वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 134
From जैनकोष
यत्कोऽपि कर्मभि: कर्म भुंजानोऽपि न बध्यते ॥134॥
1057- ज्ञान और वैराग्य के बल से कर्मबंध का दूरीकरण- ज्ञानी जीव कर्म को भोगता हुआ भी कर्म से बँधता नहीं है यह सब किसका सामर्थ्य है? ज्ञान और वैराग्य का। ज्ञानी जीव ने अंदर में स्वभाव और विभाव का भेद परख डाला, निर्णीत कर लिया, उसके फल में विभावों से उपेक्षा कर स्वभाव में लगा, उसके निर्णय में विभाव हेय, स्वभाव उपादेय बना क्योंकि हेय, उपादेय और उपेक्षा ये तीन प्रकार की बातें आने को ज्ञान का फल कहते हैं। तो तब जाना, स्वभाव विभाव का परिचय किया तो फल क्या रहा कि विभाव तो हेय बन गए और स्वभाव एक उपादेय बन गया। विभावों से हटकर स्वभाव में लगे, ऐसी अलौकिक शक्ति ज्ञानी के प्रकट हुई। भेदविज्ञान का मूल में बल पाया जिसके सम्यक् प्रकाश पाया सो ही कहते हैं कि यह सब ज्ञान और वैराग्य का सामर्थ्य है, ज्ञान मायने मामूली जानकारी नहीं, किंतु मात्र ज्ञान, जहाँ केवल जाननमात्र हो उसके साथ अन्य कोई विभावों का स्पर्श न हो ऐसा जो ज्ञानमात्र है, इसका ही सामर्थ्य है कि कोई अंतरात्मा ज्ञानी पुरुष कर्मों को भोगता हुआ भी कर्मों से नहीं बँधता। देखिये- स्थूल तया तो यों दिखेगा कि यह भोगोपभोग में लगा हुआ भी कर्मों से नहीं बँधता और सूक्ष्मतया भी यह दिखेगा कि कर्मविपाक का जो प्रतिफलन है उस ही को तो यह भोग रहा, अनुभव रहा, उसको अनुभवता हुआ यह कर्मों से नहीं बँधता और उसमें भी अंत: दृष्टि पर चलते हैं तो यह बात बनती है कि उस काल में चारित्रमोहाक्रांत का ज्ञानस्वभाव से च्युत होकर थोड़ा भी जो अन्य रूप से परिणम रहा है ज्ञान (ज्ञान प्रतीति वाले जीव की बात कही जा रही है) तो ऐसा ज्ञानविकल्प जानने पर भी वह कर्मों से नहीं बँध रहा। क्या सभी कर्मों से नहीं बँध रहा? ऐसी बात तो नहीं, मगर यहाँ बुद्धिपूर्वक कर्मबंध नहीं हो रहा है। अध्यात्मशास्त्र में सर्वत्र यह ही अर्थ लेना होता है कि बुद्धिपूर्वक रागद्वेष नहीं हैं, यह तो कहलाता है रागद्वेष का अभाव। और, बुद्धिपूर्वक आस्रव नहीं है, यही कहलाता है आस्रव का अभाव। और, यह सब होता है ज्ञान और वैराग्य के बल पर। फिर तो अबुद्धिपूर्वक आस्रव ही रह जाता है और अबुद्धिपूर्वक जो रागद्वेष रह जाते हैं वे स्वभावाश्रय के बल से दूर हो जाते हैं। इसके सिवाय अन्य कोई उपाय अबुद्धिपूर्वक आस्रव को मेटने का नहीं है। 1058- श्रावक मुनि सभी ज्ञानियों के बुद्धिपूर्वक व अबुद्धिपूर्वक सभी विकारों के निर्जरण का उपाय स्वभावाश्रय-
स्वभावाश्रय के उपाय से बुद्धिपूर्वक रागद्वेष दूर हुआ, वही उपाय अबुद्धिपूर्वक रागद्वेष को दूर करने का है, पर उसका अभ्यास, साधना, समाधि ये चाहिए, याने अपने शुद्धस्वभाव का आश्रय, यह ही बुद्धिपूर्वक आस्रव को दूर कर रहा और यही अबुद्धिपूर्वक आस्रव को दूर करेगा। उपाय वह एक ही है, और इतना ही क्यों? चाहे वह गृहस्थ हो, मुनि हो, श्रेणी के मुनि हों, जिन-जिन के सम्वर निर्जरा चल रही, जितनी जहाँ-जहाँ चल रही, उस सम्वर निर्जरा का उपाय, साधना अंत: वीतरागता है। जितने अंश में नहीं है राग, शुद्ध ज्ञान चल रहा है बस वही है गृहस्थ को भी सम्वर का कारण और मुनियों को भी सम्वर का कारण। अब यों समझ लीजिए कि कोई अमीर है तो उसने मानो भरपेट पेड़े खाये और किसी गरीब ने छटाक आधी छटाक ही पेड़ा लेकर खाया, मगर पेड़े के स्वाद को यह भी जान गया, वह भी जान गया। शुद्धोपयोग के प्रसाद से, शुद्ध आत्मतत्त्व के प्रसाद से यह सम्वर और निर्जरा की बात चलती है, पर जितने-जितने अंश में निर्मलता है, शुद्धि है उसके अनुसार सम्वर और निर्जरा की बात होती है। उसका सामर्थ्य मिला कहाँ से? ज्ञान और वैराग्य से। तो ज्ञान और वैराग्य में ही यह सामर्थ्य है कि कोई पुरुष कर्मों को भोगता हुआ भी कर्मों से बँधता नहीं है। मंत्रवादी पुरुष, मंत्रसाधक पुरुष उस विष को खाकर भी नहीं मरता जिस विष को खाकर दूसरा असाधक मर जाता है उसी प्रकार उपभोग को भोगकर भी, उपभोग का भोगना होता है परिस्थिति में, मगर जहाँ ज्ञान और वैराग्य है मूल में, तो वह वहाँ बँधता नहीं है। वह अपने आपमें स्वातंत्र्य और स्वभाव का बराबर अनुभव करता हुआ ही चल रहा है। जहाँ वैराग्य होता है वहाँ कोई चीज भी लद जाय तो भी वैराग्य के बल से उसका लदान नहीं कहलाता। तो हम आपको शरण है, साधक है, मित्र है तो वह है ज्ञान और वैराग्य। जहाँ ज्ञान है वास्तव में, गप्पों वाले ज्ञान की बात नहीं कह रहे, जहाँ वस्तुत: स्वभाव विभाव का भेद करके एक स्वभाव का उपयोग बने, ऐसा जहाँ ज्ञान है वहाँ वैराग्य भी है। वैराग्य के साथ ज्ञान भी है। हाँ अब इतनी बात अवश्य है कि किसी के कम विरक्ति है किसी के अधिक विरक्ति है, वह सब जैसे-जैसे साधना और अभ्यास बढ़ता है उस वैराग्य का अभ्युदय बढ़ता चला जाता है, पर कर्मों से न बँधे उसका उपाय ज्ञान और वैराग्य ही है, और कोई दूसरा उपाय नहीं है।