वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 16
From जैनकोष
दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रित्वादेकत्वत: स्वयम् ।
मेचकोऽमेचकश्चापि सममात्मा प्रमाणत: ॥16॥
182―आत्मत्व के निर्णय पर ही भविष्यनिधि की निर्भरता―यह आत्मा, हम आप सब आत्मा किसका ध्यान करें? किसकी उपासना करें कि कल्याण हो जाये? पहले तो यह ही बात परखिये कि जिस वृत्ति में, जिस परिणति में तत्काल अशांति है, क्षोभ है, आकुलता है वह वृत्ति तो कल्याण का कारण हो ही नहीं सकती । ऐसी वृत्ति होना, पर पदार्थों की ओर चित्त लग जाना, रमना, रागद्वेष मोह लगाना, पर की ओर लगाव रखते हुए जो हमारी वासना धारणा वर्तना चलती है वह तो जीव के कल्याण के लिए नहीं है तो इतना तो निश्चित है कि आत्महित के लिये बाह्य पदार्थों का आश्रय नहीं करना है, करना है अपने आपका आश्रय । तो अपने आपका बोध हो, तब तो आश्रय कर सकेगा यह उपयोग । इसलिए आत्मविषयक तत्त्व का बोध करना आवश्यक है । मैं आत्मा हूँ । हूँ इतना तो सब कहते हैं । जो नहीं बोल सकते वे भी अनुभव करते हैं कि मैं हूँ, मैं क्या हूँ बस इसके निर्णय पर ही सब दारोमदार है । जिस जीव ने यह निर्णय किया कि मैं मनुष्य हूँ, व्यापारी हूँ, पंडित हूँ, धनी हूँ, गरीब हूँ, नेता हूँ, ज्ञानी हूँ, किसी भी प्रकार जो वर्तमान परिणतियाँ चल रही हैं उन रूपों में अगर निर्णय रखें तो वह निर्णय कल्याण में शामिल नहीं है और जहाँ यह समझा कि मैं तो वह हूँ जो अपने-आप हूँ, सहज हूँ, पर संबंध बिना हूँ, केवल हूँ, मैं तो वह हूँ और होती ही चीज इसी तरह है, जो भी चीज होती है वह केवल होती है, मिलीजुली नहीं होती । कोई भी है स्वतंत्र है, अपने में है, अपने स्वरूप से है, पर का कुछ लिए हुए बिना है ।
183―पदार्थ के साधारणगुणों से ही प्रथमभेदविज्ञान का प्रकाश―अच्छा, पहले तो यह ही जानो कि पदार्थ कहते किसे हैं । पदार्थ वह है जिसमें 6 साधारण गुण पाये जायें । यह पदार्थ की एक मूल व्यवस्था है । मायने कोई चीज है तो वह 6 साधारण गुणमय है । साधारण गुण उन्हें कहते हैं जो सब द्रव्यों में पाये जावें, जिनके नाम हैं अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, प्रमेयत्व । अगर कुछ है तो वह नियम से इन 6 गुणों वाला है । किसी की बात स्पष्ट समझ में आये तो, न आये तो, जैसे अब आकाश के परिणमन की बात कुछ समझ में नहीं आती कि आकाश क्या परिणम रहा है । धर्म अधर्म द्रव्य का परिणमन समझ में नहीं आता । थोड़ा बहुत अंदाज भी मुश्किल है । तो नहीं आया समझ में न आओ, मगर यह नियम है कि जो है वह नियम से 6 साधारण गुण वाला है । अब 6 साधारण गुणों का मतलब समझो, अस्तित्व―जिस गुण के प्रताप से द्रव्य की सत्ता रहे । इतना तो जानेंगे कि यह है अणु-अणु, आत्मा जीव, सब कुछ जिस पर भी निगाह दौड़ाया, वह है ना? है तो, पर “है पना” ही कोई गुण हो, मात्र एक सत्व ही हो याने अगर “है पना” ही रहे और वस्तुत्व आदिक की जरूरत न मानी जाये तो वह “है” रह नहीं सकता क्योंकि वह कोई स्वरूप हो जायेगा । वस्तुत्व यह गुण बताता है कि जो है सो ही है, वह दूसरा नहीं है और तभी उसमें अर्थक्रिया हो सकती है जो है वह अपने स्वरूप से है, दूसरे के स्वरूप से