वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 135
From जैनकोष
ज्ञानवैभवविरागताबलात्सेवकोऽपि तदसावसेवक: ॥135॥
1059- सम्यग्दृष्टि की ज्ञान व वैराग्य की शक्ति तथा उसका प्रभाव- जिस आत्मा ने अपने ही ज्ञान द्वारा अपने ही सहज ज्ञानस्वरूप को पहिचाना और उसमें ही यही मैं हूँ, ऐसा अनुभव किया, दृढ़ज्ञान किया और इस प्रकार की दृष्टि बनाकर अलौकिक आनंद प्राप्त किया उसकी दृष्टि, धुनि, प्रतीति लगन इस आत्मतत्त्व की ओर ही होगी। भले ही परिस्थितिवश बाह्यविषयसेवन हों तो भी वह विषयसेवन की ओरबुद्धि वाला नहीं है, किंतु उसकी बुद्धि, प्रतीति केवल एक अंतस्तत्त्व की ओरहै। बस यह काम जिसने किया उसे फिर कहीं बंधन नहीं है। समझ तो लिया उसने ही यह है निर्बंध का मार्ग, यह है अपने आनंदविकास का मार्ग। तो जिस पुरुष ने ऐसा अंतस्तत्त्व का ज्ञान किया है वह पुरुष विषयसेवन होने पर भी पंचेंद्रिय के विषयसेवन का फलरूप संसारबंध प्राप्त नहीं कर पाता। तो ज्ञान और वैराग्य का ही वह बल है कि बाह्य विषयों का सेवन करते हुए भी वह सेवता नहीं है, ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे। एक सेठ की किसी फर्म में कोई मुनीम है, तो करोड़ों का काम है उस सेठ के और मुनीम केवल थोड़ासा वेतन पाता है, परंतु सब प्रकार कामों में व्यस्त वह मुनीम दिखाई देता है, सेठ तो अपने घर में पड़ा रहता, मोटर में बैठकर इधर-उधर घूमता रहता। और, वह मुनीम इस प्रकार का बोलचाल भी करता कि हमारा तुम पर इतना गया, तुम्हारा हम पर इतना रहा, कहता सब कुछ उस सेठ की संपत्ति के बारे में, उस संपत्ति की रक्षा भी वह मुनीम करता, उसे मेरी मेरी भी कहता, पर उसके हृदय से तो पूछो, उस संपत्ति में उसे रंच भी आसक्ति नहीं, वहाँ मोह नहीं। सब कुछ करते हुए भी उसका फल मुनीम नहीं पा रहा। वह तो अपनी जो कमायी है, जो सेवा है, उसका जो श्रम होता है वह उतना ही पा रहा है। ऐसे अनेक उदाहरण ले लो। जब किसी ओरचित्त नहीं रहता है और किसी कारण जबरदस्ती करना पड़ता है तो उसका फल कहाँ प्राप्त होगा? जहाँ धुन है, जहाँ लगन है, उसका जो फल प्राप्त हो सकता सो ही मिलता है। अंतस्तत्त्व की ओर जो लगता है सो उसका फल है शांति, निर्भार अनुभव करना, सो वह उसको प्राप्ति होता है।जहाँ धुन नहीं है, जहाँ चित्त नहीं है उसका फल कैसे प्राप्त होगा? प्रवर्तन हो रहा है और कुछ उसका प्रभाव भी चलता है, मगर आसक्ति नहीं तो वह फल भी नहीं कहलाता। अच्छा और भी देखो- जैसे किसी लड़की का विवाह हुआ, मानो अब वह 40-50 वर्ष की हो चुकी। कई बच्चे भी हो गए, पोते भी हो गए, मगर जब भी वह मायके आती है और मायके से जब वह जाती है तो रोकर जाती है। अब बताओ, उसका वह रोना क्या हृदय से है? क्या उसको जाने में कष्ट है? अरे कष्ट कहाँ। कदाचित् देर हो जाय लिवाने आने में तो झट वह अपने बेटों को खबर कर देती कि लिवा ले जावो, मगर विदा होते समय वह रोकर जाती है। यों कितनी ही घटनायें ऐसी हैं कि जहाँ धुन है, जहाँ लगन है उसका फल तो उसे मिल रहा, बाकी परिस्थितिवश जो कुछ और किया जाना पड़ता है उसका फल, आसक्ति, अनुराग, मोह, राग, विरोध यह बातें नहीं उत्पन्न हो पाती हैं। 1060- अंतस्तत्त्व का ही संस्कार बनाने का अनुरोध-
