वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 143
From जैनकोष
तत इदं निजबोधकलाबलात् कलयितुं यततां सततं जगत् ॥143॥
1123- वर्तमान भव का पिंडोला-
देखिये- हम आप जो एक पिंडोला बैठे हैं तो यह तीन चीजों का समुदाय हैं। है तो दो का ही समुदाय जीव और पुद्गल, पर उस पुद्गल में दो जातियाँ हैं- (1) आहारवर्गणा और (2) कार्माणवर्गणा। तब इनका विपरिणमन होने से तीन बातें बतला रहे- (1) जीव (2) कर्म और (3) शरीर। जीव तो एक परिपूर्ण एकाकी द्रव्य है, और कर्म वह अनेक परमाणु का समूह है, यह कार्माण जाति का है याने उस जाति में कर्मरूप ही परिणमन बनता है। और आहार वर्गणाओं का पिंड है शरीर, तो यह भव तीन का पिंड है, और वर्तमान में कुछ ऐसा कसा हुआ सा है कि ये शरीर और जीव दोनों एक दूसरे से जुदे-जुदे हो जायेंयह बात नहीं बन पाती। ऐसी एक कठिनभी दशा है। एक बार एक ने अपने मित्र से कहा- भाई कल के दिन को तुमको हमारे यहाँ आहार करने का निमंत्रण है, पर एक काम करना, मैं बहुत गरीब आदमी हूँ, सो आप अकेले ही 10 बजे चले आना, अपने साथ किसी दूसरे को मत लाना।...अच्छा साहब। अब दूसरे दिन 10 बजे दिन में वह पहुँच गया आहार करने। तो उससे कहा- भाई आ गए?...हाँ आ गए।...पर हमने तो कहा था कि आप अकेले आना सो?...अरे अकेले ही तो आये हैं।...कहाँ अकेले आये? साथ में ये अनंत आहार वर्गणायें लेकर आये, अनंत कार्माण वर्गणायें लेकर आये।...अब भला बतलाओ ऐसा एक अकेला कोई आ सकेगा क्या? नहीं आ सकता, क्योंकि शरीर और जीव का ऐसा ही विकट बंधन चल रहा। फिर भी स्वरूप देखो तो जीव में जीव ही है दूसरा कुछ नहीं, यहाँ तक कि जैसे कहते हैं कि आकाश में जीव है, यों यहाँ पर का आधार भी नहीं बनता, मगर स्वरूप देखो आकाश में आकाश है, आकाश में कोई दूसरी चीज नहीं। ऐसे ही जीव में जीव है और कोई दूसरी चीज नहीं। तो स्वरूप की ही बात देखिये।
1124- निमित्तनैमित्तिकभाव के प्रसंग में भी जीव का जीवस्वरूप में ही अवस्थान- यद्यपि परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव से हो तो रहा है सब कुछ। जैसे हम यहाँ हाथ हिला रहे तो यह हिलने में तो आ रहा है पुद्गल, मगर यह पुद्गल हाथ हिलता है तो कैसे हिलता? इसमें वायु भरी है, शरीर में वात पित्त कफ है सो वायु के चलने से यह हाथ हिलता है और वायु इस तरह चली उसका निमित्त क्या है? जीव के प्रदेश का उस प्रकार परिस्पंद होना है, उसका निमित्त पाकर यह वायु चली, और जीव के प्रदेश में परिस्पंद हुआ, इसका हेतु क्या है? जीव ने उस प्रकार की दृढ़ इच्छा की अपने में वेगमय भाव बनाया कि उसका निमित्त पाकर उसका उस ही में योग हुआ और जीव में यह इच्छा हुई सो क्यों हुई, ऐसा विकार बना सो क्यों बना? देखिये खुद के विकार में खुद निमित्त कभी नहीं कहा जाता और जितनी विषय स्थितियाँ होती हैं वे उपाधिसन्निधान बिना हो ही नहीं सकती। तो अब उत्तर देना चाहिए कोई निमित्त दृष्टि से।...इच्छा क्यों जगी? भाई उस प्रकार का कर्म प्रतिफलन हुआ।...यह क्यों हुआ?...