वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 142
From जैनकोष
क्लिश्यंतां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम् । साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमंते न हि ॥142॥
1114- ज्ञानगुण के विकास बिना दुष्करतर क्रियावों से केवल क्लेश लाभ- प्रत्येक पुरुष साधु संन्यासीजन यदि वेबड़ी कठिन क्रियायों द्वाराखेद पाते हैं तो पायें, वे स्वयं कष्ट पा रहे हैं, इसके लिए हम क्या समझायें? नहीं मिला स्वाध्याय, अच्छे विरक्त पुरुषों का संग अधिक नहीं मिला, नहीं मिला तत्त्वज्ञान तो वे स्वयं ही अपने आप इस दुष्कर मायने कठिन, हर एक से न किया जाय, ऐसी क्रियावों को करके कष्ट पाते हैं तो क्या करें। देखिये वे दुष्करतर कर्म कौन है जिनकी बात यहाँ कही जा रही है? जैसे वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे आवास रहना, शीतकाल में नदी के तीर पर आवास रहना, गर्मी के समय में पर्वतों पर आवास बना हुआ है, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त, कठिन उपवास आदिक कोई कठिन क्रियायें चल रही हैं तो ऐसी क्रियायें ये मोक्ष के उन्मुख हैं याने विपरीत क्रियायें नहीं हैं, मोक्ष पाने वाले पुरुषों के ऐसी क्रियायें होती हैं, मगर जिन्होंने ज्ञानलाभ नहीं पाया, अपने आत्मा के सहज स्वरूप का परिचय नहीं पाया उनकी बात यहाँ चल रही है कि वे अगर ऐसी क्रियावों द्वारा कष्ट पाते हैं तो पायें, किंतु उन्हें ज्ञान गुण नहीं मिला, तो मोक्ष की सिद्धि नहीं होती। 1115- मोक्षमार्ग में संवेग चलने वालों की बाह्य मुद्रा-
देखिये, जो पुरुष मोक्षमार्ग में चले हैं उनके चरित्र पढ़े, पुराण पढ़े, समझें, युक्ति से भी जानें। जब तक आत्मा के ज्ञानस्वरूप में मग्न होने के लिए तीव्र धुनि नहीं होती तब तक उसमें सफलता नहीं मिलती और जिसके तेज धुन हो जाय वह क्या इन मौजों को पसंद करेगा? जैसे घर में रहना, खूब स्वच्छंद आहार विहार करना, एक अपने शरीर का पोषण, और और भी लौकिक बातें इन बातों को कोई पसंद करेगा क्या? उसे तो अपने आत्मा के स्वरूप की धुन लग गई है। तब उसकी मुद्रा क्या बन जायगी? शरीर तो रहेगा, शरीर तो कहीं गया नहीं और उन मौजों में इसका मन है नहीं, उसकी तो धुन लगी है अपने आत्मस्वरूप की ओरतोउसकी मुद्रा क्या बनेगी? उसकी मुद्रा बनेगी निर्ग्रंथ। शरीर तो छूट न पायगा, चीजें छूट जायेंगी इसीलिए बतलाया गात्र-मात्र परिग्रह। मुनि का स्वरूप क्या है? मानो शरीर मात्र ही परिग्रह रह गया, वह कहाँ छूटेगा? यही तो निर्ग्रंथ अवस्था है। अंतस्तत्त्व की धुन प्रबल हुई तब यह निर्ग्रंथ अवस्था मिल पायी। इसका लक्ष्य है कि अपने आत्मा के सहज स्वरूप में हमारी मग्नता बने, बाकी जो प्रसंग हैं उनमें दिल लगना वह तो बहुत बाधक है, इनसे तो छुट्टी पा लें। अब शरीर साथ है और वह शरीर आहार बिना ठहर सकेगा नहीं, यह बात सब लोग जानते हैं तो उसे योग्य आहार भी करना होता। देखिये वहाँ यह अपने आपके स्वरूप में इतनी धुन है, इतनी हठ है कि वह आहार नहीं करना चाहता, मगर विवेक मानों हाथ पकड़कर कहता है कि अरे ऐसा न