वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 51
From जैनकोष
जीवस्स णत्थि रागो ण वि दोसो णेव विज्जदे मोहो ।
णो पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि ।।51।।
143. जीव के राग का अभाव―जीव के राग नहीं है, द्वेष नहीं है और मोह भी नहीं है तथा जीव के न तो आस्रव (भावकर्म) है, न कर्म है और न नोकर्म (शरीर) है । जीव के राग नहीं है अथवा राग जीव का कुछ नहीं है । राग क्या चीज है ? राग प्रकृति के उदय को निमित्त पाकर जीव की चारित्र शक्ति से होने वाले परिणमन को राग कहते हैं । राग आत्मा का परिणमन है, वह कर्मोदय को निमित्त पाकर हुआ, अत: वह न तो जीव का ही कहा जा सकता है, न कर्म का ही । जो जिसका स्व होता है, वह उसके पास तीन काल रहता है । राग जीव का कुछ नहीं है । कर्म के उदय को निमित्तमात्र पाकर हुआ राग किसका हो जाये? जैसे दर्पण है, दर्पण के सामने रंगबिरंगी चीजें रख दी, दर्पण रंग बिरंगा हो गया । अब हम रंगबिरंगापन किसका बतावे? यदि इस दर्पण का कह देते हैं तो रंग-बिरंगापन दर्पण का सदा होना चाहिये और कागज में वह फिर नहीं रहना चाहिये । यदि रंग-बिरंगी चीज का रंग-बिरंगापन बता देवें तो वह उसके प्रदेश से बाहर नहीं जा सकता है । वास्तव में रंग-बिरंगी चीज को निमित्त पाकर दर्पण रंग-बिरंगे रूप परिणम रहा है । यहाँ पर जीव का स्वरूप बताया जा रहा है । जब जीव के स्वरूप को निरखते हैं तो राग जीव का नहीं है । सम्यग्दृष्टि जीव हरेक चीज को अनेक दृष्टियों से जब जान लेता है तो उनके उपयोग में शुद्ध स्वरूप के अतिरिक्त कुछ ठहर नहीं पाता है । राग आत्मा में नहीं है, स्वभाव से देख रहे हैं । राग जड़ पदार्थों में भी नहीं है अत: राग ठहरेगा कहाँ? सम्यग्दृष्टि जीव पर्याय के अशुद्ध भावों को आश्रय नहीं देता है । ये रागादिक भाव एक क्षण को आते हैं और दूसरे क्षण को चले जाते हैं । यह आत्मा एक क्षण को आने वाले राग आदि में राग करके क्या नफा पायेगा, केवल आकुलता ही पायेगा । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि को राग में राग नहीं होता है । आये हुए राग पर उसे खेद रहता है उसे अपनाता नहीं है और न आशा करता है कि यह राग बना रहे । वह राग को वियोग बुद्धि से टालना चाहता है । जीव के राग कुछ नहीं है । राग आत्मा का परिणमन है तथापि स्वभाव दृष्टि की प्रधानता से आत्मा के पारिणामिक भाव को देखने वाला जीव चैतन्यशक्ति के अतिरिक्त जितने भाव हैं, उतने भावों को सम्यग्दृष्टि नहीं मानता है । जीव के राग नहीं है । जीव तो चैतन्यस्वरूप है ।
144. दृष्टांतपूर्वक रागभाव की उपेक्ष्यता का वर्णन―जैसे कोई सेठ हो, आराम से पलने पुसने वाला हों । उसे कैद हो जाये और उसे चक्की पीसना पड़े तो वह चक्की तो पीसेगा, परंतु उसके पीसने में वह आनंद नहीं मानता है । उसका चक्की पीसने में राग नहीं है । यही हालत सम्यग्दृष्टि की है । उसे भोगना पड़ता है, परंतु उसकी भोगने में इच्छा नहीं होती है । जिसका भाव वैराग्य का हो गया है, उसका मन तो राग के करने में लगता ही नहीं है । सम्यग्दृष्टि के राग तो होता है, मगर राग में राग नहीं होता है । जैसे कोई रईस आदमी है । उसे हो जाये बुखार । वह स्प्रिंग वाले पलंग पर पड़ा हो, वहाँ चारों ओर से सज़ा हुआ कमरा हो, चारों ओर से पंखे चल रहे हों, द्वार पर चपरासी खड़ा हो, डाक्टर वैद्य बुखार देख रहे हों, अर्थात् सब प्रकार का आराम हो, परंतु क्या वह रईस ऐसे आराम को चाहेगा? उसे औषधि दी जा रही हो, उसे पी भी रहा हो, परंतु उसमें उसे राग नहीं है, उसकी यह इच्छा नहीं है कि मैं औषधि ऐसे ही सदा पीऊं । पी रहा है अत: औषधि से राग है, परंतु औषधि के राग से राग नहीं है । वह नहीं चाहता कि मुझे ऐसी औषधि जिंदगीभर मिले । औषधि पीकर किसी के मन में यह भाव नहीं आता कि हमें यह औषधि जिंदगी भर मिलती रहे, चाहे वह मीठी ही क्यों न हो? इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि को कर्मोदय के कारण नाना विडंबनाएं होती हैं, उसे राग भी होता है मगर वह उसे चाहता नहीं है । सम्यग्दृष्टि जीव चीज को चाह लेता है, मगर वह चाह की चाह को नहीं चाहता है, क्योंकि वह जानता है कि यह आत्मा का वैभाविक परिणमन है । क्षणिक है, उसे आस्रव के प्रति ऐसा विश्वास है, मगर वह आस्रवमात्र को नहीं चाहता है । कोई आदमी किसी दूसरे आदमी की हिंसा कर ही नहीं सकता । हिंसा करेगा तो अपनी करेगा और दया भी करेगा तो अपनी ही करेगा । वहाँ हिंसा क्या हुई, दूसरे के संबंध में जो विचार हुए, इसका नाश हो जाये आदि, उन विकल्पों से हिंसा हुई और हिंसा भी हुई विकल्प करने वाले की । जब हिंसा का विकल्प होता है, जीव को मारने का विकल्प होता है । जीव चाहे मरेगा बाद में, पहले हिंसा विकल्प करने से हो ही गई ।
