वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 414
From जैनकोष
ववहारिओ पुण णओ दोण्णि वि लिंगाणि भणइ मोक्ख पहे।
णिच्छयणओ ण इच्छइ मोक्खपहे सव्वलिंगाणि।।414।।
मोक्षमार्ग का व्यवहार वचन ― व्यवहार में गृहस्थलिंग और पाखंडी लिंग दोनों को मोक्षमार्ग कहते हैं। श्रमण लिंग और श्रमणोपासक लिंग ये दोनों मोक्षमार्ग है। ऐसा जो कहने का प्रकार है वह एक व्यवहारनय की बात है, परमार्थ नहीं है क्योंकि ये दोनों प्रकार के देहलिंग अशुद्ध द्रव्य के अनुभवन रूप हैं। बतावो किसी एक द्रव्य में यह भेष है। एक परमाणु में होता, यह द्रव्यलिंग तो भी बड़ा अच्छा था। एक द्रव्य के अनुभवनरूप तो हुआ अथवा आत्मा में होता है तो भी एक द्रव्य के अनुभवन रूप हुआ। किंतु यह तो अनेक परमाणुस्कंधों के पिंडरूप देह में हुआ है ना, सो ये सब गृहस्थ साधु के भेष अशुद्ध द्रव्य के अनुभवन रूप है, इसलिए परमार्थपना इन चिन्हों में नहीं है।
मुक्तिसाधक परमार्थभूत लिंग – भैया ! तब फिर परमार्थरूप लिंग क्या है, मोक्षमार्ग क्या है? श्रमण और श्रमणोपासक इन दोनों प्रकार के विकल्पों से परे दर्शन, ज्ञान, आचरण मात्र शुद्ध ज्ञानस्वरूप यह एक है ऐसा बेलाग संचेतन करना सो परमार्थ है। अपने आप के अंतस्तत्त्व को बेलाग और बेदाग अनुभवन करना सो ही मोक्ष का मार्ग है। बेलाग तो यों कि इसमें शरीर के लगाव का कुछ भी ध्यान न हो और बेदाग यों कि रागद्वेषादिक जो अंतर मल है उन दागों का अभाव हो, ऐसे ज्ञानमात्र तत्त्वों का निष्तुष संचेतन करना सो ही परमार्थ है। जैसे कोई चतुर व्यापारी धान के भीतर ही यद्यपि चावल अवस्थित है किंतु अपने ज्ञान बल से उस चावल को वह निष्तुष संचेतन करता है। छिलके से ढका हुआ होकर भी छिलके से रंच संबंध नहीं है, इस प्रकार से चावल को अंतर से निरख लेता है। ऐसे ही द्रव्यलिंग में अवस्थित होकर भी साधुजन अपने आप को द्रव्यलिंग से अत्यंत दूर केवल शुद्ध ज्ञानस्वभाव मात्र निरखते हैं। यही मोक्षमार्ग है। व्यवहारनय दोनों लिंगों को मोक्षपद मानता है, परंतु निश्चयनय सभी लिंगों को मोक्षमार्ग में रंच भी इष्ट नहीं करता है।
द्रव्यलिंग की व्यवहार से मोक्षमार्गता का कारण ― भैया ! ये दोनों साधुधर्म और गृहस्थधर्म व्यवहारिक चिन्ह व्यवहार से मोक्षमार्ग क्यों माने जाते हैं? कुछ तो बात होगी। उसमें इतना तथ्य है कि निर्विकार स्वसम्वेदनरूप मात्र लिंग के लिए यह द्रव्यलिंग बहिरंग सहकारी कारण है अर्थात् निरारंभ निष्परिग्रह की स्थिति में निर्विकल्प समाधि का अवसर मिलता है। द्रव्यलिंग का अर्थ क्या है, कोई आरंभ कोई परिग्रह न रखना। जो ऐसा आरंभ करता हो, जो गृहस्थों द्वारा किया जाता हो तो वह द्रव्यलिंग भी नहीं है और परिग्रह का संचय रखना गिनना छूना आदिक परिग्रह में भी जिन की चेष्टा चलती हो उन को द्रव्यलिंग ही नहीं कहा गया है। इस परिस्थिति में तो निर्विकल्प समाधि का अवकाश ही नहीं है। हाँ जो द्रव्यलिंगी साधु आगमोक्त अत्यंत निरारंभ और अत्यंत निष्परिग्रह के रूप में हो तो उसको द्रव्यलिंग के वातावरण में निर्विकल्प समाधि का लाभ हो सकता है। इस ही कारण इन लिंगों को व्यवहारनय से मोक्षमार्ग बताया है किंतु निश्चयनय से तो इन को मोक्षमार्ग नहीं माना।
द्रव्यलिंग की अपरमार्थता के दो हेतु ― द्रव्यलिंग के संबंध में दो बातें ज्ञातव्य है। एक तो देह में ऐसा हो जाना कि नग्न हैं अथवा कोपीन आदिक चिन्ह हैं तो यह सब पुद्गलों की अवस्था है। वह मोक्षमार्ग क्या कहलायेगा और इन चिन्हों में यह मैं निर्ग्रंथलिंगी हूँ, यह मैं लंगोटी का धारक हूँ, मैं साधु हूँ, मैं क्षुल्लक हूँ, मैं अन्य ब्रह्मचारी आदिक हूँ, इस प्रकार का मन में द्रव्यलिंग का विकल्प करना अथवा मैं गृहस्थ हूँ, मैं गृहस्थ धर्म का पालनहार हूँ, इस प्रकार का विकल्प अपनाना है। कहने की बात अलग है लेकिन मन में श्रद्धा की बात अलग है तो जिस के मन में इस देह के वेषभूषा में ही अपने कल्याण की और स्वरूप की श्रद्धा बनती है उनके यह परमार्थ सत्य भगवान कारणसमयसार आत्मदेव अत्यंत दूर है। ज्ञानीजन जैसे रागादिक विकल्पों को नहीं चाहते हैं क्योंकि वह ज्ञानी संत स्वयमेव निर्विकल्प समाधि के स्वभाव वाले हैं। उन्हें एक निर्विकल्प समाधि ही सुहाती है। बाहर में क्या होता है? कहने वाले दसों प्रकार के लोग हैं, उनका उनमें ही परिणमन है, उनका कुछ भी प्रवेश इस ज्ञान स्वभाव के रुचिया संत में नहीं होता। वे निर्विकल्प समाधि के ही यत्न में अपनी वृत्ति रखते हैं।
भावलिंगरहित द्रव्यलिंग का प्रतिषेध ― भैया ! यहाँ ऐसा न जानना कि द्रव्यलिंग का निषेध ही किया गया हो। साधु भेष न करना चाहिए, ऐसा मना नहीं किया जा रहा है किंतु जो निश्चयतत्त्व से अनभिज्ञ हैं, निर्विकल्प समाधिरूप भावलिंग जिस के नहीं है, जिन्हें अपने ठौर ठिकाने का पता नहीं है, ऐसे साधुजनों को संबोधन किया गया है कि हे तपस्वीजनों! द्रव्यलिंग मात्र से संतोष मत करो, किंतु द्रव्यलिंग के आधार से एक निश्चयरत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधिरूप परमार्थ सत् ज्ञान की भावना करो। या यों स्पष्ट समझलो कि जो भावलिंगरहित द्रव्यलिंग का निषेध किया है यह कार्यकारी नहीं है। भावलिंग सहित व समस्त व्यवहार धर्म निषेध नहीं गया अथवा यों समझ लीजिए कि साधु के शरीर के आश्रय जो निर्ग्रंथ लिंग हुआ है, उसमें ममता का निषेध किया गया है यह मेरी चीज है। यह मैं हूँ, इस प्रकार उसमें अहं बुद्धि और मम बुद्धि का त्याग कराया गया है।
