथ की है ? यह छाया पुस्तक की ही है हाथ की नहीं है क्योंकि जिसकी जो चीज होती है वह उसमें ही रहती बाहर नहीं । हाथ का रूप रस हाथ में ही रहते हैं या बाहर भी? यदि हाथ में ही रहते हैं तो फिर इसकी छाया कैसे हाथ से बाहर आ सकती है? छाया पुस्तक की ही है वह तो हाथ को निमित्त पा करके प्रकट हो गई है । 259-किसी की परिणति किसी अन्य पर नहीं—आप पर मित्र ने प्रेम किया ऐसा कहते हैं ना । तो बतावो मित्र का प्रेम आप पर पहुँचता कि नहीं ? नहीं । मित्र का प्रेम मित्र से बाहर नहीं आ सकता है । यह तो सब अपनी-2 समझ है । वस्तु को निरखो, एकत्व निश्चय का व्यवहार करके शुद्ध देखो । अशुद्ध देखो परमशुद्ध देखो एक में देखो । इस पद्धति की दृष्टि में मोह, मिथ्यात्व समाप्त हो जावेगा । सम्यक्त्व के बिना संसार के प्राणी किस तरह से भटक रहे हैं, जन्म मरण के नाना तरह के दु:खों को उठा रहे हैं । अगर इन दु:खों से बचना चाहते हो तो सम्यक्त्व को पैदा करो । जो ये बुद्धि बनी रहती हैकि कमाओ, कमाते रहो और अंत में मर जाओ इस बुद्धि को छोड़कर समस्त बाह्य पदार्थों को छोड़कर निज को निज, पर को पर जान, फिर दुःख का नहिं लेश निदान । जहाँ निज के निजत्व का यह प्रतीति हो गई वहाँ दु:ख का नाम निशान भी नहीं रहता है । (प्रश्न)—महाराज यही तो नहीं होता है कैसे मोह छोड़ देव? (समा0)—देखो भैया ! तुम्हारे पास लाख दो लाख होंगे किंतु तुम देखो कि छहखंडों के स्वामी चक्रवर्ती ने भी अपने ऐश्वर्य को छोड़ा । अभी की बात देखना है तो देखो हुकम चंद सेठ ने भी अपने घर आदिक से मोह को तोड़ा । तो भैया ये सब कुछ हो सकते हैं किंतु इसके लिये लगन चाहिये । 260-लक्ष्यानुसार कार्य—इसलिये अपना लक्ष्य बनाओ कि हमें तो ऐसा बनना है । मन में तुमने लक्ष्य बना लिया कि हमें तो मुनि बनना है, फिर चाहे तुम इस जीवन में कभी भी न बन सको किंतु सिर्फ तुम्हारे लक्ष्यमात्र से तुम्हें धर्माभिमुख पुण्य बंध हो गया, स्वभाव का परिचय हो गया । इसलिये अपने मन में ऐसे विचार लाओ कि हमें तो अपना कल्याण करना है । इस तरह की भावना रखने से एक दिन वैसे हो भी ज़ावोगे । कहा भी है—‘यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी’ यानी जैसी जिसकी भावना होती है उसे सिद्धि भी वैसी ही मिलती है । इसलिये अपने में शुद्ध भावनाओं को आने दो । हमेशा निज एकत्व की शुद्धि रखो । समागम का उपयोग, समागम को सर्वथा मिटा देने के लिये करो । 261-मोह छूटने का उपाय सत्य ज्ञान—दो मित्र थे । दोनों स्वाध्याय किया करते थे । एक दिन वे बोले कि देखो जो पहले मरे और देव होवे तो वह दूसरे को संबोधन करने को आवे । बात तय हो गई उनमें से एक मित्र पहले मरा और देव हुआ; वहाँ उसने अपने अवधिज्ञान के द्वारा जब सारा हाल जाना तो वह अपने मित्र के पास आकर बोला कि देखो ये दुनियां नश्वर है ये माता पिता पुत्र स्त्री आदिक तेरे कुछ भी काम नहीं आवेंगे और तू उनमें इतनी प्रीति किये हैं । अब तो इनके ममत्व को छोड़ करके अपने आत्म कल्याण में लगो । वह मित्र बोला कि मैं कैसे मानूं, मुझे यह प्रतीति कैसे हो कि ये मेरे साथी नहीं हैं । ये सब कुटुंब के लोग आज्ञाकारी हैं । देव बोला कल तुम बीमारी का बहाना लेकर बीमार बन जाना मैं तुझे सब प्रतीति करा दूँगा । दूसरे दिन वह बीमार हो गया इधर देव ने अपना रूप वैद्य का बनाया और इधर उधर चक्कर लगाता हुआ वहीं आकर कहने लगा-मेरे पास हर रोग की शर्तिया दवा है । इधर दो चार डाक्टर वैद्य देख चुके थे । देव रूपी वैद्य को भी बुलाया । वैद्य जी ने एक गिलास में कुछ पानी मंगा करके उसमें थोड़ी भस्म डालकर और कुछ मंत्र सा पढ़कर उसकी मां को वह गिलास दिया और बोला कि इसे पीलो । सब लोग बोले कि बीमार को दवा खिलाई जाती है घरवालों को? तब वैद्यजी ने कहा कि मेरी दवाई में तो यह गुण है कि कोई भी पीले तो रोगी ठीक हो जायगा और जो कोई भी दवा को पीयेगा वह मर जावेगा । तब मां ने सोचा मेरे अभी चार लड़के और हैं अगर एक मर जायगा तो चार के सुख देखूँगी; अगर मैं ही मर गई तो सुख कौन देखेगा? ऐसा विचार करके उसने दवा पीने से मना कर दिया । इसी तरह घर के सभी लोगों ने मना कर दिया । तब उस देव ने धीरे से कान में कहा कि देख जिन्हें तू अपना मानता है ये कुछ भी तेरे नहीं । वह तो घटना देख ही रहा था सत्य ज्ञान हुआ और मोह छूटा । इसलिये इन समस्त बाह्य पदार्थों की दृष्टि छोड़ करके अपनी आत्मा का ध्यान करना चाहिये तभी कल्याण होगा, तभी शाश्वत आनंद मिलेगा । 262-एकत्वनिश्चयगत अंतस्तत्व की सहज सुंदरता—सर्व पर्यायों में, सर्व संसारी जीवों में एकत्व के निश्चय को रखते हुए देखा, जो अंतस्तत्व, वह सुंदर है, विवाद रहित है । बड़ा दृढ़तम अभ्यासी ज्ञानी पुरुष होता है वह जो जीवों को निरखते ही उनका मूल पदार्थ वहाँ दीखे । अज्ञानी तो पर्यायों पर ही दृष्टि रखे हुए है । जो पर्याय मिली, जो परिणमन चला उसी को ही निज मानकर सब कुछ मानकर उसी से ही व्यवहार करते हैं, किंतु ज्ञानी पुरुष सब जीवों में एक उस मूल तत्त्व को देखता है । कि जैसे यह जीव कीड़ा मकोड़ा हुआ, पशुपक्षी हुआ, कैसा ही इसके शरीर का ढाँचा बना, किस ही प्रकार इसका व्यवहार हुआ लेकिन यह तो देखो कि इसमें मूल कणिका क्या है, इन पर्यायों के होने का कारण है, यद्यपि विभाव निमित्त है, कर्मोदय उसके बंधन में कारण है विभाव तो ये सब जीवों के परिणत हुआ है, लेकिन वे विभाव कैसे आये और उन सबका मूल में आधार क्या है । तो विदित होगा कि स्वयं सत् सहज चैतन्यमात्र स्वभाववान पदार्थ है, उसके संबंध से ये दृश्यमान सारे आकार बन बैठे । और विस्तार से देखो तो जैसे अनेक लोग कहते हैं कि सब ब्रह्म का स्वरूप है सबमें ब्रह्म बसा है सब ब्रह्म की माया है । तो इसे घटित करके कि ब्रह्म का अर्थ है वह विशुद्ध सहज चैतन्यस्वरूप उसके ही संबंध का यह सब प्रताप है कि जो-जो कुछ हम आपको नजर आ रहा है । न हो चैतन का संबंध तो ये अवस्थायें बन कैसे जायेंगी? शरीर बना फिर वे बड़े फिर उनका फैलाव हुआ, ये किस प्रकार से परिणमे सब बातें किसी चेतना पदार्थ के संबंध बिना तो नहीं हो सकती। और जो पदार्थ सचित्त नहीं हैं अजीव हैं—लकड़ी, काठ, पत्थर, फर्श, चौकी वगैरह ये भी सकलें बनी कैसे हैं? तो ये भी पहिले जीवकाय थे, वनस्पति थे, पृथ्वीकाय थे, तब वहाँ चेतन पदार्थ का संबंध था । तो ये सब भी जो अजीव हैं ये भी सब ब्रह्म के प्रताप हैं, उस चित्स्वरूप के प्रताप है । तो यों चैतन्यपदार्थ दृश्यमान सबके मूल में इस निगाह से वही एक ब्रह्मचित्स्वरूप सार नजर आया । जो सर्व जीवों में इस एकत्व को निरखता है वह विवादरहित है । 263-सर्व जीवों में मूल चैतन्य स्वभाव देखने का अनुरोध—जो घर में जीव आये हैं उनमें भी देखो यही, जो अन्यत्र और माने गए लोग हैं उनमें भी देखो यही । इस मूल ज्ञान स्वभाव के दृश्य को अब राग कहाँ होगा, द्वेष कहाँ होगा, राग-द्वेष की जड़ है मोह अथवा कहो पर्यायबुद्धि । पर्याय ही सर्वस्व हितरूप सारभूत ज्ञान होता हो तो राग द्वेष उठेंगे और जहाँ ये सब मायारूप नजर आये, सारभूत तो एक चैतन्यस्वरूप ही विदित हुआ, वहाँ राग-द्वेष का अवकाश नहीं रहता । एकत्व के निश्चय को प्राप्त जो अंतस्तत्त्व है समय है, आत्मस्वरूप है वह समस्त जीव पर्यायों में सुंदर है । और फिर उस मूल पदार्थ को देखे तो सही लग रहा कि अपने सत्त्व के कारण वह जो है सो है पर यह विह्वलता हो क्यों गयी? तो एकत्व होने पर भी उस एकत्व पर श्रद्धा नहीं, उस एकत्व में रमते नहीं, तब जो मैं नहीं हूँ ऐसी पर्याय में आत्म सत्त्व का संबंध जोड़ा । संबंध मायने कर्म बंध हुआ तो सारा झगड़ा बन गया, बड़ा विसम्वाद बन बैठा । 264-प्रत्येक पदार्थ में एकत्व की अवश्यंभाविता—साधारण दृष्टि से भी देखो तो एकत्व सबका स्वरक्षित शीघ्र विदित हो जाता है । प्रत्येक पदार्थ अपने ही में रहने वाले गुण और पर्यायों को स्पर्शते हैं । अपने ही गुणों में रहते हैं, अपने ही गुणों की परिणतियां करते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ के स्वभाव में नहीं अड़ता भिड़ता, अर्थात् प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से कभी च्युत नहीं होते और इसी कारण किसी पर पदार्थ के रूप में परिणमन नहीं करते दर्पण के सामने हाथ आया और दर्पण में हस्ताकार छाया हो गयी इतने पर भी हाथ ने दर्पण में कुछ नहीं दिया । हाथ अपने प्रदेशों में पूरा का पूरा व्यवस्थित रहा, किंतु वह संपर्क वह सन्निधान ऐसा निमित्त हुआ कि दर्पण में छायारूप परिणमन हो गया इतने पर भी दर्पण में योग्यता थी और परिणमा भी तो एक छायारूप परिणमा, प्रतिबिंब रूप परिणमा कहीं अन्य के गुण धर्मरूप नहीं परिणम गया इसी प्रकार इस जीव के साथ कर्म उपाधि का संबंध है, उदय चल रहा है, इम निमित्त सन्निधान में यह आत्मा रागद्वेषादिकरूप परिणम रहा है । इतने पर भी अर्थात् बहुत बिगाड़ विकार होने पर भी जीव कहीं रूप, रस, गंध रूप नहीं परिणम गया । जिस प्रकार भी बिगड़ा उस बन सकने की योग्यता थी उस सीमा तक ही परिणम सका । इसका प्रमाण क्या? कोई पूछो तो इसका प्रमाण यह है कि ये समस्त पदार्थ अब तक बराबर सत् हैं ये पदार्थ सब है यही प्रमाण हैं इसका कि कोई पदार्थ किसी रूप परिणम नहीं सका कल्पना करो यदि किसी दूसरे रूप परिणम जाता होता तो वह-वह नहीं रहा । जिसके रूप परिणमा बस वह द्रव्य रहा और वह भी किसी दूसरे रूप परिणम जाता तो वह न रहा तो फिर जगत में रहता कौन? ये सब पदार्थ अब तक मौजूद हैं यही इसका प्रबल प्रमाण है कि कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थरूप नहीं परिणम सका। 