145. पुण्योदय व पापोदय में समता का निर्णय―सम्यग्दृष्टि जीव के निर्णय में पाप का उदय और पुण्य का उदय बराबर है । पुण्य के उदय में भी निर्विकल्प शांति नहीं और पाप के उदय में भी उसे शांति नहीं है, ऐसी उसकी प्रतीति है, जो पुण्य और पाप को बराबर देख रहा है, क्या वह उनके कारणभूत उपयोग को बराबर नहीं मानेगा? मानेगा । और शुभोपयोग और अशुभोपयोग से बने हैं पुण्य और पाप । पुण्य और पाप के उदय से सुख और दु:ख होता है, सो वह सुख दु:ख को भी बराबर मानता है । सम्यग्दृष्टि ने कुछ ऐसी चीज का अनुभव कर लिया है कि उसकी दृष्टि में पुण्य भी कष्टकर है और पाप भी उसे कष्टप्रद प्रतीत होता है । एकेंद्रिय जीवों में गुलाब के पुण्य का उदय अन्य अनेक फूलों से अधिक है । गुलाब के फूल के पुण्य का क्या फल हुआ―फूल का तोड़ा जाना । पुण्य का उदय है ना चंपा के? सो उनके पुण्य का उदय होने के कारण वे तोड़ लिये जाते हैं । खराब फूलों को कौन तोड़ता है? उनका आयुच्छेद तो लोगों के निमित्त से नहीं होता है । सदा पुण्य और पाप के उदय में कष्ट मिलता है । एक को मानसिक कष्ट और दूसरे को शारीरिक कष्ट होता है । यह उपाधि भी मानसिक दुःख, आधि-मानसिक दुःख उप―समीप, जो मानसिक दुःख के पास ले जाये, उसे उपाधि कहते हैं । धनादि सब उपाधि हैं । एक क्षण भी जीवन का ऐसा गुजरे कि समस्त विकल्प छूटकर शुद्धोपयोग रहे । आत्मा का ध्यान हर वक्त बना रहने के लिए तीन वक्त सामायिक करना बताया गया है । देखो ना छ: घंटे अन्यत्र गये, फिर सामायिक, शाम की सामायिक से सुबह की सामायिक में 12 घंटे का अंतर रहता है सो वहाँ भी करीब जगने के तो छह घंटे गये । दिन की सामायिकों का अंतर छह-छह घंटे का है । साधु की नींद एक अंतर्मुहूर्त से अधिक नहीं होती है । यदि उनकी नींद अंतर्मुहूर्तकाल से अधिक हो जाये तो सातवें गुणस्थान से गिर जाता है । छट्ठे गुणस्थान का अंतर्मुहूर्त काल भी 48 मिनट का नहीं होता है, बहुत हल्का मध्यम अंतर्मुहूर्त होता है । तो साधु तो अर्धरात्रि में भी सामायिक में बैठ जाते हैं ।
146. जीव की अन्य में राग करने की अशक्यता-―जीव के राग नहीं है । जैसे आप कहते हैं कि हमारा बच्चे में राग है । तुम्हारा राग और बच्चे में पहुंच जाये, ऐसा हो नहीं सकता । तुम्हारा राग तुम्हारे में ही रहता है, किंतु आप बच्चे को विषय बनाकर अपने राग भाव का आविर्भाव कर रहे हैं । हमारा कोई भी परिणमन किसी अन्य में नहीं पहुंचता है । यह सब एकांगी नाटक हो रहा है, दो मिलकर कोई कुछ नहीं कर रहे हैं, केवल एक ही करने वाला है, वही उसे देखने वाला है या भोगने वाला है । भला करते हो तो अपना, बुरा करते हो सो अपना । भिखारी को देखकर क्या आप उसके लिये भीख देते हैं । आपने भिखारी के रोने को देखकर अपने आपमें एक नया दुःख उत्पन्न कर लिया, उस दुःख से आप बेचैन हो जाते हैं । अपने दुःख को मेटने के लिये आप भिखारी को भीख देते हैं । आप बच्चे को दुःखी देकर अपने राग को पूर्ण करते हैं । आप बच्चे को नहीं पोषते हैं, आप अपने राग को पोषते हैं । जो करता है, वह अपनी बात करता है, दूसरे की कोई कुछ नहीं करता है । इस संसार में कोई किसी की नहीं सुनता है, सब अपनी-अपनी सुनने में लगे हैं । कोई किसी का हितैषी नहीं है । हरेक प्रकार से आप अपने ज्ञान की वृद्धि करके अपने को जान लो ।
147. राग की भिन्नता व असारता―जीव के राग नहीं है, यह बात बताई जा रही है । राग में ये कषाय आ जाती हैं:―माया, लोभ, हास्य, रति, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुँसकवेद―ये प्रकृतियाँ राग में आ जाती हैं । राग नाम की कोई प्रकृति अलग से नहीं है । माया, लोभादि कषायों का नाम ही राग है । ये सब आत्मा में नहीं हैं । जिस प्रकार राग आत्मा का कुछ नहीं है, उसी प्रकार द्वेष भी आत्मा का नहीं है । क्रोध, मान, अरति और शोक, भय और जुगुप्सा―ये द्वेष की प्रकृतियाँ हैं । मान द्वेष में आता है, इसका कारण जो मान करता है उसकी दृष्टि में अन्य लोग मेरे से नीचे हैं, यह भरा रहता है । मान करना द्वेष की ही किस्म है । किसी से विशिष्ट राग हो, उसमें अपने आपके बड़प्पन का अभिप्राय नहीं रह पाता है । अपने आपके बड़प्पन का ख्याल तभी होता है, जबकि किसी से द्वेष हो । अरति और शोक भी द्वेष का ही परिणमन है, यह द्वेष भी आत्मा के नहीं है । ये द्वेष कर्मज हैं, सहेतुक हैं, पौद᳭गलिक हैं, अत: आत्मा के नहीं हो सकते हैं । पुद्गल के निमित्त से होने वाले पौद्गलिक कहलाते हैं । आत्मा में राग-द्वेष पुद्गल के निमित्त के बिना नहीं हो पाते हैं । रागादि हैं आत्मा के ही परिणमन । यदि सब प्रकार से वर्णन न किया जाये तो जीव को ठीक दिशा नहीं मिल पाती है । जिसको यही पता नहीं कि राग-द्वेष मेरे हैं, मुझे दुःख देते हैं तो राग-द्वेष मेटने का प्रयत्न ही क्या करेगा? राग-द्वेष मुझमें उत्पन्न होते हैं, जिस काल ये उत्पन्न होते हैं, उस काल ये मेरे में तन्मय हैं । यदि यही जाने कि ये राग-द्वेष मुझमें उत्पन्न हुए हैं और यह पता न हो कि ये सहेतुक हैं, पुद्गल के निमित्त से उत्पन्न हुए हैं तो उसे यह कैसे मालूम होगा कि राग-द्वेष दूर किये जा सकते हैं? इस कारण उपादान दृष्टि से आत्मा में उत्पन्न होते हैं और जिस काल उत्पन्न होते हैं, तन्मय हैं, तो भी आत्मा के स्वभाव भाव नहीं हैं, निमित्त पाकर उत्पन्न होते हैं । ये रागद्वेषादि यद्यपि पुद्गल को निमित्त पाकर उत्पन्न होते हैं मुझमें ही, तथापि ये दुःखरूप है, अत: इन्हें दूर करना चाहिए । यह भीतर का विचार ही अपने को बरबाद करता है । एक तो बाहर का कोई शत्रु नहीं होता है । यदि होता भी है तो दूर किया जा सकता है । परंतु अपने घर में छिपा शत्रु अपनी उन्नति को रोक देता है, उसकी स्थिति सदा भयावनी होती है । ये राग आदि आत्मा के भीतरी शत्रु हैं, आत्मा के वैभाविक परिणमन हैं । स्वभाव दृष्टि से देखने से यह निर्णय होता है कि राग-द्वेष मैं नहीं हूँ । आज किसी पुरुष के विषय में ख्याल हो गया कि यह मेरा दुश्मन है, तब वह आकुलित होता है और जब यह मालूम हो जाता है कि यह मेरा भीतर से हितैषी है तो मित्रता हो जाती है ।