विडंबनाओं का कारण परमार्थ की अनभिज्ञता – बहुत से धर्मस्थलों में जो विवाद और क्रोधादिक वातावरण हो जाते हैं वे साधुजनों के आश्रय है। उसका मूल कारण भी यही अज्ञान दशा है कि अपने आप में ऐसी श्रद्धा बना ली है कि मैं साधु हूँ, मैं अमुक हूँ और इसका भान ही नहीं है कि मैं ज्ञानमात्र हूँ और इसका भान ही नहीं है कि मैं सब में समाया हुआ हूँ जिस स्वरूप की दृष्टि से सर्वजीव एक समान हैं, ऐसी अपने आप की समता की दृष्टि ही नहीं जगती। और जैसा चाहा तैसी मनमानी क्रिया का प्रसार करना, ये सब बातें इस अज्ञानदशा पर हो जाती हैं और इसमें केवल साधुजनों की अज्ञानदशा कारण नहीं है किंतु जाननहार श्रावकजनों के भी अज्ञानदशा बनती है।
साधुवों का गृहस्थों का कैसा अनमेल ― भला बतलावो कि जो साधुवृत्ति एकत्व की मुद्रा का संकेत करने वाली होनी चाहिए। एक शुद्ध शांत निरारंभ निष्परिग्रह उपदेश जहाँ होना चाहिये, वहाँ निवृत्तिमय क्रिया हो ऐसी वृत्ति का पद लिया हो और धर्ममार्ग में कहो अथवा मन बहलावा में कहो बहुत आरंभ रखे हों जितना कि गृहस्थजन नहीं कर पाते हैं तब इसका और क्या कारण कहा जा सकता है? सिवाय एक अपने आप के पयार्य की ममता और अहंबुद्धि के। पूजा पाठ कितनी शुद्धता और निवृत्ति के साथ होना चाहिए, इसके लिये तो गृहस्थों की रीति ठीक है। प्रभु की भक्ति बाह्य आडंबरों से की जाय, फूलों की माला बनाकर की जाय, इस प्रकार के अनेक प्रकार के शिथिलाचारों से दूर रहना चाहिए। और कोई साधु भेष रखकर एक इसका ही उपदेश अपने जीवन में करता फिरे और जीवन में यह ही लक्ष्य रखे तो यह श्रावकों का और साधुवों का कितना बेमेल काम है? लेकिन जहाँ निर्विकल्प समाधि उसका कर्तव्य है ऐसी जब भावना नहीं रहती है तो अनेक उलझने आ पड़ती हैं अब श्रावक जन कहाँ सीखे, क्या सीखे, कि से आदर्श देखें, ऐसी स्थिति अब इस कलियुग में हो रही है।
आचार्यदेव का व्यावहारिक अंतिम संदेश ― यह पंचमकाल का ही लिखा ग्रंथ है। कुंदकुंदाचार्य स्वामी समयसार की समाप्ति के समय अंतिम गाथा में इस समस्या को स्पष्ट कह रहे हैं। यह समयसार की अंतिमगाथा है। इसके बाद समयसार ग्रंथ के संबंध में अंतिम आशय बताने वाली गाथा आयेगी। तो यह द्विचरम गाथा है अंतिम से पहिले की, मगर समयसार के विषय को बताने की यह अंतिम गाथा है। साधुलिंग गृहस्थलिंग इन दोनों को मोक्षमार्ग बताने वाला केवल व्यवहारनय है। निश्चयनय इन सर्व लिंगों की मोक्षमार्ग में रंच भी इच्छा नहीं करता।
पदार्थ का यथार्थ निर्णय बिना मोक्षमार्ग की अप्राप्ति ― भैया ! मैं क्या हूँ, इसका निर्णय किए बिना मोक्ष का मार्ग ध्यान में नहीं आ सकता। मैं केवल ज्ञानमात्र स्वतंत्र सत् हूँ, जिस का किसी भी परद्रव्य से परमाणुमात्र भी संबंध नहीं है। यह प्रभु अपने आप के प्रदेश में ही विराजमान् हुआ अशुद्धभावों की लीला कर के इन समस्त भवसृष्टियों का कारण बन रहा है। यह किसी भी परद्रव्य में जा जाकर सृष्टियां नहीं करता। यदि ऐसा करे तो उसमें प्रभुता ही क्या रही अथवा वस्तुस्वरूप ही ऐसा नहीं है कि कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य में प्रवेश कर के अपनी बात लोपे। यह अपने आप में ही विराजमान् रहता हुआ अशुद्धभाव करके अपनी अशुद्ध सृष्टियां करता जा रहा है और इस चाल में इसको अपने आप की चेतना नहीं रही, किंतु बाह्य पदार्थों में ही सुख व ज्ञान की कल्पना हो गयी।
अचेतन से ज्ञान का अप्रादुर्भाव ― ब्रह्मी बूटी आती है उसे रगड़ कर पियो तो ज्ञान बढ़ जायेगा ऐसी बुद्धि अज्ञान में बनती है। अरे उस ब्रह्मी बूटी में कहीं ज्ञानतत्त्व भरा है क्या, भले ही यह बात बन जाय कि शरीर के जो अवयव हैं मस्तक आदिक इन साधनों का कुछ दृढ़ीकरण का कारण बन जाय। अभी भोजन न खायें तो यह शरीर मुरझा जाता है और आत्मा को ज्ञानमार्ग में बढ़ने से रुकावट हो जाती है, परंतु ब्रह्मी में से ज्ञान निकले और फिर ब्रह्मी पास करा दे, ऐसी बात तो नहीं है। यह तो ब्रह्मी की बात कही है। आचार्यदेव ने तो शास्त्र की बात लिखी है। ज्ञान शास्त्र से नहीं निकलता। शास्त्र से ज्ञान प्रकट नहीं होता है, ब्रह्मी तो बहुत दूर की बात है। शास्त्र श्रुत, अक्षर आदिक जो साधन हैं ये अचेतन ही हैं। तो अपने आप का जब तक सही परिचय नहीं होता तब तक मोक्ष का मार्ग क्या है? यह निर्णय नहीं किया जा सकता है।
निजस्वरूप के ज्ञान बिना बीभत्स भ्रमण ― मैं ज्ञानानंद स्वभावमात्र स्वतंत्र सर्व से विविक्त परिपूर्ण एक चैतन्यतत्त्व हूँ, जब इसकी आराधना नहीं रहती है तब यह जीव गरीब होकर, दीन बनकर बाह्यपदार्थों का आश्रय किया करता है। इस जगत में जो कुछ मिला है इससे भी करोड़ो गुना अनेक भवों में मिला होगा। जब वह भी नहीं रहा तो वर्तमान में जो मिला हुआ है वह क्या रहेगा? क्यों इतनी ममता की जा रही है और अपने आप के स्वरूप का आवरण किया जा रहा है। अरे उस ओर किसी क्षण विकल्प तक भी न रहना चाहिए। ऐसी आत्मतत्त्वरता के साथ जिस के ज्ञानभावना चल रही है उस के क्षण सफल है। इस अंधेरनगरी मे स्वयं भी अंधे बनकर बाह्य विषयों में अपने आप को लगा बैठें और ज्ञानमात्र निज तत्त्व की सुध भूल जायें तो यह तो संसार में रुलते रहने का साधन ही किया जा रहा है।