265-अपने एकत्व पर दृष्टि करने की चिंतना—हम लोग शांति के लिये अनेक यत्न तो करते हैं पर हम अपने अंतरंग में यह यत्न नहीं करना चाहते कि हम समझ जायें कि प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है, अपने स्वरूप से रहता है, पर के स्वरूप से नहीं रह सकता । हम आप सब जीव अकेले आये हैं वर्तमान में भी अकेले रह रहे हैं तथा समय पाकर अकेले जायेंगे । इसमें कोई दूसरा कभी भी नहीं आया न इसका कोई दूसरा बना, तभी सब है, ऐसा तो स्वरूप है, स्थिति है, और चित्त जाता है पर के स्नेह में, जीव पर यह संकट छाया है । ज्ञान ज्ञानरूप नहीं रह सकता, यह विपत्ति छायी है हम आप पर । ज्ञानी पुरुष में बडा, साहस होता है बड़ा धैर्य होता है जिसके बल पर जिस प्रसंग में रह रहा है वह ज्ञानी कोई कैसा ही परिणमें, वह निर्णय देता है-यों परिणमा तो क्या और प्रकार परिणमा तो क्या, मेरा उसमें कुछ नहीं है, कोई क्लेश नहीं है, कोई हानि नहीं है ।अपना अमूल्य महान रत्न आत्मस्वरूप हमारे परिचय में आये, अनुभव में आये तो वहाँ एक भी विवाद नहीं है । एकत्व के निश्चय को प्राप्त हुआ आत्मतत्त्व सर्वत्र सुंदर जंच रहा है । 266-अहंकार का अभाव होने पर अंतर्दर्शन की साध्यता—जीव का मुख्य बैरी है तो अहंकार सभी जगह घटा लो आप । लोकव्यवहार में भी अहंकार जीव को दुःख देता है परमार्थ में भी अहंकार । जीव को क्लेश करता है । अहंकार के कारण ही हम में विराजमान विशुद्ध प्रभु सदृश परमपवित्र जो शुद्ध चैतन्यतत्त्व है उसके दर्शन नहीं हो पाते । लोग हैरान हो जाते हैं । कोशिश करते हैं कि कहीं मेरा प्रभु मिल जाय । मैं प्रभु के दर्शन कर लूँ पर प्रभुदर्शन की कुंजी अपने आप में है, अपने आपके आत्मप्रभु का दर्शन हो तो प्रभु का दर्शन हो । साक्षात् समवशरण में भी पहुँच जायें और वहाँ बाहर में ही शरीर पर दृष्टि गड़ाकर कोशिश करें कि मैंने प्रभु के दर्शन कर लिया तो दर्शन नहीं किया । वहाँ भी अपने आपके स्वरूप पर दृष्टि करके अनुभवन करके और फिर उस परमौदारिक दिव्य देह में उस चैतन्यतत्त्व को जाना तो वहाँ प्रभु का दर्शन किया गया समझिये । हम अपने आत्मस्वरूप के दर्शन कर सके तो प्रभु के दर्शन कर सकेंगे और अपने आत्मदेव के दर्शन न किये जा सके तो प्रभु के दर्शन भी नहीं किये जा सकते । हम आप स्वयं देव हैं, स्वयं आनंद निधान हैं, स्वयं निधि सर्वस्व हैं, पर कोई अपने आपका ही मूल्य न समझे तो वह यों ही मुक्त यत्र तत्र क्लेश पाता है, ठगा जाता है, संसार में रुलता है । देखना है अपना एकत्व स्व का । स्वयं स्वत: सिद्ध सहज सिद्ध मेरे में मेरा क्या है उसका दर्शन पाया तो सब पाया । 267-लोक में अन्य कुछ शरण ढूंढ़ने की व्यर्थता—दुनिया में कितने पुरुष हो गए—बड़े-बड़े काम करने वाले बड़े बलशाली, बड़े वैभवशाली महापुरुष हो गए हैं उनका कुछ नाम निशान है क्या आज? कुछ नहीं मालूम । किस मकान में पैदा हुये थे किस महल में पैदा हुये थे कुछ भी पता नहीं । चौबीस तीर्थंकर हो गये तो कोई बता सकेगा क्या कि अमुक तीर्थंकर का जन्मस्थान यह है, इस जगह पैदा हुए थे? कोई नहीं बता सकता । रहे ही नहीं वे मकान महल रुढ़ि भी चलती रही बहुत दिनों तक, लोग भी समझते रहे बहुत दिनों तक, पर अपने आप वह परंपरा भी बुझ गयी । मतलब यह है कि जब बड़े-बड़े पुरुषों का यश कीर्ति कुछ न रहा, वे भी न रहे तो फिर बिंदु बराबर की जगह में मायामयी पुरुषों में हम पोजीशन की माया लगाकर अपने को बरबाद कर रहे हैं या नहीं । मदद देने वाला तो कोई है नहीं । जैसे किसी पुरुष का दिल विचलित हो जाय, जैसे कहते हैं कुछ पागल जैसी स्थिति में आये तो उसे लोग समझाते हैं ना कि अभी तेरा कुछ नहीं बिगड़ा, तू अपने दिल को सम्हाल ले, थोड़ा चलित हुए और चलित में ही चलित चले गए, स्वच्छंद होते गये तो हँसी करने वाले तो सब होंगे, पर इसे मदद देने वाला कोई न होगा ऐसी बात हम आप पर सदाकाल है हँसी, करने वाले, स्वार्थवश प्रेम दिखाने वाले सब मिलेंगे, पर किसी भी पुरुष को मेरे आत्मा के विषय में सच्ची मित्रता का भाव भी हे क्या? 268-धर्म और धर्मप्रभु की रुचि में शांतिलाभ का अवसर—यदि कुछ कह सकते हैं कि हम पर सच्ची मित्रता और दया का भाव रखने वाला है कोई तो यह प्रभु है, ये ऋषि संत हैं ये योगीजन है । किसी पुरुष को तुम थोड़ा धन देकर आजीविका में लगाकर कुछ उसकी रोजी का सिल्सिला लगा दो तो ठीक है, 10-5 वर्ष तक उसके अच्छे दिन कट जायेंगे, लेकिन हुआ क्या? ज्यों का त्यों वही जन्म मरण, वही भूख प्यास, वे ही कल्पनायें, वे ही रंज शोक । ऋषिजन संत जन करते हैं मूलत: दया । ये बातें तो पुण्य पाप के उदय के अनुकूल होती हैं । जैसा होवे हो । दूसरे का पाप का उदय है तो आप उसके भले में निमित्त नहीं बन सकते, दूसरे का पुण्योदय है तो वे अपने पुण्योदय के कारण स्वरक्षित बने हुए हैं । हम अपने आपकी तो बात सोचें कि हम किस तरह से शांत रह सकते हैं ? और शांति भी रहे ऐसी कि जिस सिलसिले के बाद शांति-शांति ही रहती चली जाय । फिर अशांति न आ सके । ऐसा उपाय है यह ज्ञानयोग । जब जगत के पदार्थों के रुचने की बात हम बड़ी विधि से बनाते हैं तो मोक्षमार्ग पाने की बात, संसार संकटों से छूटने की बात क्या यों ही खेल-खेल में मौज में बन जायगी? उस पर दृढ़ता के साथ चलना होगा और उस धर्म मार्ग पर चलते समय कुछ लोग कुछ कहेंगे कोई कुछ कहेगा, उन समस्त बातों की हमें उपेक्षा करना है और जिसमें धर्महित हो, शांतिलाभ हो वह बात करना है । वह उपाय है अपने आपमें बसे हुए सहज सिद्ध चैतन्य रस पूरित आत्मदेव का दर्शन । कोई देखने की विधि तो बना ले उसकी उसे आकुलता न होगी, अटक न होगी और वह भला कर लेगा । ये सभी जीव अपने आप अपने सत्व के कारण केवल चैतन्य प्रकाशमात्र हैं, किंतु विकल्प उठे, खटपटे हुई, रोग शोक चिंतायें हुई । ये सब बातें उसमें हो गयीं पर मेरा उनमें अधिकार नहीं है । 269-स्व के अधिकार स्वभाव की झलक—देखो खूब लबालब भरा हुआ समुद्र है, उस समुद्र में लंबी-लंबी लहरे उठ गयीं, पर लहरें उठने का समुद्र ने अपने आपके स्वरूप की ओर से ही अधिकार नहीं पाया । यद्यपि तरंग समुद्र को कारण केवल अपने केवल से नहीं उठी, हवा चली, हवा का निमित्त-सिला, समुद्र की ओर से समुद्र खलबलाता रहे ऐसी बात समुद्र के स्वभाव में नहीं है । हम आप आत्मा अपने आपकी ओर से खलबली मचाऊँ, विह्वल रहूँ, आकुलित रहूँ ऐसी बात हम आपके स्वभाव में नहीं है । किंतु उपाधि का संबंध है, उन सब निमित्तों के सन्निधान के कारण खलबला गया हूँ मैं यद्यपि अपने में अपने ही परिणमन से लेकिन ये सब उपाधि संसर्ग, इनका यह प्रसाद है कि आज हम देह में बंधे फिर रहे हैं । स्वरूप तो ऐसा था कि मैं केवल रहता । अब भी केवल हूँ । मैं केवल रह जाता वह तो मेरा स्वरूप था लेकिन दशा क्या हो रही है । और इससे भी गयी बीती दशा पायी है हम आपने कीड़ा मकोड़ा जैसे ऐसे थावकथौवा शरीर मिले कि जिसके अटपटपने में कुछ काम ही न करते बने । कैसे-कैसे जीव जंतु हैं । ऐसा बनना इस चैतन्यदेव का स्वरूप था क्या? हम आप सच्चिदानंद प्रभु का यह रूप था क्या? जो यों फंस गए और उपयोग से, दृष्टि से, परिवार में मित्रों में चित्त जो गड़ रहा है यह कोई इस आत्मप्रभु का काम था क्या? लेकिन ये सब बातें हो रही हैं । तो यही तो सावधानी करना है कि हम बाहर में न बह जाय, अपनी ओर आये। कोई पुरुष दुःखी नहीं है कोई पुरुष अशांत नहीं है । सभी प्रभु के समान हैं लेकिन व्यर्थ की बात लगा रखी है, अनंतचतुष्टय के धनी बन रहे हैं और मूढ़ों के राजा बनना चाहते हैं, तो इसका फल तो इस जीवको भोगना ही पड़ेगा । 