नहीं है । अब देखो बहुत दूर आगे की बात जाने दो पहले यहीं यही देख लो कि इन साधारण गुणों ने ही यह भेद बता दिया कि एक द्रव्य, दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं है । प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव से है दूसरे के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नहीं है । स्पष्ट भेद-विज्ञान के लिए यह वस्तुत्व गुण के स्वरूप का परिचय ही समर्थ है, एक का दूसरा कुछ नहीं है । नाम तो साधारण गुण है जो-जो सबमें पाया जाये, पर इसका अर्थ है कि सभी इसी तरह के हैं, प्रत्येक पदार्थ इसी तरह के हैं, सो देखो अभी ही एकदम वस्तुत्व गुण ने पदार्थों का परस्पर भेद बता दिया । वे अपने आप से तो हैं, दूसरे के रूप से नहीं हैं । और सब जानते हैं । अच्छा यहीं देख लो यह मनुष्य है, यही एक दृष्टांत लो । यही तो कहेंगे कि यह मनुष्य-मनुष्य ही है और कुछ नहीं है । तो अच्छा इसके खिलाफ अगर मानें, वस्तुत्व न मानें तो बताओ यह मनुष्य है । और क्या है? सब कुछ है । क्या है? सारे विश्वरूप है । क्या है? शेर बाघ, साँप, चीता आदिक जितने भी बोलते जाओ―सब है यह । अगर सब बन जाये यह मनुष्य, तब तो बड़ी खलबली मच जायेगी, सारा जगत शून्य हो जायेगा । अगर वस्तुत्व गुण न हो पदार्थ में तो, किसी की सत्ता स्वतंत्र नहीं रह सकती । ये सब पदार्थ अब तक हैं, यही इसका प्रमाण है कि ये परस्पर विविक्त हैं, स्वतंत्र हैं, ये अपने आपका अस्तित्व रखते हैं, दूसरे का कुछ ग्रहण नहीं करते । यह वस्तु का एक आंतरिक नियम है । फिर कोई पूछे कि विभाव कैसे होते, विकार कैसे होते तो जीव पुद्गल में जो विकार परिणमन होता, सो वह भी उस ही पदार्थ की परिणति से होता है मगर उसका ऐसा निमित्तनैमित्तिक योग है कि अनुकूल बाह्य निमित्त का सन्निधान पाकर हुआ, अन्यथा वह विकार पदार्थ का स्वरूप बन जायेगा, स्वभाव बन जायेगा । फिर कभी मिट नहीं सकता । सो भले ही निमित्तनैमित्तिक योग है और इस संबंध के बिना विकार बन ही नहीं सकता, तो भी परिणमन तो देखो सब द्रव्य अपने आपके ही स्वरूप से चल रहे हैं । दूसरे का परिणमन नहीं आया जीव में, पुद्गल में । किसी का किसी अन्य में प्रवेश नहीं, स्वरूप में प्रवेश नहीं । देखो, इस वस्तुत्व गुण ने यह बताया कि जगत के प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से हैं, दूसरे के स्वरूप से नहीं हैं । देखिये ये सभी बातें, शेष 5 गुण सत्ता की ही प्रतिष्ठा करते हैं । वह है, बस इसका ही समर्थन करते हैं शेष गुण, उन गुणों बिना वस्तु का सत्व नहीं रह सकता ।
184―पदार्थ में द्रव्यत्व गुण का प्रकाश―अच्छा सब चीजें हैं, हैं और यह मान लो कि सब अपने स्वरूप से हैं, दूसरे के रूप से नहीं हैं, बस ठीक है, इतना ही तत्त्व है, इतना ही मानो बस काम हो जायेगा क्या? अरे सत् तब तक कायम नहीं रहता जब तक वस्तु को वह निरंतर परिणमन करता रहता है ऐसा न माने । परिणमनशीलता ही वस्तु का स्वरूप है । अन्य दार्शनिकों ने “हैं” तो मान लिया, पर परिणमनशीलता नहीं मानी तब फिर उनका “है” एक हौवा सा बनता है, अनुभव में नहीं आता कि कोई चीज है । केवल एक बात की बात है, और ऐसा ही हठ हो जाये कभी किसी के किसी समय शान में कि बस