मनुष्यभव का लाभ ― भैया ! मिला है मनुष्यभव और मिला है यह जैन दर्शन, यदि इससे लाभ न लूटा जाय और असार, भिन्न, अहित, पौद्गलिक, मायारूप परद्रव्यों के खातिर अपने आप का घात किया जाय तो यों ही कहना चाहिए कि मनुष्य हुए न हुए एक समान बात है। ये विषयों की बातें क्या पशु पक्षी बनकर न की जा सकती थी, अनेक विकलत्रय, स्थावर इन भावों में जितना जो कुछ साधन मिला है, क्या विषय साधन की बात न की जा सकती थी? फिर इस मनुष्य भव का कुछ सदुपयोग ही क्या रहा, जो पूर्ववत् विषयों की ही धुनि में रहे। सर्व प्रयत्न कर के इन बाह्य विकल्पों से, वासनावों से ममतावों से हटकर अंत: प्रकाशमान् इस शुद्ध ज्ञानस्वरूप का ही अनुभव करो।
व्यवहार को परमार्थरूप अनुभवने में अलाभ- जो प्राणी व्यवहार को ही परमार्थ की बुद्धि से अनुभवते हैं वे समयसार का अनुभवन नहीं कर सकते। जैसे जो धान के छिलकों को ही यही उपादेयभूत सार की चीज है, ऐसा समझते हैं वे चावल के फल को प्राप्त नहीं कर सकते। जो वर्तमान मनुष्यादिक पर्यायों को ही आत्मरूप से अनुभव करते हैं वे आत्मतत्त्व के दर्शन नहीं कर सकते हैं। जो इस शरीर के भेष को ही 'यह मोक्षमार्ग है' ऐसा अनुभवन करते हैं वे मोक्षमार्ग में प्रवेश नहीं कर सकते हैं। जो जीव परमार्थ को ही परमार्थभूत से अनुभवते हैं वे ही समयसार का संचेतन करते हैं। इस मायामयी दुनिया में इन मायामय लोगों में, मायामय प्रशंसा की मायामय चाह करने वाले परमार्थ से मोक्ष मार्ग से, आत्महित से अत्यंत दूर हैं। संसार और मोक्ष इन में से कोई एक का उपाय बना लो। संसार का उपाय करते हुए मोक्षमार्ग के स्वप्न देखना यह एक स्वप्न ही है। चलें तो संसारमार्ग में और मोक्ष की बात मन में जानें तो वह धोखा ही है।
मुक्तस्वरूप आत्मतत्त्व की प्रतीति की प्राथमिकता ― मुक्त होना कि से है, पहिले उसे ही तो समझलो। और यह मुक्त हो भी सकता है या नहीं इसे भी जान लो तब ही मोक्षमार्ग की बात निभ सकेगी। कि से मुक्त होना है और मुक्त यों हुआ जा सकता है, यह मर्म को न देखा और अपनी कल्पना के अनुसार बाह्य घटनावों में कुछ कल्पना बना ले तो उससे मोक्षमार्ग नहीं मिलता है। मुक्त होना है इस मुक्त आत्मा को, इस मनुष्य को नहीं। क्यों इस मुझ आत्मा को मुक्त होना है? जो यह आत्मा अपने स्वरूप से अपने स्वभाव मात्र है। यह क्या मुक्त हो सकता है? हां हो सकता है क्योंकि इसका मुक्त स्वरूप ही है।
भावकर्म में द्रव्यकर्म की अनुसारिता ― यह आत्मा परद्रव्यों से अत्यंत भिन्न है, इसमें किसी भी परद्रव्य का प्रवेश नहीं है। रागादिक भाव इसमें उदित हो जाते हैं, सो वे भी निमित्त के साथ ऐसे जुड़े होते हैं जैसे कि दर्पण के सामने हाथ करो तो प्रतिबिंब हो गया, हाथ हिलावो तो प्रतिबिंब हिल गया जैसी क्रिया तैसा ही दर्पण में प्रतिबिंब हुआ तो जैसे वह प्रतिबिंब इस निमित्तभूत परपदार्थ का बड़ा आज्ञाकारी है और उसमें ही गठा बंधासा है इसी तरह ये रागादिक विभाव इस निमित्तभूत पदार्थ से ऐसा गठा बंधासा है, वह मेरा कुछ नहीं है। मुझ में परभावों का भी प्रवेश नहीं है, स्थिरता से रह सके विभाव तो उसकी कुछ कला समझो, पर उदयानुसार आता है क्षणमात्र को और निकल जाता है। निकलने का ही नाम उदय है। द्रव्यकर्म निकलते हैं तो ये भावकर्म भी निकलते हैं। द्रव्यकर्म ठहरते हैं उदय की अवस्था में भावकर्म ठहरते हैं अभ्युदय की अवस्था में इस कारण ये विभाव भी मेरे कुछ नहीं हैं। मैं तो स्वरसमय टंकोत्कीर्णवत् एक ज्ञायक स्वभावमात्र हूँ।
परमार्थ को परमार्थरूप से संचेतने का प्रभाव ― यह मैं मुक्त हो सकता हूँ क्योंकि मेरे स्वरूप में ही मुक्तस्वभाव पाया जा रहा है। हम अपने उपयोग को परद्रव्यों से अपने में बांधे हुए हैं और उनका निमित्त पाकर ये द्रव्यकर्म भी एकक्षेत्रावगाह बंधन को प्राप्त हुए हैं, इतने पर भी यह मैं आत्मा मुक्तस्वभाव ही हूँ। किसी से बिगड़ता नहीं। अपने स्वभावरूप में ही बना रहूं तो मुक्त हो सकता हूँ। मुझ में ऐसा स्वभाव पड़ा है, इतनी श्रद्धा हुए बिना मोक्षमार्ग कहाँ विराजेगा ! जो जीव परमार्थ को ही परमार्थ बुद्धि से अनुभवते हैं वे ही इस समयसार को अनुभवा करते हैं। शरीर के संबंध में वे शरीर के भेष के संबंध में पहले कुछ कहा गया है। पर से विविक्त इस अध्यात्म के निरूपण करने वाले वर्णन में यह सब मार्गदर्शक वर्णन है।
ग्रंथ में सुयुक्त वर्ण ― भैया ! इस ग्रंथ में 414 गाथावों में बड़ी प्रामाणिकता से अंतस्तत्त्व का विषय आया है, नयचक्र जो अत्यंत दुस्तर है, गंभीर है अथवा यह नयों का वन जो जीव को जरा भी असावधानी हो तो भुलाने और भटकाने वाला है ऐसे भी नयों के द्वारा इस संबंध का विशद स्वरूप कहा है। निश्चयन के बिना व्यवहारनय भी प्रतिष्ठित नहीं है व्यवहारनय के बिना निश्चयनय भी प्रतिष्ठित नहीं है, फिर भी निश्चय की मुख्यता में वस्तुगत स्वरूप दिखता है और व्यवहार की मुख्यता में अगल बगल ऊपर का सर्व वातावरण नजर आता है। दोनों नयों के प्रयोग से यथा समय सारी बातें समझने वाला सावधान होकर यह मुमुक्षु मोह सेना को परास्त कर देता है, उसही समयसार का इतने वर्णन के बाद इतना स्वरूप जानने के बाद अब और ज्यादा कहना व्यर्थसा हो जाता है।