270-निज के एकत्व का निर्विकल्प अवलंबन—यहाँ धर्म का ही प्रकरण चल रहा है, धर्मो में मुख्यत: यह बात बताई है कि आत्मा निज एकत्व को जाने और उसी में उपयुक्त रत रहे, सो ही धर्म है । मैं चैतन्य हूँ, मैं ध्रुव हूँ, मैं अचल हूँ, अन्य पदार्थों से मेरा कुछ भी संबंध नहीं है ऐसा विचार कर पश्चात् निज एकत्व की दृष्टि आत्मा की हो जावे सो धर्म है । धर्म से शांति प्राप्त होती है । आचार्य श्री पूज्य समंतभद्रस्वामी जी ने धर्म का लक्षण किया है कि संसार के दु:खों से निकाल कर जो उत्तम सुख में धारण कराता है वह धर्म है । धर्म से शांति प्राप्त होती है, आत्मा समस्त विकल्पों से रहित हो करके स्वाधीन सुख का उपभोग करता है । अब आप विचार करो—निर्णय करो कि किन कामों से शांति प्राप्त होती है । रथ निकालने से कितनी शांति मिलती है? आप रथ प्रोग्राम बनाकर देख लीजिये फिर आपको मालूम हो जावेगा कि इसमें कहां तक शांति का अनुभव होता है । जब से रथ का प्रोग्राम शुरू होता है और वह सानंद लौटकर घर नहीं आ जाता है तब तक कितने विकल्प उठते रहते हैं । रथादिक स्वयं धर्म नहीं है किंतु उपचार धर्म के कार्य अवश्य हैं, रथ से लाभ की दो बात होती हैं एक तो लोगों को वीतराग मुद्रा के दर्शन होते हैं, दूसरे धर्म की प्रभावना होती है । समस्त जैन भाई गांव के एकत्रित होते हैं । विद्वानों के भाषणों से धर्म-लाभ होता है । किंतु आजकल तो एक प्रथा सी चल गई है यह है प्रीतिभोज तथा सुंदर जलूसमात्र निकाल देना । आप देखो कि इसमें कहां तक शांति मिलती है । ज्ञानोपदेश द्वारा प्रचार हो तो रथ की पूर्ण सफलता है । जहाँ शांति मिले, सुख मिले सो धर्म है । समस्त धर्मो में एक बात बताई है आत्मा का एकत्व करलो । विचार करो—मैं एक हूँ, शुद्ध चैतन्यरूप हूँ, ध्रुव हूँ, अचल हूँ, । जहाँ इस तरह के विचार-पूर्वक सामान्य दृष्टि द्वारा आत्म एकत्व में उपयुक्त हो गया सो ही धर्म है । अपने स्व में रहे सो धर्म है; वही सुंदर है और अपने धर्म को छोड़ दे, अपने धर्म से अलग होकर अन्य धर्म में रहे सो असुंदर है । लौकिक रूप से देखो जैसे सांप है उसका धर्म है फ़ुफकारना (धर्म याने स्वभाव) । अगर वह फुफकारना छोड़ दे तो उसकी कीमत रहेगी क्या? नहीं । तो जब तक अपने धर्म में वस्तु है तब तक उसकी शोभा हैं और अपने धर्म को छोड़ने पर उसकी शोभा नहीं रहती है । यह उल्टा और पर्याय स्वभाव का दृष्टांत है कहीं फुफकारने से रूठने की शिक्षा मत ले लेना (हंसी) । 271-जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों की अधर्मस्थता—परमार्थ में देख लो । धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये चार द्रव्य तो हमेशा से (अनादि से) अपने धर्म में ही रहते हैं, ये अपने धर्म से, अपने स्वभाव से नहीं हटते हैं किंतु जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य ऐसे हैं जो अपने धर्म से हट जाते हैं । पुद्गल को देखो ये जो स्कंध दिख रहे हैं, ये चौकी आदि यह सब अधर्म में हैं, धर्म में रहने पर तो वह अणुरूप हैं जो कि दिखता तक नहीं है, तो देखो यह पुद्गल अपने धर्म से हटा तो इसकी कितनी अवस्थायें की जाती हैं यह काटा जाता है, चूल्हे में जलाया जाता है आदि तरह से कितनी ही अवस्थाओं में परिणत किया जाता है किंतु उसे इनसे कोई दुःख नहीं होता है क्योंकि वह अजीव है, इसलिये उसका कुछ बिगाड़ नहीं है । जीव द्रव्य अगर अपने धर्म से हटकर अधर्म में आ जावे तो उसका बिगाड़ है । अत: अपने धर्म में रहना ही ठीक है वही सुंदर है; अपने धर्म में ही अनुराग करना सो संवेग है । कल बताया था कि वस्तु उसे कहते हैं जिसका दूसरा टुकड़ा न हो सके, तथा जो अपने में ही परिणमे अन्य के परिणमन से न परिणमे—इन परिभाषाओं से आप यह जान गये होंगे कि वस्तु क्या है और वस्तु किसे कहते हैं? 272-वस्तु का स्वचतुष्टय से वस्तुत्व—प्रत्येक वस्तु में चार चीजें होती हैं—द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव । इन चार चीजों से वस्तु की पहचान होती है । अब इन चारों के लक्षण जानना जरूरी है । द्रव्य किसे कहते हैं? द्रव्य कहते हैं पिंड रूप जो है उसे । क्षेत्र जितने में यह पिंडरूप द्रव्य रहे उतना उसका क्षेत्र है । परिणमन नई-पुरानी अवस्थायें है वह काल है, और भाव कहते हैं रूप-रस-गंध-स्पर्श आदि । अब इन चारों को इस पुस्तक में घटाओ । पुस्तक का जो आकार है यानी यह पिंडरूप जो पुस्तक है सो तो पुस्तक का द्रव्य हुआ । क्षेत्र जितने में वह पिंडरूप पुस्तक रहती है उतना उसका क्षेत्र है रहने से मतलब आकाश द्रव्य से नहीं है किंतु पुस्तक का क्षेत्र जो पुस्तक के साथ है । काल जो पुस्तक का परिणमन है, नई, पुरानी अच्छी खराब ये सब पुस्तक का काल है भावरूप, रस गंध स्पर्श ये पुस्तक का भाव है । इसी तरह से ये चारों परमाणु में, एवं अपनी आत्मा में घटाओ । सबका चतुष्टय अपने में अपने रूप से रहता है वह दूसरे रूप नहीं होता है आप जितना भिन्न अपने से असंबंधी दूसरे को समझते हैं उतने ही भिन्न आपके परिवार मित्र आदि हैं । दूसरे का मकान आप से जितना भिन्न है उतना ही आपका मकान आपस अलग है; दूसरे का शरीर जितना आप से जुदा है उतना ही आपका शरीर आप से जुदा है, किंतु यहाँ पर क्षेत्रावगाह संबंध मात्र है। 273-ज्ञाता द्रष्टा रहने में ही शांति—आप भगवान की पूजा करते हो, बहुत भक्ति करते हो किंतु भगवान का तो उपदेश है कि तुम हमारी पूजा करना भी छोड़ दो, हम से प्रीति छोड़ दो और अपनी आत्मा से प्रीति करो, आत्मा का ध्यान करो—आत्मध्यान ही कल्याण का मार्ग है । अपने धर्म में रहो वह सुंदर है, अपने धर्म की छोड़ने पर असुंदरता आ जाती है । एक हिंदी की किसी किताब में एक कहानी है—एक धोबी था । उस धोबी के एक गधा और एक कुतिया थी । एक दिन धोबी कुतिया के बच्चे को खिला रहा था, वे बच्चे इधर उधर से धोबी के ऊपर चढ़ते, कभी अपने पैर उस पर रखते, इन सब बातों को देख करके गधा विचारने लगा कि हमारा मालिक इन कुत्तों से कितना प्रसन्न हो रहा है । देखो ये कुत्ते मालिक के ऊपर पैर रखते हैं और मालिक प्रसन्न हो रहे हैं । सो मैं भी कल से ऐसा ही करूंगा तव मालिक मेरे ऊपर भी अत्यंत प्रसन्न होगा । ऐसा विचार करके दूसरे दिन गधा भी मालिक के सामने अपनी दुलत्ती झाड़ने लगा । गधे को दुलत्तियां झाड़ते देख धोबी ने डंडों से गधे की खबर ली । खूब डंडों की मार पड़ी । तो देखो गधे ने अपना प्रकृति छोड़ी—अपने कर्त्तव्य से हटा सो डंडों की मार पड़ी । भैया यह लौकिक दृष्टि से कहा गया । वस्तुत: गधा एक पदार्थ नहीं, धर्म कहां होगा? जितने भी विषैले जीव हैं अगर अपना स्वभाव छोड़ दे इनका विष नष्ट हो जावे तो इनसे कोई डरेगा क्या? नहीं । इनका विष खतम हुआ फिर इनका कोई काम तो नहीं रहेगा, उनसे कोई नहीं डरेगा । कदर या सुंदरता तो अपने धर्म में है । स्फटिक मणि का धर्म स्वच्छता है सो अपने धर्म में रहता हुआ स्फटिक मणि कैसा सुंदर है । भैया ऐसा प्रयत्न करो कि आत्मा हमेशा अपने धर्म में रहे बाह्य पदार्थों से उसका कोई संबंध न रहे । पर में आत्मीयता के भ्रम से आकुलता होती है:—ये कोई धर्म नहीं है पर्यायगत प्रकृतियां हैं, लौकिक नि:शंकता के लिए दृष्टांतमात्र । एक मनुष्य रात में जा रहा था । उसने मार्ग में एक दृश्य देखा कि हाथी ने एक बच्चे को सूँड में लपेट कर दूर फेक दिया । उस आदमी को भ्रम हो गया कि वह बच्चा मेरा है । ऐसा भ्रम होते ही वह मूर्छित होकर गिर पड़ा उसके मित्रादिक लोग आये और जब उन्होंने कुछ पास ही लड़के को पड़े देखा, उन्होंने अनुमान किया कि इसी के भ्रम से यह मूर्छित हो गया है । तब उन्होंने उसके लड़के को बुलाया और उसके सामने खड़ा किया । तब उसके अवलोकन में आने पर उसकी मूर्छा हट गई । भ्रम होने पर भ्रम का निवारण कर देना, भ्रम को दूर कर देना ही उत्तम उपाय है । 274-अपने सिवाय अपना अन्य कुछ नहीं—घर स्त्री पुत्र आदिक मेरे हैं—ऐसे विचार करना भूल है क्योंकि समय आने पर, कर्मोदय आने पर कोई भी सहायक नहीं होते हैं । देखो भगवान आदिनाथ जिनके इंद्र किंकर थे, भगवान के चरणों में हमेशा सेवा भाव में तैयार थे, किंतु कर्मोदय आने पर भगवान को भी मुनि अवस्था में 6 महीने तक आहार नहीं मिला 6 महीने तक पानी पीने को नहीं मिला । सुकुमाल मुनि को देखो स्यालनी 2-3 दिन तक बराबर उनके शरीर का भक्षण करती रही । यदि कोई उस मार्ग से आता तो वह उस स्यालनी को भगा देता अथवा देवता गण ही कोई सहायता करते किंतु कर्मोदय के सामने किसी की नहीं चलती है । कर्म से जब तक डरते रहो तब तक वह डराता है और अगर उसके सामने आ करके डट जाओ तो वह कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है । 