यह ज्ञानी पुरुष अपने अंतस्तत्त्व की रुचि करके अपने में ऐसा आनंद पा चुका कि उसकी निर्वाध स्थिति हुई कि मेरा सर्वस्व तो यह आत्मतत्त्व ही है, कारण ही एक है। ऐसे आत्मा की अनुभूति तब ही तो बनती है जब एक आत्महित का ही नाता हो, दूसरा कोई नाता नहीं। दूसरा कोई प्रकार का पक्ष विकल्प आदिक चित्त में नहीं होता, तो उस स्वानुभूति की वहाँ पात्रता होती है। कोई प्रकार का शल्य मोह वे सब जहाँ नहीं होते वहाँ स्वानुभूति की पात्रता है। हम आप सबका कर्तव्य है कि वर्तमान जो परिस्थिति है, वर्तमान में जो संग प्रसंग है यह सदा न रहेगा, मगर भीतर में जो संस्कार बसाया है वह आगे साथ जायगा, इस कारण वर्तमान के चेतन अचेतन के संग प्रसंग को महत्त्व न देकर उसके कारण अपने में कोई ममता न उत्पन्न करके एक अपने आपके अंत:स्वरूप का ही हम संस्कार बनावें, एक ही नाता है कि मैं हूँ और मुझे अपने आपमें जो शांति, आनंद बसा है, समृद्धि है बस उसको प्राप्त करना है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं।
1061- लोकपरिचयामृत का पान- देखिये- 5 पदार्थों का परिचय एक अमृत पान का काम करता है। (1) लोकपरिचय, (2) कालपरिचय, (3) जीवदशापरिचय, (4) मुक्तिदशापरिचय और (5) आत्मस्वभावपरिचय। जहाँ यह ज्ञान में आया कि यह सारा लोक इतना महान् है, 343 घनराजू प्रमाण है, कुछ हद है क्या? एक राजू में असंख्याते द्वीप समुद्र समा गए, जंबूद्वीप एक लाख योजना का है, उससे दूना एक तरफ लवण समुद्र, उससे दूना एक तरफ द्वीप, इस तरह एक तरफ दूने-दूने चले गए ऐसे असंख्याते द्वीप समुद्र हैं। वे कहने मात्र के नहीं। जब उनकी गणना बतायी गई तो उससे जान गये कि कितने असंख्यात है, इतने द्वीप समुद्र कि ये सब एक राजू के अंदर ही समा गये फिर भी कुछ हिस्सा बचा है, और यहाँ है एक फैलाव रूप में, फिर तो घनरूप बहुत बड़ा, ऐसा 343 घनराजू प्रमाण यह लोक है। इस क्षेत्र के अंदर जहाँ हम बस रहे हैं, एक छोटी सी जगह, यह हमारे लिये क्या महत्त्व रखती है? इसमें ही क्या चिपके रहना। एक परिचित क्षेत्र से ममता त्यागने की उमंग आती है लोक के विस्तार को निरख करके। यहाँ थोड़े से क्षेत्र में ममता करके अपना तो जीवन पूरा गमाया। तो यह लोकपरिचय का अमृतपान है। 1062- कालपरिचयामृत का पान- काल के समय कितने हैं अनादि से अनंत काल तक, अनादि मायने जिसकी कुछ आदि नहीं, अनंत मायने जिसका कोई अंत ही नहीं, तो कितना बड़ा काल कहलाया, जिसकी कोई सीमा नहीं, तो इतने विशाल काल के पीछे हम आपका यह 100-50 वर्ष का जीवन कुछ गिनती भी रखता है क्या? अरे लोक को तो अंदाज लगाया जा सकता कि यह जंबू द्वीप एक बिंदु बराबर है, मगर हजार सागर को भी इस काल के सामने यह नहीं कह सकते कि यह बिंदु बराबर है, इतना महान काल व्यतीत हो गया। इसके भीतर जो 100-50 वर्ष का समय मिला उस काल में जो कुछ अपने पर घटना, संग प्रसंग जो कुछ भी बात है उनको कुछ सोचना,, उनमें ममता होना यह सब किसलिए है? उसका तो कुछ अर्थ ही नहीं रहा, इस काल के अंदर यह 100-50 वर्ष का समय कुछ गिनती का नहीं। तो इतने बड़े काल के विस्तार का जो परिचय प्राप्त करता है, उसको ममत्व के परिहार में बड़ा सहयोग मिलता है। 1063- जीवदशापरिचयामृत तथा मुक्तदशापरिचयामृत का पान-