वर्णन का अमली जामा ― तत्त्व के संबंध में पर्याप्त हो चुका है। वर्णन अब ज्यादा क्या कहा जाय? बहुत विकल्पों के करने से क्या फायदा है? अब तो परमार्थभूत एक इस समयसार का ही संचेतन करो। जब भोजन बनाते हैं ना तो बाल बच्चे सब मिलकर खुश होते जाते हैं। अच्छा बना अब यह काम करो, अमुक चीज लावो, पानी लावो, ठीक बन रहा है, बड़ा अच्छा बन रहा है, खुश हो रहे हैं। बन भी गया भोजन, सामने आ गया फिर भी कहते हैं कि बड़ा अच्छा बना, तुम्हारी हिम्मत थी, बड़ा काम किया, इसने बड़ा काम किया। भारी बातें करते हैं। कोई चतुर कहता है कि अब बातें करना छोड़ दो, अब तो खाने का मजा लो। हो चुका सब कुछ। समयसार का वर्णन शुरू से खूब चल रहा है। बहुत चर्चा हुई। नयों की प्रमुखता का वर्णन चला। उस ही गोष्ठी के लोग आपस में कहते हैं कि खूब वर्णन हुआ, अब विकल्पों से क्या फायदा है? एक परमार्थभूत इस समयसार का अब तो अनुभवन करो, अन्य विकल्प करना भूल जावो। अपने पास जो बैठे हैं, जो तुम्हारी इस धर्म चर्चा में भी सहायक करने वाले अध्ययन ज्ञापन सब में जो सहयोगी हुआ है ठीक है। अब क्षणमात्र को तो सबको भूलकर सब विकल्प त्याग कर एक परमार्थभूत आत्मा का संचेतन करो।
अलभ्य लब्ध से लभ्य लाभ ― भैया ! भोजन बनाने में तो बडी खटपटें करी और खाने के समय लड़ाई हुई तो भोजन को कूड़े में डालकर अपने अपने घर चले गए, ऐसा कोई करे तो उसे कोई बुद्धिमान् नहीं कहेगा। इस प्रकार चर्चावों द्वारा, अध्ययनों द्वारा ये सब व्यवस्थायें बनायी, तत्त्व मर्म समझा, अब समझे हुए मर्म का पुरातन वासनावों के संस्कारवश यों ही विस्मरण के कूड़े में फैंक दे तो इसे कौन बुद्धिमान कहेगा? बहुत मुश्किल से चीज हाथ आये और उसे यों ही फैंक दे। जैसे कहीं बड़ा कीमती रत्न मिले और उसे समुद्र के कूड़े में फेंक दे तो उसे कौन बुद्धिमान् कहेगा? एक इस समयसार का संचेतन करो।
स्वकीय परमार्थ शरण ― यह समयसार अपने ज्ञानरस करि भरा हुआ अपने ज्ञानानंदघन स्वरूप को लिये हुए जो एक अंतर का स्फुरण है वह ही तो एक समयसार है। उस समयसार से उत्कृष्ट इस लोक में अन्य कुछ तत्त्व नहीं है। जावो तुम कहाँ जाते हो, किस की शरण गहते हो? घर अच्छा बना लिया, कब तक रहेगा घर में । छोड़ना ही तो पड़ेगा। पुत्रों के पास रह लो, कब तक रहोगे, कहाँ शरण में जाते हो, कब तक रहेंगे वे? और जब तक हैं भी तब तक भी उनके कारण कोई बाधा न आए, इसका भी कुछ जुम्मा नहीं है। जब स्वयं में कषाय भरी हुई है तो दूसरों का उठना बैठना ही देखकर कल्पना में यह अर्थ लगा सकते हैं कि इसको मेरा कुछ ख्याल नहीं। यह अपमान भरी चाल से चलता है। जब स्वयं का उपादान अयोग्य है तो बाहर के पदार्थों में कुछ भी कल्पना कर के अपने आप को दु:खी किया जा सकता है। जावो कहाँ जावोगे शरण? जैसे घर के बिगड़े हुए बच्चों को बाप कहता है, कि तू छोड़कर जाता है चला जा, जहाँ जाता हो। अब बालक को कहाँ शरण है? सो यहाँ वहाँ घुम घामकर फिर अपने ही घर आता है। इस उपयोग को कहाँ शरण है बाहर? ढूंढ़ लो, कहीं कोई शरण हो तो बतलावो। अरे यह देह भी तो शरण नहीं है। यह भी तो अचानक धोखा दे जाने वाला है। किस की शरण पकड़ते हो और देखो एक अंतर में नित्य प्रकाशमान ज्ञानस्वभाव में उपयोग बना रहे तो इस स्थिति में इस द्रव्य और पर्याय की ऐसी एकरसता हो जायेगी व परमार्थ और व्यवहार में ऐसा संगम हो जायेगा कि प्रेक्टिकल सर्व सिद्धि और आनंद इसके प्रकट होगा। इस समयसार से उत्कृष्ट इस लोक में अन्य कुछ नहीं है।
ज्ञानभावना में द्रव्यलिंग का मूल्य ― इस प्रकरण में ज्ञानभावना का उपदेश किया जा रहा है, जिस ज्ञानभावना के बिना बड़ा व्रत, तप, संयम, साधुपद, निर्ग्रंथलिंग, उपसर्ग, कष्ट ये सब सार्थक नहीं होते हैं। भावलिंगरहित द्रव्यलिंग का ऋषि संतों ने निषेध किया है अर्थात् ये मोक्ष के मार्ग नहीं है। भावलिंग सहित द्रव्यलिंग के निषेध की बात नहीं जानना। भावलिंग सहित द्रव्यलिंग होने का अर्थ ही यह है कि उसकी श्रद्धा में यह बैठा है कि यह द्रव्यलिंग मोक्ष का मार्ग नहीं है यह निर्विकल्पसमाधिरूप भावलिंग मोक्षमार्ग है। ऐसे भावलिंग सहित द्रव्यलिंग तो उपयुक्त है। यहाँ तो द्रव्यलिंग के आधारभूत जो देह है उसकी ममता का निषेध है। देह के आधारभूत जो देह की परिस्थिति है, भेष है उसमें मोक्षमार्ग मानने का अर्थात् ममता करने का निषेध किया है। देखो पहिले भी जिनने दीक्षा ली थी, उन्होंने सर्वसंग का परित्याग किया। प्रमत्त गुणस्थान में होने वाला प्रमाद प्रशंसा की बात नहीं है, किंतु दोष की बात है और प्रमत्त अवस्था में होने वाली व्यवहारचर्या निर्दोष ढ़ंग से चलना व्रत, तप, आदि की साधना करना, इन में विकल्प करना, इन की चेष्टा करना, यह प्रमाद में शामिल किया गया है। विषय कषायों की बात करना यह प्रमत्त गुणस्थान का प्रमाद नहीं है। यह तो अविरत पुरुषों का प्रमाद है। जहाँ इस निर्दोष व्यवहारधर्म के पालनरूप प्रमाद से भी निवृत्त होने की भावना रखी जाती है वहाँ किसी प्रवृत्ति को मोक्षमार्ग जानना, यह बात ज्ञानी के कहाँ विराजेगी ?