उसी प्रकार का कर्म का विपाक उदय में आया। वह क्यों बना? उदय में क्यों आया? उस प्रकार की स्थिति बँधी थी, उस प्रकार का कर्मबंध था। ये स्थिति और बंध क्यों हुए थे? वह पूर्व का ऐसा ही जीव के रागद्वेष का भाव था उसका निमित्त पाकर ये हुए। फिर रागद्वेष क्यों हुए? कर्मविपाक का निमित्त पाकर, चलते जावो, कहीं विराम न मिलेगा, क्योंकि वह अनादिसंतति बन गई इस योग की। जिसे मोटे रूप में समझते हैं भावकर्म और द्रव्यकर्म। भावकर्म पहले था या द्रव्यकर्म? द्रव्यकर्म के उदय में भावकर्म बना और भावकर्म के होने से द्रव्यकर्म बना, यह परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव है। तो पहले क्या बना था, बतावो। बीज से वृक्ष हुआ, जो वर्तमान में वृक्ष खड़ा है वह बीज से हुआ और जिस बीज से हुआ वह बीज कहाँ से आया? वह वृक्ष से आया, और वह वृक्ष कहाँ से आया? बीज से आया।...तो पहले बीज था कि वृक्ष? चित्त तो चाहता है कि कह दूँ किसी एक को, क्यों दूसरों को दुविधा में डालें, पर उत्तर समझ में नहीं आता कि किस एक को बतायें, यह कहलाती है अनादिसंतति। हम आप हुए हैं, हम आपके जनक पिता है, और वह पिता किसी दूसरे बाप से हुआ, वह बाप किसी दूसरे बाप से हुआ। यों उत्तर लेते जावो तो क्या कोई ऐसा भी बाप था कभी जो बिना बाप हो? अगर किसी को कहा जाय ऐसा कि यह तो बिना बाप का है तो वह तो गाली समझेगा तो ऐसी अनादि संतति के कोई उत्तर नहीं होते। फिर उसको घटना स्वभाव में डाल देते हैं- स्वभावोऽतर्कगोचर: ऐसा सब कुछ होते हुए भी जीव जीव ही है, पुद्गल पुद्गल ही है, वहाँ स्वरूप नहीं बदलता। 1125- जीव, कर्म और शरीर की क्रियायें जानकर स्वक्रिया से संतोष पाने का संदेश-
अब यहाँ बातें तीन की देखना- जीव, कर्म और शरीर। शरीर की कोई क्रिया हुई, उपसर्ग सहा, शीत वायु आदिक जो योग हैं वे चल रहे, क्रियाकांड भी जिन्हें कहते हैं, शरीर की जो क्रिया है उनका कांड मायने समूह, इन्हें बोलते क्रियाकांड। तो ये क्रियाकांड, इनका उपादान क्या है? यह शरीर। अच्छा और चाहिए क्या आपको? आपको चाहिए कि हमारा जो निज पद है ज्ञानस्वरूप सहज ज्ञानभाव वह हमको मिल जाय। तो भला वह ज्ञानभाव हमको इन क्रियावों में मिलेगा या निज के ज्ञान से मिलेगा? देखिये थोड़ा अगल बगल की बात कहें और अगर प्रयोजनवश स्वरूप का निरखन मुख्यता से किया जाता है तो बुरा क्या, जिससे हम अपने उस सहज स्वभाव पर पहुंच जायें, वह तो उचित ही है। क्योंकि समस्त उपदेशों का प्रयोजन सार केवल एक अपने आपके स्वभाव भाव का आश्रय करना है। जगत में हम आपको कोई शरण नहीं। वर्तमान में कुछ कषाय से कषाय मिल गई और उस पर इतना लट्टू हो गए कि यह तो मेरा है और बाकी है गैर। इस भाव का फल अच्छा नहीं मिलने का। इसमें कोई अटक क्यों हो? बस धुन हो एक स्वभावदर्शन की। उसके लिये ही अपना अभिप्राय बनायें। किसी प्रकार की अटक धर्ममार्ग में न बनाना चाहिए। एक बार कषाय आ गई तो आ गई, कोई कषाय हो गई, मिटा लिया, उसके पीछे उसकी वासना, उसमें अहंपने का अनुभव, मैं तो यह हूँ, यह कहलाती है अटक। कषाय तो एक गुजरने की बात है, अटक दो तरह की होती है- (1) खटक भरी अटक और (2) केवल अटक। अटकमेंभी दो भाग हुआ करते। जितनी कषायें हैं क्रोध, मान, माया, लोभ, व्यापार, यहाँ वहाँ, यह सब अटक कहलाती