तीसरा अमृत है जीवदशापरिचय, इसमें जीव की दशाओं का परिचय होता है। नरक में, निगोद में, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदिक एकेंद्रिय में दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय और पंचेंद्रिय में, नारकी देव मनुष्य और पशु पक्षी आदिक में सबमें कैसी-कैसी दशायें चल रही हैं। चल रही हैं अज्ञानवश, भ्रमवश, कर्म के उदयकाल में उस उस प्रकार से सब परिणमन चलता है, हुआ है, मगर यह तो ध्यान में दें कि इतनी तरह की जो जीव की दशायें होती हैं वे सब अज्ञान के होने पर होती है। और, एक अपने आपके सहज स्वरूप का ज्ञान हो जावे तो वे सारी की सारी दशायें दूर हो जाया करती हैं। चौथा अमृत है मुक्तिदशापरिचय जहाँ केवल स्वभाव ही स्वभाव व्यक्त है, केवल चैतन्यमात्र तत्त्व व्यक्त है वह ज्ञानपुंज, वह ज्ञानज्योति शरीर से रहित, कर्मों से रहित, विभावों से दूर, अधीरताओं से दूर छूटपुट ज्ञानों से विविक्त एक केवलज्ञान दशा वह मुक्त दशा है, जो कल्याणमय है। उससे पहले ये सारी दशायें जो संसारी जीवों के भटकने की हो रही हैं वे सब दशायें केवल एक दु:खमय हैं, सब कष्टमय दशायें हैं। तो ऐसी दशायें क्यों होती हैं? इसलिए कि हम अपने को सम्हाल नहीं सके, अपनी ज्ञानज्योति का अनुभव नहीं कर सके कि यह मैं हूँ। ज्ञान न जगे, भ्रम जगे शरीर में आत्मबुद्धि रहे तो ऐसी ऐसी जीवनदशाओं में यह जीव गया और जायगा। तो अनेक जीवदशा का परिचय होने से विषयों में अनुराग का, शरीर में अनुराग का त्याग होता है। अरे कितने शरीर पाये, किस किससे मोह किया...तो शरीर में अनुराग, शरीर में आत्मबुद्धि इनका त्याग करने में सहयोग मिलता है जीवदशा का परिचय होने से। जिसके जो कला प्रकट हुई है वह हर जगह से अपनी ही चीज प्राप्त कर लेता है, क्योंकि इस तत्त्वज्ञानी के वह एक दर्शन की कला उत्पन्न हुई है, तो कुछ भी स्थिति हो, वहाँ भी स्वानुभव या आत्मस्वरूप की बात का ही दर्शन करेगा।
1064- आत्मस्वभावपरिचयामृत का पान-
5 वाँ अमृत है आत्मस्वभाव का परिचय- मैं क्या हूँ, इसका सही परिचय हो, बस उसी के अनुरूप उसका फल उसे मिलने लगता। जैसे कोई मानता है कि अमुक आदमी हूँ, अमुक परिवार का हूँ, अमुक जगह का हूँ आदिक रूप से जो मानता है वह वैसी चेष्टायें करता है। जैसे किसी ने मान लिया कि मैं अमुक का बाप हूँ तो वह अपनी उस अनुरूप चेष्टा करेगा, उसके पालन पोषण की व्यवस्था करेगा, जिसकी जैसी श्रद्धा होती है उसके अनुकूल ही तो उसकी वृत्ति होती है। जिसने माना कि मैं इन सबसे निराला हूँ, केवल ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व हूँ तो उसके भीतर क्या परिणमन चलेगा? एक ज्ञान विकास, एक जाननमात्र। यह ही तो विकास चलेगा तो अपने आपको मैं क्या मानता हूँ, बस इस मान्यता पर उसको चेष्टायें होती हैं। लेकिन लोग अंदाज भी तो करते हैं कि यह क्या चेष्टा करेगा, क्या बोलेगा, किस तरह बोलेगा, यह सब अंदाज होता है इस श्रद्धा को पाकर कि इसकी ऐसी श्रद्धा है तो बोलेगा तो यों बोलेगा ‘श्रद्धा के अनुरूप प्रवृत्ति होती है ना? तो अपने को अगर परम आनंद प्राप्त करना है तो उसके लिए अपने अंतस्तत्त्व की श्रद्धा जगानी होगी कि यह मैं अंतस्तत्त्व यह हूँ, अन्य कुछ मैं नहीं हूँ। ऐसा जिसने भान किया, परिचय किया, वह पुरुष विषयों का सेवन होने पर भी विषयसेवन का फल याने संसार परंपरा यह नहीं बनाता। यह सब ज्ञान और वैराग्य के बल से ही बात होती है।