वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 173
From जैनकोष
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै-
स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजित: ।
सम्यङ्निश्चयमेकमेव तदमी निष्कंपमाक्रंय किं
शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नंति संतो धृतिम् ॥173॥
1379- अध्यवसानों में स्वार्थक्रियाकारिता का अभाव तथा सर्वजीवसाम्यभाव से स्वभाव की अभिमुखता-
अध्यवसान का प्रकरण चल रहा है। यह अज्ञानी जीव दूसरे जीवों के प्रति कुछ भी करने का भार रख रहा है। मैं इसे ताढूँ, मारूँ, पालूँ, ठीक करूँ आदिक नाना प्रकार के यह परिणाम बनाता रहता है, मगर उसके ये सब परिणाम मिथ्या हैं, अर्थात् जो उन परिणामों में विचार बनाया गया वह काम वहाँ हो ही जाय सो तो कुछ है नहीं, और हो भी जाय तो भी इसके परिणाम की वजह से हुआ सो बात नहीं। इस कारण यह अध्यवसाय मिथ्या है। दूसरी बात खुद के लिये विचार करें, अध्यवसाय में करके खुद क्या भला पा लोगे, दूसरे का अनर्थ सोचकर, दूसरों को बाधा देकर, दूसरों के विरुद्ध अपनी विकल्पधारा चलाकर; सोचें तो सही कि अपने लिये कौनसी उपलब्धि होगी? उपलब्धि यही है पाप का बंध है और भविष्य में, विपाककाल में दु:खी होना पड़ेगा। भैया, अपने आप पर दया करके एक निर्णय तो बनावें, हम उस पर कितना चल पाते या नहीं चल पाते, भले ही यह अंतर आये, निर्णय यह ही होओ। संसार के सब जीव, सभी मनुष्य, सभी पड़ोसी मेरे स्वरूप के समान हैं, उनमें ये मेरे हैं, ये गैर हैं, ये दो बातें नहीं पड़ी हुई हैं। यह अपने अध्यवसाय से, अपनी ही कल्पना से ये दो भेद पड़े यह मेरा, यह गैर। वस्तुत: सब समान हैं सबका यही स्वरूप है। तब किसी के प्रति कुछ करने का अहंकार अनर्थ का भाव न सोचें। कुछ करने का अहंकार न जगे, इसके लिये यह ज्ञान कीजिये कि मैं स्वतंत्र सत् हूँ,दूसरे जीव स्वतंत्र सत् हैं। कोई किसी की परिणति कर पाता क्या? मैं तो दूसरे जीवों के सुख-दु:ख में निमित्त तक भी नहीं होता। भले ही उसके पुण्य का उदय हो या पाप का उदय हो, तो मैं आश्रयभूत कारण बन जाऊँ, तो यह उपयोग मेरी और जुटाये, ऐसा तो भले ही हो जाय, मगर मैं दूसरे के सुख-दु:ख में निमित्त कारण कतई नहीं होता, कभी भी नहीं, क्योंकि जीव के सुख-दु:ख का निमित्त कारण उनका कर्मोदय है।
1380- अध्यवसायों का त्याग कराने का उपदेश-
यहाँ अध्यवसाय छुड़ाने का प्रयत्न हो रहा है आचार्यदेव का। देखो, सभी जगह चाहे शुभ प्रसंग हों चाहे अशुभ प्रसंग हों, ये समस्त अध्यवसाय त्यागने के योग्य ही हैं। भगवान की पूजा हो रही, भक्ति बन रही, गुणगान हो रहा, होने दो, उस पदवी में हो रहा, मगर उसमें यह भाव लाना कि मैं भगवान को पूज रहा हूँ तो भगवान तो पदार्थ हैं, हैं शुद्ध, मैं यह हूँ परमार्थत:, मैं उन्हें कैसे पूज सकता हूँ? भगवान में उपयोग देकर मैं अपने आपको ही तो पूज रहा हूँ। जो गुण विकास मुझमें हो रहा है, मेरा जो परिणमन है, उसी का ही तो नाम पूजा है, अध्यवसाय न रहना चाहिए। सभी स्थितियों में अध्यवसाय को त्यागने याने दूसरे जीव अजीव पदार्थों का आश्रय लेकर उनमें उपयोग जोड़कर जो-जो कुछ भी यहाँ करने की बात सोचते हैं, लगने की बात सोचते हैं, तन्मयता की बात निरखते हैं, वे सब अध्यवसाय त्याज्य हैं; उन्हें नहीं ग्रहण करना क्योंकि वे सब मिथ्यात्व का रूप है। अपने आपकी जानन क्रिया को त्यागकर, वहाँ से दृष्टि हटाकर, स्वरूप की सुध छोड़कर, क्रिया में अध्यवसाय, वस्तु में अध्यवसाय और अपने विचारों में अध्यवसाय होना, सब मिथ्याभाव है; मैं इन सबसे निराला केवल ज्ञप्तिमात्र हूँ, सो जब यह एक स्थिति है कि प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र स्वतंत्र है, कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ की कुछ परिणति नहीं करता, तो फिर क्यों बाहरी जीवों में नाना प्रकार की बातें करूँ मैं क्यों व्यर्थ में विकल्प करता रहूँ और होना वहाँ वह है जो वहाँ के विधान में है। अध्वसायी के विचार से वहाँ कुछ हो नहीं रहा है, तब फिर मैं व्यर्थ पाप ही तो बाँध रहा, मिथ्यात्व ही तो बाँध रहा, दु:ख ही तो बाँध रहा। ऐसा क्यों दु:ख पाते हैं ये जगत के जीव? क्यों अपने स्वरूप से च्युत होकर बाह्य पदार्थों में उपयोग देकर दु:खी हो रहे हैं?