148. रागवश इष्ट अनिष्ट की कल्पना―पदार्थ है उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक । पदार्थ में इष्टपने का कोई निजी तत्त्व नहीं है । जैसे यह समयसार किसी को जबर्दस्ती पढ़ाया जाये तो यह उन्हें अनिष्ट है । और जो इसका जानने वाला है, यही पुस्तक उसे इष्ट हो जाती है । यह पुस्तक स्वयं न इष्ट है, और न स्वयं अनिष्ट है । हमारी जैसी रुचि होती है उसी के अनुसार हम हिस्से बना डालते हैं । वस्तु के तो हम हिस्से क्या बना सकते हैं, हमारे में जो अध्यवसान अपने परिणमन से आप उठता है, हम उसके दो भाग कर डालते हैं―इष्ट और अनिष्ट । वास्तव में हम पदार्थ के टुकड़े नहीं कर सकते हैं । पदार्थ तो स्वयं इष्ट भी नहीं है, न ही पदार्थ अनिष्ट है । राग के कारण वस्तु इष्ट प्रतीत होती है और द्वेष के कारण वही वस्तु अनिष्ट जंचने लगती है । जो बच्चा आपको बचपन में प्यारा लग रहा था, वह उस समय आपके लिये इष्ट था, वही बच्चा बड़ा होने पर अनुकूल व्यवहार न होने से अनिष्ट प्रतीत होने लगता है । जो स्त्री जवानी में इष्ट प्रतीत हो रही थी, वह बाल पक जाने के कारण आज अनिष्ट प्रतीत होने लगती है । कोई परपुरुष जो आज तुम्हारे लिये अनिष्ट है, और वही यदि तुम्हारे विषयकामनाओं में साधक बन जाये तो वही इष्ट प्रतीत होने लगता है । अपना बालक चपटी नाक का भी हो, मुंह से लार बह रही हो, तब भी वह आपको इष्ट प्रतीत होता है । आपका अपना चेहरा चाहे असुंदर भी हो, दर्पण में देखते ही सुंदर कहने लगते हो । दुनिया में जो आपको इष्ट लगे वही आपको सुंदर लगते लगता है और जो आपको अनिष्ट लगता है, उसे आप असुंदर कह देते हैं । यह सब अपने-अपने मन की कल्पना है । कोई वस्तु स्वयं न सुंदर है, न ही कोई वस्तु स्वयं असुंदर है । जिनका आपसे राग है, उसे आप सुंदर कह देते हैं और जो आपके लिये अनिष्ट हैं, उनको आप असुंदर का डिप्लोमा दे देते हैं । देखो भैया ! जिनसे आपका राग है, उनमें आप सुंदर असुंदर का ठीक निर्णय नहीं दे सकते हैं तो जिनके विषय में आपको राग नहीं है उनके विषय में देखो । जैसे पशु, पक्षी वगैरह जानवरों में कुत्ता और कुतिया इन दोनों में आपको कौन सुंदर लगता है । बैल और गाय―इन दोनों में आपको किसका शरीर अधिक सुंदर लगता है? कुछ ऐसे प्रकरण हैं कि उन प्रकरणों से स्त्रीवेदी जानवरों की सुंदरता नष्ट हो जाती है और पुरुषवेदी जानवरों की सुंदरता नष्ट नहीं हो पाती है । पुरुषवेदी जानवर सुंदर दिखते हैं ।
149. राग में इष्ट व अनिष्ट आशय―आप अपनी मनुष्य जाति में ही देख लो, जिसे आप इष्ट मानते हैं, वह आपको सुंदर है, जिसे आप अनिष्ट मानते हैं वह आपके लिये असुंदर है । इष्ट माने आपकी इच्छाओं का प्रिय । सु+उंद+अर् । ‘उंदी’ क्लेदने धातु है । जो भले प्रकार से दुःख पहुंचावे उसे सुंदर कहते हैं । सु उपसर्ग है, अरच् प्रत्यय लगा है । यह सुंदर का सही अर्थ है न क्योंकि इष्ट वस्तु के संयोग से आपको दुःख ही पहुंचता है । जिसे आप कहते हैं कि यह चीज हमें सुंदर लगती है, उसका मतलब हुआ कि यह चीज हमें दुःख देने वाली है । वस्तु न स्वयं इष्ट है और न अनिष्ट है । रागभाव इष्ट बनाता है और द्वेषभाव अनिष्ट बनाता है । विभीषण को रावण से कितना स्नेह था कि जिसकी रक्षा के लिये उसने जनक और दशरथ के सिर काट डाले । विभीषण इस खोज में था कि यदि जनक और दशरथ न रहेंगे तो सीता और राम भी पैदा नहीं हो सकते हैं, अत: हमारा भाई नहीं मारा जा सकता । परंतु जब रावण ने परस्त्री हरण किया तो विभीषण रावण के कितना प्रतिकूल हो जाता है कि रावण के साथ युद्ध होने में कितनी ही सफलताओं में तो विभीषण का ही अधिक हाथ था । वस्तु उत्पाद-व्यय ध्रौव्यात्मक है । पदार्थ अपने गुणों में तन्मय है, अपना परिणमन स्वयं करने वाला है, निज के क्षेत्र में रहता है । इसके सिवाय जो कुछ अन्य बात पदार्थ के विषय में कहोगे, यह सब तुम्हारी कल्पना है । पुस्तक 7 इन्च लंबी है, 4 इन्च चौड़ी है―यह सब तुम्हारे दिमाग में भरा है । पदार्थ तो उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक है । पदार्थ न लंबा है, न चौड़ा है । इन स्कंधों में तो असल में पदार्थ एक-एक अणु है ।