275-उदार होने से पाप का पलायन—एक कथा है हालांकि वह किंवदंती है फिर भी उससे तत्त्व प्रहण करो । एक बार ब्रह्मा तकदीर बना रहा था । तकदीर बनाते-2 अंत में एक लड़के की तकदीर बनाई और उसे एक बड़े करोड़पति सेठ के यहाँ भेजने का निर्णय किया और उसकी तकदीर में लिखा एक काला घोड़ा और 5) रुपये । इतने में एक साधु जी वहाँ से निकले । उन्होंने ब्रह्मा से पूछा—क्या कर रहे हो? ब्रह्मा बोले तकदीर बना रहा हूँ । साधुजी ने पूछा कि तकदीर में क्या लिखा है? तब ब्रह्मा ने कहा कि इस लडके को एक करोड़पति के यहाँ भेजना है और इसकी तकदीर में एक काला घोड़ा और 5) रुपये रहेंगे । तब साधु जी बोले कि ऐसा मत करो इस लड़के को गरीब के घर भेजो तो काला घोड़ा और 5) रुपये रहने दो वरन् उसकी तकदीर में करोड़पति की दौलत लिखो । ब्रह्मा बोला—इसमें तुम्हारा क्या—हमें जो कुछ करना है सो करना है तुम कौन? साधु जी को क्रोध आ गया । सो वे बोले अच्छा तुम काला घोड़ा और 5) रुपये लिखो मैं इसको मिटाकर रहूंगा । यदि न मिटाया तो मेरा नाम साधु नहीं, इतना कह के साधु वहाँ से चले गये । कुछ दिन बाद जब सारी संपत्ति नष्ट हो गई, मकान आदि बिक गये और वही काला घोड़ा और 5) रुपये पास में बचे, तब वही साधु उस लड़के का नाम ठिकाना पूछ कर उसके पास आया और बोला कि बच्चे ! जैसा मैं कहूं वैसा करना । लड़का बोला ठीक है जैसा हुक्म दोगे वैसा ही मैं करूंगा । साधु बोला जाओ इस घोड़े को बेच आओ । लड़का घोड़े को बेच आया 100) रुपये घोड़े के मिले । साधु बोले ये 5) रुपये और मिला दो, सबका अच्छा भोजन लाकर गरीबों को बांट दो । लड़के ने वैसा ही किया । दूसरे दिन ब्रह्मा ने एक काला घोड़ा और 5) रुपये फिर भेजे । साधु ने फिर वैसा कराया—इस तरह बहुत दिन हो गये तो ब्रह्मा जी बोले कि साधुजी आप क्या कराते हैं? साधु बोला कि हमने तो पहले ही आप से कहा था ऐसा मत करो । ब्रह्माजी बोले—अच्छा अब आप बताओ क्या करूं? साधु ने कहा इसकी तकदीर में माता पिता की दौलत लिखो । ब्रह्मा ने वैसा ही लिखा । तो इस तरह से अगर कर्म के सामने आकर डट जाओगे याने कर्म के फल से भिन्न निज चैतन्यस्वभाव पर दृष्टि कर लोगे तो वह कुछ नहीं बिगाड़ सकता है । कर्मोदय से दो बातें ही तो होंगी । पहली तो दरिद्रता और दूसरा मरण । सो अगर आप इन्हीं को निमंत्रण देने लगे, आप इनसे भय न करो तो कर्म क्या बिगाड़ सकता है? 276-हानि तो मात्र बाह्य प्रकरण—कोई दुष्ट पुरुष अपने साथ में लग जावे और यह ज्ञात हो जावे कि इससे इतनी हानि होगी और आप उतनी हानि पहले से ही समझ लो फिर वह क्या करेगा? भैया ! आप जिस भाव को अरुचिकर मानते हैं उससे दूर रहते हो, घृणा करते हो, किंतु आत्म-कल्याण करने के लिये, मोक्ष मार्ग पाने के लिये जब तक इसका सहारा नहीं लोगे तब तक मोक्ष हो ही नहीं सकता है । आप दूसरे का खाना और भीख माँगना इसको बुरा मानते हो। किंतु दूसरे का खाये बिना अर्थात् अपना ही खाकर कभी कल्याण मार्ग नहीं हो सकता है । भिक्षा लेना भी मोक्ष मार्ग में एक व्रत है । किंतु वह भीख लेवे गौरव के साथ । कभी भीख के न मिलने पर भी प्रसन्न रहे । गृहस्थावस्था में हमेशा मुनि बनने के भाव रहें क्योंकि जिसके भाव मुनि बनने के होंगे वह हमेशा शुद्ध आचरण, शुद्ध भोजन करेगा; मुनियों को आहार देने से आहार की विधि सीखेगा । शुद्ध भोजन करने से बहुत धर्म के साधन कार्य होते हैं । इसलिये हमेशा शुद्ध भोजन करने का नियम करना चाहिये । यदि हमेशा के लिये न हो सके तो इतना तो अवश्य करना चाहिये कि जब तक घर में रहेंगे शुद्ध भोजन करेंगे । बाहर की बात जाने दीजिये । इसका तात्पर्य यह है कि चौके पर अशुद्ध भोजन नहीं बनाना चाहिये । शुद्ध भोजन करने से बहुत ही पुण्य का बंध होगा । हमेशा अशुद्ध भोजन न करने का नियम प्रत्येक व्यक्ति को लेना चहिये । ग्रह सब व्यावहारिक है, इनमें जिंदगी व्यतीत हो व ध्यान, लक्ष्य निर्विकल्प तत्त्व का हो । 277-स्वतंत्रता सत्तासिद्ध अधिकार—संसार के अंदर जितने भी द्रव्य हैं वे सब अपना अलग-अलग रूप रखते हें, कोई किसी के संबंध से नहीं परिणमता है । किसी का संबंध किसी से नहीं है । सबका रूप भिन्न-भिन्न है । अगर उनका स्वरूप एक दूसरे से मिल सके तो संकर दोष पैदा हो जावेगा और संकर दोष पैदा हो जाने पर द्रव्यों का अभाव हो जावेगा । अत: सर्व स्वतंत्र है । छह द्रव्यों में चार द्रव्य तो हमेशा ही शुद्ध रहते हैं । धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये चारों द्रव्य हमेशा शुद्ध रहते हैं । जीव पुद्गल ये दो द्रव्य ऐसे हैं, जिसमें वैभाविक परिणतियां हो जाती हैं, किंतु पुद्गल द्रव्य तो जड़ है । इसलिये उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं होता है । वह किसी भी रूप में आ जावे तो भी उसका कोई बिगाड़ नहीं होता है कारण कि वह निर्जीव है जड़ है । यदि जीव अपने से च्युत होवे तो उसे हानि है । जीवको विभाव परिणति में, बंधकथा में हानि है, जहाँ बंधकथा है वहीं पर विसम्वादकता है । इसलिये आत्मा का जो सहज स्वरूप है उसे ही हमेशा द्दष्टि में रखना चाहिये । बंधकथा से विसम्वाद उत्पन्न होता है और विसम्वाद से दुःख होते हैं । एक में कोई विसम्वाद नहीं किंतु जहाँ अन्य की कल्पना हुई वहाँ ही आपत्तियां आ जाती हैं । एक चुटकुला है । स्त्री पुरुष दोनों खाट पर सो रहे थे, उनके संतान कोई थी नहीं । स्त्री अपने पति से बोली कि अगर तुम्हारे लड़का हो जावे तो तुम उसे कहां पर सुलाओगे? सो वह आदमी खाट से जरा हटकर सोया कि यहाँ पर सुलाऊंगा । स्त्री बोली कि कहीं दो लड़के हो गये तो कहां सुलाओगे ? सो जैसे ही वह पीछे को हटा सो जमीन पर गिर पडा, ऐसा गिरा कि उसका पैर टूट गया । उसके टूटे पैर को देखकर आदमी उससे पूछें कि तुम्हारा पैर कैसे टूट गया? वह कहे कि भैया पुत्र के विचार के संकल्प से मेरा पैर टूट गया, किंतु तुम लोग बहुत पुण्यवान हो शक्तिशाली हो कि लड़के होते हुए भी तुम्हारे पैर नहीं टूटे हैं । और, भैया आत्मा के पैर दो ज्ञान दर्शन हैं जिस पर आत्मस्वरूप अवलंबित है । वे टूट ही गये, कहने का तात्पर्य है कि बंधकथा से विसम्वाद होता है, और उसके द्वारा ही ये दु:ख मिलते हैं । 278-विभाव का रिश्ता—विभाव का रिश्ता बंधकथा है मनुष्य चौबीस घंटे अथवा यों कहो कि दिन और रात ही बंधकथा में फंसा है । इसका उपकार हो जावे, यह सत् मार्ग पर आ जावे, ऐसे विचार करना भी बंध कथा है, वह विकल्प है, विकल्प हित नहीं । क्योंकि इन विचारों से भी मन में विकलता होती है । विकल परिणामों से दु:ख होता है । कोई कहे कि फिर तो उपदेश भी नहीं देना चाहिये, सो भैया समय पा करके हित का मार्ग बता दिया, उसका विवेचन किया समझा दिया, वह समझे या न समझे । जिसकी समझ में उपदेश आ गया, जो एकत्व को समझ गया उसका कल्याण हो जावेगा । किंतु इसे भी विकल्प समझे । दुनिया में जीव को रुलाने वाला, संसारसागर में भ्रमण कराने वाला यदि कोई है तो मोह है । मोह की प्रबलता इस जीव में अधिक है । देखा जाता है कि कबूतर के मर जाने पर नाग के मर जाने पर कबूतरनी नागिन भी अपने प्राण दे देती हैं, वह मर जाती है । तिर्यंचों की बात जाने दीजिये, मनुष्यों में भी पति के मर जानें पर स्त्री सती हो जाया करती थी; वे पति के साथ स्वयं जलकर प्राण दे देती थी । यह है मोह की पराकाष्ठा । स्त्री के मरने पर पुरुष पागल कर्तव्यहीन हो जाता है । यह देख लो मोह का पुतला । जब तक जीव इस मोह को नहीं फाड़ेगा तब तक वह अपना कल्याण, अपना उद्धार नहीं कर सकता है । मोह राग, द्वेषादि ये ही तो असली बंधकथा है । पर्याय को आत्मा मानना, अपने से भिन्न पदार्थों में राग करना कि ये मेरे हैं यही सब तो बंधकथा है, भैया यही विसम्वाद है । शुद्ध आत्म द्रव्य विचारना ये भी बंधकथा है; जितना भी भेद कथन है वह सभी बंधकथा है । इसलिये अभेददृष्टि से आत्मा को देखो, समस्त द्रव्यों को अभेद दृष्टि से देखो तभी कल्याण मार्ग मिलेगा । भैया ! निश्चय की बात भी व्यवहार से कही जाती है । कहते हैं कि निश्चय से तो बात ऐसी है किंतु व्यवहार से ऐसी कही जाती है । निश्चय का प्रतिपादन तो किया ही नहीं जा सकता है, क्योंकि निश्चय तो अवाच्य है । एक-एक ही रहे तो भला है । 279-पुद्गल के सड़ान का कारण आत्मा की मलिनता—पुद्गल द्रव्य कभी सड़ता गलता नहीं है । हम और आप जितने भी ये पुद्गल के स्कंध देखते हैं ये सड़ते गलते हैं किंतु जब तक इनमें त्रसजीव पैदा नहीं होते हैं तब तक वह सड़ता नहीं है । जैसे ही त्रस जीव उत्पन्न होने लगते हैं तभी वह सड़ने लगता है । आम, खरबूजा आदि ये जितने भी है ये स्वयं कभी नहीं सड़ते हैं किंतु उनमें जब त्रसजीव पैदा हो जाते हैं तब यह सड़ने लगता है । कहने का मतलब है कि पुद्गल स्वयं अपवित्र नहीं है किंतु उसको अपवित्र बनाने के लिये मुख्य चीज है आत्मा की मलीनता । मलीनता के संसर्ग से ही यह अपवित्र होता है । जैसे पसीना निकलता है, सो यह अपवित्र है क्योंकि वह मलीन काय से पैदा हुआ है । काय मलीन क्यों? मलिन आत्मा का संसर्ग है; इसी तरह अन्यों में लगाना चाहिये । 280-पाप की अस्पृश्यता—आप दुनियां में देखते हो कि एक लड़का गधा से छू जाता है तो तभी लोग कहते हैं कि तू हमें मत छूना क्योंकि वह अपवित्र है, और अगर वही लड़का दूसरे लड़के को छू लेता है तो उसे भी कोई नहीं छूता है । इस तरह से दो से तीन, तीन से चार जितने भी उस लड़के से छूवते जाते हैं वे सभी अपवित्र हो जाते हैं—ऐसी लोक में पद्धति है । किंतु आप विचार करो कि क्या यह सब अपवित्र है? या जिससे ये छूये गये हैं वह लड़का अपवित्र है? जब हम मूल दृष्टि से देखेंगे तो अंत में गधा ही अपवित्र ठहरता । लोक में लड़का अपवित्र नहीं है । इसी तरह से आत्मा में जो राग द्वेष मोहादिक है वही अपवित्र है वही खराब है । यह बंध का फल है । आत्मा शुद्ध है चेतनस्वरूप है, ज्ञानमय है ध्रुव है । यदि इस तरह की एकता वर्तमान ज्ञानपर्याय में प्राप्त हो जावे तो आत्मा का कल्याण हो जावे इसलिये एकता को प्राप्त होने का ही प्रयत्न करना चाहिए । 