1381- जीवों को अध्यवसायरहित देखने का परम:वात्सल्य-
अध्यवसाय को त्यागकर क्यों नहीं ये जीव अपने निष्कंप स्वभाव का आश्रय करके ज्ञानघन विशुद्ध याने मैं, मैं, मैं अन्य नहीं ऐसा जो इसका सहजस्वरूप है, अपने ही सत्त्व के कारण जो एक चैतन्य प्रकाशमान स्वरूप है उस स्वरूप में, उस महिमा में अपने को रखकर क्यों नहीं धैर्य धरते? क्यों नहीं धीरज बनाते? अपना ज्ञानस्वरूप उत्तरोत्तर बना रहे ऐसी बात क्यों नहीं बनती? अच्छा एक जरा मोटी-सी बात सोच लो, लोग इस मनुष्यभव में बड़े-बड़े पुलावा बाँधते रहते राग के और द्वेष के। पर यह तो बताओ कि ये जो दिखने वाले लोग हैं ये क्या आपके अधीन हैं? नहीं, आप जैसा सोचें वैसा वहाँ हो जाय यह बात नहीं। हो भी जाय कदाचित् वह परिणमन, आपके सोचने के समय या बाद में किसी दूसरे को सुख अथवा दु:ख हो भी जाय तो भी ऐसा नहीं है कि आपके सोचने से दूसरे को सुख अथवा दु:ख हुआ है। फिर उस प्रकार का अहंकार रखकर अपने को संसारबंधन में क्यों डाला जाय? सर्वजीवों में वात्सल्य आये बिना भीतर की बाधा दूर नहीं हो सकती। इसके प्रताप से इसके स्वानुभव की पात्रता जगती है।
1382- स्वात्मोद्धार के पौरुष में विवेकता-
भैया, अपने को तो अपना काम करना है, अनादिकाल से रुलते-भटकते, अनेक कष्ट भोगते जो बिताया है समय, ऐसी अपवित्रता में समय बिताना क्या अभीष्ट है? जन्म और मरण, जन्म लेना, मरण करना, जन्म लेना मरण करना, ये जन्म-मरण के ताँते, यह परंपरा सुहाती है क्या? एक ओर जब विषयों में प्रीति है और अध्यवसाय चलता है, कषायों में लगाव है तो उसका स्पष्ट विषय है कि जन्म-मरण चलते जायेंगे। दोनों ही प्यारे लग रहे क्या? कषायें भी प्रिय लगें, विषय भी प्रिय लगें और जन्म-मरण भी प्रिय लगें, कितना अंधेर? कितना अज्ञानमयभाव। और देखो, दूसरों को देखकर खेद न करें, अपनी ही बात विचारें और अपनी ही सम्हाल बनावें। जगत में अनंतानंत जीव हैं, मनुष्यों से ही पूरा परिचय नहीं है और फिर पंचेंद्रिय तिर्यंच या और-और जीव, अनंतानंत जीव, दूसरों का उद्धार करना, दूसरों का कल्याण करना, यह अभिप्राय स्वार्थक्रियाकारी तो नहीं है, तो फिर ऐसी भीतर में आस्था रखना, भीतर में ऐसी उमंग रखना कि मैं तो दूसरों के उद्धार के लिए ही जन्मा हूँ, यह आशय मिथ्या है, यह बात निरखें। तो आपका उद्धार होते देखकर दूसरे जीव भी अपने आपके मनन से अपने उद्धार की बात पा लेंगे। तब स्वयं में स्वयं का मनन बनाना है।
1383- स्व में स्वक्रिया का दर्शन-
यह मैं ज्ञानमात्र आत्मा अपने आपके स्वरूप में ही बस रहा हूँ, अपने प्रदेशों से बाहर नहीं, जो कुछ किया जा रहा है वह अपने आपमें किया जा रहा है अपने प्रदेशों से बाहर नहीं। भलीभाँति देख लो, आप क्या करते हैं, किसके द्वारा करते हैं, किसके लिए करते हैं, किसमें करते हैं? अमूर्त ज्ञानमात्र यह आत्मा सिवाय ज्ञान-तरंग उठाने के और क्या करेगा? स्वच्छ तरंग उठाये, विकल्प रूप से उठाये, अपने आपकी परिणतियों के सिवाय और करेगा क्या? बाहर में किसी के सुख, दु:ख, इष्ट, अनिष्ट का विचार करना यह हो क्या रहा है? खुद में खुद के ज्ञानविकल्प चल रहे हैं, इसका असर बाहर में कुछ नहीं हो रहा है। बाहर में सांसारिक बातों के वे कर्म निमित्त हैं, बुद्धिपूर्वक विचार जगे उनका तो दूसरा आश्रयभूत बनता है, मगर मैं यहाँ जीव किसी दूसरे का क्या भला करता हूँ और क्या बुरा करता हूँ? इस ओर जब उपयोग नहीं लगा है तो अपने स्वरूप से हटकर बाहरी क्रियावों में उपयोग करने लगा है, रागद्वेष विपाकमयी क्रिया में उपयोग फँसासा है तो यह तो बेचारा बन गया, असहाय बन गया, अपने आपमें अपनी कुबुद्धि से रीता बन गया, इसको चैन कैसे मिलेगी। बाह्यदृष्टि और उसमें यह आस्था बने कि यह मेरा है; मेरा जिसके विकल्प है, यह विकल्प ही कष्ट है, कहीं दूसरे से कष्ट नहीं आया करता। जितने सुख भोगते हैं सांसारिक तो अपने आप ही में सहज आनंदगुण का ही विकृत परिणमन करना है। सुख और दु:ख में बाहर से कोई चीज नहीं आती, बाहर की वस्तु में यह उपयोग देता है और सुख-दु:ख पाता है, सो अपने ही आनंदगुण के विकार- परिणमन से सुख-दु:ख पाता है। तो जब बाहरी जीवों में, दूसरों में मेरा कुछ अधिकार नहीं तब फिर बाहरी रागद्वेष की क्रियावों में रागद्वेष विकार क्यों जगता है? भैया ! ज्ञाता-द्रष्टा बनें कि ये कर्मरस हैं, मेरे स्वरूप नहीं है, मेरा स्वरूप तो ज्ञानस्वभाव है, इस ही ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व में अधिकाधिक लगें।
1384- धर्मपालन में नि:शंकता का महत्त्व-
धर्मपालन करें, मतलब अपने धर्म में, अपने स्वभाव में आत्मतत्त्व की दृष्टि बनावें, उस स्वभाव का आश्रय करें, यह ही धर्मपालन है, अब ऐसा करने के लिये जो उद्यत होता है सो एकदम यह बात भी नहीं बैठती, क्या-क्या बात बनेगी, किस-किस ढंग से वह गुजरेगा, क्या होगा, वह सब चरणानुयोग में जो बताया गया है उसके अनुसार उसकी प्रवृत्ति है। उसमें गुजरता हुआ यह चला अपने आपमें प्रवेश पाने के लिए, धर्मपालन के लिये। कष्ट आयें तो विह्वल न हों, क्योंकि उन कष्टों को, उन विह्वलताओं को दूर कराने में समर्थ यह हमारा धर्मपालन है। अनागार धर्मामृत में आया है कि कोई राजा जैसे किसी बड़ी सेना को पाल-पोष रहा है, मेरे पर कोई शत्रु आक्रमण न करे इस आशय से उस सेना पर करोड़ों रुपये खर्च कर रहा है। अब इस तरह से सेना को पालते पोषते बहुत दिन व्यतीत हो गये। अचानक ही किसी शत्रु ने उस राजा पर आक्रमण कर दिया तो वह क्या उस राजा का यह कर्तव्य है कि बस घबरा जाये, दु:खी होकर, हताश होकर बैठ जाये? क्या वह यह घोषणा कर दे कि मैंने व्यर्थ ही सेना के पीछे इतने दिनों तक इतना खर्च किया, हटाओ? इस सेना को...क्यों? इस शत्रु ने हमारे ऊपर आक्रमण कर दिया? अरे ! वहाँ तो यह चाहिये कि उस मौके पर और भी अधिक शक्ति बढ़ा ले, सेना बढ़ा ले, खर्च बढ़ा ले और डटकर उस शत्रु का मुकाबला करके उस पर विजय प्राप्त कर ले? यदि उस मौके पर उस सेना को हटाना सोचे तो जैसे वह उस राजा की मूर्खता है, उसे बुद्धिमानी न कहा जायगा, इसी प्रकार यहाँ धर्म के मार्ग में कोई सोचे कि हमने तो अपने जीवन भी खूब धर्म किया, प्रतिदिन देवदर्शन किया, स्वाध्याय किया, जाप किया, पूजापाठ किया, व्रत उपवास किया, खूब धार्मिक कार्यों में अपना समय लगाया फिर भी ये दु:ख हम पर आते हैं, सुख तो हमें मिला ही नहीं, जबकि कहा यह गया है कि धर्म करने से दु:ख दूर होते हैं, सब प्रकार के सुख-साधन प्राप्त होते हैं, तो हमें तो यह बात देखने को मिली ही नहीं, इसलिए धर्मकर्म सब बेकार हैं, छोड़ो इस धर्म को।...ऐसा अगर किसी के मन में आये और वह इस धर्म को छोड़ बैठे तो उसे विवेकी कहा जायगा क्या? अरे ! वह तो उसकी मूर्खता है। उस समय तो धर्म में और अधिक प्रीति बढ़ावें।
1385- धर्मात्मा पर कष्टाक्रमण की असंभावना-