150. मोह में अधिक अध्यवसाय का यत्न―अपन लोग भगवान से ज्यादह जानने का प्रयत्न करना चाहते हैं । क्यों भैया ! यह मकान मेरा है, इस प्रकार का जो आपका परिणमन हुआ, यह तो भगवान के ज्ञान में झलक रहा है, परंतु यह भगवान के ज्ञान का विषय नहीं है कि यह मकान इनका है । जो मनुष्य ‘यह मकान मेरा है’ ― इस प्रकार अपने विकल्प से कलुषित हो रहा है यह भगवान को ज्ञात है । किंतु भगवान यह नहीं जानते कि यह मकान इसका है और आप जानते । सम्यग्ज्ञान उसे कहते हैं, जो न तो कम जाने और न अधिक जाने, अत: हमारा ऐसा ज्ञान मिथ्या है । मकान का ऐसा स्वरूप नहीं है कि मकान मेरा है । मकान का स्वरूप द्रव्य-गुण पर्यायमय है । अमुक पदार्थ मेरा है―यह भी उसकी प्रतीति में है और उसने उसके विषय में अधिक जान रखा है । ज्यादह जानना भी मिथ्या ज्ञान है । वह अधिक जानना यही तो है कि जो तत्त्व वस्तु स्वरूप में नहीं है, उसे भी कल्पित कर लेना । अधिक जानने का रिजल्ट यह हुआ कि हमारा ज्ञान घट गया । इन जड़ पदार्थों का स्वरूप और कारण न जान पाये, यह भी गल्ती है और इसके विषय में अधिक जान लेना यह भी गल्ती है । जो भगवान से बढ़कर जानना चाहता है उसकी दुर्गति होती है । ये जगत के पदार्थ न तो स्वयं इष्ट हैं और न स्वयं अनिष्ट हैं । हमारा ही राग इन्हें इष्ट बना देता है, हमारा ही राग इन्हें अनिष्ट बना देता है । जो हमारी कल्पना है, उसे हम इष्ट मान लेते हैं और उसे अनिष्ट मान लेते हैं ।
151. जीव में विकार प्रकृति का अभाव―शुद्ध चेतन में राग नहीं है, द्वेष नहीं है, इसी प्रकार आत्मा में मोह भी नहीं है । यह आत्मा के श्रद्धा गुण का परिणमन है । मोह कर्मोदय के निमित्त से होता है, मोह आत्मा का स्वभाव नहीं है । जब किसी के लड़के की आदत बिगड़ जाती है, तो उसे दिखता है कि यह इसकी आदत नहीं थी, इसे दूसरों के बच्चों की आदत लग गई है । मेरे आत्मा की आदत राग-द्वेष करने की नहीं है । यदि आपको आत्मा से रुचि है तो आपको ऐसा ही दिखेगा । जरा आत्मस्वरूप को देखो, आत्मा की आदत राग द्वेष मोह करना है ही नहीं । यह तो कर्मोदय के निमित्त से लग गई है । केवल आत्मा आत्मा को देखो तो आत्मा निरपेक्ष शुद्ध है । शुद्ध विकास से देखे गये आत्मा का यहाँ वर्णन नहीं है किंतु निरपेक्ष स्वरूप से देखे गये आत्मा का यहाँ वर्णन है । इस प्रकार आत्मा में राग द्वेष मोह नहीं हैं । मुझ आत्मा में अध्यवसान नहीं है । इस प्रकार राग द्वेष मोह ये तीनों बातें आत्मा में नहीं हैं, ऐसा वर्णन किया गया है ।
152. जीव के आस्रव का अभाव―5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 25 कषाय और 15 योग । विपरीत अभिप्राय को मिथ्यात्व कहते हैं । वस्तु स्वतंत्र है, परंतु यह किसी के द्वारा बनाई है, यह श्रद्धा होना विपरीत अभिप्राय है । वस्तु अनेक धर्मवाली है, किंतु सर्व दृष्टियों से वस्तु का निर्णय न करके एक दृष्टि को ही सत्य मानना मिथ्यात्व है । अपने आपको फालतू मानकर प्रत्येक को ये भी देव हैं, ये भी देव हैं―इस प्रकार का अभिप्राय आना विपरीत अभिप्राय है । भगवान चाहे किसी को भी मान लिया जाये, परंतु भगवान का स्वरूप ठीक मानना चाहिए । बुद्धं वा वर्द्धमानं, केशवं वा शिवं वा―चाहे किसी को भी भगवान कहलवा लो । छह काय के जीवों की रक्षा का भाव न आना और उनकी विराधना का भाव आना, उसे कहते हैं प्राणी-अविरति । मन और इंद्रिय के विषयों से विरक्ति न आना इंद्रिय अविरति है । क्रोध मान माया लोभ को कषाय कहते हैं । मन, वचन, काय का हिलना डुलना योग कहलाता है । ये सब आस्रव के कारण हैं, आस्रव भी अपना नहीं है, जो चीज अपनी नहीं है, उस चीज पर हठ कर लेना अपमान का कारण है । इसी तरह जो आत्मा की चीज नहीं है और उस विषय में हठ हो जाये, इसको ऐसी करके मानूँगा, मैं तो रसगुल्ला ही खाऊंगा अभी ही होना चाहिए, यह सब आस्रवों की हठ है । जो विभाव परिणमन होते हैं, वे अपनी वस्तु नहीं हैं । उनके विषय में हठ करने से कोई लाभ नहीं है, उल्टे हानि ही है । मेरा किसी वस्तु से राग हुआ है, यह राग हितकर नहीं है । राग को करके उसकी हठ मत करो । परिवार में यदि अधिक लोग हैं संपत्ति अच्छी है वहाँ आराम की बुद्धि मत करो । मोह में जीव को ऐसा लगता कि मैं ही उत्तम हूँ, बरबाद होते होंगे तो और लोग होते होंगे । भैया किसी जगह विश्वास मत करो । आस्रव की हठ करनी बुरी है । बच्चे को हठ लगी हो वह सुखी नहीं हो सकता है । हमको तो सबके हिस्से से दुगुने ही रसगुल्ले मिलने चाहिए, मैं कम नहीं ले सकता, इसका फल पिटाई है । किसी को किसी गरीब से भी हठ हो जाये यह भी बहुत बुरी चीज है ।