है, मगर किसी में ऐसी अटक बने जिसमें कि एक अहं का अनुभव हो, मैं तो ऐसा हूँ, मैं तो इतना हूँ, इस पार्टी का हूँ इस प्रकार का परभाव में जहाँ अहं का जमाव बनता है जिस परतत्त्व में, वह अटक है खटक वाली अटक। अटक हो तो भी कभी बात बन सकती कि पार हो सकते, पर खटक वाली अटक से पार नहीं हो सकते। हम आत्मा है, हमको तो एक विशुद्धि चाहिए, आनंद चाहिए, शांति चाहिए, और कोई प्रयोजन नहीं। बड़ी कठिनाई से यह मनुष्य जन्म पाया, यह बार बार मिलने का नहीं। यहाँ सही निर्णय बना लें, चूकिये नहीं कि मेरी भलाई किस प्रकार की प्रवृत्ति में है, किस प्रकार के भाव में है। धर्म के लिये जो बहुत से होड़ लग रहे हैं क्रियाकांड से या अन्य बात से चर्या आदिक से, तो वे एक दफे थोड़ी देर को भक्ति सहित सत्कार पूर्वक क्रियाकांड को किसी आले में विराजमान कर देवें और इस बात की स्वच्छता के लिये अपना दृढ़ अभिप्राय बना लेवें कि मुझे यह निर्णय करना है कि अपने भाव कैसे रखें कि जिससे मुझे सन्मार्ग मिले। यह निर्णय करके फिर सत्कारपूर्वक आले से क्रियाकांड को उतार कर उसके प्रयोग में परिस्थितिवश लग जावो।
1126- स्वपद की कर्मदुरासदता-
जीव का स्वभाव है, स्वभावाश्रय करना मंगलमय है, मगर वह मिलेगा कैसे? इन क्रियाकांडों से नहीं। आखिर यह मुद्रा कहाँ फेंकी जाय, शरीर को कहाँ मिटा दिया जाय। मन, वचन, काय की प्रवृत्तियाँ होती है, तो कहीं उनको गलत तो न करने लगें। ये सब बातें सही होती हैं, मगर स्वरूपनिर्णय में तो देखो, मेरे आत्मा का जो एक अंतस्तत्त्व बताया है उस पद का दर्शन यह हिलता हुआ हाथ करेगा या मेरा यह ज्ञानोपयोग करेगा? यह पद, अपना एकत्वपद याने सर्वपर्यायों में जो एक स्वरूप रहता हैयाने जो आधार है उसका दर्शन ज्ञान से होगा। एक मोटी बात दृष्टांत में लो, एक आम है, जब वह पहले छोटा होता फूल में तो उसका रूप काला होता है। जब कुछ और बढ़ता है तो नीला बन जाता है। फिर कुछ और बड़ा हुआ तो हरा बनता है, और बड़ा हुआ तो पीला बन गया, फिर लाल बन गया फिर पक गया, और सड़ जाय तो सफेद बन गया। तो अब जिस आम में इतने रूप परिवर्तन हुए सो ये परिवर्तन तो समझ में आ गए कि देखो यह नीले से हरा बन गया। मगर कौन बन गया? गुणभेद से बात करना। रूप गुण बन गया। जो रूपगुण अभी नीली अवस्था में था वह रूपगुण अब हरी अवस्था में आ गया और अब वही रूपगुण पीली अवस्था में आ गया तो ये तो हरी, पीली, नीली आदिक अवस्थायें बन गई, मगर स्वगुण वह एक ही है। इसे कहो स्वगुण, रूपशक्ति। वह स्वगुण, वह रूपशक्ति आपको आँखों न दिखेगी। उसकी अवस्था तो बराबर दिख रही हरा, पीला, नीला आदिक, जब आप रूपशक्ति को भी इन आँखों से नहीं देख सकते जो पुद्गल की बात कह रहे हैं वह भी आप ज्ञानबल से समझ रहे तो भला बतलाओ कि हमारे जो निरंतर भाव चल रहे उन भावों का जो स्रोत है, भावों की जो धुरा है, भावों का जो बीज है चैतन्यधातु वह ज्ञानस्वभाव वह क्या हाथों से समझ लिया जायगा? वह क्या किसी से जान लिया जायगा? अरे वह तो ज्ञानबल से ही ज्ञान में आयगा। तो यह जो पद है आत्मा का एक चैतन्यस्वरूप, वह क्रिया से पाया नहीं जा सकता उसका क्रियाकांड से पाना कठिन है, यह तो सहज बोध की कला से सुलभ है।