भैया, प्रथम तो यह समझना चाहिए कि यदि हमें दु:ख सताते हैं तो हमने अभी तक वास्तव में धर्म किया ही नहीं, धर्म के स्वरूप को जाना ही नहीं, दृष्टि बाहर ही बाहर लगी रही। यदि धर्म किया होता तो उसके फल में सुख शांति की प्राप्ति न हो, यह हो नहीं सकता। धर्म है वास्तव में अपने आत्मा का जो सहज चैतन्यस्वरूप है उसमें आत्मप्रत्यय रखना कि मैं यह हूँ, उसका आश्रय होना यह धर्मपालन है, अगर ऐसा करते हुए भी कष्ट आये तो उसे कष्ट न मानना चाहिए। देखिये सुकुमाल, सुकौशल राजकुमार जैसे मुनियों पर भी ऐसा करते हुए में कितने-कितने उपसर्ग आये, बाहर से देखने में तो ऐसा लगेगा कि उनको बहुत बड़ा दु:ख हुआ होगा पर वहाँ उनके अंदर में देखो तो दु:ख का नाम नहीं। वह उस समय वास्तविक धर्मपालन कर रहे थे, अपने आत्मस्वभाव के दर्शन में आनंदविभोर हो रहे थे, उनको रंच भी दु:ख का आभास नहीं, अंत:-प्रसन्न रहे, यद्यपि पूर्वकृत कर्म के उदय से ऐसे उपसर्ग आये फिर भी उनका उपयोग बाहर-बाहर नहीं भटका, वे अपने आपके स्वरूप में और विशेष लगे जिससे कि उन बाहरी कष्टों का, उपसर्गों का उन पर रंच भी प्रभाव न पड़ा।
1386- पराश्रित व्यवहार की विडंबितता व त्याज्यता-
इस जीव ने अब तक किया क्या? अनादि से अब तक यही-यही तो किया। बाहरी पदार्थों में, जीवों में यह मैं ऐसा हूँ, और यह भी ऐसा है इस तरह जिसकी कषाय से, मिल गई उसको तो मित्र बनाकर चल रहे और जिनकी कषाय से अपनी कषाय न मिली उनको द्वेषी मानकर चल रहे, यह ही किया इस जीव ने आज तक। वास्तव में यहाँ न कोई जीव किसी का मित्र न शत्रु, सब स्वतंत्र-स्वतंत्र जीव हैं, मगर देख लो, प्राय: एक दूसरे के शत्रु अथवा मित्र बन रहे हैं। तो बात वहाँ यह है कि जिसकी कषाय से जिसकी कषाय मिल गई वह उसका मित्र बन गया और कषाय से कषाय न मिली तो शत्रु बन गया, जैसे घर के किसी बड़े को अपनी स्त्री या पुत्रों से कुछ मनमुटाव हो गया, एक दूसरे से मन नहीं मिलता तो वहाँ वह बुजुर्ग क्या करता कि उसको उस घर में जाना बुरा लगता। अब रहना तो पड़ता ही, मगर उसका वहाँ मन नहीं लगता, तो वह क्या करता कि दूकान में अधिक समय तक रहता, दूकान का काम, कमाई का काम तो किए बिना चलेगा नहीं, वह तो करता है पर उसके भाव देखो, उसका उस घर में मन नहीं लगता ठीक ऐसा ही नग्न स्वरूप है जगत का। सब जीवों के स्वरूप को निरखो, जिसके निरखने से अपने आपमें समता जगती है। तो वहाँ आचार्यदेव ने जो उक्त उपदेश किया उसमें यह बात दर्शायी है कि सारे अध्यवसाय त्यागने योग्य हैं, अच्छा तो जितना पराश्रित व्यवहार है, बाहरी पदार्थों में उपयोग दे-देकर जो अध्यवसाय बनते हैं ये सारे व्यवहार त्याज्य हैं।
1387- शुद्ध भाव के बर्तन में आश्रयभूत कारण का अभाव व स्वाश्रयत्व-
शुद्धभाव होने में आश्रयभूत कारण नहीं हुआ करते, एक बात। शुद्धभाव होने में सद्भावरूप निमित्तकारण नहीं होता, दूसरी बात। कालद्रव्य तो एक साधारण निमित्तमात्र वस्तु है, वह सबके परिणमन सामान्य का कारण है। ग्रंथों में जो भी चर्चा है उनका विचार करना चाहिए। सब सही कहते। सम्यग्दर्शन के कारण बताये हैं वेदनानुभव, उपदेश आदिक, तो बात वहाँ क्या है कि जिस काल में सम्यग्दर्शन होने को है उस काल में कोई भी बाहरी पदार्थ इसके उपयोग में नहीं है। किसी भी बाहरी पदार्थ का यह संबंध नहीं कर रहा मगर जिस शुभोपयोग के बाद यह सम्यग्दर्शन हो रहा उस शुभोपयोग में तो आश्रयभूत कारण था और उस शुभोपयोग की धारा में चलते हुये ये जीव उन विकल्पों को त्यागकर, उन आश्रयों को त्यागकर, उन शुभ भावों को त्यागकर विपरीत अभिनिवेश रहित परिणति में आया है, तो सम्यक्त्व का निमित्त तो है नहीं, बाह्यवस्तु और शुभभाव का भी निमित्त नहीं, ये बाहरी पदार्थ शुभविभाव के भी निमित्त नहीं, अशुभविभाव के भी निमित्त नहीं, मात्र आश्रयभूत कारण हैं, उन विभावों का निमित्त तो कर्मोदयादि हैं, मगर सम्यक्त्व उत्पन्न होने से पहले जो शुभोपयोग हुआ वहाँ के आश्रयभूत कारण को देखकर चूँकि उस ही के बाद सम्यक्त्व वह हुआ सो परंपरया कह दो, उपचार से कह दो याने उस धारा में आगे बढे़, सो उस प्रकार से उस बाह्य आश्रयभूत कारण की चर्चा कर दो। सो यह भी कहना व्यवहार तीर्थ प्रवृत्ति का विच्छेद न हो इसलिये हैं। सम्यक्त्व की उत्पपत्ति में अभावरूप निमित्त है कर्म का उपशम, कर्म का क्षय, कर्म का क्षयोपशम, किंतु बाह्य वस्तु कोई आश्रयभूत नहीं है, तो आश्रय किसका है? वहाँ आश्रय है सहज निरपेक्ष शुद्धस्वभाव का आश्रय। इस आश्रय से सम्यक्त्व हुआ।
1388- सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र का व्यय-आय स्थिति के रूप में परिचय-
अब यहाँ देखना- सम्यक्त्व एक विपरीत अभिप्रायरहित परिणाम है। उसको हम किस रूप में बता दें? यथार्थ कि यह है सम्यक्त्व उसके चिह्न बताये गये प्रशम, संवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य, तो वह भी आभासरूप मिल सकता कि है प्रशमाभास, दिखता है प्रशम। सम्यक्त्व का कौनसा चिह्न ऐसा कहा जाय कि जिसे देखकर हम निर्णय बना लें कि यह सम्यग्दर्शन है? इसीलिए सम्यग्दर्शन को अनिर्वचनीय कहा। उसका स्वरूप बताया तो जरूर है मगर अन्य रूप में ढालकर बताया गया है। जैसे आत्मामें रुचि होना सम्यग्दर्शन। अब रुचि सम्यक्त्व की परिणति है या चारित्र की? चलते जावो? आत्मा के शुद्ध स्वरूप का प्रत्यय होना सम्यग्दर्शन है। प्रत्यय होना मायने दृढ़ ज्ञान होना, वह किसकी परिणति है? किस तरह बतायें सम्यग्दर्शन को? उसका विश्लेषण, उसका प्रकट रूप बतायेंगे तो किसी दूसरे के सहारे। तब फिर सही बात यह है कि सम्यक्त्व से पहले क्या था? मिथ्यात्व, मिथ्यात्व का उदय। और, वहाँ हो क्या रहा था? विपरीत अभिप्राय। मैं इसे मारूँ, मैं इसे पालूँ, ऐसी बात समझ में आ रही है ना? मिथ्यात्व की बात तो बहुत समझ में आती है कि ऐसी क्रिया में अध्यवसाय, विपाक अध्यवसाय, जानने में अध्यवसाय, यह है मिथ्यात्व। अब मिथ्यात्व प्रकृति का उदय निवृत्त हो गया, यहाँ क्या हो गया? विपरीत अभिप्रायनिवृत्त हो गया। इसी बात पर ‘पुरुषार्थसिद्धयुपाय’ में मोक्ष की ऐसी प्रक्रिया बतायी कि जिससे उत्पाद, व्यय स्थिति जैसा बोध होता। याने वहाँ उत्पादव्यय की स्थिति की मुद्रा में स्वरूप चल रहा है। जैसे-कहा है- ‘विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यस्य निज तत्त्वम्। आत्मन्यविचलनं यत् सम्यक् पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम्’। याने विपरीत अभिप्राय को नष्ट करके और अपने तत्त्व को व्यवसित करके, निश्चित करके, जान करके जो अपने स्वरूप में निश्चल स्थित होना है, यही पुरुषार्थ-सिद्धि का उपाय है। नाश हुआ विपरीत अभिप्राय का, तो नाश के जरिये इसने सम्यग्दर्शन को पहिचाना। आत्मतत्त्व का वहाँ निश्चय हुआ इसे कहा वहाँ कुछ छूटनेजैसेढंग से और यह क्या बना? इस प्रकार ढंग से तत्त्वव्यवसाय याने सम्यग्ज्ञान हुआ और अपने आत्मस्वरूप में स्थित हुआ, ध्रुव हुआ, यों ध्रुवता के ढंग से चारित्र को पहिचाना, विश्वास किया। ये विपरीत अध्यवसाय, ये सारे अध्यवसाय, ये सब पराश्रित व्यवहार इन सबकी जहाँ आखिरी हो और एक शुद्ध ज्ञानघन आत्मा में, जिसकी अद्भुत महिमा है, उस अंतस्तत्त्व में स्थित हो सब, यह ही मोक्ष का मार्ग है। तो यहाँ आचार्यदेव आश्चर्य के साथ कहते हैं कि देखो ये पराश्रित चलते हैं, वहाँ कष्ट ही कष्ट है, तथ्य भी नहीं, वस्तु स्वभाव के विपरीत हैं, फिर यह जीव क्यों नहीं अध्यवसाय को त्यागकर अपने शुद्ध ज्ञानघन स्वरूप में ठहरकर धैर्य प्राप्त करता?