153. टेक का फल―एक स्त्री बहुत हठीली थी । मैं पति की मूँछ मुँडाकर ही रहूँगी, ऐसी उसे टेक आ गई । वह पेट के दर्द का बहाना लेकर पड़ गई । पेट का दर्द अच्छा हो तो कैसे हो, वह तो हठ का दर्द था । बहुत लोग देखने गये, वैद्य डाक्टर आये, पेट का दर्द ऐसे नहीं मिटा । पति ने कहा कि दर्द कैसे मिटे? स्त्री ने कहा जो भी हमारा प्रिय हो, वह मूंछ मुड़ा ले तो हमारा पेट में दर्द ठीक हो जायेगा । क्योंकि एक बार पहले भी ऐसे ही ठीक हुआ था । पति ने सोचा कि है कौन बड़ी बात, उसने अपनी मूंछें मुड़ा ली । स्त्री को और चाहिए ही क्या था? प्रतिदिन सबेरे उठकर चक्की पीसती हुई गावे―अपनी टेक रखाई पति की मूंछ मुड़ाई । पति ने सोचा यह तो इसने मुझे चिढ़ाने के लिये किया है, अत: इसे भी मजा चखाना चाहिए । पति को एक उपाय सूझा । उसने ससुराल एक पत्र लिखा कि तुम्हारी लड़की बहुत सख्त बीमार है, बड़े-बड़े डाक्टर वैद्य बुलाये गये, किसी की भी औषधि कार्यकर न हुई, देवता भी बुलाये, सबने यही सलाह दी कि इसकी बीमारी तभी ठीक हो सकती है, जबकि सब इसके परिवार वाले सिर और मूंछें मुड़ाकर एक लाइन में इसे देखने आवे, अन्यथा यह मर जायेगी । यदि आपको अपनी प्रिय पुत्री के दर्शन करने हो तो आप जैसा जानें सो करें । ससुराल में चिट्ठी पहुंची, सबने वैसा ही किया और लाइन बनाकर वे सुबह ही सुबह आये जब कि उसका चक्की का टाइम था । वह चक्की पीसती हुई प्रतिदिन की तरह गाती है कि “अपनी टेक रखाई पति की मूंछ मुड़ाई ।” उसी समय पति कहता है कि “पीछे देख लुगाई, मुंडन की पलटन आई ।” स्त्री बड़ी लज्जित हुई । अत: भइया, टेक करना अच्छी चीज नहीं है । न बड़ों से हठ करो, न छोटों से । हमेशा अपने अपराधों को मान लो । दुनियां इंद्रजाल है । यहाँ कोई न्यायाधीश थोड़े ही बैठा है, बेधड़क कह दो कि मेरे से यह गलती हो गई । किसी भी आस्रव का हठ मत करो । अपने आपमें आये हुए राग परिणाम का भी हठ मत करो । यदि हठ करोगे तो धोखा खाओगे । प्राय: लोग खाने पीने की बड़ी हठ करते हैं । किसी चीज की इच्छा हुई, वह तुरंत मिलनी चाहिये । ऐसा अभी होना चाहिए, ऐसी हठ करना कभी अच्छा नहीं है । विनय से रहोगे, सब कुछ मिलेगा । उज्जड्डता से रहोगे, सब कुछ रहा सहा भी उजाड़ बैठोगे । जो चीज विनय से मिल सकती है, वह कभी हठ से नहीं मिल सकती है । आस्रवों में आत्मबुद्धि होना सबसे पहली हठ है । यह हठ पर्यायबुद्धि होने पर होती है । जो कुछ सोचा बस वही सही, यह पर्याय की हठ है । अरे, तुमसे ज्यादा चतुर तो आठ-आठ वर्ष के बच्चे भी होते हैं । उनका भी ज्ञान अधिक पाया जाता है । भैया ! यहाँ मिला ही क्या है, जिस पर इतना इतराया जाये ।
154. विद्यामद―एक बाबू साहब थे । नाव में बैठकर सैर करने चले । वे मल्लाह से पूछते हैं कि अबे, तू कुछ इंग्लिश भी जानता है । उत्तर मिला―नहीं बाबूजी ! बाबूजी कहते हैं कि बस तूने अपनी आधी जिंदगी खो दी और पूछा कि अच्छा हिंदी भी जानता है या नहीं । फिर वही उत्तर पाकर उपेक्षा की दृष्टि से बाबूजी ने कहा कि बस अब तो तूने पौनी जिंदगी खो दी । जब नौका मझधार में पहुंची और डगमगाने लगी तब मल्लाह ने बाबू से पूछा कि बाबू साहब ! आप तैरना भी जानते हैं । बाबूजी ने कहा, नहीं । मल्लाह बोला―तो बाबूजी आपने तो अपनी पूरी जिंदगी खो दी । जब नाव डूबने लगी, मल्लाह तो तैरकर बाहर निकल आया और बाबूजी वहीं पानी में विलीन हो गये । इस प्रकार सभी प्रकार की हठ बुरी है । यह मोही जीव तो भगवान को भी बड़ा नहीं मानता है । हमारी बड़ी सिद्धि हो रही है, इस प्रकार मोही जीव अपने से बढ़कर किसी को नहीं समझता है । अपनी ही पर्याय उसे रुचती है ।
155. विकारों की हठ में दुर्दशा―राग-द्वेष मोह कषाय ये आत्मा के कुछ नहीं हैं । इन भावास्रवों का कारण कर्म का उदय है । कर्म जब बंधे होंगे तभी तो उदय में आयेंगे । कर्मों के बंधने का कारण जीव का कषाय भाव है । जीव अपने कषाय भावों को बनाकर अपना नाश कर डालता है । संसार के प्रत्येक जीव अपने ही आप अपने ही कषाय से दुःख का कारण बना लेते हैं । किसी से कुछ मिलना नहीं है, परंतु पर के विषय में विकल्प बना बनाकर यह व्यर्थ दु:खी होता है । ये आस्रव मेरे स्वभाव भाव नहीं हैं, ये जीव में प्रकृति से आये हैं । साँख्य लोग समझते हैं कि प्रकृति से अहंकार हुआ, वास्तव में निमित्त-नैमित्तिक भाव से कषाय परिणमन होता है । अहंकार मुझ पुरुष में नहीं है, प्रकृति से आया है । आई हुई चीज का हठ नहीं करना । आये हैं तो उन्हें उपेक्षाभाव से आने देना और उसी प्रकार निकल जाने देना । उनमें आदर और आत्मबुद्धि नहीं करना । किसी ने कुछ कहा, उसकी उपेक्षा कर देना, उसे हृदय में स्थान न देना, उनको वहीं खत्म कर देना चाहिये । कोई कुछ भी प्रतिकूल कहे, जो उन बातों को पी जाये वह सुखी रहेगा, जो उस ओर उपयोग लगायेगा―उसे क्लेश ही क्लेश है । बार-बार बाह्य से अपना उपयोग हटाकर उस चैतन्यस्वरूप की ओर ले जाओ । हठ करना बुरी चीज है । किसी को छोटा मत समझो । चूहे जैसे जानवर भी सिंह के काम आ जाते हैं । मरने पर भी अनेक पशुवों का शरीर काम आता है, परंतु मनुष्य की कोई चीज किसी अन्य के काम नहीं आती है । मुझसे छोटे-छोटे जीव भी बहुत काम में आ जाते हैं । खोटे परिणाम बढ़ते-बढ़ते इतने बढ़ जाते हैं कि उनकी हद हो जाती है । हमारे दुश्मन हमारे खोटे भाव हैं अत: उन्हें नष्ट करने की जल्दी से जल्दी कोशिश करना चाहिए । भक्ति करो, सत्संग करो, पुस्तक लेकर पढ़ो―ये सब खोटे भाव दूर करने और उपयोग बदलने के उपाय हैं । दुखियों के बीच जाकर खड़े हो जाना, इससे भी अपनी अक्ल ठिकाने लगती है । अनेक उपाय करके खोटे परिणाम की हठ मत करो । खोटे परिणाम होते हैं तो तत्काल रोक दो ।