1127- स्वपद की सहजबोधकलासुलभता-
सहज ज्ञानकला मायने अपने स्वरूप का परिचय, इसको सहज बोध क्यों कहा? स्वरूप बोध कह देते।सहज बोध याने कोई परपदार्थ का ज्ञान, यहाँ हम आप लोग जान जानकर कर करते, लग-लगकर करते, इसे समझा, उसे समझा, फस-फस कर करते हैं, जान जानकर लग लगकर कर्म करने की आदत छोड़ दें और ऐसा सोच लें कि मुझे कुछ नहीं जानना है, मुझे कुछ नहीं समझना है, कहीं हमें दृष्टि नहीं लगाना है। हम तो आराम से बैठे हैं। तो वहाँ जो सहज बोध बन गया सो जानेगा कैसे नहीं? निज का स्वरूप जानना पड़ेगा। अगर यह ज्ञान परपदार्थ को न जानना चाहे और ऐसा नियंत्रण कर दे कि हम तो बैठे हैं, हमें कुछ पता नहीं कि किसके जानने से भला है और किसके जानने से बुरा है, और इतना भी विकल्प क्यों करूँ, हम तो कुछ जानना ही नहीं चाहते। हम तो कुछ भी ज्ञान में विकल्प में नहीं लगना चाहते, हम तो बस यों ही निष्क्रिय बैठेंगे। वहाँ सहज बोध जगेगा और वहाँ स्वरूपस्पर्श बनेगा। जैसे मानो किसी की चाह है कि मुझे धर्म करना है और वह इस संदेह में पछ गया कि सभी लोग अपनी अपनी बात बखानते हैं, हिंदू अपनी बात कहेंगे, वैष्णव अपनी कहेंगे, सांख्य अपनी कहेंगे, ईसाई अपनी कहेंगे, जैन अपनी कहेंगे, बोद्ध अपनी कहेंगे, वे सब अपनी-अपनी बात बड़ी बड़ी दृढ़ता से कहते हैं कि हमारी बात तो सत्य है बाकी सब मिथ्या है। तो जब कुछ संदेह में कोई पड गया एक निष् पक्ष व्यक्ति कि वास्तव में धर्म क्या है, हम कौनसे मजहब पर चलें? कल्याण चाहने वाला है वह तो वह भी एक उपाय बनाकर देखें कि जब एक भ्रम बन गया और सब अपनी अपनी गा रहें तो विश्वास के योग्य तो कोई न रहा। जिसे देखो वह अपनी गाता है, जैनियों को देखो वे अपनी गाते हैं, बोद्धों को देखो वह अपनी गाते हैं, एक निष्पक्ष कल्याण की अभिलाषा वाला पुरुष जो नया-नया आया है, कल्याण मार्ग में उतरना चाहता है तो वह एक असमंजस में पड गया, मुझे क्या करना चाहिए। तो उसको एक सद्बुद्धि आनी चाहिए कि जब सबमें संदेह हो गया तो तुम सबकी बात छोड़ दो, किसी का विकल्प न रखो और सारे विकल्प छोड़करविश्राम सेअपने में बैठ जावो, आराम करो, हर एक कोई अपनी अपनी गाता है। तो जो हमने पहले सुन रखा कहीं भी, हमें हृदय में नहीं रखना है, जो कभी कोई समझाये वह भीतर हमें हृदय में नहीं रखना है। हमें तो बस एक ही काम करना है कि बस सबको भूलें, सबका विकल्प छोड़े, किसी का भी ज्ञान ध्यान न बनायें, ऐसे सर्व विकल्प छोड़कर एक ठंडी श्वास लेकर आराम से अपने में ठहर जाना, विश्राम पाना, याने लादने का व्यापार रोककर किसी प्रकार की व्यग्रता न करें। शांत होकर बैठें और सोचें कि मुझे अगर कोई उत्तर मिले तो मिल जाय, मगर मुझे बाहर में कोई उत्तर न चाहिए, ऐसा कोई ठान ले और बाहरी विकल्पों से विराम कर ले और एक सहज आराम विश्राम में रह जाय, बस यह ही तो बनेगा उसका सहज बोध।
1128- ज्ञानस्वरूप निज ब्रह्म में ज्ञान को निस्तरंग समा देने का अनुरोध-