1389- व्यग्रतास्वरूप पराश्रितभाव व्यवहार की त्याज्यता-
उस कलश में यह कहा जा रहा है कि सर्व प्रकार के अध्यवसाय त्यागने योग्य हैं? क्यों त्यागने योग्य है क्योंकि ये सब पराश्रित भाव हैं, मायने किसी पर का आश्रय करके उसमें उपयोग दे करके ये बने हुए भाव हैं। मैं इसको मारूँ, जलाऊ, कुछ करूँ, ये सब पराश्रित भाव होने से सभी के सभी त्यागने योग्य हैं। भला, परखो पराश्रितता, यह एक तरह से उधार लेने से भी अत्यंत खराब है, ऐसी पराश्रिता से उत्पन्न हुए भाव क्या इसे कहीं चैन लेने देंगे? आत्मा की सुध से निकलकर बाहर फिंका हुआ उपयोग क्या चैन से रह सकेगा? सभी प्रकार के अध्यवसाय त्याज्य हैं क्योंकि ये पराश्रित हैं, और आत्माश्रित क्या है? एक अपने आपका सहजशुद्ध विशुद्ध निरपेक्ष ज्ञानस्वरूप का आश्रय वह एक अपने अधीन चीज है। तो जितने पराश्रित भाव हैं वे सब त्याज्य हैं और स्वाश्रित भाव उपादेय हैं। स्वाश्रित को कहते हैं निश्चय और पराश्रित को कहते हैं व्यवहार। ये सब पराश्रितभाव याने पर का आश्रय करके जितने भी हमारे विकल्प बनते हैं, ये व्यवहार सभी त्यागने योग्य हैं। देखो, आत्माश्रय करें तो ये पराश्रयभाव दूर होंगे। पराश्रयभाव में पर की ओर दृष्टि देकर उनका निषेध करके या उन्हें विपरीत बताकर या कुछ कहकर जो आप बात कहेंगे वह भी पराश्रितभाव होगा। ये पराश्रितभाव त्याज्य हैं, पर से हटें, पर में न लगें, ऐसा जब कभी मनन चले, कल्पनायें चलें तो वे पराश्रित हैं या स्वाश्रित? पर के लिए मनन करें इस पर का आश्रय न करें यह पराश्रित बात हुई या स्वाश्रित? पराश्रित बात, पर में विधि बने, पर में निषेध बने, किसी तरह पर में भाव जाय, उसमें उपयोग हो वह पराश्रित है। सभी पराश्रितभाव त्यागने योग्य हैं याने हम पर को देखे ही नहीं, आत्मा को देखें, आत्मा में रत हों, क्योंकि जितने भी पराश्रित अध्वयसान हैं वे बंध के कारण हैं इसलिए पराश्रित भाव छुटायें मायने व्यवहार ही सारा छुटाया।
1390- निश्चय की प्रतिषेधकता व व्यवहार की प्रतिषेध्यता-
लो परखो, व्यवहार प्रतिषेध्य हुआ, निश्चय प्रतिषेधक हुआ। पराश्रित जितने भी संकल्प-विकल्प हैं वे सब प्रतिषेध्य हैं, निषेध करने के योग्य हैं और स्व की दृष्टि, स्व का आलंबन यह प्रतिषेधक है। हम स्व का आश्रय करके परिणमें तो व्यवहार छूटे, गड़बड़ तो वहाँ है कि प्रतिषेधक भाव तो आता नहीं और प्रतिषेध्य में जोर देते कि व्यवहार त्याज्य है, सभी कामों में यही अंतर पड़ गया। जैसे शुभभाव व्यवहार है, प्रतिषेध्य है मगर प्रतिषेध्य तो तब कहलाता है जबकि प्रतिषेधक हमारे सामने है। तो हम प्रतिषेधक का तो आदर न करें, प्रतिषेधक का तो उपयोग न करें और प्रतिषेध्य की मुख्यता रखें तो वह तीर्थप्रवृत्ति कायम रखने में बाधक है। जो शुभभाव हैं वे प्रतिषेध्य हैं। जैसे- दान, पूजा, भक्ति, अनुराग, यात्रा, आदरभाव आदि ये सब भी, शुभभाव भी प्रतिषेध्य हैं क्योंकि इन शुभभावों को ख्याल में रखना, शुभभावों का अध्यवसाय करना ये तो प्रतिषेधक भाव के बाधक हैं। प्रतिषेधक की सुध रहे तब तो प्रतिषेध्य का प्रतिषेध कार्यकारी है और यदि प्रतिषेधक की ओर दृष्टि नहीं है और प्रतिषेध्य किये जा रहे हैं तो वह कार्यकारी नहीं। कभी कोई प्रतिषेध्य का तो खूब बखान किया जावे पर प्रतिषेधक की कुछ चर्चा भी नहीं, सहज अंतस्तत्त्व की बात को अभी तक समझते ही नहीं, केवल इतना भर सुन लिया कि यह त्यागने योग्य है, इसे छोड़ना योग्य है, व्यवहार कार्य करना अयोग्य है, बस इतनी भर तो समझ रखी और उसकी तुलना में हमको और क्या काम करना चाहिये, इतनी बात यदि दृष्टि में न हो तो उसमें विडंबना की बात आती है। इसलिये प्रतिषेधक को समझना एक खास बात है, और, जो आत्माश्रित भाव बनेगा तो वह तो प्रतिषेधक हो ही जायगा, इसलिये निश्चय के विषयभूत अंतस्तत्त्व में, शुद्धनय के विषयभूत अंतस्तत्त्व में जैसे उपयोग बने, और लक्ष्य बने उसकी उमंग यहाँ होनी चाहिये। प्रतिषेधक का लक्ष्य बनने पर उस शुभभाव-व्यवहार को भी हटायें, प्रतिषेध्य करें और प्रतिषेधक याने अंतस्तत्त्व के लक्ष्य में जुटें तो यह तो मोक्षमार्ग की आज्ञा है कि इस तरह से प्रवृत्ति बनायें। तो कोशिश यह करें, हम अधिकाधिक प्रयत्न करें कि हमारा स्वभाव हमारा स्वरूप हमारी दृष्टि में रहे।1391- व्यवहाराश्रयाग्रह में मुक्ति की असंभवता-
अच्छा, तो बात यह कही जा रही है कि सारा व्यवहार प्रतिषेध्य है। क्यों प्रतिषेध्य है क्योंकि व्यवहार को तो अभव्य भी कर सकते, उन्हें कभी सिद्धि नहीं मिलती, क्योंकि उनके चित्त में प्रतिषेधक का लक्ष्य नहीं बना। ऐसे ही भव्य भी कोई हो और उसका प्रतिषेधक का लक्ष्य नहीं बनता तो उसका जो व्यवहार है वह व्यवहार शांतिमार्ग का कार्यकारी न बनेगा। सो व्यवहार-कर्तव्य भी करते लेकिन वे तो अज्ञानी ही रहते, मिथ्यादृष्टि ही रहते, तो यह निर्णय तो न बनायें कि इन क्रियावों से हमको मुक्ति मिलेगी। क्रियावों से तो मुक्ति किसी को नहीं मिलती, न भव्य को न अभव्य को, मुक्ति मिलती है तो रागद्वेष का अभाव होने पर, अत: वीतरागता जितने अंश में है उतने अंश में उसके विशुद्धि है, मोक्षमार्ग में गमन है। राग के कारण तो मोक्षमार्ग है ही नहीं, लेकिन जो वीतरागता का लक्ष्य किए हुए है वह शरीर को कहाँ डाल आवे। एक साधु है उसको अपने स्वभाव का लक्ष्य बना, अंतस्तत्त्व को पहिचाना, उसकी साधना में धुन बनी, ठीक है यह तो बड़ा अच्छा है मगर शरीर तो अभी लगा हुआ है। अच्छा एक दिन न खायें, दो दिन न खायें, पर संयम