156. जीव के रागादि परभाव का प्रतिषेध―जीव के राग नहीं, रागपरिणाम में जीव व्याप नहीं रहा । है यद्यपि उसका ही परिणमन राग, पुद्गलकर्म के उदय के निमित्त से हुआ विभावपरिणमन है लेकिन व्याप नहीं रहा । जीवत्व तो उस ही में व्याप रहा जो अनादि अनंत संपूर्णतया जितने में रह सकता है । रागभाव तो नैमित्तिकभाव है, स्व के भाव में क्या बिगाड़? जीव के दोष नहीं, मोह नहीं, ये सब अध्यवसान भाव पुद्गल परिणाम से निष्पन्न हैं, मेरे स्वरूप नहीं हैं । इनका भी लगाव छोड़ना है और एक चैतन्य शक्तिमात्र में अपना स्वरूप जोड़ना है । जीव के आस्रव नहीं, कर्म नोकर्म नहीं । जीव सबसे निराला केवल एक चैतन्यमात्र । और जो चैतन्यमात्र नहीं है वह जीव नहीं है, फिर क्या है ? इसका निर्णय करने की हमें फुरसत नहीं, न आवश्यकता है । हम तो उतना निरख रहे हैं इस काल में कि मैं यह हूँ, और कुछ नहीं हूँ । इसी दृष्टि को लेकर चैतन्यशक्ति को छोड़कर अन्य जो-जो कुछ भी परिणाम हैं वे सब जीव नहीं हैं, अजीव हैं ।
157. जीव की कर्म से विविक्तता―जीव के कर्म नहीं है । कर्म जीव का कुछ नहीं है । यहाँ भेदविज्ञान की बात चल रही है यह पहचानने के लिये कि मैं आत्मा शुद्ध कैसा हूं? लोग भी कहते हैं, ग्रंथ-पुराणों में भी वर्णन किया गया है कि जीव के साथ कर्म लगे हैं । व्यवहार दृष्टि से यह बात सही भी है कि जीव के साथ अनादिकाल से कर्म लगा है । यह कर्म जीव को दुःख का कारण बन रहा है किंतु कर्म क्या है इस बात पर प्राय: लोगों ने कभी विचार नहीं किया है और यह कहकर उपेक्षा कर दी कि आत्मा का भाग्य है । कोई लोग अधिक विचार में उतरे तो यह कह दिया कि विधि ने यह तकदीर लिखी है, इसे ही कर्म कहते हैं । किसी ने कहा कि जीव जो करता है, वह कर्म है और उसी के अनुसार जीव फल पाता है । जो लोग कहते हैं कि जीव जो करता है, उसी के अनुसार फल भोगता है, यह बात उनकी सही भी है । यहाँ पर यह प्रश्न हो सकता है कि जीव ऐसा क्यों करता है? कर्म नामक जैसे किसी परद्रव्य के माने बिना इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता है । कितने ही लोग किसी मृत प्राणी की खोपड़ी उठाकर कह देते हैं कि देखो इसकी खोपड़ी में क्या लिखा है ? खोपड़ीयों में प्राय: कुछ चिन्ह विशेष होते ही हैं, हरेक जगह कुछ अस्पष्ट निशान तो होते ही हैं, लोग उन्हीं चिन्हों को दिखाकर कह देते हैं कि देखो, यह लिखी है इसकी तकदीर । तो वह चीज क्या है, इस विषय को प्राचीन ऋषियों की मूर्तियों पर ध्यान देते हुए देखो । जीव एक चैतन्यमात्र वस्तु है; इसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श कुछ भी नहीं है । ज्ञान-दर्शन मात्र यह अमूर्त आत्मा है । जगत् में ऐसे स्कंध सर्वत्र भरे हैं जो आँख से दिखाई नहीं दे सकते हैं, परंतु हैं वे स्थूल । वे स्कंध जो कर्म रूप बन जाते हैं, उसका नाम है कार्माण वर्गणाएं । इस प्रकार दो भिन्न जाति के पदार्थ हैं । जब यह जीव क्रोध, मान, माया, लोभ, राग द्वेषादि रूप कषाय करता है तो यहाँ ही जीव के एक क्षेत्रावगाह में भरी हुई जो कार्माण वर्गणाएं है, उन वर्गणाओं में प्रकृति से जीव को फल देने की शक्ति पैदा हो जाती है । जीव उन वर्गणाओं के उदय काल में क्रोधी, मानी, लोभी बन जाता है । जीव के साथ कुछ कार्माणवर्गणाएं बंधरूप में लगी हैं उन्हें कर्म कहते हैं, वह जीव से भिन्न वस्तु है । जीव की जो क्रिया है, परिणाम है, वह तो जीव से उस काल में अभिन्न है, परंतु जो कर्म उसके साथ लग गये वे कर्म आत्मा से अलग हैं । कुछ ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि जीव के साथ वे कर्म जाते हैं और फल देने तक उसके साथ रहते ही हैं । उन कर्मों की बात कह रहे हैं कि वे कर्म भी जीव से भिन्न हैं ।
158. कषायों के दूर करने से ही प्रभुता का मिलन―हे आत्मन् ! जिस किसी प्रकार भी हो, जगत के पदार्थों से न्यारे क्रोध-मान-माया, लोभ, राग-द्वेष आदि जो जीव के स्वभाव भाव नहीं हैं, ऐसे जानन-देखनमात्र उस आत्मा का अनुभव करो । संसार का झंझट मिट जायेगा और उस समाधि की स्थिति में परमात्मा के दर्शन करोगे । मोह के रहते, विकल्प, चिंता शोक के रहते हुए परमात्मा का दर्शन नहीं हो सकता है । सब विकल्पों को छोड़कर अपने आत्मा के अनुभव में लगो, वहाँ परमात्मा के दर्शन हैं । जिस परवस्तु के निमित्त से यह जीव कर्म करता चला आया है, वह कर्म जीव का नहीं है, अत: उस कर्म से व उसके मिलाप से ममता छोड़ो । यह संसार मायाजाल है, जो भी समागम मिले, वे प्यारे लगते हैं, इनका प्यार करोगे तो स्वाधीन आनंद, आत्मीय आनंद और परमात्मा के दर्शन आदि सर्व सुख इससे वंचित रहेंगे । और मिली हुई विभूति में शरीर का राग न रहा हो तो परमात्मा के दर्शन, आत्मीय दर्शन जैसे बड़े वैभव अंतरंग में मिलेंगे । फिर भी मोहियों को कर्म किये बिना नहीं रुचता है । एक भिखारी भीख माँगता फिरता है, उसकी तृष्णा कुछ ऐसी है कि पांच दिन पहले की भिक्षा में मिली हुई सूखी रोटी कुटिया में जोड़े रखता है । भिक्षा मांगते-2 एक दिन एक सेठ ने कहा भाई, तू इन बासी रोटियों को फेंक दे, तुझे ताजा भोजन करायेंगे । फिर भी उसे