281-आत्महित का ध्यान न होना अक्षम्य अपराध—जगत में जितने भी देहधारी मिलते हैं वे सभी जीव कहलाते हैं, इनमें से आप और हम भी है । ये जीव किसी न किसी गति से आये हैं । जीव कहो, आत्मा कहो एक ही बात है । यह संसार की फिरन आपकी पहिचान बिना हो रही है । जो प्राणी या मनुष्य अपनी आत्मा का ध्यान नहीं रखते वे मोही है, मूढ हैं पापी कहो, आत्मघाती कहो मिथ्यात्वी कहो एक ही बात है किसी भी शब्द से कहो सभी उसके ही वाचक हैं । इस पर बुद्धि में आनंद नहीं मिलेगा इसलिये अपनी आत्मा का परिचय पाकर अपना हित करने के लिये प्रयत्न करो । इस शरीर की सेवा तेल मर्दन, अच्छा भोजन आदि लौकिक उत्तमोत्तम पदार्थ आत्महित के साधन नहीं हैं । यह शरीर तो आपका निमित्त शत्रु है, ये किसी का साथी नहीं है, इसलिये इस शरीर से मोह को छोड़ करके अपने हित के मार्ग को देखो । दुनियां में जितने भी पदार्थ है उनमें से कोई भी आपका हित नहीं कर सकते कोई भी आपके हितकारी नहीं है । अपना लक्ष्य बनाओ कि हमें तो अपना हित करना है सो राग द्वेष मोह को छोड़ करके एकत्व को प्राप्त हो जाओ । यही हित का उपाय है । आत्मा को आत्मा की दृष्टि प्राप्त होने पर सम्यग्दर्शन होता है । उससे अपना स्वरूप ज्ञात होता है । तब वह सोचता है कि दुनियां में मेरा कोई शत्रु नहीं है, मैं समस्त जीवों को क्षमा करता हूँ । और मैं भी सभी जीवों से क्षमा चाहता हूँ । मेरे द्वारा किसी प्राणी को कोई कष्ट हुआ हो तो वे क्षमा करें । खम्मामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु में । इस तरह के भाव वह करता है और पश्चात् निज उत्तम पद में पहुँचता है तो वह अपना हित करता है, किंतु जो इससे विपरीत विचारता है वह अपना हित नहीं कर पाता है । उसका मनुष्य जीवन ही व्यर्थ रहता है । भैया ! यह मनुष्य जन्म बहुत ही कठिनाई से प्राप्त होता है । इसलिये इसे व्यर्थ में नहीं खोना चाहिए । एकत्व दृष्टि प्राप्त करके ही आत्मा का हित हो सकता है, वह करें। 282-दुनियां में कोई किसी का सहायक नहीं—कोई ऐसी वस्तु नहीं, कोई ऐसी शक्ति नहीं जो तुम्हारा सहायक बन सके । द्वारिका दहन के समय श्रीकृष्ण और बलदेव अपने माता पिता को लेकर भगाने का प्रयत्न कर रहे थे किंतु चारों और से अग्नि ने आ घेरा; तब श्रीकृष्ण ने रथ में सबको बिठा कर भगाना शुरू किया । रथ थोड़ी दूर जाकर रुक गया । घोड़ों के पैर जम गये । इतने में ही ऊपर से आकाशवाणी होती है कि तुम दोनों भाईयों को छोड़ और कोई भी नहीं बच सकता है, अत: तुम्हारे सारे प्रयत्न निष्फल हैं । इतना सुन श्रीकृष्ण के माता पिता बोले कि तुम लोग भाग जाओ हमें तुम बचा नहीं सकते हो । हमारे उदय में जो होना है सो होगा उसे कोई भी नहीं मेट सकता है । तब श्रीकृष्ण और बलदेव वहाँ से हट गये ओर अपने माता पिता को अपनी आंखों से जलते देखते रहे । वहाँ पर उसकी कोई शक्ति काम में नहीं आई । कहने का मतलब है कि दुनियां में कोई किसी का हितअहित नहीं कर सकता है, आत्मा परपदार्थों में यह मेरा है; मैं इसका स्वामी हूँ ऐसे विचार कर अपना अहित करता है, दुःख पाता है । अपने में एकत्व दृष्टि करे कि मैं तो एक ध्रुव हूँ जगत के पदार्थों से मेरा कोई संबंध नहीं है तो वह इस तरह के विचारों से अपना हित तथा सुख प्राप्त करता है । शरीर की कोई परिस्थिति होओ आत्मा तो आनंदमय आत्मध्यान से हो ही जाता है । आत्मा एक है । यह अकेला आता है और अकेला जाता है । कर्मों को अकेला भोक्ता है, स्वयं ही कर्ता है । इसलिये इस आत्मा को शुद्ध दृष्टि से पवित्र बना कर सुख प्राप्ति करना चाहिए । आत्मा यदि पवित्र हो गया तो निश्चित है कि अगले भव में भी सुख की प्राप्ति होगी । और अगर आत्मा को पवित्र नहीं बनाया तो दोनों—इस लोक में और परलोक में दुःख होगा । पवित्र हृदय में, शुद्ध हृदय में ही भगवान विराजमान होते हैं । शुद्ध हृदय में ही धर्मं विराजमान होता है; जो हृदय शुद्ध नहीं हैं उस हृदय में भगवान का वास नहीं है । 283-आनंद पाने की स्ववशता—सुख पाने की जरासी तरकीब है, जरासा उपाय है किंतु करना आपको ही है । सहजसुख-स्वभावी निज आत्म द्रव्य को देखो । सुख प्राप्ति के लिये अपनी आत्मा को निर्मल बनाओ, पवित्र बनाओ; तभी सच्चा सुख प्राप्त होगा । सुख कहीं बाहर से नहीं जाता है । सुख आत्मा का एक गुण है, अत: वह आत्मा से ही प्रकट होता है । किंतु आत्मस्वरूप से अनभिज्ञ यह संसारी जीव अन्य परपदार्थों परवस्तुओं में सुख ढूँढ़ता है, सुख की खोज करता हुआ यत्र तत्र फिरता है । जैसे कस्तूरी को धारण किये हुये हिरण उसकी खुशबू को पाने के लिये इधर से उधर भागता फिरता है, किंतु उसे यह ज्ञान नहीं है कि जिसे पाने के लिये मैं इतना व्याकुल हूँ, जिसको प्राप्त करने के लिये मैं इधर भाग रहा हूँ वह वस्तु तो मेरे में मौजूद है । यह सारा भटकना अज्ञान से हुआ में; अब अज्ञानतम का ध्वंस करो और ज्ञानप्राप्ति करो । जहाँ आत्मबोधि हुआ कि मैं तो स्वतंत्र हूँ समस्त परपदार्थों से भिन्न हूँ, वहाँ पर सबसे राग द्वेष हटकर अपनी आत्मा की ओर ही प्रवृत्ति जाती है। 284-दुर्भाव दूर होते ही सद्भाव का उद्भव—एक कथा है । दो सेठ थे एक लखपति दूसरा करोड़पति । एक बार किसी कारण से उन दोनों में खटापटी हो गई, वैमनस्यता बढ़ी उन दोनों का बोलचाल बंद हो गया । एक बार एक साथ एक टाइम में विराग हुआ सो एक दूसरे से क्षमा माँगने की तैयारी करने लगे । एक अपनी मोटर पर सवार होकर चला और दूसरा अपने तांगे पर सवार होकर चला । रास्ते में दोनों मिल गये । सो बिना कहे सुने एक दूसरे के गले से मिल गये । किसी ने किसी का कसूर नहीं बताया, किंतु अपने राग द्वेष मोहादिक को हटाया । अपने मन से राग द्वेष मोह को हटाओ और ज्ञान की प्राप्ति करो, क्योंकि ज्ञान से ही आत्मा का कल्याण हो सकता है? ज्ञान के लिये अध्ययन अत्यावश्यक है, इसलिये एक गोष्ठी बनाओ और उसमें एक पुस्तक विद्यार्थी की भांति पढ़ो, अध्ययन से ज्ञानवृद्धि होती है । हाय बड़ा कष्ट है-ज्ञानमय तो यह स्वयं आत्मा है और स्वयं को जानने के लिये भी इसे यत्न करना पड़ता है । कोई मूर्ख पुरुष एक अमूल्य हीरा अपनी गांठ में बांधे है किंतु उसे यह ज्ञान नहीं है कि यह हीरा है यदि मैं इसे बेच डालूँ याने उपभोग में ले लूँ तो अपनी निर्धनता को छोड़ कर बहुतसा धन प्राप्त कर सकता हूँ । इन बातों का बोध भी उसे नहीं हैं । इसलिये वह निर्धनता को प्राप्त है और जिस समय उसे हीरे का मूल्य ज्ञात हो जाता है तब यह निर्धन नहीं रहता है । इसी तरह से यह आपकी आत्मा कितनी वैभवशाली है किंतु आपको स्वयं अपने आत्मा के वैभव ज्ञात नहीं हैं, अत: दुःखी है । जिस क्षण अपने वैभव का बोध होगा, क्लेश मिट जावेगा । 285-आनंद का उपाय आनंद—आत्मा अटूट आनंद का भंडार है । किंतु उसे प्राप्त करने का उपाय संसार के विषय भोगों की ओर दौड़ना नहीं है बल्कि उन विषय भोगो को त्यागकर आत्मलीन होकर ही सहज आनंद पाने का मार्ग मिलता है इसी मार्ग पर चलकर बड़े ऋषि मुनियों ने, चक्रवर्तियों ने उस आनंद को पाया । हालांकि गृहस्थावस्था में उन लोगों को समस्त सांसारिक सुख मिले थे । लोकदृष्टि से किसी को कमी नहीं थी किंतु उन सांसारिक सुखों से उन्हें शांति नहीं मिली, उन्होंने उन सांसारिक सुखों को ठोकर मारकर संसार के कोलाहल से दूर शांत एकांत वन में आत्मध्यान लगाया जिससे उन्होंने जन्म मरण के दुखों से छुटकारा पाकर अनंत निराकुल आनंद पाया । यह सब महिमा है निज एकत्वदृष्टि की । इसलिये अपने में एकत्व भाव पैदा करो । एकत्वदृष्टि से आत्मा को देखो । जहाँ जीव ने मोह दृष्टि की वहीं पर बंधकथा है और बंधकथा से अनेक झगड़े, अनेक विकल्प पैदा होते हैं । विकल्पों से रहित अवस्था में ही सुख है । देखो भैया ! आचार्यों ने कहा है कि पुण्य और पाप में भी विकल्प नहीं करना चाहिये । पुण्य पाप दोनों विकारी भाव हैं अहित है । छहढाला में कहा है कि—पुण्य पाप फलमांहि हरष विलखो मत भाई । यह पुद्गल पर्याय उपजि विनसै फिर थाई ।। लाख बात की बात यही निश्चय उर लाओ । तोरि सकल जग-दंद फंद निज आतम ध्याओ ।। कहते हैं, हे भाई! धनादिक पुण्य के फल हैं सो उन्हें देख कर खुश मत होओ । तथा रोग को वियोग के दु:ख का फल जानकर शोक मत करो क्योंकि ये पुण्य पाप पुद्गल की अवस्थायें हैं जो पैदा होकर के फिर नष्ट हो जाती हैं । इसलिये लाख बात की यही बात है कि समस्त जग के दंद फंदों को तोड़कर आत्मध्यान में लीन हो जाओ । आत्मा का एकत्व जब होता है तभी अनंत शाश्वत निराकुल सुख प्राप्त होता है । 