का साधनभूत शरीर बताया गया है व्यवहार में, तो अब इस शरीर को न भोजन दें तो प्रयोग करके देख लो, क्या दशा होती है। आलोचकों की तो यह दशा, दूसरे की आँख की फुली भी बहुत जल्दी दिख जाती है मगर अपनी आँख का टेंट भी नहीं दिखता, ऐसे ही जैसे देखो किसी के घर कोई इष्ट गुजर गया, पुत्र गुजर गया, मानो वह अकेला ही पुत्र था, तो वहाँ घर के लोग उसके पीछे बहुत-बहुत रोते। वहाँ जाने वाला पुरुष सोचता कि देखो यह लोग कितने मूर्ख हैं। व्यर्थ ही ये रो रहे हैं। उन्हें समझाता भी अरे ! क्यों रोते? वह तो तुम्हारा कुछ था ही नहीं, वह तो एक भिन्न जीव था, अकेला आया था, अकेला चला गया...! यों दूसरों को तो खूब समझाता, पर खुद पर कभी कोई ऐसी बात आ जाय तो फिर वहाँ वह स्वयं बड़ा विह्वल होता, दु:खी होता। तो दूसरों की बात तो झट समझ लेते, पर अपनी बात जरा कठिनाई से समझ में आती है। यह ही बात यहाँ हैं। कोई कहे कि मुनिजनों को तो आहार करने से तो कुछ मतलब न रखना चाहिए, उनको तो अप्रमत्तदशा में रहना चाहिए, वे आहार क्यों करते...? और कभी ऐसा कहने वाला व्यक्ति खुद मुनि बन जाय तो उसे पता पड़ता कि कब किस तरह से क्या होना चाहिए? तो ऐसी बात सोच करके तीर्थप्रवृत्ति का विनाश न हो, यह परंपरा बनी रहे, इस बात का सभी को ध्यान रखना चाहिए।
1392- गुणग्राहित्वप्रकृतिक मनुष्य का व्यवहार-
कोई मुनि, मान लो, कम ज्ञानी है फिर भी उस मार्ग में रहता है उसको ज्ञानमार्ग में बढने का अवसर तो है। तो चरणानुयोग की जितनी भी प्रक्रिया है, विधि है उसके अनुसार यह देख लेवें कि अमुक साधु में कषाय मंद हैं और चरणानुयोग की विधि वाली प्रकिया भी चल रही है, बस उसके आगे तीर्थप्रवृत्ति रखने के प्रसंग में और कुछ प्रासंगिक नहीं है निरखना, कि इसके मिथ्यात्व है या सम्यक्त्व है, यह कुछ निरखने की वहाँ कुछ आवश्यकता नहीं है। तीर्थ प्रवृत्ति में चलने वाले कोई मुनि मिलें तो उनका दर्शन करें, वंदन करें, यह तो मोक्षमार्ग में चलने वालों की बाहरी मुद्रा हुआ करती है और साथ ही देखिये, जैसे अदालत में किसी मुलजिम पर कुछ शक हो जाय कि पता नहीं इसने इस दूसरे को मारने का अभिप्राय किया या नहीं किया, तो उस शक पर क्या निर्णय होता कि उसको छूट हो जाती। याने वहाँ शक हो जाने पर यह मान लेना पड़ता है कि इसने यह अपराध नहीं किया। तो ऐसे ही किसी भी साधु में मिथ्यात्व है या सम्यक्त्व है यह तो कोई बता नहीं सकता और शक भी हो जाय, मायने उसमें मिथ्यात्व भी हो सकता और सम्यक्त्व भी हो सकता तो इस शक के होने पर अधिकतर किस ओर दृष्टि जाना चाहिए? उसके सम्यक्त्व की ओर। जैसे मुलजिम के कसूर के प्रति कुछ शक हो जाने पर उसे छूट दे दी जाती ऐसे ही मुनिजनों के प्रति भी सम्यक्त्व व मिथ्यात्व के संबंध में शक हो जाने पर उनके सम्यक्त्व की ओर दिमाग क्यों नहीं आया। मायने उनके मिथ्यात्व की ओर दृष्टि न जाकर सम्यक्त्व की ओर दृष्टि जानी चाहिए। देखिये, मुनि की मुद्रा देखकर, उसके बाहरी रूप को देखकर अपनी तीर्थ प्रवृत्ति को कायम रखने के लिए उनके प्रति भक्ति होनी चाहिए। इस प्रसंग में बातें तो अनेक आयेंगी, मगर अपने आपमें यह ही निर्णय बनाना है कि स्व का आश्रय करना है, बस सर्व विकल्पों को त्यागकर, सारे व्यवहार को, सारे पराश्रित भावों को त्यागकर एक अपने अंतस्तत्त्व का भान हो, यह ही अपने आपको अपने में देखना है तो व्यवहार कहो या अध्यवसाय कहो, ये दूसरे के बारे में कही हुई बातें त्याज्य हैं।
1393- व्यवहार शब्द का प्रकरणवश अर्थ समझकर उसके सत्य-असत्यपने का निर्णय करने का कर्तव्य-
इस प्रसंग में एक बात और जानना। व्यवहार शब्द के अनेक अर्थ हैं और अनेक स्थानों पर व्यवहार का प्रयोग होता है। जैसे विचार करना भी नाम व्यवहार। जैसे निमित्तनैमित्तिक योग, इसका भी नाम व्यवहार। जैसे तीर्थप्रवृत्ति, देवपूजा, वंदना, दर्शन, ये भी व्यवहार हैं। सम्यक्त्व से पहले जो कुछ उसका श्रद्धान बने, ज्ञान बने वह भी व्यवहार। सम्यग्दर्शन होने पर जो भी उसकी परिणति बनी वह भी व्यवहार। निश्चयनय, व्यवहारनय, वहाँ भी व्यवहार। और देखिये एक व्यवहार है द्रव्यार्थिकनय का भेद। नैगम, संग्रह, व्यवहार और इस द्रव्यार्थिक व्यवहारनय से ही उपादान उपादेय का निर्णय किया जाता है। दर्शनशास्त्र के अष्टसहस्री आदिक ग्रंथों में अध्यात्ममीमांसा की दिशा पाने के प्रयोजन से बहुत से ऐसे वर्णन हैं जिनसे स्पष्ट दर्शन होता है। जैसे कहा कि घट का उपादान क्या? मिट्टी का पिंड। यह किस नय से कहा? व्यवहारनय से। कौनसा व्यवहारनय? द्रव्यार्थिकरूप याने पूर्वपर्यायसंयुक्त द्रव्य को मुख्य रखा गया है एक उपादान में। केवल पर्याय कुछ होता नहीं, उपादान है तो परिणति वाला द्रव्य होता है, और इसके समाधान में कुछ शब्दों में बताया गया कि व्यवहार नामक द्रव्यार्थिकनय से उपादान उपादेय का निर्णय होता है। तो व्यवहार का प्रयोग कई जगह हुआ करता है। वहाँ विवेक रखना होगा कि यह व्यवहार असत्य है, यह व्यवहार सत्य है। यह सब निर्णय बनाना होगा, व्यवहार सत्य हो वह भी, व्यवहार असत्य हो वह भी, सभी व्यवहार आश्रय के योग्य नहीं है, भले ही किसी पदवी में व्यवहार आश्रय के योग्य कदाचित् हो। व्यवहार से सत्य-असत्यपने की ठीक परीक्षा करना चाहिये। ऐसा किये बिना कथन स्याद्वाद की शैली के अंतर्गत नहीं रह सकता।
1394- पराश्रयज बुद्धिपूर्वक अध्यवसान व्यवहारों की त्याज्यता-