बात ही बात रहती है, चीज कुछ नहीं रहती, तो वह झूठी ही शान है । एक ऐसा ही चुटकुला है या घटना है―राजा भोज के समय में बड़े-बड़े इनाम दिये जाते थे कवियों को और कवि अपनी नए-नए ढंग की रचनायें लाते थे । तो एक दिन एक कवि के मन में ऐसी बात सूझी, क्या बात सूझी सो बतावेंगे । राजा ने कवियों से कहा कि आज तो हमें ऐसी रचना बताओ जो बड़ी अनोखी हो, ऊँची हो, अपूर्व हो, कभी सुनने में न आयी हो । सो एक कवि ने एक कोरा कागज लिया और यों ही राजा को देकर कहा-लो महाराज हम लायें हैं आज अनोखी रचना, पर एक खासियत है इस रचना में कि यह रचना उसी को दिखेगी जो असल बाप का होगा, दोगला न होगा । राजा बड़ा हैरान हुआ कोरा कागज देखकर, पर वह सोचने लगा कि देखो यहाँ कई हजार व्यक्ति बैठे हैं, सबके बीच यदि मैं कह दूँ कि इसमें कुछ नहीं लिखा तो सभी लोग कह उठेंगे कि राजा तो असल बाप के नहीं हैं, दोगले हैं, इसलिए शान में आकर बोला-वाह वाह, बड़ी सुंदर रचना है, साथ ही अनोखी भी है । अगल बगल के सभी पंडित लोगों को दिखाया तो शान में आकर सबने वही कहा वाह कितनी सुंदर और अनोखी रचना है । तो देखो सभी लोग समझ रहे थे, जान रहे थे कि इसमें कुछ नहीं लिखा है, कोरा कागज है, पर सबको आनी अपनी शान रखने की पड़ी थी, इसलिए सबने वही बात कही । तो ऐसे ही जब कोई कह उठता है विरुद्ध बात, तो उस दार्शनिक को पड़ जाती है अपनी शान रखने की । इसलिए वह उन्हीं शब्दों को रटता है । और खुद अनुभव करता है कि इसमें कुछ जान नहीं है, इसमें कोई तत्त्व नहीं है । इस जीव पर संकट है तो एक पर्यायबुद्धि का है । पर्याय में मैं हूँ, ऐसा जब एक मन में पक्ष रहता है तो वह अटपट किसी तरह का ख्याल बनाता और जुदे-जुदे मन होते चले जाते हैं । भला बतलाओ मान लो ब्रह्म है, मगर उसका परिणमन वे नहीं मानते, अपरिणामी मानते, उसमें अवस्थायें नहीं होतीं ऐसा मानते हैं । न वह परिणामी, न गुणवान, न उसमें अवस्थायें होती । अब इस तरह से खूब रटा सीखा, दूसरों को खूब सिखाते जा रहे । शिष्य भी खूब बनते जा रहे, परिपाटी चलती जा रही । सबके सब बोल तो रहे बड़े ऊँचे शब्द, सर्वं वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन,......, पर अनुभव में कुछ नहीं आ रहा कि हम क्या बोल रहे? तो द्रव्यत्व गुण स्वीकार किए बिना, पदार्थ में परिणमनशीलता स्वी―कार किए बिना वहाँ सत्ता भी कायम नहीं हो सकती । तो तीसरा गुण है द्रव्यत्व ।
185―अगुरुलघुत्व गुण के परिचय से भेदविज्ञान का प्रकाश और प्रदेशत्व व प्रमेयत्व गुण के परिचय से सब गुणों के स्पष्ट बोध का अवसर―अब चौथा गुण हैं―अगुरुलघुत्व । मायने तीन तक तो मान लिया कि है, वस्तु है, परिणमनशील है, परिणमन चलता रहेगा । अब अगर सब रूप वह परिणम जाये तो सत्ता रह सकेगी क्या? कहीं और रूप परिणम गया, अन्यरूप परिणम गया, तो क्या सत्ता कायम रह सकेंगी? न रह सकेगी । तो अगुरुलघुत्व गुण यह कहता है कि प्रत्येक पदार्थ अपने ही स्वरूप से परिणमेगा, दूसरे के स्वरूप से नहीं । सूर्य का उदय है, प्रकाश है, निमित्तनैमित्तिकभाव तो अवश्य है, सूर्य का सन्निधान पाकर यह पृथ्वी प्रकाशरूप परिणम गई, मगर परिणमन सूर्य का सूर्य में है? फर्श का फर्श में है । यह बात बतलाता है