करो, उठो, चर्या करो। धुन इतनी है कि वह कुछ चाहता ही नहीं है। न आहार चाहे, न और किसी बात की चाह है, केवल एक आत्मस्वरूप में लगने की धुन है। उसी में ही वह तृप्त रहता है। लेकिन घटना और प्रकार है। शरीर आहार बिना ठहरता नहीं, तो उसी से ही यह विवेक जबरदस्ती उठाता है, चलो निपट आवो आध पौन घंटा इस झंझट से भी। देखो आहार के काम को भी वह निर्ग्रंथ मुनि झंझट समझ रहा। जिसे आत्मा के सहज स्वरूप की धुन है उसे बाहरी कोई बात सहज नहीं होती मगर विवेक समझाता है कि चर्या करो, आहर करो।
1116- उपदेशादि में भी ज्ञानी के स्वलक्ष्य की धुन-
ज्ञानी जब आत्मस्वरूप में मग्न नहीं हो पाता तो उपदेश के बहाने ही अपने आत्मा की दृष्टि बनाने का भीतर बहुत काम करता। जैसे कोई लोभी पुरुष कहीं भी किसी जगह किसी भी बात में, किसी भी प्रसंग में फंसे, लेकिन वह अपनी मुद्दा की बात पहले रखता है, इसी प्रकार यह निर्ग्रंथ मुनि आहार विहार शिक्षा दीक्षा उपदेश आदिक के सब काम करते हुए भी, परिस्थिति ऐसा करा रही है तो भी अंतस्तत्त्व में उसकी धुन और उन सब बातों में ऐसी ही एक वृत्ति होती है कि उसका कुछ वेग अपने आपके स्वरूप की ओर होता है। तो ऐसा आत्मधुनी का पुरुष उस धुन में चल रहा है जंगल में है और कोर्इ भेष नहीं, शरीर में वस्त्रादिक नहीं भयंकर शीत पड़ रही है, उस परिषह को वह मुनि सह रहा है। गर्मी के दिनों में भीषण गर्मी सहता है। ये सब बातें उस मुनि की चल रही हैं। इतने पर भी कदाचित् कोई दोष लग जाय तो उसका प्रायश्चित्त लेता है। देखिये शरीर के दोष का दंड कम है और मानसिक दोष का दंड विशेष है। कही यह न समझना कि मानसिक दोष हुए बिना शारीरिक बड़े दोष हो जाते हैं। अरे दोषों की बात तो मन के बिगाड़ से बतायी गई है, दंड भी लेते- क्यों ऐसा दोष बना? मन की अस्थिरता होना पसंद नहीं। मन स्वच्छंदनचले, इसके प्रतिक्रमण के लिए कठिन-कठिन जो कर्म होते हैं वे सब मोक्ष के उन्मुख हुएपुरुषों की बातें हैं, लेकिन अज्ञानीजनों के तो ज्ञान गुण बिना वे सब केवल कष्ट ही कष्ट है।
1117- व्यवहारचारित्र की प्रयोजकता का लक्ष्य अंतस्तत्त्व- जैसे किसी को चावलों की आवश्यकता है तो वह धान खरीदकर लाया, जिस पर मटमैला छिलका है और उसने प्रयोग से चावल निकाल लिया, उस चावल को बेचकर उसने लाभ कमाया।अब कोई दूसरा आदमी जिसे चावल का ज्ञान नहीं, यदि वह वैसे ही मटमैले धान के छिलके किसी मिल से धान के भाव में खरीदे, जिनके अंदर चावल तो रहे नहीं, तो बताओ उनको खरीदकर वह क्या लाभ कमा सकेगा? उसे चावल का ज्ञान नहीं, प्रयोजन का ज्ञान नहीं तो वह क्रियायें चाहे जो कर डाले, वे कार्यकारी न होंगे। देखो जो काम सेठ ने किया वही काम इस दूसरे पुरुष ने भी किया, पर सेठ ने तो लाभ पाया और वह पुरुष हानि में रहा। क्यों हानि में रहा कि उसने उस धान के खरीदने का प्रयोजन ही न जाना था। धान खरीदने का प्रयोजन था चावल निकालना। इस प्रयोजन का पता न होने से उस दूसरे पुरुष ने हानि सही। तो ऐसे ही समझो ज्ञानीजन अपने मोक्षमार्ग में चलते हैं, तो उनको करने के लिए बीच बीच में अनेक क्रियायें आया करती हैं। ठंड