यहाँ व्यवहार त्याज्य है, यह शब्द इस प्रकरण में आया है कि ये सारे अध्यवसान हैं, पर के बारे में जो कुछ सोचा जा रहा है वह सब व्यवहार है, वह त्याज्य है। क्यों त्याज्य है क्योंकि इस व्यवहार को तो अभव्य भी कर लेता। सभी बातों में व्रत पाले, तप पाले, शील पाले, संयम पाले और अपनी बुद्धि माफिक हृदय से पाले, मगर एक दूसरों पर रोब जमाने के लिये या अपनी प्रतिष्ठा कायम करने के लिये मुनिव्रत लिया हो तो उस मुनि के लिये दु:ख का ही कारण है। उसने चूँकि यह बात सुन रखी थी कि इस संसार में दु:ख ही दु:ख है, इसे छोड़ो और अपनी धर्मसाधना करो, मोक्ष के मार्ग में लगो। मोक्ष का मार्ग तो उसने नहीं पाया, पर नाम का तो पता है, और व्यवहार में जो कुछ चल रहा है उसे तो जानता है, अब इतनी बुद्धि रखकर यह व्रत करता, तप करता, शील पालन करता, उसके भीतर में पर्याय में आत्मबुद्धि बसी हुई है, मैं मुनिव्रत पाल रहा हूँ, मेरे को ऐसा करना चाहिये, लोगों को मेरे साथ यों व्यवहार करना चाहिये, इस तरह एक मुनि पर्याय में आत्मबुद्धि है इसलिए मिथ्यात्व है। देखो, बाहरी कोई बात की आकांक्षा भी नहीं हो, किंतु उस समझे हुए कल्पित धर्म के ख्याल से उसने तप, व्रत वगैरह पाला है तो पाले, मगर मोक्षमार्ग तो नहीं मिलता। इसीलिये हो रहा है उसका व्यवहार? वह प्रवृत्ति, वह पराश्रित व्यवहार हो रहा, मगर वह उससे अपने आपका दर्शन तो नहीं करता, उसे अपने आपकी मुक्ति का पथ तो नहीं मिला। इसलिये यह व्यवहार त्याज्य है, प्रतिषेध्य है।
1395- श्रुताध्ययन का गुण सहज-अंतस्तत्त्व का परिज्ञान न होने से एकादशांगपाठी के भी व्यवहार की अकार्यकारिता-
अच्छा, देखो कोई अभव्य या भव्य मिथ्यादृष्टि कितना भीज्ञानी बन जाय कि 11 अंग 9 पूर्व का ज्ञाता बन गया और देखिये 9 पूर्व में ज्ञानप्रवादपूर्व, आत्मप्रवादपूर्व, जैसे कई महत्त्वपूर्ण विषय आते हैं और उस पर उसका पूर्ण अधिकार है, उसका वह पाठी है, वह उपदेश देता होगा तो बड़े फोर्स से, बड़ी शक्ति से, बड़े अच्छे ढंग से देता ना, जिसके वचनों को सुनकर कहो दूसरे भी तिर जायें ऐसा बताया है ना। यहाँ एक बात समझिये कि वहाँ जो श्रोता है उसके मन में उस अंगपूर्व पाठी के प्रति यदि यह बात बसी हो कि यह तो अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है, 11 अंग के पाठी भी मिथ्यादृष्टि हो सकते हैं, यह भी अज्ञानी हो सकता है, ऐसा यदि ध्यान में हैं तो उससे भला नहीं है, उसे सन्मार्ग न मिलेगा, उसके सम्यक्त्व न जगेगा, क्योंकि उसके भावों में अज्ञान समाया है। अज्ञानी है भाव में तो वह उपदेश असर ही न करेगा। तो बात यह बतला रहे हैं कि कोई 11 अंग का पाठी हो फिर भी उसका व्यवहार प्रतिषेध्य है क्योंकि उसने 11 अंग पढ़ तो लिया मगर पढ़ने का गुण क्या है? गुनना। जैसे यहाँ बोलते हैं ना कि अमुक भाई पढ़े तो बहुत हैं मगर गुने नहीं हैं। तो पढ़ने से गुनना अच्छा होता है ना? हाँ अच्छा होता, कोई 11 अंग तो जान गया, मगर उस सबको जानने का फल तो यह है कि इस अंतस्तत्त्व का मान करें, पढ़ने का गुण तो नहीं लिया उसने, यह ही अर्थ है कि गुना नहीं, इतना अधिक ज्ञान किया इस अभव्य ने, उस पर ज्ञान का गुनना तो यह है कि निज अंतस्तत्त्व का परिचय पा ले, वह तो नहीं मिला ना, तब फिर काहे का ज्ञानी?
1396- अन्यायमयी क्रियावों के कर्ताओं के निश्चय तत्त्व की चर्चाओं की हास्यास्पदता-
लोग बोलते हैं ना कि कोई ज्ञान की बात तो बहुत ही बघराये मगर क्रिया अन्याय की करे याने ऐसे भी लोग हमको दिखे कि जो आपस में एक-दूसरे के प्रेमी थे, परस्पर धर्मचर्चा किया करते थे, भिंड में निश्चयैकांती एक व्यक्ति दूसरे की दूकान पर बैठा किराये से, वहाँ उसने कुछ ऐसी चाल खेली कि उस दूकान को अपने नाम खुद लिखकर उस पर नकली हस्ताक्षर लगवाकर अपने नाम से रजिस्ट्री करवा ली, झूठे दस्तखत कर दिये। इस तरह की बात तो हमने आपस में बड़ी-बड़ी अध्यात्म की चर्चा करने वालों के प्रति देखी। अब उसका केस चल रहा है। भला बतलाओ, ऐसा ज्ञान करने मात्र से क्या लाभ? इस प्रकार का अन्याय करने के लिए ही वह अध्यात्मचर्चा किया करते थे? अरे ! अध्यात्मचर्चा करने को प्रयोजन तो होना चाहिए था पापकार्यों से बचने के लिए व अपने आपके आत्मस्वरूप का अनुभव प्राप्त करने के लिए, मगर यह गुण तो नहीं मिला, इस कारण उसे सारे श्रुत के अध्ययन से भी वह आत्मज्ञान न बने तो उसके ज्ञान नहीं, दोनों बातें कह दीजिए, वह अज्ञानी है।
1397- गुणोपयोगिता में ही सन्मार्ग का लाभ-
देखो, कोई किसी के चित्त का क्या निर्णय बनायेगा, ऊपरी निर्णय भी न बना सकेगा। कोई ऐसे गृहस्थ पुरुष होते हैं कि उनके भीतर क्रोध की बड़ी ज्वाला जल रही और ऊपर से ऐसे-ऐसे शब्दों का उपयोग करेंगे कि जिससे यह जाहिर होगा कि यह तो बड़े शांत हैं, और भीतर से जल रही क्रोध की ज्वाला। यह कला उर्दू भाषा के लोगों में विशेष तौर से पायी जाती है। उनके उर्दू के कुछ ऐसे शब्द हैं कि जिनके बोलने से बड़ी शराफत (सज्जनता) मालूम होती, पर भीतर में क्रोध की भावना रह सकती। ऐसे ही विशेष मान की चाह रखने वालों के भी कुछ शब्द होते हैं कि अंदर से तो मान की बड़ी चाह भरी होती मगर ऊपर के शब्दों में बड़ी सरलता टपकती। मायाचारी की बात तो बड़ी विचित्र है, सभी लोग इस बात को खूब समझते हैं, किसी के अंदर की मायाचारी को कोई दूसरा समझ सकने में समर्थ नहीं, ऊपर से तो इतना सरलता का व्यवहार दिखेगा कि लोग उसकी सरलता से विशेष प्रभावित हो जायेंगे, मगर अंदर से ऐसी मायाचारी बसी रहा करती कि जिसका कुछ कहना नहीं। तृष्णा के संबंध में भी यही बात है। मान लो किसी