अगुरुलघुत्व कि प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से परिणमता, पर के स्वरूप से नहीं परिणमता । देखो साधारण गुणों का चमत्कार कि एक पदार्थ का दूसरा पदार्थ कुछ नहीं लगता । अब यहाँ तक बात चली । चली बात सी लगी, पर हम आप सबकी यों समझ में आ रहा है कि ऐसा तो पहले से समझे बैठे हैं अथवा किसी को लगता होगा कि कोई नया ही सुना, और इतना ही सुना, और बातें इतनी ही है । तो अभी तो उसकी समझ में कुछ नहीं आया, क्योंकि जब इसके वस्तु की मुद्रा में मायने रूपक ध्यान में न हो तो वहाँ यह बात घटायेंगे । यह ही बात बताता है प्रदेशत्व गुण । प्रत्येकद्रव्य प्रदेशवान है, अपना आकार लिए है उसका घेर है, विस्तार है, कुछ है और समझ में आया इस जगह कि शरीर के अंदर जितना यह ज्ञानप्रकाश है उतना यह जीव है । अब उसमें -साधारण असाधारण बातें देखते जाओ, इसमें यह गुण है, असाधारण गुण भी ज्ञान दर्शन चारित्र है, प्रदेशवान है पदार्थ । यह बात जहाँ मालूम हो वहाँ ही तो सारी बात घटित की जा सकती । इतनी बातें जहाँ हैं वे सत् हैं और सत् ही प्रमेय होता है । असत् प्रमेय नहीं होता । यों प्रमेयत्व गुण है । ऐसे ये 6 साधारण गुण ये भेदविज्ञान की दिशा बतलाते हैं कि मैं आत्मा अन्य सबसे निराला हूँ ।
186―असाधारण गुण द्वारा आत्मपरिचय―मैं हूँ ऐसा सामान्य अस्तित्व सिद्ध होने पर मैं स्वयं में क्या हूँ, अब यह जानने के लिए असाधारण गुण की समझ बनती । साधारण गुणों ने कितना निर्णय कर दिया कि मैं हूँ और सबसे निराला हूँ, और हूँ क्या मैं अपने आपमें ? उसका बोध करने के लिए इसके स्वरूप का दर्शन करें । मैं हूँ, चैतन्यस्वरूप हूं । चैतन्यस्वरूप, ज्योति, चेतना जहाँ चल रही, वह मैं आत्मतत्त्व हूँ । अभी कुछ नहीं समझे, ऐसी जिसके जिज्ञासा हुई तो उसे विस्तार से समझाने के लिए गुण बताये जाते हैं । इसमें ज्ञान गुण है, दर्शन गुण है, चारित्रगुण है, आनंदगुण है । जैसे अग्नि एक स्वरूप, पर अग्नि में यह जब समझा जाता है कि यह जलने वाली है, प्रकाश करने वाली है, पकाने वाली है, इस तरह हम अग्नि में कुछ समझ बनाते हैं तो हमें अग्नि का अच्छी तरह ज्ञान बनता ना । इसी तरह निरखिये आत्मा है तो एक स्वतंत्र परमार्थ चिन्मात्र, अखंड, मगर समझ बढ़ाने लिए, तीर्थप्रवृत्ति के लिए गुणभेद करके समझाया गया कि जिसमें जानने की शक्ति है वह जीव, जिसमें अवलोकने की शक्ति है सो जीव, जिसमें रमने की आदत है सो जीव, जिसमें आनंद पाने की बात है सो जीव, जिसमें कोई न कोई चीज का विश्वास रहे, आधार रहे, आलंबन ले, श्रद्धान करे सो जीव । सो गुण तो इसमें अनेक आये, मगर उन सब गुणों में मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत जिन गुणों का हमें ज्ञान करना आवश्यक है वे तीन बताये गए―श्रद्धान ज्ञान चारित्र याने दर्शन, ज्ञान, चारित्र । दर्शन शब्द का दो जगह प्रयोग होता है―एक तो ज्ञान दर्शन वाला दर्शन और एक सम्यक्त्व मार्गणा, जिसकी परिणति में बनी, एक यह दर्शन, उसे भी दर्शन कहते हैं । जिसको जल्दी समझने के लिए और सुगम समझ लें तो श्रद्धा गुण कह लीजिये । श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र ये तीन गुण है, अथवा श्रद्धान की जगह सम्यक्त्व