के दिनों में ठंडी का परीषह सहते, गर्मी के दिनों में गर्मी का परीषह सहते, अब उन बाह्य क्रियावों को देखा अज्ञानी जनों ने, उनके अंदर में क्या धुन है इस बात कोअज्ञानियों ने परखा नहीं, सो अपना निर्णय उन अज्ञानी जनों ने यह बना कि ऐसा तपश्चरण करना ऐसे क्रियाकांडों को करना यही मोक्ष का मार्ग है, अब ऐसे ही क्रियाकांड कोई करता फिरे, बाह्य तपश्चरण खूब करे, पर उससे मोक्ष प्राप्त करने का लाभ तो न मिल पायगा। 1118- मोक्षोन्मुख व्रत तप मुद्रा होने पर भी ज्ञानतत्त्व के आश्रय बिना मोक्षमार्ग की अप्राप्ति- जैसे यहाँ कोई बालक किसी बात में हठ बनाकर कष्ट पा रहा है तो उसे कहते हैं कि यह तो अपने आप कष्ट पा रहा।इसी तरह यहाँ भी कह रहे कि यह अज्ञानी बालक, जिसने अपने आत्मा का ज्ञान नहीं प्राप्त किया उसे अज्ञानी कहा, जहाँ जो अज्ञानी है वह उस विषय में बालक है, वह यों निरखकर कि ऐसी क्रियावों से मुक्ति मिलती है, कर रहे हैं क्रियायें बड़ी कठिन कठिन, तो ऐसे क्रियाकांड करके भी वे शांति तो नहीं पाते, कष्ट ही पा रहे, क्योंकि जहाँ रमना चाहिए, जहाँ अपने मन को लगाना चाहिए, जो स्वपद है, उस स्वरूप का ज्ञान नहीं है तो ऐसी कठिन क्रियावों को करके कष्ट पाये तो पाये कुछ और लोग भी, कुछ संन्यासीजन ज्ञानगुण से रहित होकर महाव्रत और बड़े तपश्चरण का बड़ा भार सादे मायने अधिक तपश्चरण वगैरह सब कुछ करें, किंतु यदि ज्ञानान्मुख नहीं हैं, ज्ञानदृष्टि से विपरीत चल रहे हैं और इन्हीं क्रियाकांडों पर दृष्टि है, इन्हीं क्रियाकांडों को करके समझते कि मैं खूब बड़ा हो गया, और लोग ऐसा कुछ नहीं कर सकते, मैं ही यह करने में समर्थ हूँ आदिक बातें लादकर भीतर में अहंकार बसे और न भी अहंकार बसे, कुछ थोड़ी बहुत धर्म भी हो, जिसे लौकिक रूप में कहेंगे उस धर्म का ख्याल ही बनाकर और बड़ी एक मंद कषाय करके इस तपश्चरण में लगे तो भी अगर ज्ञानगुण प्राप्त न हो तो केवल वहाँ भी कष्ट ही कष्ट है, ऐसे वे कष्ट पायें तो पायें, उन्हें मोक्षमार्ग नहीं मिल पा रहा, क्योंकि ये बाहरी क्रियाकांड मोक्षपद नहीं हैं, मोक्ष का पद मोक्ष का स्थान तो एक ज्ञायक स्वरूप, ज्ञानविकास, ज्ञान का स्वच्छ परिणमन यह है मोक्षमार्ग तो क्या जो कुछ कहा गया है चरणानुयोग में, अगर इसका कुछ मतलब ही नहीं है तो फिर यह चरणानुयोग में बतायाक्यों गया? ये तप हैं, ये परीषह हैं, यह अहिंसा है? अरे तो बताये गये कि जो मोक्षमार्ग में चल रहे हैं ऐसे ज्ञानी पुरुष आखिर जिंदगी तो है, शरीर तो रह रहा, कहीं तो रहेगा, उस पर क्या बीतती है? उसकी क्या वृत्ति बनती है? वही वृत्ति चरणानुयोग में बतायी गई है। सो ऐसी बातों को देखकर कोई अज्ञानी अगर कष्ट पाये तो पाये मगर साक्षात् मोक्ष पद तो यह ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व है। और यही निरापद पद है। 1119- ज्ञानपद की स्वसंवेद्यता-