विरागता में आत्महित ― ज्ञानी संत ने दीक्षा काल में सर्व संगों का परित्याग ही कर दिया। देह भी तो परिग्रह है, उसका त्याग नहीं कर पाया। अंतर की भावना में उसका भी त्याग है। कहाँ जाय देह, किंतु यह देह भिन्न है, मैं आत्मा भिन्न हूँ, मेरा काम मेरी आत्मा से होगा, मेरी आत्मा में होगा। देह में रहता हुआ भी यह आत्मा स्वरूप में परिपूर्ण स्वतंत्र सत् है, ऐसी दृष्टि हुई तो देह भी परिग्रह नहीं रहा, पर वह स्थिति ऐसी है कि देह को कहाँ छोड़ दो। सो देह का त्याग नहीं हो सका। कहते हैं कि कर दें वे त्याग। कैसे कर दें? फांसी लगा लें, तो ये कोई साधना की बात नहीं है, वहाँ तो और संक्लेश है, आत्महत्या है, संसार में रुलना है, कहाँ छोड़ा जायेगा यह देह और फिर इस प्रकार इस देह को त्याग देने से मर जाने से देह छूटेगा नहीं। अगले भव में फिर देह मिलेगा। उसे तो देह इस ढंग से छोड़ना है कि फिर यह देह कभी न मिले। इस ढंग से छोड़ने का उपाय क्या है? वह उपाय यही है कि देह है तो रहने दो, ज्ञाताद्रष्टा रहो और समय समय पर इस देह को खिला दो, भोजन करा दो जिस से जिंदा बना रहे और अपने ध्यान ज्ञान का पूरा काम करो।
विकल्पपरिहार के परमार्थत: त्यागपना ― यह देह अन्य परिग्रहों की भांति जुदा नहीं किया जा सकता, लेकिन देहसंबंधी ममता, यह मेरा देह है, यह मैं साधु हूँ, यह मेरा भेष है ऐसा विकल्प तो व्यवहार से भी न करना चाहिए अर्थात् निश्चय में तो ज्ञायकस्वरूप आत्मा की निगाह रखना ही है और कोशिश जितनी करो, यत्न जितना करो वह ज्ञायकस्वरूप के अनुकूल मेरा उपयोग बना रहे, ऐसी कोशिश करो। यही हुआ व्यवहार। तो देह नहीं छूटता है पर ‘’मैं देह हूँ’’ इस प्रकार की भावना प्रतीति विकल्प मत रखो। अभी यही आप देख लो, शरीर पर कितने ही कपड़े पहिने हो और उन कपड़ों के भीतर जेब होगी, उन जेबों में कुछ रखे भी होंगे और फिर एक यह देह ही बड़ा आवरण है फिर भी जब आप की दृष्टि अपने आप के अंतस्तत्त्व की और मुड़़ेगी तब इन कपड़ों का भी परिहार कर के रखी हुई चीजों का भी परिहार करके, चमड़ी, हड्डी, खून, मांस इन सब का भी परिहार कर के यह उपयोग अपने ध्येयभूत इस निज ज्ञायक स्वभावमात्र में मिल जाती है। भले ही कुछ क्षण ही क्षण रह पाती है, पर सबको छोड़कर आखिर स्पर्श तो कर लेती है ना कोई। देह का परिहार कर के आत्मतत्त्व में स्पर्श बनाये रहना, यह साधुजन के बहुत काल तक चलता है। थोड़ा बीच में छूटता है तुरंत आ जाता है।
प्रमत्त व अप्रमत्त गुणस्थान में साधु का विहार ― प्रमत्त गुणस्थान और अप्रमत्त गुणस्थान का काल अंतर्मुहूर्त है। साधु की ऐसी स्थिति होती है कि कुछ सेकंड बाद उसे आत्मा की ओर चले जाना चाहिए। उस आत्मा से फिर यह विलग होता है उपयोग द्वारा तो कुछ सेकिंडों ही विलग रहना चाहिए, फिर आत्मा में चले जाना चाहिए। इस अंतर्मुहूर्त का काल मिनट दो मिनट भी नहीं हो पाता, शीघ्र ही अपने आप में स्पर्श करे, इस तरह की परिणति चलती हो तो वहाँ साधुता विराजती है। कदाचित् आध पौन घंटा लगातार साधु को चलना भी पड़े वहाँ भी वह कुछ सेकिंडों बाद अपने आत्मा का स्पर्श कर रहा है। और किसी कारण से किसी शिष्य पर थोड़ा उनके रोष भी आ जाय तो कुछ क्षणों बाद रोष शांत हो जाता है और वह अपने आप का स्पर्श करने लगता है, ऐसी विशुद्धि परिणति है तब उनका नाम साधु परमेष्ठी है।
अष्टप्रवचनमातृ का – इस अंत:संयम की रक्षा के लिए पंचसमितियों और तीन गुप्तियों का पालन करना अत्यंत आवश्यक है। बताया गया है कि अष्टप्रवचनमातृका का भी जिन्हें सुबोध है, सुबोध के मायने युधिष्ठिर की तरह पाठ याद होना, जिन्हें अष्टप्रवचनमातृका का सुपरिज्ञान है उनके इस अष्टप्रवचनमातृका के परिज्ञानरूप चिन्गारी के बल से अनगिनते भवों के संचित कर्मों का क्षय हो जाता है। अष्टप्रवचनमातृ का ये हैं―(1) ईर्यासमिति, (2) भाषासमिति, (3) एषणासमिति, (4) आदाननिक्षेपण समिति (5) प्रतिष्ठापनासमिति (6) मनोगुप्ति, (7) वचनगुप्ति, (8) कायगुप्ति। इन में प्रथम पांच समिति हैं व अंतिम तीन गुप्ति हैं।
इर्यासमिति ― शुद्ध भावों से चार हाथ आगे जमीन निरखते हुए चलना इसका नाम है इर्यासमिति। चार हाथ आगे जमीन भी देखे और किसी से लड़ने के इरादे से जाय तो वह इर्यासमिति नहीं है। चार हाथ आगे जमीन देख कर भी चले और मंदिर के लिए भी जाय, पर परस्पर में रागद्वेष की बातें करता हुआ जाय अथवा अपने भावों में कलुषता रखता हुआ जाय तो वह इर्यासमिति नहीं है। इर्यासमिति में चार बातें होना आवश्यक हैं―अच्छे काम के लिए, अच्छे भावों सहित जाय, दिन में जाय और चार हाथ आगे जमीन निरखता हुआ जाय, यह है इर्यासमिति।
भाषा, एषणा व आदाननिक्षेपण समिति – भाषा समिति क्या है? हित मित प्रिय वचन बोलना सो भाषासमिति है। जो दूसरों का हित करे, दूसरों के प्यारे लगे, ऐसे वचन साधुजनों को बोलना चाहिए। परिमित वचन बोले अधिक न बोले। हितकारी वचन बोले व प्रियवचन बोले यही है भाषा समिति। एषणा समिति शुद्ध निर्दोष अंतरायरहित विधिपूर्वक जो मिला आहार उसमें ही संतुष्ट हो और वह आहार भी धर्मसाधन में चूंकि क्षुधाशांति की भी आवश्यकता है सो क्षुधा शांति के प्रयोजन के अर्थ जैसे गड्ढा भरा ऐसे ही प्रयोजन के अर्थ शुद्ध आहार कर लेना इसका नाम एषाणासमिति है। चीज के धरने उठाने में किसी जीव को बाधा न हो इसको आदाननिक्षेपण समिति कहते हैं। किन का धरना, उठाना – पिछी कमंडल, पुस्तक आदिका, न कि गृहस्थों की नाई ईंट, पत्थर, चूना, वगैरह का। अपने संयम की साधना में उपयोग में आने वाली चीजों का ठीक प्रकार से धरना, उठाना, जिस से किसी जीव को बाधा न हो सो आदाननिक्षेपण समिति है।