देखो ज्ञान तो ज्ञान ही है, अगर यह ज्ञान बाहरी पदार्थों का आश्रय तज दे तो ज्ञान ज्ञान का आश्रय तो नहीं तज सकता। ज्ञान किसी बाहरी पदार्थ को वास्तव में जानता नहीं। किंतु बाहरी पदार्थों के अनुरूप यह ज्ञान अपने में विकल्प बनाकर अपनी परिणति करता हे, इसी को कहते हैं पर पदार्थ को जानता है। तो पर पदार्थ का आश्रय न करें। यद्यपि पर का विकल्प करता हुआ न परिणमेगा ज्ञान, मगर परिणति तो न मिटेगी। तो उसका परिणमन बनेगा अपने ज्ञानरूप से, यह ही है एक सहज बोधकला, जिसे ज्ञानकला कहते। इस कला के द्वारा अपने आपका वह सहज स्वरूप पाना सुलभ है, इस कारण हे आत्मावों ! अपने ज्ञान की कला के बल से एक इस निज पद को प्राप्त करने के लिए सतत यत्न करें। एक धुन बन जाय पहले। अपने इन 24 घंटों में धर्म के काम तो बहुत किए जाते हैं सो सब करें, पूजा, स्वाध्याय, वंदना आदिक सभी चीजें करें। एक काम और ध्यान में लावें जो आपके लिए बड़े काम की बात है और आपका एक मार्ग निकलेगा, नि:संशय अपना बल आप पायेंगे, किसी भी समय, और उसके लिये उपयुक्त समय है सामायिक का। सामायिक के समय जहाँ और अनेक बातें की जा रही है, पाठ भी है भावना भी है, सब बात की जा रही है तो सब कुछ कर लीजिए। पहले सब कर लीजिए जो कुछ करना है- आलोचना, प्रतिक्रमण, जाप, नामस्मरण, पर एक काम और साधना बनाना है कि बड़ी दृढ़ता से, आसानी से अपने आपमें अपना जमाव बनावें, यथार्थ ऐसा अपने मन को बनावें अपने ज्ञानोपयोग को ऐसा समझावें कि कुछ क्षण के लिए तू किसी का भी ख्याल मत बना। और बनाता है ख्याल तो जिस जिस चीज का ख्याल आता है उससे ही बात कर लो जरा पहले कि तेरा ख्याल करने से मुझे मिलेगा क्या? कुछ भी ख्याल आये, दूकान का ख्याल, परिजनों का, घर का, अन्य लोगों का ख्याल...इनको चित्त में लाने से इस आत्मा को सिद्धि क्या होगी, उन्हीं से बात करो, उत्तर मिल जायगा। क्या मिलेगा कि यह व्यर्थ का भटकना है। तो यह सब उपयोग का व्यर्थ भटकना छोड़े। एक पौरुष बनावें कुछ समय के लिए इस तरह का कि मुझे किसी का भी ख्याल नहीं करना। सबका ख्याल छोड़कर एक परम आराम तो लीजिए।
1129- निजबोधकला के द्वारा परमविश्राम लेने की सम्मति-
जैसे कोर्इ मजदूर 8 घंटे काम करके खूब ईंट गारा, बोझा ढो ढो करके सीढ़ियों से चढ़ने उतरने से खूब थक जाता और बाद में जमीन पर ढीला ढाला पड़कर किसी का भी ख्याल न बनाता हुआ, बड़े विश्राम से ठहरकर विश्राम करता है। उस स्थिति में उसकी थकान मिट जाती है। तो अनादि से जो हम विकल्प करते आये उन विकल्पों की बड़ी थकान चली आ रही है जिस थकान से हम दु:खी हो जाते हैं, उस थकान को मेटने के लिए कोई उपाय करना परमविश्राम मायने कोई विकल्प न जगह, ऐसा एक अपने आपका भरसक प्रयत्न करे। कुछ ज्ञान में न आये यह बात तो बन नहीं सकती मगर जैसे हम जानना, पहिचानना, मानना, ठानना जो हम एक बुद्धिपूर्वक उमंग करके उचक उचककर कर रहे हैं ऐसे समस्त ज्ञानों का, विकल्पों का परिहार कर दें तो वहाँ सहज बोधकला प्रकट होगी, निज बोधकला बनेगी। निजबोधकला के बल से फिर हम अपने आपमें अंत: प्रकाशमान अनादि अनंत अंतस्तत्त्व का अनुभव करेंगे। यह ही अपना वास्तविक शरण है। इसको छोड़कर जगत में कोई भी तत्त्व, बाहर का कोई भी पदार्थ, उसका साक्षात् आश्रय लेना यह करतूत हमारे लिए शरण नहीं है।