यकायक विश्वास नहीं होता है । वह सोचता है कि शायद यह सेठ न दे और मैं इन रोटियों से भी जाऊं । उसे यह विश्वास नहीं होता कि मैं बासी फेंककर ताजा प्राप्त करूं । ये जगत के मोही भी जिन पदार्थों को अपना मानते आये हैं ज्ञानी गुरु के समझाने पर कि जो तुमने जोड़ रखा है, उससे ममता छोड़ो, तुझे अपूर्व आनंद, परमात्मदर्शन कराया जायेगा । तू अपने आपमें परमात्मदर्शन करेगा, तू इन सब नश्वर पदार्थों की ममता को छोड़ दे, ये पदार्थ अनेकों के द्वारा भोगे गये हैं, जो यह तुझे वैभव मिला है, यह अनेक आत्माओं का जूठन है, तू इन बासी जूठे भोगों को छोड़ दे और अपने आत्मा में एक अलौकिक आनंद पायेगा, फिर भी इस अनादि काल के भिखारी को सहसा विश्वास नहीं होता है और वह बाह्य पदार्थों से ममता जोड़े रहता है । जो घर के खाते-पीते लोग हैं, उन्हें तो सेठानी की बात का विश्वास है । इसी तरह तार्किक ज्ञानी को भी विश्वास है कि ये ज्ञानी गुरु भी सत्य कह रहे हैं कि तू इन जूठे भोगों को छोड़ और तू ताजा भोजन कर । इस प्रकार कोई भिखारी भी धीरे-धीरे सिखाये में आ सकता है । निकट एक मिथ्यादृष्टि भी आत्मशिक्षा में आ सकता है ।
159. सत्य का अनुभव से प्रत्यय करने का अनुरोध―हे आत्मन् ! राग, द्वेष, मोह और इनके आस्रव तथा कर्म भी तेरा नहीं है । तू इन सब पदार्थों से भिन्न चैतन्यमात्र वस्तु है । आंखों देखी बात असत्य हो सकती है, कानों सुनी बात पर तो कोई विश्वास ही नहीं करता, परंतु अपने अनुभव की बात कभी असत्य नहीं हो सकती है । आँखों देखी बात में भी दम नहीं होता है । एक राजा का नौकर रात को प्रतिदिन राजा का पलंग बिछाया करता था । एक दिन नौकर के मन में आया कि लेट करके तो देखें कि क्या आनंद आता है? वह चादर तानकर ज्यों ही सोया कि उसको नींद लग गई । रात को रानी आई, उसने समझा कि महाराज साहब सो रहे होंगे, वह भी वहीं बराबर में पलंग पर सो गई । थोड़ी देर बाद राजा आया । रानी को एक परपुरुष के साथ सोया देखकर उसकी आँखें क्रोध से आग बबूला हो गईं । उसने सोचा कि मामला क्या है? यह तो जाने । राजा ने रानी को जगाया रानी हकबकी सी हो गईं । वह न समझ सकी मामला क्या है? राजा ने नौकर को जगाया, नौकर जगा तो कांपता-कांपता गिड़गिड़ाता है । नौकर ने सारी बात बताई कि महाराज, मैंने सोचा कि बिस्तर पर थोड़ा आराम करके देख लूँ कि मुझे नींद लग गई । राजा ने अनुभव से जाना कि बात ऐसी ही है, और सत्य भी है । ये सब आंखों देखी बात तो है, जो अनुभव किये बिना असत्य सिद्ध हो जाती है । धन, मकान, रिश्ता, जायदाद ये सब असत्य हैं । जरा अनुभव करो, निर्णय में अपने आप असत्य प्रतीत हो जायेगा । यह सब संसार के पदार्थ माया हैं, पर्याय हैं, अनित्य हैं । यह सब असत्य कैसे जानने में आयेगा ? एतदर्थ पहले सत्य बात का पता लगाना होगा । क्योंकि जब सत्य बात का निर्णय हो जायेगा, तभी तो इस संसार को असत्य समझा जायेगा । सत्य बात के मालूम चलने पर ही असत्य बात का निर्णय किया जा सकता है । जैसे―एक आपका नौकर बाजार से कोई ।।) की चीज लाया और ।।।) के पैसे बताता है कि वस्तु ।।।) में आई है । किसी तरह से आपको यह विश्वास हो कि यह चीज ।।) में ही आती है, तो आप तभी जानेंगे कि यह झूठ बोल रहा है । भैया ! एक सनातन अहेतुक अंतस्तत्त्व आदि को भजनों में बोलने से तो समझ में नहीं आता है कि यह दुनियाँ झूठी है । झूठी है यह तो तभी समझ में आता है, जबकि सत्य को आपने खोज निकाला हो । जो सत्य को समझे बिना दुनिया को झूठी कहते हैं वे स्वयं झूठे हैं, क्योंकि मान तो रहा दुनियां को सत्य, किंतु गा रहा कि दुनियाँ झूठी है इसलिए हम कहते हैं कि वह स्वयं झूठा है ।
160. क्लेशकारणक कर्म से आत्मा का पार्थक्य―जिसके बल पर जिसको निमित्त पाकर यह जीव नाना नाच कर रहा है, वह कर्म भी जीव से भिन्न हैं । कर्म जीव का कुछ नहीं है । ये कर्म संसार में सर्वत्र भरे पड़े हैं । जब जीव कषाय करता तब उन्हें खींच लेता है अर्थात् (निमित्त रूप से) है, कर्म का रूप कर, लेता है और उन कर्म वर्गणाओं को अपने सुख दुःख का कारण बना लेता है । जब जीव को राग पैदा होता है, वह किसी वस्तु को अपना लेता है और अपने सुख दुःख का कारण बना लेता है । जब जीव कषाय करता है, तब वह कार्माण वर्गणाओं को अपना लेता है और कर्मों को अपने सुख दु:ख का कारण बना लेता है । जब जीव राग करता है तो वह अपनी इष्ट अन्य वस्तुओं को अपना लेता है और उसे अपने सुख दुःख का कारण मान लेता है । यह भी आप जान रहे कि जिसे आप अपना लेते हैं, वह आनंद का कारण तो बनता नहीं है, किसी न किसी रूप में आकुलता का कारण बनता है । यदि आनंद चाहते हो तो परवस्तु को अपना मत मानो । यदि परवस्तु को अपनाया तो सब आपकी चेष्टाएं बदल जायेंगी । जैसे किसी कुटुंब में केवल स्त्री पुरुष ही हैं । पुत्र का राग उठा, किसी को गोद लिया, कुछ दिन आकुलता महसूस नहीं हुई, परंतु कुछ दिन बाद वह भी आकुलता अनुभव करने लगता है । उतनी तो आकुलता उसे होगी ही कि जितनी अन्य लड़के वालों को होती है । कोई बालक हो तो उसे कोई चिंता नहीं होती है । उसका जीवन विद्यार्थी, पुरुषार्थी के रूप में आनंद के साथ बीतता है । आराम से पढ़ने की धुन है, पढ़ रहा है, विशुद्ध विशुद्ध विकल्पों में चित्त चल रहा है, आकुलता उससे कोसों दूर है । जब शादी हो गई, वह उसी में खुशी मानता है । कुछ दिनों बाद दो हो जाने के कारण आकुलताएं बढ़ी । जब बच्चे थे सब पर विश्वास करते थे, अब उनका किसी पर विश्वास होता ही नहीं है । उनका जीवन कलुषित बनने लग जाता है । देखो यह जीव दुःख में पड़ा हुआ भी अपने को आराम में मानता है ।