प्रतिष्ठापना समिति ― भैया ! कोई अष्टप्रवचनमातृका का निर्दोष अभ्यासी है निर्दोष आचरण वाला हो, किंतु वह जानता अधिक न हो, फिर भी वह श्रुतकेवली बनकर और केवलज्ञानी बनकर अंत में निर्वाण को भी प्राप्त कर लेता है। प्रतिष्ठापना समिति शुद्ध निर्जनत जमीन देखकर वहाँ मल मूत्र थूक आदि करना सो प्रतिष्ठापना समिति है। कोई बहुत बढ़िया जगह देखकर मान लो यह पूजा की छत है, बड़ा अच्छा मैदान है, जहाँ मनुष्य बैठते हैं, गोष्ठी करते हैं और अपने आप को धर्मात्मा मानकर कि इससे निर्दोष और बढ़िया जगह क्या होगी, एक चींटी भी नहीं है, वहाँ मल मूत्र कर दे तो प्रतिष्ठापना समिति नहीं है। केवल रूढ़िवश कोई अंतरतत्त्व न जानकर धर्मात्मापने का आचरण करे तो वह खुदगर्जी में शामिल है, धर्मपालन में शामिल नहीं है। इन सब बातों का शास्त्रों में विस्तारपूर्वक वर्णन है।
गुप्तियां-- अब तीन गुप्ति क्या है? मन को वश करना, वचन को वश करना, और काय को वश करना। किसी भी प्रसंग में कुछ मन बिगड़ता हो तुरंत मन को बिगाड़ से रोक लेना और अपने शुद्ध तत्त्व में लेना, सो मनोगुप्ति है। ऐसे ही कैसी घटनावों में वचनों को अयोग्य व्यवहार में न लेना, वश कर लेना, वचनगुप्ति है। उपद्रव होने पर भी शरीर का दुष्प्रयोग न करना, शरीर भी वश कर लेना, सो कायगुप्ति है।
विशुद्ध अष्टप्रवचनमातृका का प्रभाव ― ऐसे अष्टप्रवचनमातृका का पालन साधुजन करते हैं और उस निर्दोष व्यवहार से उनमें इतनी विशुद्धि बनती है, धर्मध्यान बने, शुक्ल ध्यान बने, श्रुतकेवली बन जाय, केवली बन जाय, निर्वाण को भी प्राप्त हो जाय, वहाँ पर भी भावलिंग पड़ा है तो भावलिंग सहित द्रव्यलिंग तो मोक्षमार्ग मुक्ति है पर ज्ञानभावना को छोड़कर कोई भी लिंग मोक्ष का मार्ग नहीं है।
साधुकृत कर्म – भैया ! प्रथम तो यह निर्णय करना चाहिए कि साधु ने द्रव्यलिंग धारण किया या अंदर में कोई भावना ज्ञान की बढ़ गयी जिस से की द्रव्यलिंग की स्थिति बढ़ायी। परमार्थ बात यह है कि इस चिदानंद स्वरूप भगवान आत्मा ने अपने आप के सहजस्वरूप का भान कर के इस ही स्वरूप में ऐसी लगन लगायी जिस के फलस्वरूप सारा आरंभ और परिग्रह छूट गया, ऐसा जानकर उपभोग सहित ज्ञानी प्रवृत्त होता है तो अंतरज्ञान की उपासना में प्रवृत्त होता है और ऐसे इस ज्ञानी संत को जब व्यवहारक्रिया करनी होती है तो वह इस सावधानी से हुआ करती है। देखो तभी अरहंत देव ने दर्शन ज्ञान चारित्र की सेवा की और द्रव्यलिंग में ममता का परिहार किया।
बहिस्तुषत्यागपूर्वक अंतस्तुषत्याग – बात यद्यपि ऐसी है कि जैसे बाहर छिलका रहने पर अंदर के चावल की स्वच्छता नहीं प्रकट होती है और जिस के अंतरंग की मलिनता दूर हुई है, भीतर के चावल की ललाई दूर हुई है तो वहाँ यह तो समझा ही जाता है कि यहाँ बहिरंग छिलकों का त्याग नियम से हुआ है, इस नीति से समस्त परिग्रहों का त्यागरूप बहिरड्ग द्रव्यलिंग होने पर भी भावलिंग हो अथवा न हो वहाँ कोई नियम नहीं है। किंतु जिस के भावलिंग होता है, ज्ञान की ऐसी प्रबल स्थिति और अनुभूति होती है उस के सर्वपरित्याग रूप द्रव्यलिंग होता ही है।
अंतर्नैग्रंथ्य ― कदाचित् कोई स्थिति ऐसी हो, कोई तपस्वी ध्यानारूढ़ बैठा हुआ है, उस पर किसी दुष्ट पुरुष ने वस्त्रादिक डाल दिया या अन्य किसी आभूषण आदिक का श्रृंगार बना दिया तो भी यह साधु तो निर्ग्रंथ ही है। सकल पदार्थों में ममता न होना और सबसे विविक्त ज्ञानस्वरूप आत्मा की अनुरक्तता होना, यह सर्वोत्कृष्ट आलौकिक वैभव है। इसके स्वाद और आनंद की उपमा तीन लोक के किन्हीं भी वैभवों के प्रसंग से नहीं दी जा सकती है। इन साधुजनों को जानकर ऐसा उपसर्ग किया, वस्त्रादिक डाल दिया, आवरण आदिक पहिना दिया फिर भी वे निर्ग्रंथ ही हैं और उसही स्थिति में वे मोक्ष भी गए हैं।
विपत्ति का वरदान – पांडवों का दृष्टांत बहुत प्रसिद्ध है कि उनके दुश्मनों ने अकेला असहाय पाकर कि ये नि:शस्त्र हैं, निष्परिग्रह हैं, निरारंभ हैं, ये कुछ करने को तो हैं नहीं, पाषाण की तरह खड़े रहने का ही इन का संकल्प हुआ है, ऐसे अवसर को देखकर शत्रुवों ने उन को गरम लोहे के आभूषण पहिनाए, किंतु वह निज आनंद में ही मग्न रहे। कभी कभी यह विपत्ति वरदान बन जाती है। राग की नींद में सोये हुए को जगाने वाली कोई समर्थ घटना है तो वह विपत्ति की घटना है। जहाँ विपत्ति नहीं आती है, जिस भव में विपत्ति का समागम नहीं होता है उस भव के जीव तुच्छ रहते हैं।