286-इच्छा के अभाव में ही सुख—संसार में जितने भी जीव हैं वे सभी सुख चाहते हैं । सुख पाने के लिये वे अनेक तरह की क्रियायें करते हैं । त्यागी व्रती, श्रावक, ज्ञानी, अज्ञानी सभी सुख के लिये अच्छे से अच्छा काम तथा बुरे से बुरा काम भी करता है फिर भी वह सुखी नहीं होता है । इसका क्या कारण है? इसका कारण है कि उन्होंने सुख के कारणों को, सुख के मार्ग को नहीं समझा है । किंतु जिन्होंने सुख के कारणों को, सुख के मार्ग को समझा है वे हमेशा सुखी-निराकुल रहते हैं । सुख के बारे में छहढाला में कहा है कि आकुलता बिन कहिये, यानी वह सुख आकुलता के बिना है । जहाँ इच्छाओं का अभाव है वहीं पर सुख है । अभी भी सुख जितने हो रहे हैं वे इच्छा के अभाव से हो रहे हैं, किंतु मोही जीव इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर सकता । किसी के पास एक मित्र का पत्र आया, उसमें मिलने के बाबत लिखा था । उसी समय से उनके मन में मिलने की आकुलता होने लगी, और उसी समय से मिलने की प्रतीक्षा में अपने दैनिक कार्यों से जल्दी निपट करके स्टेशन पहुँचा । किंतु जब यह ज्ञात हुआ कि गाड़ी आधा घंटा लेट है तो उसके मन में और भी अधिक आकुलता होने लगी । जैसे तैसे गाड़ी आई और मित्र से मिले । मिलने के बाद कुछ सुख मिला । अब आप हमें बताओ कि वह सुख मित्र के मिलने से हुआ अथवा जो उसके अंदर आकुलित भाव थे सो उनके मिटने पर सुख हुआ? मित्र के मिलने से सुख नहीं हुआ किंतु जो आकुलता थी, मित्र के मिलने की इच्छा थी उस इच्छा के शांत होने पर सुख हुआ है । ऐसा ही सर्वत्र है इच्छा दूर हो तो वहाँ आनंद आ जाता है । इसलिये समस्त इच्छाओं का नाश करना चाहिए । इच्छा नाश के लिये ज्ञानप्राप्ति करना चाहिये । ज्ञान के द्वारा ही इच्छाओं का दमन होगा और तभी सच्चा सुख मिलेगा । आज दुनियां जिसे ज्ञान मानती वह ज्ञान नहीं हैं, वह तो अज्ञान है अथवा विज्ञान है । आज सारा जगत, सारा संसार इस अज्ञान से दु:खी है । क्योंकि सभी के अंदर नाना तरह की इच्छाओं का वास है । सभी कहते हैं कि यह मेरा है, यह मेरा है, मैं इसका कर्ता हूँ, मैं इसका स्वामी हूँ इसका भोक्ता हूँ, मैं ही इनका सर्वस्व हूँ । किंतु यथार्थ में यह कुछ भी तेरे नहीं है, यह तो सब अज्ञान एव मिथ्यात्व है । 287-सम्यग्ज्ञान ही भ्रम का नाशक—द्रव्य का यथार्थ ज्ञाता हो, सर्व स्वतंत्रता की प्रतीति हो तो क्लेश दूर हो लेंगे । जगत में सम्यग् द्रव्य कितने हैं? जाति की अपेक्षा से तो द्रव्य छह हैं जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । द्रव्यापेक्षा से द्रव्य अनंतानंत हैं, अनंत जीव द्रव्य, अनंतानंत पुद्गल द्रव्य, एक धर्म द्रव्य, एक अधर्म द्रव्य एक आकाश द्रव्य और असंख्यात काल द्रव्य । द्रव्यों के जानने के लिये, समझने के लिये, दो बातें है । एक तो जिसका दूसरा टुकड़ा न हो सके, जिसका दूसरा खंड भाग न होवे वही द्रव्य है । जिसका खंड होता है वह द्रव्य नहीं है । जैसे ये दिखने वाले पुद्गल स्कंध है, यह द्रव्य नहीं हैं क्योंकि इनके टुकड़े हो जाते हैं । पति पत्नी द्रव्य नहीं क्योंकि वे एक नहीं वे अलग-अलग है जड़ चेतन का समूह है, । इस तरह जिसका दूसरा टुकड़ा न होवे दूसरा खंड न होवे वह द्रव्य है । आत्मा के खंड नहीं होते आत्मा अखंड है इसलिये प्रत्येक आत्मा एक-एक द्रव्य है । प्रत्येक पुद्गल परमाणु एक-एक द्रव्य है । दूसरे एक के परिणमन से दूसरा नहीं परिणमें ऐसी केवल की परिणति जहाँ हो सो द्रव्य हैं । दुनिया में कोई किसी के परिणमन से नहीं परिणमता है । सभी अपने परिणमन से ही परिणमते हैं । किसी ने नौकर को आज्ञा दी कि अमुक काम करो और वह करने लगता है सो मालिक विचारता है कि उसने मेरी आज्ञा से कार्य किया किंतु ऐसा मानना ठीक नहीं है । नौकर ने अपने स्वार्थ से अपनी इच्छा से कार्य किया । संसार का कोई भी पदार्थ दूसरे के परिणमन से नहीं परिणमता है । आप जो कुछ भी करते हैं सो अपने लिये करते हैं अपने सुख के लिये करते हैं । 288-सभी की अपना दुःख मेटने की चेष्टा—एक जज साहब थे । वे अपनी मोटर से कचहरी जा रहे थे । रास्ते में कीचड़ के अंदर एक गधा फंसा हुआ था और बहुत ही दुःखी था । इस गधे को देख करके जज साहब के हृदय में बहुत दु:ख हुआ अनेक विकल्प हुये तो जज साहब अपनी मोटर से उतर कर उस गधे को निकालने लगे । तब सिपाही बोले कि आप रहने दीजिये हम लोग इसे निकाले देते हैं । किंतु जज साहब ने कुछ न सुना और स्वयं ही उस गधे को कीचड़ से बाहर निकाल दिया । इतनी क्रिया में कुछ कीचड़ के दाग जज साहब के कपड़ों पर भी लग गये । टाइम न रहने से वे बिना कपड़े बदले ही कचहरी चले गये । वहाँ पर उनके कपड़ों पर कीचड़ के दाग देखकर लोग आपस में कहने लगे कि आज क्या बात है कि जज साहब के कपड़ों पर कीचड़ के दाग हैं । लोगों को परस्पर बातचीत करते देखकर उन्होंने पूछा कि क्या बात है? तब उन्होंने कहा कि हम लोग तो यह कह रहे थे कि आपके कपड़ों पर ये दाग कैसे लगे? तब सिपाही बोले कि जज साहब बड़े दयालु हैं । एक गधा कीचड़ में फंसा था और बहुत दु:खी था; सो आपने उसे कीचड़ के बाहर निकाला सो ये कीचड़ के दाग कपड़ों पर आ गये हैं इस बात को सुन करके जज साहब बोले कि हमने गधे के ऊपर कृपा नहीं की बल्कि अपने ऊपर ही कृपा की है । यदि मैं उसे कीचड़ के बाहर नहीं निकालता तो अभी यहाँ पर मेरे मन में नाना तरह के विकल्प उठते, कि गधा कीचड़ में फंसा है और वह दु:खी हो रहा होगा, तो मुझे भी दुःख होता । इसलिये मैंने तो अपने दु:ख को दूर करने के लिये उसे बाहर निकाला है । 289-वस्तु से बाहर वस्तु की गुण, पर्याय का अभाव—लोग कहते हैं कि हमारा तुम्हारे ऊपर बहुत प्रेम है सो भैया वह प्रेम आपका आपके बाहर कैसे होता है? आपकी वस्तु आपके ही अंदर रहेगी । लोग भगवान की भक्ति करते हैं तीर्थवंदना करने जाते हैं, दानादिक करते हैं किंतु ये सभी कार्य स्वयं के लिये ही करते हैं । अपने दुःख मेटने के लिये भगवान के पास जाते हैं, भगवान की पूजा करते हैं, वे भगवान के प्रेम से भगवान के पास नहीं जाते हैं । कोई कहे कि इस बात को उदाहरण पूर्वक समझाओ सो एक छोटासा उदाहरण है । एक आदमी गर्मी के दिनों में दोपहर के समय नंगे सिर और नंगे पैर मार्ग में जा रहा था । गर्मी से व्याकुल होकर वह इधर से उधर दृष्टि फेंकने लगा कि कहीं कोई छायादार पेड़ मिल जाये क्योंकि वह धूप उससे सह्य नहीं थी; वह धूप से घबड़ा गया था । एक छायादार पेड़ मिलता है और वह उसके नीचे जो बैठता है । तो आप बताओ कि यह आदमी पेड़ के प्रेम से पेड़ के नीचे आया अथवा अपने संताप दूर करने आया । वह पेड़ के प्रेम से पेड़ के नीचे नहीं आया । यदि वह पेड़ के प्रेम से पेड़ के नीचे आया होता तो उसे वहाँ से जाना नहीं चाहिये, पेड़ से चिपटकर ही रह जाना चाहिये किंतु ऐसा देखा नहीं जाता है । जब धूप कुछ कम होती है शाम के पांच बजे का समय होता है तब वह वहाँ से उठकर अपने गंतव्य स्थान को चला जाता है । इससे सिद्ध होता है कि वह पेड़ के प्रेम से पेड़ के पास पेड़ के नीचे नहीं आया किंतु पहले अपने दु:खों को मिटाने के लिये पेड़ के पास गया । इसी तरह भक्त अपने राग ताप को मिटने के लिये वीतराग भक्ति करता है तभी तो विराग होते ही भक्ति छूट जाती है । भगवान की पूजा तो यह है कि भगवान ने जो मार्ग बताया, जो उपदेश दिया उस पर चले । मार्ग पर चलना ही भगवान की सच्ची पूजा है । भगवान ने तो यहाँ तक बताया है कि तुम मेरे से भी राग छोड़कर मेरा ध्यान छोड़कर अपनी आत्मा का ध्यान करो तभी आपको संपूर्ण निराकुल सुख प्राप्त होगा । 290-स्वभावदृष्टि की पात्रता के अविरुद्ध व्यवहार्यता—भैया ! अपने विशुद्ध परिणामों से दर्शनज्ञान के मार्ग पर लगो । ज्ञान के प्रकाश में आओ, तभी आत्म-कल्याण होगा । एकत्वदृष्टि करने का यत्न उनके हो पाता है जिनके व्यसन एव हिंसात्मक वृत्ति का संस्कार नहीं रहता । ऐसा विशुद्ध बनने के लिये, भैया ! आवश्यक है कि मौलिक सदाचारों से आत्मबल को पुष्ट करे । आदरणीय श्री क्षुल्लकजी ने जो अभी अपना उपदेश दिया है कि प्रत्येक व्यक्ति को आठ मूल गुणों को धारण करना चाहिये, सात व्यसनों का त्याग करना चाहिये । क्योंकि जो इनका त्यागी नहीं वह नाम मात्र का जैन है । किंतु नाम मात्र का जैन क्या जिसके आठ मूल गुण धारण नहीं तथा सात व्यसनों का त्याग नहीं वह जैन नहीं है । वह जैनी नहीं कहला सकता है। 291-जैनों के मुख्य बाह्य चिन्ह—पहले जैनियों के मुख्य रूप से तीन चिन्ह थे । पहला रात में भोजन नहीं करना; दूसरा पानी छानकर पीना; तीसरा प्रतिदिन मंदिर जाना, देव दर्शन करना । आज कल लोगों को रात्रि में भोजन छोड़ने में बड़ी कठिनाइयां आती बताते हैं । वे कहते हैं कि हम नहीं छोड़ सकते हैं । सो उनसे हमारा कहना है कि वे पूर्ण रूप से इसे पालन नहीं कर सकते हैं तो कम से कम इतना तो करे कि रात में रोटी, पूरी आदि अन्न की चीज न खावें । अन्न की चीज का त्याग तो अवश्य ही कर देना चाहिये । वह भी खेद की बात है कि अब ऐसे उपदेश की नौबत आ गई है । वैसे तो यह त्याग त्याग नहीं है, अभ्यासी श्रावक को भी ऐसा त्याग होता है कि वह जल औषधि के अतिरिक्त अन्य कुछ रात्रि में ग्रहण नहीं कर सकता । जीवदया—जैनों का जैन धर्म का मुख्य सिद्धांत है । अहिंसा परमो धर्म: । अहिंसा ही उत्कृष्ट धर्म है, सब देश अहिंसा का त्याग करना उत्तम है । घर गृहस्थ में सर्वथा अहिंसक नहीं हो सकता । अत: संकल्प करके किसी भी जीव को नहीं मारना, किसी को दुःख न पहुँचाना, सो जीव दया है जीवदया का पालन भी प्रत्येक जैन भाई को करना चाहिये । बिना इन बातों के आत्मा का उद्धार नहीं होता है । 