161. दुःखों का अंतर्मथन―कुछ अंतरंग दुःख तो ऐसे हैं कि जीव उनको प्रकट नहीं कर सकता है । कुछ दुःख ऐसे होते हैं, जो दूसरों को दिखने में आ जाते हैं । बच्चे हुए, अनेक हुए, उनके पालन-पोषण रूप दुःख सामने मुंह फैलाये खड़ा है । कितना भी धन मिला हो, उनका गुजारा नहीं हो पाता है । देखो, बचपन में उसकी जिंदगी कितने आराम में बीतती थी, अब उसे पग-पग पर दुःख, पद-पद पर आपत्ति है । मार्ग कंटकाकीर्ण है, अपने जीवन का कोई लक्ष्य नहीं बाँध पाता है । जो व्यक्ति जितने बड़े पद पर पहुंच जाता है, उसके उतने ही दुःख बढ़ जाते हैं । जब दुबारा चुनाव होता है, तब यह चिंता सवार हो जाती है, कहीं हार न जाये, नाक कट जायेगी, सारी इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी । यहाँ तक सोच बैठता है कि यदि इस चुनाव में न जीत पाया तो मर जाऊंगा, किसी को अपना मुंह दिखा न पाऊंगा, पर्यायबुद्धि में मरने के सिवाय अन्य चारा ही क्या है ? कितना घृणित विचार कर बैठता है यह आत्मा? अंतरंग में इच्छा है प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या अन्य मंत्री या राज्यपाल आदि बनने की, खड़े भी हैं चुनाव में, परंतु वह कह देता है कि अब इस ओर जाने की हमारी इच्छा नहीं है, मैं अब मंत्री आदि नहीं बनना चाहता हूँ । उनको लगा रहता है कि कदाचित् हार गये तो लोगों में रहकर लोग यह न महसूस करें कि अमुक व्यक्ति हार गया है―वह ऐसा वातावरण बनाना चाहता है । सुख है कहाँ? लौकिक सुखों की दृष्टि से देखो तो भूमि पर अपनी रात बड़े आराम से बिताने वाला कुम्हार भी सुखी है । सुख कहाँ इस दुःखमयी दुनिया में ?
कर्म के उदय से प्राप्त हुई चीज में सुख की खोज करना, यह सफल होने का जरा भी उपाय नहीं है । यह श्रेष्ठिवर कुंदकुंदाचार्य समझा रहे हैं, इन भोले भूले भटके जगत के भिखारियों को । हे भिखारियों ! इस बासे और झूठे रूखे भोजन को छोड़ो, इससे तनिक तो मुंह मोड़ो, हम तुम्हें स्वाधीन और आत्मीय आनंद को देने वाला ताजा भोजन खिलायेंगे । परंतु यह अनादि का भिखारी उसी को अपूर्व मानता है, उसे ज्ञानियों की बात पर सहसा विश्वास नहीं होता है । कोई तर्क को जानने वाला (ज्ञान का भिखारी) आचार्य की शरण में जाता है और अनुकूल आचरण करता है, मोक्षमार्ग के नाना उपाय करता है । तब वह जानता है कि ओह ! मैंने पर में उपयोग रखकर अनादिकाल से अपना जीवन यों ही विषय-वासनाओं में बिता दिया । ये कर्मरूपी विषवृक्ष के फल हैं । ये भोग मेरे अपनाये बिना ही निकल जाओ । मैं तो केवल चैतन्यमात्र तत्त्व का अनुभव करता हूँ । मेरी समय स्वानुभव में जावे । यह कर्म मेरे कुछ नहीं हैं―इस प्रकार सम्यग्दृष्टि अनुभव करता है ।
162. जीव की नोकर्म से विविक्तता―जीव के नोकर्म नहीं है । ईषत्कर्म को नोकर्म कहते हैं । कर्म के बाद यदि किसी अन्य निमित्त पर नंबर आता है तो वह है शरीर । जीव के दुःखी होने में निमित्त है कर्म, और वह कर्म फल देवे, इसमें कारण बनता है शरीर । कल्पना करो कि जीव के साथ कर्म लगे हैं, शरीर नहीं हो तो फल कैसे मिलेगा? शरीर फल देने में कर्म का सहायक है, अत: इसका नाम नोकर्म रखा । सभी के अपने-अपने न्यारे-न्यारे शरीर हैं और सभी को अपने शरीर द्वारा दुःख-सुख का अनुभव होता है । अभी आपके शरीर में बुखार हो तो थर्मामीटर लगाकर आपके बुखार का अंदाज लगाया जा सकता है, परंतु आप उनके बुखार का अनुभव नहीं कर सकते हो । जो जिसके साथ विपदा लगी है वह उसके द्वारा सुख दु:ख का अनुभव किया करता है । शरीरों की जाति देखो कितनी हैं? एक जाति ऐसी भी है, जिसके आँख, नाक, कान, मुँह आदि कुछ भी नहीं है, उन्हें स्थावर जीव कहते हैं । उनमें पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और वनस्पति के शरीर होते हैं । पन्ना, हीरा, मोती, जवाहरात, सोना, चांदी आदि सब पृथ्वीकायिक जीव हैं । दिखने वाली चीजें सभी जीवों के शरीर हैं । यद्यपि बहुत-सी चीजें अब जीव नहीं है, लेकिन पहले थीं । जो भी पदार्थ तुम्हें दिखाई देते हैं, वह सब जीव का शरीर है, कोई मुर्दा है, कोई जिंदा । नोकर्म का ऐसा साम्राज्य है कि सर्वत्र नोकर्म ही नोकर्म नजर आ रहा है । यह नोकर्म भी जीव नहीं है । शरीर को जीव छोड़ देता है तब शरीर अलग रह जाता है और जीव अन्य शरीर को धारण कर लेता है । अरहंतदेव का शरीर अरहंत अवस्था के बाद यहाँ ही उड़ जाता है, आत्मा उनका सिद्ध अवस्था में पहुंच जाता है । शरीर जीव कभी नहीं हो सकता, क्योंकि शरीर प्रकट अचेतन है, जीव प्रकट चेतन है, इनका स्वरूप परस्पर अत्यंत विरुद्ध है ।