भोगवासियों की स्थिति ― भोगभूमियां के स्त्री पुरुषों की क्या जिंदगी? भले ही कमाना धमाना नहीं पड़ता, माना कि तीव्र कषायों का प्रसंग नहीं आ रहा है, पर उन्हें मंदकषाय कहा जाय अथवा तीव्र कषाय कहा जाय, कैसी ही दृष्टि बना लो पर ऊपर की तीव्र कषाय न होने में वे अधिक दुर्गति में नहीं जाते और अंतर में तीव्र कषाय रहने से विषयों की वांछा आकांक्षा अनुरक्ति के कारण वे विशेष ऊपर भी नहीं जाते। उनका उत्पाद देवगति में अधिक से अधिक दूसरे स्वर्ग तक माना गया है। स्वर्गों के देवों की बात देखो – वै से तो यह नियम ही है कि उन्हें नीचे आकर जन्म लेना पड़ता है क्षेत्र की अपेक्षा अथवा लोक दृष्टि की अपेक्षा। देव पुन: देव नहीं बन सकते। यह सब क्या है, एक विपत्ति और संपत्ति का नाटक है। राग की नींद में सोये हुए पुरुषों को जगाने में समर्थ एक विपत्ति ही है। देखो गजकुमार, सुकौशल, पांडव आदि अनेक महापुरुष इन विपत्तियों से ही बहुत जल्द ही शिवपुर पहुंच गए या उत्कृष्ट बैकुंठ में पहुंच गए। बैकुंठ मायने है कल्पातीत देवों के स्थान। तो ऐसा अनुरूप और वस्त्राभरण अलंकार आदिक कोई डाल दिया जाय तो भी वह साधु अंतर में निर्ग्रंथ ही रहता है।
भावलिंग में द्रव्यलिंग का सहयोग – कहीं कहीं ग्रंथों में ऐसा भी लिखा मिलता है कि जैसे भरत जी ने अंतर्मुहूर्त में ही मोक्ष पाया और किसी कारण कोई-कोई लोग तो यह भी नहीं जानते कि भरत जी ने भी निर्ग्रंथ धर्म ग्रहण किया। उस स्थिति में अंतर में आत्मस्वरूप की उपासना की तब मुक्त हुए क्योंकि थोड़े ही काल में उनके निर्वाण हुआ है। भावलिंग रहित पुरुष को द्रव्यलिंग मोक्ष का कारण नहीं हैं, यह बात सत्य है, और यह भी सत्य है कि भावलिंग सहित पुरुष को यह द्रव्यलिंग सहकारी कारण होता है। क्या कोई ऐसा भी सुना गया है कि ज्ञान -ज्ञान की उपासना से ही गृहस्थी में रहते हुए आभरण वस्त्रों के बीच भी मुक्त हो गए हों, किंतु यह बात सही है कि द्रव्यलिंग भी धारण करे, परंतु जिसकी बुद्धि द्रव्यलिंग में अटक गयी है, मैं साधु हूँ, मेरे को यों चलना चाहिए, यों बैठना चाहिए, लोगों में यों रहना चाहिए और मेरा लोग इस तरह सम्मान करें, ऐसी ही उन की स्थिति है और मैं इस तरह माना जाऊँ, यह मेरा पद है ऐसी जिन को द्रव्यलिंग में ममता जगी है उनके लिए कहा जा रहा है कि यह द्रव्यलिंग मोक्ष का मार्ग नहीं है। वस्तुस्वरूप के विरुद्ध जो पुरुष हठ बनाए हैं वे सम्यग्दृष्टि नहीं हैं किंतु मिथ्या वासना से रंगे हुए हैं।
मुक्तिमार्ग में शुद्ध तत्त्व के आश्रय की मुख्यता पर एक जिज्ञासा ― भैया ! इन सब विवरणों का सार यह है कि जीव शुद्ध आत्मतत्त्व का आश्रय करे तो मुक्त होता है। अशुद्ध तत्त्व का, परद्रव्य का, परभाव का, आश्रय करे तो वहाँ मुक्ति नहीं होती है। यहाँ शंका यह हो सकती है कि छद्मस्थ जीव ही तो मोक्षमार्ग में लगा करते हैं और छद्मस्थ हैं अशुद्ध, तो वह शुद्धतत्त्व कहाँ से ले आएँ जिसकी वे उपासना करें? परमात्मा परद्रव्य है इस कारण इन के लिए अशुद्ध तत्त्व है। परद्रव्यरूप अशुद्ध तत्त्व की उपासना से मुक्ति नहीं बतायी है। हाँ, वस्तु की शुद्धि के अनुरूप अथवा अपने स्वभाव की स्मृति के लिए आदर्शरूप भगवंत है, अत: स्तवन तो युक्त है, किंतु परद्रव्य और परभाव इस मुमुक्ष के लिए अशुद्ध तत्त्व है। शुद्ध तत्त्व तो इस मुमुक्ष के अपने अंतर में बसा हुआ है। उसका ध्यान न लेकर जिज्ञासु शंका करता है कि छद्मस्थ जीव ही तो मोक्ष के मार्ग में लगता है और छद्मस्थ है वर्तमान में अशुद्ध, शुद्धपर्याय तो उस के नहीं है, राग है, द्वेष है, कषाय है, सभी तो चल रहे हैं, फिर उन को अवकाश कैसे मिले कि वे मुक्ति को पा सकें।
मुक्तिमार्ग में शुद्धतत्त्व के आश्रय की मुख्यता का समर्थन ― उक्त जिज्ञासा का समाधान तीन प्रकार से किया जा सकता है। पहिला तो यह कि छद्मस्थ जीव कथंचित् शुद्ध है, कथंचित् अशुद्ध है। यह छद्मस्थ जीव यद्यपि केवल ज्ञानादिक शुद्धि के चरम विकास की अपेक्षा शुद्ध नहीं है तो भी मिथ्या मोह विपरीत आशय इन के दूर होने से और सम्यक्चारित्र की वृत्ति बनाने से यह शुद्ध है―एक बात।
शुद्ध तत्त्व के आश्रय की द्वितीय दृष्टि ― दूसरी बात यह है कि छद्मस्थों का भी जो भेदविज्ञान है, आत्मज्ञान है, वह अभेदनय से आत्मस्वरूप ही तो है। इस कारण एक देश प्रकट हुए आत्माज्ञान के बल से इसकी सकल देश व्यक्त होने वाले केवलज्ञान की उत्पत्ति हो जाती है। छोटी ही आग की चिनगारी से तो बड़े बड़े ढेर जल जाया करते हैं। कोई यों कहे कि अरे यह तो बहुत बड़ा ढेर है, इतने बड़े ढेर के बराबर के ढेर में आग मिले तो यह जले, तो अब ढूंढ़ों उतने ढेर की आग। अरे आग की छोटी चिंगारी ही इतने बड़े ढेर को आगरूप बनाने में समर्थ है, क्योंकि जो चीज बनायी जाती हैं उसकी ही जाति की यह चिनगारी है। इसी प्रकार जो केवलज्ञान बनता है, केवल शुद्ध निर्दोष ज्ञान, उसकी ही जाति का यह शुद्ध सहजज्ञान यहाँ दृष्टि में आया है और यह ही आत्मस्वरूप उस सकल विमल केवलज्ञान को प्रकट करने में समर्थ है।
शुद्ध तत्त्व के आश्रय की तृतीय दृष्टि ― तीसरी बात यहाँ यह जानिए कि जो यह उपदेश दिया गया है कि शुद्ध तत्त्व का आश्रय करने में मुक्ति होती है, वह शुद्ध तत्त्व न तो परद्रव्यरूप है, न परभावरूप है, किंतु अपने आप का जो सहजस्वभाव है चैतन्यभाव, वह है शुद्ध तत्त्व। अशुद्ध अवस्था होने पर भी यह शुद्धतत्त्व स्वभावत: सहज ही आत्मा में प्रकाशमान् है, उसका आश्रय करने से उस शुद्धपर्याय की उत्पत्ति होती है। यदि यह ही एक हठ किया जाय कि क्षायोपशमिक ज्ञान तो आवरण सहित है, वह शुद्ध नहीं है तब फिर कदाचित् मुक्ति हो भी नहीं सकती।