292-आत्मसंस्कार के प्रारंभ की करणीयता—हम और आप यहाँ किस लिये इकट्ठे हुये हैं? इसलिये कि हम पंच कल्याण प्रतिष्ठा देखेंगे कुछ ज्ञान प्राप्ति करें जिससे हमारी आत्मा को शांति प्राप्त होगी । आज तप कल्याण है । स्वर्ग से लौकांतिक देव आये और उन्होंने भगवान की बहुत ही प्रशंसा की, संसार से विरागता को दिखाया । भगवान ने दीक्षा ग्रहण की, खूब तप किया और अपनी आत्मा को निर्मल पवित्र बनाया । हमने और आपने सब कुछ देखा और सुना किंतु उसे अपने जीवन में, अपने हृदय में नहीं उतारा । तो सुनने से कोई लाभ नहीं हुआ, हमारा यहाँ आना ही निष्फल रहा । इसलिये प्रत्येक बंधु को, प्रत्येक जैन भाई को ज्ञानाभ्यास का संकल्प आठ मूल गुणों का पालन, सात व्यसनों का त्याग करना चाहिये । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पांच पापों को त्यागना चाहिये । पानी हमेशा छानकर ही पीना चाहिये । चाहे वह पानी नदी, कुये, तालाब किसी का हो किंतु उसे छान लेना आवश्यक है । रसनेंद्रिय-विजयी ही संयमी होते हैं । अल्पकाय जिह्वा इंद्रिय को वश में करने से आजन्म निरोगता और संयम की रक्षा होती है । देखो भैया ! मुनि और श्रावक पांचवे काल तक कुछ सप्ताह शेष रहेंगे तब तक मुनि और श्रावक दोनों रहेंगे । जैन धर्म भी तभी तक रहेगा । श्रावक को चाहिये कि मुनि आदि पात्र के लिये शुद्ध पवित्र भोजन समयानुकूल सभक्ति देना चाहिये जिससे कि उनके धर्मसाधन में किसी तरह से अशांति-उपद्रव पैदा न हों । वे अपने कार्य को, अपने चारित्र की वृद्धि करते रहें अपनी आत्मा के साथसाथ संसार के प्राणियों का कल्याण करते रहे । और आपको धर्ममार्ग का दर्शन होता रहे । 293-गुरु की सन्मार्गदर्शकता—मुनि के द्वारा श्रावकों का महान् उपकार होता है । वे उन्हें धर्म का उपदेश देते हैं, उन्हें सन्मार्ग का प्रदर्शन कराते हैं । यदि मुनिगण उन लोगों को सन्मार्ग न दिखावे तो वे पथभ्रष्ट हो जावेंगे और अपने मनुष्य जीवन को व्यर्थ ही बरबाद करेंगे । इसलिये चाहिये कि उनके उपदेशों से अपने को जाने कि हम क्या है? हमारी आत्मा क्या है? अपने को जान करके अपना कल्याण करें । यदि अपना कल्याण चाहते हो तो ज्ञान-उपार्जन करो । ज्ञान के द्वारा आत्मा का कल्याण होगा । बिना ज्ञान के कुछ होने का नहीं है । इसके लिये ज्ञानी गुरुओं का समागम करो । प्रभु के स्वरूप को ज्ञात करो । प्रभु के वीतराग भाव की महिमा को जानकर प्रभु-स्वरूप की अतुल भक्ति करो जिससे आत्म-साधना को अनुपम सहायता प्राप्त हो । जिसे कल्याण की वांछा है, उस गृहस्थ को चाहिये कि प्रथम ही अपने को उक्त तीन बाह्य चिन्हों की पालना से सुसंस्कृत बनावे । पश्चात् सर्व विभक्त निज आत्मतत्त्व के एकत्व की साधना में तत्पर हो जावे । 294-आत्मा का ध्रुव-स्वभाव—बंधुजन ! जीव एक स्वरूप वाला है । जीव का स्वभाव अखंडध्रुव है । उस ध्रुवता का परिज्ञान हो जाना ही सुंदर है । जब तक इस जीव को अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं होता है तब तक यह जीव नाटक करता रहता है । गृहस्थ बनना, साधु बनना—ये सभी नाटक होता है अर्थात् पर्याय ही तो है । कभी यह जीव नारकी कभी तिर्यंच, कभी देव, कभी मनुष्य आदि चारों गतियों में घूमता है नाटक करता फिरता है । इन सभी नाटकों में फिरने वाला नाचने वाला एक आत्मा है । जब तक जीव को अपने स्वभाव का ज्ञान नहीं होता है तब तक उसका कल्याण नहीं होता है । अर्हत सिद्ध अवस्था रूप स्वाभाविक नाटक नहीं आ पाता है । जीव का कल्याणकारी इस दुनिया में अगर कोई है तो सिर्फ धर्म है । धर्म को छोड़कर अन्य कोई भी इसका भाग नहीं कर सकता है । वे धनादिक से आत्मा का स्वल्प मात्र भी कल्याण नहीं होने का । इसलिये जो मुमुक्षु है । आत्मा का कल्याण करना चाहते हैं उन्हें चाहिये कि वे धर्म की प्राप्ति करें । अब यहाँ पर यह प्रश्न होता है कि धर्म है क्या? पूजा स्वाध्याय करना यह धर्म नहीं है । हां पूजा से धर्म होता अवश्य है किंतु पूजारूप जो बाहरी क्रिया है वह धर्म नहीं है । ये पूजादिक बाहरी जितनी भी क्रियायें हैं ये सब शुभराग की परिणतियों के फल हैं और ये शुभराग धर्म के पहले होते हैं । इन शुभ रागों से छूटते-छूटते अंत की जो निर्विकल्प अवस्था है उसका नाम धर्म है । वीतरागता का नाम धर्म है । बिना शुभराग हुये धर्म नहीं होता है, किंतु शुभराग धर्म नहीं होता है, किंतु शुभराग धर्म नहीं है । 295-खुद ही खुद का शरण—संसार में इस जीव का कोई सहायक नहीं है । पुत्र, स्त्री, माता पिता आदि जितने भी कुटुंबी जन हैं, वे सभी तभी तक के साथी हैं जब तक उनका स्वार्थ रहता है । आप देखो दुनियां में बड़े-2 राजा, बड़े-2 धनी चक्रवर्ती हुये किंतु इनका कोई भी प्रयत्न काल के ऊपर नहीं चला । यदि ये चाहते कि हमारे पास बुढ़ापा न आवे, मृत्यु हमारे पास न आवे तो क्या यह संभव हो सकता था? नहीं । तो देख लो धन ऐश्वर्य, मान प्रतिष्ठा कोई भी आत्मा का हित करने वाला नहीं है । आत्मा का हित तो आत्मा को जानने पर ही होगा । वहीं पर धर्म होता हे । धर्म चेतनस्वरूप है । इसलिये आत्मा के हित को चाहने वालों को चाहिए कि आजकल जो चेतन तीर्थ हैं यानी ज्ञानी, साधु, मुनि हैं सो 1-2 महीने उनके पास घर छोड़कर रहे, वहाँ पर उनके लिये ज्ञानोपार्जन होगा, आत्मा में सुख और शांति का अनुभव होगा । हमारे कहने का अर्थ यह नहीं है कि आप तीर्थयात्रा बंद कर दें । वह तो आप करो, तीर्थों के दर्शन करने से वहाँ पर आत्मा में एक अलौकिक स्फुर्तिमय आनंद प्राप्त होता है किंतु इसके साथ यह भी करें कि जहाँ पर ज्ञानाभ्यास हो सके अच्छी-2 चर्चा सुनने को मिले ऐसे स्थान पर रहें और अपनी आत्मा का कल्याण करें । आत्मा में प्रमादवश बंधकथा का समावेश हो गया है । बंधकथा से विसम्वाद पैदा होते हैं और उन विसम्वादों से दु:ख होते हैं । इसलिये सबको छोड़कर अपनी आत्मा को देखो । 296-आत्मा में एकत्व की उपलभ्यता—जब आत्मा में एकत्वभाव पैदा हो जावेगा तब पश्चात् यदि विकल्प हो तो विचार होंगे कि राग, द्वेष, मोह, क्रोध किसके लिये करना, और किन पर करना क्योंकि ये बाह्य पदार्थ तो कुछ भी मेरे नहीं हैं, इनसे तो मेरा कुछ भी संबंध नहीं है । एक का विचार करो, आत्मा में एकत्व करो । दो का याने संयोग का या निमित्त का आश्रय जहाँ हुआ वही पर दुःख हुआ । लोगबाग कहते हैं ना कि हम तो द्विविधा में पड़ गये हैं । दो का विचार करना द्विविधा में पड़ना है । पुत्रादिक से सुख नहीं होता है । पुत्र हो गये । यदि वे कुपूत हो गये तो दुःख है । और यदि वे सुपूत हो गये तो भी दुःख है । कुपूत की अपेक्षा सुपूत से कही अधिक दुःख हैं, सुपूत हो गया, तो उसकी बहुत चिंता करनी पड़ती है कि इसके लिये किसी तरह के दु:ख न हो, इसके लिये खूब धन इकट्ठा करना चाहिये, आदि अनेक चिंतायें पैदा होती है । इसलिए भैया जब तक दों का विचार आत्मा में रहेगा तब तक सुख नहीं हो सकता है । सुख तो एक में है । जब तक जीव अकेला रहता है तब तक वह सुख और आनंद का अनुभव करता है । किंतु दुनिया का कोई भी जीव अपने को अकेला मानने को तैयार नहीं है । जब कि वह वास्तविक अकेला है, अकेला आया है और अकेला जाता है । यह जीव अकेला है । जो भी वह करता है वह अपने लिये करता है । स्वयं ही कर्त्ता है और स्वयं ही भोक्ता । अपने को देखो, अपने को अकेला समझो । एकत्व में ही धर्म है । आप देखते हो कि साधुजन, मुनि लोग जंगलों में क्यों जाते हैं? क्योंकि वे अपने को अकेला मानते हैं, इसलिये वे घरबार को छोड़कर जंगलों में अकेले रहते हैं, वहाँ पर वे अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, उस आत्मध्यान से उन्हें अलौकिक सुख आनंद की प्राप्ति होती है । एकत्व का नाम ही धर्म है । जिसकी आत्मा में एकत्व उपयुक्त हो गया वही बड़ा है । इसलिये सुखार्थी जन जो हैं उन्हें समस्त परद्रव्यों से अलग होकर अपने में एकत्व अनुभूत करना चाहिये । 