कहो, सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र, ये तीन गुण हैं । सम्यक्त्व शब्द का भी प्रयोग दो जगह होता है―एक तो सम्यक्त्व गुण के लिए और एक सम्यक्त्व पर्याय के लिए । तो और विशेष सुगमता से कहना हो तो कहो श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र । तो यह जीव अनंतगुणात्मक है, एकस्वरूप है, सहज है । अपने आपके संबंध में यह प्रतीति रहे कि मैं हूँ, ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञानघन हूँ । अन्य कुछ नहीं हूँ, ऐसी प्रतीति हो, रुचि हो, अनुभूति हो बस वहाँ सम्यग्दर्शन है ।
187―तत्त्वज्ञ पुरुष के क्षोभ के अभाव की संभवता―मैं निज सहज चैतन्यमात्र हूँ, अन्य रूप नहीं हूँ । जो ऐसा जान जायेगा वह दूसरे की परिणति को देखकर खेद न मानेगा । अनेक जीव हैं, कोई कुछ ख्याल रखता, कोई उल्टा चलता, कोई सीधा चलता । चलो बाह्य पदार्थ हैं । जिसकी जैसी योग्यता है, जिसकी जैसी बात है उसका वैसा चल रहा । उससे मुझमें क्या आता? मानो कोई ऐसा समझ रहा कि मैं सबसे अधिक समझदार हूँ, बाकि सब लोग मूर्ख हैं, और इस तरह की समझ को कोई दूसरा जानता है तो वह बुरा मानता अरे बुरा क्या मानता ? उसका परिणमन उसमें है, मेरा परिणमन मुझमें । जिस तरह अपने आपमें शांति मिले, कल्याण मिले उस मार्ग में चलें । मानो कोई पुरुष अधिक धनी बन गया, बहुत चलावान बन गया तो उसको तुम क्यों बुरा मानते हो ? अरे उसका उदय है उस प्रकार का । उसका इस तरह का प्रसंग बन रहा और फिर वह तो धूल है । अपने आपको अपने आपके स्वरूप का बोध, स्वरूप की श्रद्धा और स्वरूप में रमण, इस पद्धति से ले चलें तो आत्मप्राप्ति है, अपने को अपनी उपलब्धि होगी, जन्म मरण मिटेगा । तो अपने आपका निर्णय बनावें कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञानघन हूँ । एक ज्ञान का स्वरूप विचारें । ज्ञान है ना, जानता है ना, तो जानना किसे कहते हैं? जानने की बात क्या है? हम शब्दों में नहीं बता सकते मगर हम पर बात गुजर क्या रही, हमारी समझ में सब आ रहा । अनुभव की बात को शब्दों द्वारा कहना कठिन होता, पर अनुभव समझता है कि जानन इसका नाम है । ज्ञान का स्वरूप क्या है? जानन, एक प्रकाश, प्रतिभास, बोध, चैतन्यमात्र । भीतर देखो―समझ में क्यों नहीं आ रहा यों नहीं समझ में आ रहा कि संकल्प विकल्प दौड़ रहे, किसी का कल्पित घर में ध्यान है, किसी का किसी पर ध्यान है, महाराज क्या कहते हैं जरा गलती पकड़ें, किसी का इस तरह का ध्यान है, किसी का रोजगार का ध्यान है, यदि सत्य श्रोता बनकर धर्म का श्रवण किया हो तो वह बात कैसे समझ में नहीं आवेगी । श्रोता कौन है? जो इस भाव से बैठा हो कि मेरा हित क्या है? मुझे हित चाहिए, मुझे हित में उतरना है । यों सारा जीवन गया बचपन से अब तक क्या-क्या नाटक नहीं किया, मगर उससे कोई पार नहीं पड़ा । पार तो जिस विधि से पड़ता उसी से पड़ेगा । सो ही हमारे आचार्य संतों ने भली प्रकार समझ-समझ कर बताया है, हम लोगों पर दया की, उनका हम कितना आभार मानें । हित क्या है? मेरा कल्याण क्या है, यह भावना हो, यह है श्रोता का मूलगुण । और करे क्या? जो बात सुना उसी बात को अपने आपमें घटाने का परिणाम बने, मैं ज्ञानमात्र हूँ । श्रोताओं को तो वक्ता की अपेक्षा अधिक सुविधा होती है कि वे अपने आप पर बात घटाते जायें । देखो सुनने की अपेक्षा बोलने में कुछ विकल्प अधिक संभव हैं । पर सुनने वाले को विकल्प कम संभव हैं । बात सुन रहे और उसे अपने चित्त में उतारते जा रहे, भीतर चल रहे, मैं ज्ञानमात्र हूँ इसका अधिकाधिक ऐसा अभ्यास बने कि शरीर का भी भान न रहे ।