मुक्तिसाधक भाव – देखिए जीव के 5 भावों में से औदयिक भाव तो मोक्ष का कारण है ही नहीं, क्योंकि वह तो कर्मविपाक का परिणाम है, वह तो संसारस्वरूप ही है। परिणामिक भाव भी मोक्ष का कारण नहीं है, क्योंकि परिणामिक भाव समस्त जीवों में शाश्वत् विराजमान् है, फिर क्यों नहीं यह शुरू से मुक्त रह गया, अब तक क्यों यह संसार में पड़ा हुआ है? अब रहे तीन भाव, औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भाव। यह भाव चूंकि सम्यग्दर्शन सहित है और उस पारिणामिक भाव की दृष्टि को लिए हुए है। इस कारण इन तीन भावों से मोक्ष होता है अर्थात् ये तीन भाव मोक्ष्ा के कारण हैं शेष दो भावों में औदयिक भाव बंध का कारण है और पारिणामिक भाव निष्क्रिय है, वह किसी भी बात का कारण नहीं है।
भावश्रुत की महिमा ― यद्यपि वहाँ भी यह तथ्य है कि ये औपशमिक, क्षायोपशमिक व क्षायिकभाव एक पारिणाभिक भाव शुद्ध चेतनस्वभाव का आलंबन करने के कारण मोक्ष्ा के कारण हैं, फिर भी पारिणामिक भाव तो स्वयं कारणकार्य के विकल्पों से दूर है। वह तो अनादि अनंत अहेतुक सर्वथा अत:प्रकाशमान् है। इससे यह ही जान लेना कि क्षायोपशमिक होने पर भी यह श्रुतज्ञान मोक्ष का कारण होता है। यह भावश्रुत ही मोक्ष का मार्ग है। भावश्रुत ज्ञान निर्विकल्प शुद्ध आत्मतत्त्व का परिज्ञान करता है, परिच्छेदन करता है। ज्ञान ही का नाम परिच्छेदन है, परंतु परिच्छेदन में यह मर्म पड़ा हुआ है कि अन्य हेय तत्वों को जुदा कर के उपादेय तत्त्व में लेने की कला वाला यह परिज्ञान है। और वीतराग सम्यक्चारित्र के साथ रहने वाला शुद्ध आत्मतत्त्वरूप जो भाव श्रुत ज्ञान है, वह मोक्ष का कारण है। पारिणामिक भाव तो ध्येयरूप है, ध्यानरूप नहीं है। इस कारण वह कार्यकारण भेद से रहित है।
तत्त्वसार ― भैया ! बहुत विकल्पों के करने से क्या लाभ है? अब तो एक ही पारिणामिक भावस्वरूप चित्स्वभाव मात्र आत्मतत्त्व का परिज्ञान करो। इस आत्मतत्त्व को छोड़कर जगत में और कुछ उत्कृष्ट नहीं है। किस की शरण में जावोगे, जगत में सब धोखा मिलेगा। अमृतचंद्र जी सूरि इस समयसार की समाप्ति के बाद अंत में एक गाथा और कहेंगे। वह है अंतिम भाव की सूचना देने वाली गाथा। समयसार ग्रंथ तो यहाँ ही पूर्ण हो रहा है। इस समय अमृतचंद्रसूरि एक श्लोक में समाप्ति के समय कुछ प्रशंसा और कुछ विशाद को प्रकट करने वाला आशय दिखा रहे हैं। अच्छी चीज जब समाप्त होने को होती है तो मन में विशाद होता है। लो अच्छी बात अब समाप्त हो गयी। ऐसी मानो विशाद की सूचना दे रहे हों और इस ही के मर्म में इसकी महत्ता को भी बता देने वाली हो, ऐसी शिक्षा रूप बात इस श्लोक में कह रहे हैं।
इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयं याति पूर्णताम् ।
विज्ञानघनमानंदमयमध्यक्षतां नयात्।।
लोकनेत्रसमयसार- अब विज्ञानघन आनंदमय स्वरूप को प्रत्यक्ष प्रकट कराते हुए यह जगत् की आंख जो कि अक्षय है अब पूर्णता को प्राप्त होती है। यह समयसार ग्रंथ भव्य लोगों के लिए आंख की तरह है। जैसे आंख वाला पुरुष देखकर अपनी योग्य प्रवृत्ति कर के कार्य को सिद्ध कर लेता है, इसही प्रकार इस समयसार के वाच्य को उपयोग में उतारने वाले पारमार्थिक आंखों वाला पुरुष अपने अंतर में ज्ञानवृत्तियों को प्रकट करता हुआ आनंदमय सर्व सिद्धि प्राप्त कर लेता है। आज यह पूर्ण हो रहा है, इसका अर्थ यह है कि अब आचार्यदेव इस ग्रंथ पर लिखने का विराम कर रहे हैं, अब यह ग्रंथ पूर्ण कर रहे हैं।
अभीष्टसमापनपर विषाद ― शायद थाली में जब अच्छे रसगुल्ले परो से जा रहे हों और वे तीन चार हैं मानो, जब वह चौथा भी खाने लगते हैं तो समाप्त ही तो हो रहा है। शायद थोड़ा विषाद करने लगते हों कि अब खाने को नहीं बचा। जि से जो चीज अच्छी लगती है वह समाप्त हो जाय तो मन में कुछ खेद तो आता होगा । आचार्यदेव को खेद आया हो अथवा न आया हो, यह मैं नहीं जानता हूँ, किंतु मुझे तो ऐसा मौका आया। करीब 22 वर्ष पहिले की बात है जब शुरू शुरू में समयसार ग्रंथ को पढ़ने का मौका आया तो इस ग्रंथ की समाप्ति में दो आंसू निकल ही आए, क्योंकि इस ग्रंथ को पढ़ने से रात दिन प्रसन्नता रहा करे। अब यह ग्रंथ पूर्ण हो रहा है। भले ही पूर्ण होने के बाद इसी ग्रंथ को फिर शुरू किया जा सकता है। पर जो रुचि पहिले पढ़ने में होती है उतनी रुचि, उतना उस प्रकार का रस दुबारा पढ़ने में नहीं रहता। जैसे गरम तवे को एक बार चूल्हे से उठा कर नीचे रख देते हैं तो वह तवा फिर दूबारा चूल्हे में रखें तो तुरंत ही उसमें ताव नहीं आता।
समयसार की लोकनेत्रता व भव्यप्रयोजकता ― यह जगत की आंख जो कि अक्षय है यह यों ही पूर्णता को नहीं प्राप्त हो रही है, किंतु विज्ञानघन आनंदस्वरूप अपने आत्मतत्त्व को यों प्रकट दिखाते हुए पूर्णता को प्राप्त होती है। यह समयसार कैसे तो जगत की आंख है और कैसे यह ज्ञानघन आनंदमय निजतत्त्व को प्रत्यक्ष प्रकट करता हुआ अपना नीरद रखता है, इस मर्म को भी बताने के लिए और इस समयसार ग्रंथ का जो मनोयोग पूर्वक अध्ययन करे उसको कैसा फल मिलता है? इस फल को बताने के लिए भी अब आचार्यदेव अंतिम गाथा में प्रशस्तिरूप अपना आशय व्यक्त करते है।