का कुछ आशय बन गया है तो वह अपनी प्रतिष्ठा की चाह से बोली बोलेगा तो लाखों रुपयों के दान की बोलेगा, वहाँ ऊपर से देखने में तो ऐसा लगता कि इसके मन में तो जरा-भी लोभ नहीं है मगर उसके अंदर के परिणामों को तो देखो, उसके अंदर अपनी इज्जत, प्रतिष्ठा, सम्मान का भयंकर लोभ छिपा हुआ है। तो हम आपका यह एक निर्णय होना चाहिये कि अपनी एक ऐसी प्रकृति बने कि जिससे किसी भी जीव को देखें तो सर्वप्रथम उसका स्वरूप दृष्टि में आ जाना चाहिये। यह बात पाने के लिये हमको सर्वप्रथम अपने आपके आत्मस्वरूप के दर्शन का अभिलाषी होना चाहिये। यही बात यहाँ कही जा रही है कि लक्ष्य अपना अंतस्तत्त्व की दृष्टि का बनाना चाहिये। बस एक साथ सब सधे, एक अपने आपके अंतस्तत्त्व की साधना बनायें तो उससे सारी सिद्धि प्राप्त हो जायेगी।
1398- जीवों को अध्यवसाय का कष्ट-
प्रकरण चल रहा है कि संसारी जीवों को परेशान कर रखा है इस अध्यवसाय ने। इसके अतिरिक्त जीवों को और कोई कष्ट नहीं। सब जीव ज्ञानानंद से भरे हुये हैं। इन जीवों को क्या कष्ट है? भीतर में जो एक उमंग बनी, पर पदार्थों में करने की, पर को आपा मानने की और यहाँ तक कि जो भी पदार्थ ज्ञान में आ रहे हैं, चाहे उसका प्रयोजन हो चाहे न हो, बस उसके जानने में ऐसा तन्मय हुआ कि यह अपने को और अपनी प्रक्रिया को तो भूल जाता है और जैसा जाना बस उस ही रूप अपने को अनुभव करता है। जैसे कितने ही पुरुषों की आदत होती है कि अगर ऊपर से उड़कर हवाईजहाज जा रहा हो तो उसे देखे बिना चैन नहीं पड़ती। वैसे उस जहाज से प्रयोजन कुछ नहीं, न जहाज नीचे उतरेगा, न उस पर कोई चढ़ेगा, पर उसे बिना देखे चैन नहीं पड़ती, ऐसे ही यहाँ जितने भी पदार्थ ज्ञान में आ रहे हैं, काम कुछ नहीं है, मगर भीतर जो एक मिथ्याभाव पड़ा है उसके कारण जैसा जाना उस ओर ही इसकी लगन है कि मैं इसको जान रहा हूँ। प्रक्रिया भी भूल गया कि मैं स्वयं के अंतर्ज्ञेय को जानता हूँ और बाह्यज्ञेय में तन्मय रहता है। यह सब कहलाता है अध्यवसाय।
1399- अध्यवसाय के संभावित अर्थ-
अध्यवसाय का अर्थ क्या है? इसमें दो भेद हैं अधि+अवसाय। अधि उपसर्ग है व अवसाय नाम है निश्चय का व लगने का। तो निश्चय की तो यों कहो कि जो अधिक जान ले, अधिक निश्चय कर ले उसका नाम है अध्यवसाय याने भगवान से भी अधिक बड़ा यह मोही निश्चय करने में, जो भगवान से भी होड़ करे। भगवान ! तुम क्या जानते? तुम तो जो है उसे जानते हो, पर हमारा काम तो देखो जो हमारा नहीं है हम तो उसे भी पचा लेते हैं, उसको भी हम अपना लेते हैं...ऐसा भगवान से भी होड़ करके अपने को भारी जनवा बनाना, बस इसके मायने है अध्यवसाय। अध्यवसाय के बारे में और भी कई बातें कही जावेंगी, उनमें से एक बात यह भी है- भगवान नहीं जानते कि यह मकान इसका है- मगर ये मोही लोग जान रहे हैं कि यह मेरा मकान है। प्रभु तो इतना ही जानते कि यह यह है व वह वह है। जो है नहीं उसे कैसे जाने तो जो अधिक अवसाय करे तो अध्यवसाय। दूसरी बात अवसाय मायने लगना, जिससे व्यवसाय बनता है। व्यवसाय में वि उपसर्ग है और अवसाय शब्द है जिसका अर्थ है लगना। ऐसा अपने आत्मा में लगना कि कर रहा है कुछ। अनंत ज्ञान को भगवान जानते रहते हैं, वहाँ कुछ नहीं जंचता कि ये कुछ जान रहे, क्योंकि जिसे जाना वही फिर जाना, वही फिर जाना, याने इनमें (भगवान में) कुछ कला ही अधिक नहीं है, और यहाँ हममें तो देखो- इस-इस तरह से लग रहे हैं, ऐसी-ऐसी प्रवृत्तियाँ कर रहे हैं कि अद्भुत लगेंगी सबको। भला एकेंद्रिय में जन्म लेना, भिन्न-भिन्न वृक्षों में भिन्न-भिन्न रूप से फैलना, पत्ते-पत्ते में, फूल-फूल में, डाली-डाली में फैल जाना, फूलों के मकरंद किसी जगह में फैल जाना। ऐसे-ऐसे अनोखे काम हम कर रहे, जो लग रहा कि नई-नई प्रवृत्ति की, तो ऐसे जो अधिक व्यवसाय हैं उसे कहते हैं अध्यवसाय। मतलब यह है कि आत्मा के स्वभाव में जो बात नहीं है सो बातें करने की तरंगें हममें उठती, ऐसे ये सब अध्यवसाय कहलाते हैं। अध्यवसाय निश्चय के अर्थ में भी आता और लगने के अर्थ में भी आता है। अध्यवसाय क्या? कोई अधिक बात मानने को याने कोई उल्टी बात होने को अध्यवसाय कहते हैं।
1400- पराश्रित भाव अध्यवसाय को तजकर स्व में विश्राम करने का संदेश-
ये अध्यवसाय पराश्रित हैं, पर पदार्थों का उपयोग करके, पर पदार्थों में जुटान करके जो एक इसकी लंबी छलांग होती है, अवसाय होता है, वह सब त्याज्य है, याने सीधे अपने घर में बैठो, क्यों दंगा में पड़ रहे? क्यों लड़ाई –झगड़ा, ऊधम कर रहे हो? अपने घर में बैठो, शांत रहो, यह तो विवेक है, मगर अपने धाम को छोड़कर बाहरी पदार्थों में जबरदस्ती का एक अधिकार बनाना, ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’, यह सब दु:खकारी मुग्ध व्यवसाय अध्यवसाय है। जैसे कोई बेशरम यों जब चाहें पहुँच जावे वहाँ रहने लेकिन उस घर के लोग आदर देते नहीं, कहाँ तक आतिथ्य करेंगे? पर यह कहता ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’। तो ऐसे ही ये अज्ञानीजन इन बाह्य वस्तुओं से मानो यह कह रहे हैं कि तुम मुझे मानो चाहे न मानो, पर मैं तो तेरा मेहमान बनकर रहूँगा। भला बताओ, वह अचेतन पदार्थ काहे को इस तरह मानेगा? माने तो वह अपना अपमान हुआ। जैसे यहाँ कोई किसी से कहे कि यह तो मेरा आदमी है तो यह तो उस आदमी के लिए गाली जैसी बात हुई, क्योंकि इसके अंदर यह भाव छिपा हुआ है कि यह सेवक है और यह इसका मालिक है। तो यहाँ कोई मनुष्य तो इस तरह की बात सुनना पसंद न करेगा। वह तो इसमें अपना अपमान महसूस करेगा, पर वह बेचारा अनजान मकान क्या उत्तर दे सकता? यदि यह मकान भी इस तरह की बात समझता होता तो यह भी इस तरह की बात सुनना पसंद न करना, वह इसमें अपनी तौहीन समझता। यहाँ किसी भले मनुष्य को कोई यह कहकर देख तो ले कि यह मेरा आदमी है, यह मेरा सेवक है या यह मेरा दोस्त है। ऐसा कहने में स्वामित्व की बदबू भरी है तो उसमें मालिकाई आयी। कोई अपने लिए दूसरे को मालिकाई कैसे सोच सकता? मगर यह सब अज्ञानी जीवों का व्यवहार है, चल रहा है तो यह अध्यवसाय है।
1401- शुभोपयोग में आत्मत्व अध्यवसाय-
अच्छा, पाप का अध्यवसाय, मैं हिंसा करता हूँ, झूठ बोलता हूँ, इसको यों गवाही दूँगा, इसको यों अपमानित करूँगा। अच्छा और मान लो शुभ काम भी किया, जैसे भगवान की पूजा कर रहे, पूजा करने में गुण है क्योंकि भगवान का स्वरूप और मेरा स्वरूप समान है, उस स्वरूप की याद रहे तो अपने स्वभाव से संबंध बने, स्वभाव की याद आती, और इसी कारण बहुत नजदीक बात बन जाती, मगर उसके भीतर यों आस्था रखना कि मैं भगवान को पूजता हूँ, तो भगवान को कोई पूज सकता है क्या? फिर तो लो वह अध्यवसाय बन गया। तो ऐसे ही देखिये पराश्रितपने की बात नियामक नहीं होती। जिसके बाबत हम कोई विकल्प बनायें, वह मेरे विकल्पगत काम को बना दे ऐसा नहीं होता। जैसे ज्ञान, इतने शास्त्रों का ज्ञान करना यह सम्यग्ज्ञान है, तो यदि शास्त्र का ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता, तो जो-जो लोग शास्त्र का ज्ञान करते हैं वे सब आत्मज्ञानी कहलाते। आत्मा का ज्ञान सो ज्ञान। और शास्त्रों का ज्ञान है सो आत्मा के ज्ञान के लिए है, मगर बाहर में यहाँ ही दृष्टि लगाकर वहाँ ही ज्ञान खोजें तो यह क्या हुआ? पराश्रित बात हुई, अध्यवसाय और आत्मा के आश्रित जो ज्ञान है उसके बारे में नियम है कि वह ज्ञान ही है, वह मोक्षमार्ग है। ऐसे ही चलते चलें, 7 तत्त्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन और तीनों लोक की जो भी चीजें हैं उनका ज्ञान करना और ज्ञान की तनिक मजबूती करना यह है व्यवहार। अच्छा तो कितने ही जीव तो ऐसे हो सकते हैं कि उन तत्त्वों की बात करें, चर्चा करें और भीतर में सहज अंतस्तत्त्व का श्रद्धान न हो सके।
1402- प्रतिषेध्य होकर भी तीर्थपरंपरा बनाये रखने के लिये शुभोपयोग में प्रवर्तन-
तो अब समझिये स्व के आश्रय से जो बात हुई वह तो है निश्चय अथवा प्रतिषेधक और हमारा व्यवहार प्रतिषेध्य है। हालांकि तीर्थप्रवृत्ति का भंग न करना यह श्रद्धालुजनों का कर्तव्य है, तीर्थपरंपरा को नष्ट न करना यह जैन शासन के प्रति जो श्रद्धा जो रखता है उसमें प्राकृतिक बात बनती है। इसलिए जो-जो कुछ आम्नाय है, प्रवृत्ति है, व्यवहार है सो वह उस पद में चलता है, चलना चाहिए, क्योंकि और लोग भी धीरे-धीरे आयेंगे किस प्रकार से? जैसे एक अपने पर ही घटा लो, जो आज अध्यात्म के प्रेमी बनते हैं वे बचपन में क्या थे, फिर क्या हुआ, फिर किस तरह हुआ, आखिर पहले उस व्यवहार में रहे, उसी में बढ़े, चले, कुछ सिलसिला बना, परिचय बना, फिर ज्ञान बना, फिर अपनी ओर कुछ झुके तो वहाँ अपने आपका कल्याण करने के लिए एक अवसर मिला। कैसे दूसरे को समझाया जायगा कि अब तुम इस व्यवहार में न पड़ो, अपने आत्मतत्त्व में लगो? यह बात अगर उसे समझायी जाय जो व्यवहार में आया ही नहीं है, कि यह व्यवहार बिल्कुल त्याज्य है, इससे दूर रहो, इसे छुओ मत तो फिर उसकी स्वच्छंदता और भी बढ़ जायेगी। जैसे कोर्इ पुरुष नीचे खड़ा है और उससे ऊपर वाला पुरुष कहे कि देखो भाई, सीढ़ी छोड़ने से हम ऊपर आये हैं तुम लोग सीढ़ी को मत ग्रहण करो, छोड़े रहो, तो उसका ऐसा कहना योग्य नहीं। अरे ! उसे तो यह कहना चाहिए कि हम तो सीढ़ी को ग्रहणकर, छोड़कर आये हैं ऐसा ही तुम भी करोगे तो ऊपर आ जाओगे, ऐसे ही इस व्यवहारमार्ग का यहाँ निषेध नहीं है मगर व्यवहारमार्ग में जो चल रहे हैं उनके लिए यह उपदेश है कि व्यवहार को मोक्षमार्ग मत मानो, मोक्षमार्ग तो निज सहज स्वभाव का आश्रय है। यह व्यवहार ही तुम्हारे लिए सर्वस्व नहीं है, कल्याणकारी नहीं है, किंतु अपने अंतस्तत्त्व को सम्हालो।
1403- अविकार स्वभाव के आश्रय द्वारा व्यवहार की प्रतिषेध्यता-
जो शुभोपयोगी मुनि हैं उन पर डाँट अधिक पड़ी है समयसार में। शुभोपयोगासक्त मुनियों को संबोधन की डाट पड़ी है कि तू इस शुभोपयोग को मोक्ष का हेतु मानता है, तू उसको एक मोक्षमार्ग मानता है, अरे ! जितना वीतराग तत्त्व है वह है मोक्षमार्ग, तू अपने आपका श्रद्धान कर, तो अपने हित की बात चित्त में आना चाहिए। शुभोपयोग किसी पदवी तक बताया है, मगर सर्वथा उपादेय वह शुद्धोपयोग है। एक परिणति है आचार आदिक अंगों का ज्ञान करना, यह ही ज्ञान मोक्ष का हेतु हो सो बात नहीं, अभव्य भी एकादश अंग का ज्ञान करते हैं। इसमें विषय नहीं बनता कि जो 11 अंग का ज्ञान कर लिया, जो 7 तत्त्वों की श्रद्धा बना ली, जो षट्कायजीवरक्षा कर ली वह नियम से रत्नत्रय है। व्यवहार क्रिया में मोक्षमार्ग का नियम नहीं बनता, मगर यह नियम है कि जो-जो सहज अंतस्तत्त्व में अहं का अनुभव करे, ज्ञान करे, यहाँ मग्न हो वह नियम से मोक्षमार्गी है, तो यहाँ पराश्रित व्यवहार का त्याग कराया गया है, लेकिन उसे अनर्थ माने कोई तो तीर्थ मिट जावेगा। अब यहाँ एक प्रश्न होना स्वाभाविक है कि यह तो समझ में आया कि जो रागादिक हैं वे हेय हैं, बंध हैं, इस जीव की परतंत्रता के हेतुभूत है, मगर ये बने कैसे, ऐसा प्रश्न इस काव्य में कर रहे हैं।