188―कषायों की बलि देकर सहज परमात्मतत्त्व के प्रसाद का लाभ―देखिये पर को कितना छोड़ना है और कितना आत्मतत्त्व की बात पकड़ना है? अज्ञान वासना तजें, रागद्वेष पक्ष की बात को छोड़ें और यह भी कबूल करें कि मैं तो एक चेतन पदार्थ हूं मैं अन्य कुछ नहीं हूँ अन्य सब बंधनों को तोड़ दीजिए और उनके तोड़ने के लिए जो प्रयोग करना हो सो प्रयोग भी करें और यह अनुभव करें कि मैं तो मात्र चैतन्य पदार्थ हूँ जानन मात्र । इन सब विकल्पों का विध्वंस हो जाना चाहिए कि मैं पुरुष हूँ, स्त्री हूँ, अमुक हूँ, तमुक हूँ । यह भी ध्यान में न आना चाहिए कि, मैं पुरुष हूँ, स्त्री हूं यह तो देह की आकृतियाँ हैं । मैं देह नहीं, देह से निराला, एक चैतन्य पदार्थ हूँ । इस समय निमित्तनैमित्तिकबंधन तो चल रहा, पर बंधन में भी प्रत्येक पदार्थ रहता तो अपने-अपने में है कि एक पदार्थ किसी-दूसरे में भी प्रवेश करेगा? देह के स्वरूप में जीव का प्रवेश नहीं, जीव के स्वरूप में देह का प्रवेश नहीं । भले ही एकक्षेत्रावगाह हैं, एक जगह हैं, पर यहाँं तो अशुद्ध, द्रव्य से हो रहे हैं, पर्याय की बात समझी जा रही । स्वरूप में तो यह बिल्कुल स्पष्ट है कि एक में दूसरे का प्रवेश नहीं । जरा वहाँ भी तो देखो सिद्ध लोक में जहाँ एक ही जगह अनंत सिद्ध विराजे हैं, अमूर्त हैं, केवल चैतन्य प्रकाशमय, केवलज्ञानी, एक ही जगह में अनंत केवल ज्ञानी सिद्धमहाराज विराजे हैं, फिर भी जितने वे सब एक जगह विराजे हैं, उनमें एक के स्वरूप में दूसरे भगवान का प्रवेश नहीं है । प्रत्येक पदार्थ वहाँ अपना-अपना अस्तित्व रखता है, अपने-अपने में परिणमन है, यह तो उससे भी और मोटी बात चल रही है कि देह में जीव का प्रवेश नहीं । देह में जीव में अंतर जान लिया, तो अपने स्वभाव की दृष्टि बनाओ, मैं जीव हूँ, ज्ञानमात्र हूँ, चैतन्यमात्र हूँ । ऐसा अनुभव बनायें और ऐसा ही उत्तम अभ्यास विधि से हो कि देह का भी भान नहीं, समय का भी भान नहीं, केवल एक चैतन्य प्रकाश ही इसके ज्ञान में हो, वहीं स्पष्ट समझ बनती है कि मैं यह हूँ, मैं यह हूँ ।
189―अनात्मतत्त्व के व्यामोह में परेशानी का ही अभ्युदय―यह सारा संसार परेशान हो रहा है बाह्य बातों के ध्यान से । इन बाहरी परिणतियों को, इन नैमित्तिक पर्यायों को निरख निरखकर यह माना करता कि यह मैं हूँ, यह मैं हूँ, बस इस बुद्धि से यह सारा लोक परेशान है, ये जीव परेशान है । आत्मानुभव की बात चित्त में ही नहीं आती कि आत्मानुभव करना है, आत्मानुभव के सामने बाकी सब बातें बेकार । जहाँ रागद्वेष की वासना हो, संस्कार हो, ऐसी कोई विधि बनाई गई हो, वह सब विधि इस जीव के लिए ऐसा बंधन है कि मनुष्य जीवन इसका बेकार रहेगा । वह आत्मानुभव नहीं कर सकता । इसके लिए जो करना पड़े सो करें । इसके लिए करना क्या पड़ेगा? कषायों का बलिदान कर पड़ेगा और कुछ नहीं । जब सब जीवों में एक समभाव जगे, इतनी बात आ सकी तो समझो कि हमने आत्मा का ज्ञान किया । और जहाँ यह बुद्धि रहे कि यह मैं हूँ, यह मेरा, यह गैर, तो इस बुद्धि के रहते हुए आत्मानुभव हो ही नहीं सकता । कितनी तैयारी करना है, कितना बलिदान करना है अपनी कषायों का? एक अपने से नाता रखें, समझें ऐसा ही स्वरूप सब जीवों में है । किसी जीव से ग्लानि न करें, घृणा न करें । मुनियों की, त्यागियों की, साधु संतों की बात तो ऊँची है, उनसे घृणा का भाव रखना तो महापाप का कारण है, मगर प्राणिमात्र से भी घृणा रखना पाप है । द्वेषी आत्मानुभव करने का पात्र हो नहीं सकता । हाँ व्यवहार में जो करना है वह किया जा रहा है । बाकी कूड़े को हटा दें, एक तरफ कर दें, मगर यह सुध कभी न भूलें, कि इसमें भी सहज परमात्मतत्त्व है । सब जीवों में सहज परमात्मतत्त्व को समान भावों से निरख सकने का ढंग रख सकने का साहस बना सकने वाला ही जीव आत्मानुभव का पात्र बन सकता है । जिसको आत्मानुभव हो जाये उसका बेड़ा पार है ।
190―व्यवहार, निश्चय व शुद्धनय में बढ़ बढ़कर आत्मानुभव में प्रवेश करने का संदेश―आत्मानुभव की सकल क्या है? बस ज्ञान में यह सहज ज्ञानस्वरूप ऐसा समाया है कि विकल्प न रहे, क्षोभ न रहे, एक अलौकिक आल्हाद को उत्पन्न करता हुआ वह प्रकट होता है । तो ऐसी एक समाधि की निर्विकल्प स्थिति होती है कि उसको पाकर यह जीव समझ लेता है कि तत्त्व तो यह है बाकि सब बेकार है । बाहर में आश्रय करके हमें कुछ न मिलेगा । हमें अपने आपका सहज स्वरूप निरखना है और वहाँ यह ही सत्याग्रह करके रहना है कि मैं तो यह ही हूँ । मैं और कुछ नहीं हूँ । उसी आत्मा की उपासना की बात चल रही है कि उसकी वास्तविक उपासना निश्चयत: है तो बस एक चैतन्यस्वरूप हूँ इस प्रकार की दृष्टि में चलना है और व्यवहार में ये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र है । व्यवहार सम्यक्त्व की बात नहीं कह रहे, व्यवहार सम्यग्ज्ञान की बात नहीं कह रहे, निश्चय सम्यग्दर्शन की बात कह रहे, निश्चय सम्यग्ज्ञान की बात कह रहे निश्चय सम्यक᳭चारित्र की बात कह रहे, इन तीन रूप में भी उपासना करें, क्योंकि भेद किया ना, खंड किया ना । तो एक अखंड आत्मतत्त्व की उपासना अखंडानुभव से ही परमार्थत: होती, फिर भी व्यवहार दर्शन ज्ञान चारित्र आदिक इन सब विधियों से परिचय हम करें और अभेदोपासना के लिये बढ़ें । हम बचपन से व्यवहार का आश्रय करते आये, उससे हमें कोई दिशा मिली । कुछ बड़े हुए तो धर्म का, व्यवहार का, आश्रय करते आये, हम को एक दिशा मिली, फिर हम और पढ़ने लिखने अध्ययन में चले तो एक दिशा मिली, फिर हमने नय प्रमाण आदिक का वर्णन सुना तो हमको एक दिशा मिली । और, हमने शुद्धनय की पहचान की ना, तो एक दिशा मिली । उस शुद्धनय के बोध में नय, निक्षेप, प्रमाण सबसे अतीत होकर आत्मानुभव में आये ना । तो जैसे चलकर खुद आये ऐसे ही बताओ सबको कि ऐसे-ऐसे चलें तो, पा लो सब चीजें । तो उसी प्रसंग में यह व्यवहार से कहा जा रहा कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप से उपासना करना । इस तरह साधु संतों को, साधु संतों द्वारा उपदेश में कहा जा रहा कि आत्मा में आत्मा की उपासना करना चाहिए ।