ज्ञान ज्ञान में रमे, ज्ञानस्वरूप ज्ञान में बसे...निर्विघ्न, निस्तरंग कष्टरहित बने तो ऐसा उपयोग अथवा वह एक जिसमें प्रगति कर रहे हैं वह ज्ञानगुण, वह ज्ञानविकास ही निरामय पद है। आमय मायने रोग, भीतरी रोग, बाहरी रोग, शारीरिक रोग, आध्यात्मिक रोग और जन्म जरा मरण आदिक सब विपत्तियों से दूर है वह ज्ञानपद जो स्वयं अपने आपके संवेदन से ही ज्ञानानुभूति रूप में संवेद्य होता है, ज्ञान को कैसे जाना जाय, तो वह शब्द का विषय नहीं है, वह क्रिया का विषय नहीं है, यह तो एक ज्ञानवृत्ति का विषय है। ज्ञान में ज्ञान लगे, ज्ञान में जैसे ये बाहरी पदार्थ जानने में आ रहे हैं, ये जानने में न आयें और ज्ञान का ही क्या स्वयं स्वरूप है, जो जाननहार है वह क्या स्वरूप रख रहा है जान रहा है वही ज्ञान वह स्वयं अपने ज्ञान को जान जाय यह है ज्ञानस्वरूप। यह ही कहलाता है ज्ञान ज्ञाता ज्ञेय में भेद न रहना। ज्ञान ही जाननहार है, ज्ञान ही जाना जा रहा है और वही ज्ञानसाधन है, जिस वृत्ति के द्वारा वह जानने में आ रहा है ऐसा जो ज्ञानगुण है, ज्ञान का माहात्म्य है, यह जब तक प्राप्त नहीं है तब तक किसी भी प्रकार यह जीव मोक्ष मार्ग में प्रायोगिक कदम नहीं रख पाता और यह ज्ञानप्रकाश ज्ञान के प्रयोग बिना किसी भी प्रकार पाया नहीं जाया जा सकता।
1120- अंतरात्मा को निज की अनादिमुक्तता का दर्शन-
देखिये मुक्ति तो आत्मा को दिलाना है कि और किसी को? जिसको मुक्ति दिलाना है वह स्वयं क्या है याने किसे दिलाना है यह बात अभी आत्मा में नजर तो आये? मुक्ति तो मिलेगी बहुत काल बाद, फिर इतना तो ध्यान रखना है कि यह दिलाना इसे है। जैसे किसी के विवाह की तिथि रख दी- भाई अगहन में विवाह है, पर उसे अभी से मालूम है कि यह होना है, आरोपित तो हो रहा है, इस कन्या का या इस बालक का विवाह होना है यह बात आयगी जैसा कि अभी कल्पना में आ रहा है। यदि उसका कुछ रूपक ही पहले ज्ञान में न बने तो वह भावी प्रोग्राम की बात कैसे करूँ। उसकी सूझ इस वक्त आरोपित में न हो, समझ में न हो तो क्या वह काम बन सकेगा?न बन सकेगा। ऐसे ही समझो कि इस आत्मा को मुक्त करना है, यह बात यहाँ अभी ज्ञानबलसे अंत: समझ में तो आये। वह समझ भी तो यही है कि आत्मा केवल बनता है, इसी के मायने है मोक्ष। जो यह आत्मतत्त्व है, पदार्थ है, ज्ञानस्वरूप है, जो ज्ञान है यह केवल रह जाय, इसके साथ दंद फंद उपाधि संपर्क विभाव कुछ भी बात न रहे और यह आत्मा केवल रह जाय, इसी को कहते हैं मोक्ष। क्या ऐसा हो सकेगा? हाँ हो सकेगा। क्योंकि सत्त्व में यह केवल ही है। यह दूसरों को लिए हुए नहीं है, किसी दूसरे की सत्ता से इसकी सत्ता नहीं है, यह स्वयं सत् है, सहज है, ज्ञानस्वरूप है, अपने आप अपने में सहज एकत्वगत है।
1121- आवरणविगम होने पर वस्तु के सहज यथार्थ स्वरूप का विकास-
जैसा आत्मा का सहजस्वरूप है वैसा ही प्रकट हो, यह बात बन सकती है। जैसे धोती में मैल बहुत लग गया और धोना है उसे, तो धोने वाले की समझ में है ना कि यह धोती साफ हो सकती है अर्थात् यह मैल जो चिपट गया, इसके बिना धोती का जो स्वरूप है वह स्वरूप निकल सकता है, यह मैल दूर किया जा सकता है और धोती का अपने आपका रूप निकल सकता है यह उसकीसमझ में है ना, तब ही वह जल्दी सफाई कर लेता है तो ऐसे ही सम्यग्दृष्टि ज्ञानी की समझ में यह बात बनी हुई है कि यह सहज