297-ध्रुव और खंडित भाव—यह जीव अनेक बार नारकी, तिर्यंच, मनुष्य देव हुआ किंतु कहीं पर भी रंचमात्र सुखानुभव नहीं किया । नारकी जीवों को कितने दुःख होते हैं । यह सभी जानते हैं । उनकी देह इतनी विकराल होती है कि जब वे अन्य जीव को मारने की सोचते हैं कि मैं अमुक को कुल्हाड़ी से मारूँ तुरंत ही उनका हाथ कुल्हाड़ी बन जाता है । उन्हें अलग से शस्त्र आदि लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती है । तिर्यंचों के दु:ख प्रत्यक्ष में हैं, सर्दी गर्मी भूख प्यास आदि, शक्ति से अधिक बोझा ढोना आदि । देवों में भी दुःख है । मनुष्य सोचते हैं कि देवों में तो सुख ही है क्योंकि वहाँ अमृत पान किया और क्षुधा शांत हो गई सो भूख प्यास के कोई दुःख वहाँ पर नहीं हैं सो सुखी होंगे । यह सोचना उनकी भूल है । देवताओं को भी अनेक दुःख रहते हैं । छोटी जाति के देव हुए, और उनसे बड़ा देव उनके ऊपर हुकूमत करता है तब विकल्प होते हैं, कि यह मेरे ऊपर हुकूमत करता है मैं ही बड़ा क्यों न हुआ आदि । कुछ अच्छे पुण्यशाली देव हुये तो वे रागवश तृष्णा वश, अहंकार वश नाना विकल्पों के कष्ट भोगते हैं । मनुष्यों के भी दुःख प्रत्यक्ष हैं । किंतु मनुष्यों में सबसे बड़ी बात, उत्तम बात यह है कि उनके मन सबसे उत्कृष्ट होता है । इतना उत्कृष्ट मन अन्य किसी गति में नहीं है । देव 11 अंग और 14 पूर्व के पाठी होते हैं किंतु वे श्रुत केवली नहीं कहला सकते हैं । श्रुत केवली तो मनुष्य ही कहलाने का पात्र है । इसलिये ऐसा उत्कृष्ट मन पाकर भी यदि अपना कल्याण नहीं किया तो इससे बढ़कर और मूर्खता क्या होगी? 298-आत्मा की स्वयं ज्ञानानंदमयता—एक ब्राह्मण को किसी ने बताया कि सुख और ज्ञान का मार्ग मगर भी बता सकता है । ब्राह्मण रास्ते में जा रहा था । वहाँ उसे एक नदी मिली । नदी में एक मगर जा रहा था । सो वह ब्राह्मण मगर को देखकर बोला कि हे भाई ! तुम हमें यह बताओ कि हमारा कल्याण कैसे हो? हमें कोई सुख का मार्ग बताओ । तब मगर बोला कि मैं तुझे सुख का मार्ग बताऊंगा । किंतु इसके पहले हमारा एक कामकर मैं बहुत दिनों से प्यासा हूँ सो तुम एक लोटा जल हमारे लिये लाओ उसके बाद मैं सुख का मार्ग बताऊंगा । ब्राह्मण बोला कि हे मगर ! तुम मूर्खता की बातें करते हो; पानी के अंदर रहते हो; जरासा मुंह खोलों और मन चाहा पानी पीलो । जब तुमने पानी में रहते हुये अपनी प्यास नहीं बुझा पाई और अब कहते हो कि एक लोटा जल लाओ? उस एक लोटा जल से तुम क्या अपनी प्यास बुझाओगे? यह तो तुम्हारी मूर्खता है । तब मगर बोला कि हे भाई तुम मूर्खता का प्रश्न मेरे से कर रहे हो, यह आत्मा अनंत सुख का भंडार है इसमें अनंत सुख विद्यमान हैं फिर भी तुम इधर उधर सुख ढूंढ रहे हो, सुख का मार्ग पूछ रहे हो । अपनी ओर लक्ष्य करो । अपनी आत्मा को देखो । सुख ही सुख मिलेगा । कहने का तात्पर्य कि इतना उत्कृष्ट मन प्राप्त करने पर यदि इस जीव ने अपना कल्याण नहीं कर पाया तो फिर उन्हीं गतियों में भटकना पड़ेगा जिन में से यह निकलकर आया है । सो देखो भैया ! अगर अपना हित चाहते हो तो अपनी आत्मा को देखो । ज्ञानोपार्जन करो; बिना ज्ञान के कल्याण होना असंभव है । आपकी आत्मा में अनंत शक्ति मौजूद है, आप जो करना चाहे सो कर सकते हो । आप यह प्रण करो कि हमें तो ज्ञान प्राप्त करना है । उसके लिये 24 घंटों में से दो घंटे ज्ञानोपार्जन में लगाओ । धर्म में 6 घंटा लगाना तो हिसाब से भी बैठता है । आपको याने गृहस्थ को संसार में 4 चार काम करना है धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष । चौथा जो मोक्ष है सो आजकल तो मोक्ष होता नहीं है । इसलिये मोक्ष के स्थान पर सोना ले लो; खूब पैर फैला करके सोओ । मोक्ष का प्रयोजन धर्म में शामिल कर लो । तो चार काम हैं और 24 घंटे हैं, तो 24 में 4 का भाग देने पर 6 आता है यानि 6 घंटे प्रत्येक काम को मिलता है । सो आप इन प्रत्येक काम में 6 घंटे लगाओ । आप जिस तरह से यह कहते हो कि धर्म कहां से करें व्यापार से तो फुरसत ही नहीं मिलती, यहाँ आप ऐसे विचार करने लगो, ऐसे कहो किं हम व्यापार में अधिक समय कैसे लगावें क्योंकि हमें धर्म करने से फुरसत ही नहीं मिलती । ज्ञानोपार्जन करो इससे मिथ्यात्व का नाश होगा सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी । 299-धर्मगति में पहला कदम ज्ञानाभ्यास—बहुत से लोगों व माताओं व बहिनों में मिथ्यात्व अधिकता से घर कर गया है । किसी को चेचक आदि निकले तो वे शीतला देवी, भवानी आदि अनेक प्रकार के देवों को पूजते हैं किंतु वे यह नहीं जानते हैं कि इसकी आयु यदि शेष होगी तो वह बच जावेगा वरन् जैसा होनहार है सो होगा । हम तो इसमें कुछ भी नहीं कर सकते हैं हम बच्चों को न जीवित कर सकते हैं । और न सुखी कर सकते हैं । प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि वह मिथ्यात्व को नाश करके जिनवचनों में श्रद्धा करे । वस्तु जैसी है वैसी ही उसे जाने । पदार्थ का जैसा स्वरूप है उसमें उसी तरह की श्रद्धा करे और सम्यक्त्व की प्राप्ति करे । सम्यग्दर्शन से ही आत्मा का कल्याण हो सकता है । अन्य से नहीं । इस सबके लिये पहिले ज्ञानाभ्यास का प्रयत्न करो । 300-वस्तु का पारिणामिक भाव वस्तु का एकत्व—वस्तु का स्वभाव वस्तु की एकता में है । प्रत्येक जीव अपने स्वभाव से एक ही प्रकार है । जीव में या वस्तु में दो प्रकारता हो ही नहीं सकती । प्रत्येक वस्तु प्रत्येक पदार्थ, प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव से अपने में रहता है । धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य और काल ये चार द्रव्य तो अपने स्वभाव से कभी भी च्युत नहीं होते हैं । हां पुद्गल व जीव अपने स्वभाव से च्युत होता है । सो अपने स्वभाव से च्युत होने पर उसकी क्या दुर्दशा होती है सो तो प्रत्येक देखता है ।आप देखते हो ये जितने भी पुद्गल स्कंध हैं, ये सभी काटे जाते हैं । एक रूप से अनेक रूप में परिवर्तित किये जाते हैं । ये सब अपने स्वभाव छोड़ने का फल है । ये पुद्गल स्कंध द्रव्य नहीं है पुद्गल द्रव्य तो वह है जिसे परमाणु कहते हैं जो हमारे और आपके दिखने में नहीं आते हैं । द्रव्य का लक्षण पीछे विस्तार से बता चुके हैं । द्रव्य की पहिचान करने के लिये मुख्य दो लक्षण हैं । पहला तो जिसका दूसरा टुकड़ा न हो सके । जिसका दूसरा खंड न हो सके वह द्रव्य है । दूसरा, जो एक के परिणमन से दूसरा न परिणमे सो वह एक द्रव्य है । हां तो आप जान गये होंगे कि अपना स्वरूप छोड़ने पर क्या हालत होती है । 301-स्वभाव से विरुद्ध चलने में अहित—पुद्गल द्रव्य की बात जाने दीजिये क्योंकि वह अजीव है इसलिये उसे कुछ भी हानि नहीं पहुंचती । यदि जीव द्रव्य अपने स्वभाव से च्युत हो जावे तो फिर अनेक कठिनाइयां पैदा हो जावेगी । अग्नि का स्वभाव उष्णता है । यदि वह अपने उष्णपने को छोड दे तो उसकी क्या कीमत रहेगी? कहने का तात्पर्य यह हैं कि प्रत्येक वस्तु का स्वभाव स्वयं में ही है । जीव अपने को ही जानता है किंतु व्यवहार से ऐसा भी कह देते हैं कि वह अन्य को भी जानता है । यथार्थत: तो वह अपने को ही जानता है । वस्तु के बाहर वस्तु की बात ही नहीं है । वस्तु के रूप, रस, गंध, स्पर्श उसमें ही रहते हैं न कि उसके बाहर । हमारा ज्ञान हममें है । वह हम से बाहर नहीं है । जैसे कहते हैं कि हमने चौकी को जाना सो हमने चौकी को कैसे जाना, हमारा ज्ञान चौकी तक कैसे पहुंचा? ज्ञान तो हमारा हममें है, चौकी को जान लेने की बात कहना व्यवहार से चल गई है । वास्तव में तो ज्ञान गुण जैसे आत्म प्रदेशों में है, ज्ञान गुण की क्रिया भी आत्म प्रदेशों में ही है ज्ञान गुण की क्रिया है जानना । वह जानना ज्ञेय विषयक होता है अत: आत्मा अन्य ज्ञेयों को जानता है ऐसा व्यवहार से कहते हैं ज्ञानों में ज्ञान वही है जो वस्तु के अद्वैत स्वरूप को देखे । यह आत्मा बाह्य क्षेत्र की दृष्टि से यद्यपि उस ही लोक में रह रहा है जिसमें सर्वत्र अन्य जीव, पुद्गल, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य व कालद्रव्य है तो भी किसी अन्य द्रव्य का मुझ आत्मा में प्रवेश नहीं है मैं अपने ही गुणों में तन्मय हूँ अपने एकत्व में ही मैं हूँ । इस प्रकार अपने ही एकत्व को देखते हुए अपने ही एक सहज स्वभाव में अपने को देखना यही सर्वोत्तम व सुंदर तत्त्व है । 302-आत्मसौंदर्य—अहो ! यह सुंदरता तो सभी द्रव्यों में है, मुझ में भी है, किंतु यह दुर्लभ क्यों हो गई अर्थात् इसकी उपलब्धि क्यों नहीं हो रही है इस संसारी जीवलोक को, इस जिज्ञासा के समाधान में श्रीमत्कुंदकुंदाचार्य देव कहते हैं आत्मा में यह सुंदर तत्त्व चित्स्वभाव के नाम से प्रसिद्ध है । इसका दर्शन उपयोग की अविशेषता से होता है । इसके दर्शन के उपाय ये दो भी हो सकते हैं—(1) किसी भी बाह्य पदार्थ पर दृष्टि नहीं देना, किसी भी पर पदार्थ में उपयोग न लगाना और परम विश्राम पूर्वक उपयोग को अंतर में ठहरने देना । (2) अपने ज्ञान प्रकाश को फैलाते चले जाना बीच में कहीं नहीं अटकाना अर्थात् जितना जाना उससे भी आगे जानते जाओ किंतु किसी भी पदार्थ में राग न करो, अटको नहीं, अपने ज्ञान को सारे लोक में फैला दो लोक से बाहर अलोक में भी फैला दो, जैसा भी फैल सकता है परोक्षज्ञान को ही फैला दो । हमारे उपाय से उपयोग अविशेष हो जायगा । इन उपायों से फिर सहज चित्स्वभाव का अनुभव हो जावेगा ।