एकत्व निश्चयगत यह अंतस्तत्त्व यह है, इस पर आवरण आया है- साक्षात् तो विभावों का निमित्तदृष्टि से कर्मों का, प्रसंग से शरीर का, ये सब लदे हैं हम पर, मगर यह तो भीतर अपने आपके उस ही स्वरूप को रख रहा है, भला बतलावो निगोद अवस्था में रहा तो कुछ ऐसा ही लगता कि जान ही नहीं थी। अक्षर के अंतवें भाग तो ज्ञान, वह कोई ज्ञान में ज्ञान है और ऐसी ऐसी उसकी बेहोशी कि कुछ पता ही नहीं। यहाँ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु को देख लो, वन में जीवत्व सिद्ध करने को बड़ी युक्ति लगाना पड़ती। सहसा तो लोग जानते कि इनमें जान ही नहीं है, ऐसी-ऐसी स्थितियों में जीव रहा और यही जीव मनुष्य बना, मुक्त हुआ, भगवान हुआ तो क्या उसका वह चैतन्यस्वरूप ऐसी स्थिति में बदल गया था? वह तो अंत: वही का वही है। कितना आवरण था, कितनी ही विपत्तियों का एक आक्रमण था। न उठ सके न बोलते बने, किंतु स्वरूप तो स्वरूप ही रहता है, वह कहीं मिटा नहीं। ऐसे ही अपने आपमें उस ज्ञानमात्र सहज स्वरूप को निरखा और उससे निर्णय किया कि यह ही स्वरूप जब केवल एक बन जाय इन उपाधि भाव प्रसंगों से यह अलग हो जाय, बस यह ही तो चाहता है, क्योंकि ऐसा हुए बिना सब कष्ट ही कष्ट है।
1122- आत्मा की भलाई की साधना-
कहते हैं ना कि आत्मा की भलाई किसमें है? तो कहा कि जहाँ सुख मिले, आनंद मिले उसमें है। वह आनंद कहाँ है? वह आनंद है निराकुलता में। और निराकुलता हो, ऐसी बात कहाँ मिलेगी? तो ऐसी बात मोक्ष में मिलेगी। अच्छा ऐसी बात है तो मोक्ष के लिए ही अपने को प्रयत्न करना चाहिए। देखिये मोक्ष लोक के ऊपर है उस जगह पहुंचना हैं, ऐसी दृष्टि से प्रयत्न न बनेगा, किंतु स्वरूप मुक्त स्वभाव है, परभावमुक्त है अपने आपमें स्वयं एकाकी है, इसी को कहते हैं सदामुक्त,यों एकत्वनिश्चयगत आत्मस्वरूप की दृष्टि से ही सब समझना है। नहीं तो इतनी गड़बड़ होगी कि इसे कोई मार्ग ही न मिल पावेगा। स्वरूप सब अपने आप समस्त पर से मुक्त है ऐसा अपना एकत्व, स्वरूपत: यह विविक्त दशा यहाँ निरखना है, यहाँ का आश्रय लेना है। इस स्वाश्रय से मुक्तिपद प्राप्त होगा किंतु बाहर दृष्टि डालने से नहीं, वे परतत्त्व हैं। जानता तो यह जरूर है कि वहाँ है मोक्ष का स्थान और नमस्कार भी करता, वंदन भी करता, मगर अज्ञान नहीं रखता कि वहाँ पहुंच जायेंगे तो मुक्ति मिलेगी। वहाँ तो निगोद जीव भी रह रहे। जान तो सब रहेहैं कि इतना स्थान है सिद्ध का और जब सिद्धभक्ति करते हैं तो वहाँ दृष्टि भी रखते हैं, और वहाँ ध्यान भी बनाते हैं।पर प्रतीति सही रखते हैं, इसी बात का संकेत दिया है पूर्वप्रयोगात् इत्यादि सूत्र में। पहले उस सिद्धालय की बहुत-बहुत भावना की, वहाँ परिचय बनाया, ज्ञान बनाया यों मुक्त होते ही ऊपर जाता है। वस्तुत: तो ऊर्ध्वगमन स्वभाव है जीव का, मगर कुछ औपचारिक बातें भी कही जातीं। तो अपने आपमें अंत: प्रकाशमान जो सहज ज्ञानस्वरूप है उसकी उपासना किए बिना किसी भी क्रियाकांड से मुक्ति प्राप्त नहीं होती। और वह ज्ञानगुण मिल जाय तो ये बातें आती हैं, और इनमें से गुजरता हुआ ही तो यह जीव आगे बढ़ता है।