वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 172
From जैनकोष
विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यत्प्रभावादात्मानमात्मा विदधाति विश्वम् ।
मोहैककंदोऽध्यवसाय एष नास्तीह येषां यतयस्त एव ॥172॥
1369- पराध्यवसायों की मिथ्यारूपता-
प्रकरण यह चल रहा था कि यह अज्ञानी जीव परपदार्थों के बारे में नाना तरह के अध्यवसाय करता है और उन अध्यवसायों से अपने को नानारूप बनाता रहता है। अब इस छंद में यह स्पष्ट कर रहे हैं कि जिसके बारे में यह जीव अध्यवसाय करता है, विकल्प करता है वे सब अत्यंत भिन्न हैं। सारे विश्व से, समस्त साधनों से यह आत्मा विभक्त है, निराला है। जिस जीव के बारे में अज्ञानी ने विचार किया कि मैं इसको मारूँ, जलाऊँ, पालूँ, कुछ भी विचार किया तो यह जीव इससे मिला हुआ है या निराला है? एक का दूसरे में अत्यंताभाव है, याने त्रिकाल निराला पदार्थ है। मैं अन्य आत्मा में मिल नहीं सकता। जितने भी ये बाहरी साधन हैं इन सबमें इस आत्मा का त्रिकाल अभाव है, अत्यंताभाव है, कभी यह मिल-जुल नहीं सकता। घर में रहते तो इस प्रकार का प्रयोग तो करें रोज-रोज कि जिन बच्चों में प्रीति है उनको सामने बैठाये हों या गोद में ले लिया हो तो उसके बारे में विचार तो करें कि यह जो जीव है इसमें मेरा जीव मिला-जुला है या अत्यंताभाव है? मैं और यह कभी भी एक नहीं हो सकता। इसके कर्म का उदय, इसकी परिणति इसके परिणाम से चलती है, इससे मेरा संबंध नहीं कुछ, फिर भी उसके बारे में यह विचार करना कि मैं इस भैया को, इस राजा को ऐसा पढ़ाऊँगा, ऐसा करूँगा, यह बड़ा होगा, कमायेगा, मुझे खिलायेगा...यों खूब अध्यवसाय करते रोज-रोज, मगर उसका कुछ पता भी तो नहीं कि बड़ा होकर वह क्या करेगा?
1370- अज्ञानी के अज्ञान से विश्व का आत्मीकरण-
यह जीव तो इस संसार में अकेले ही जन्म-मरण कर रहा है, खुद के खुद ही अकेले जिम्मेदार हैं, अब इस जीव को कोई रक्षक तो नहीं है बाहर में, मगर यह आत्मा अध्यवसाय बनाता रहता है। विश्व में सबसे निराला है यह जीव, मगर इसने सारे विश्व को अपना मान लिया, विश्वरूप अपने को बना डाला उसमें किसका प्रभाव है? अध्यवसाय का, अज्ञान का। अज्ञान का ऐसा प्रभाव है कि सारा विश्व न्यारा है, लेकिन इस सारे विश्व को इसने अपने रूप बना डाला। मैं हूँ, मेरा है, इसे अपने स्वरूप की सुध नहीं। देखो, ज्ञान में बढ़ो और ऐसे निर्मलभाव से ठहरो कि सब जीवों के प्रति समता-परिणाम हो। यह तो दया की बात है, जो अपनी दया करेगा वह पार होगा, न करेगा तो संसार में रुलेगा। किसी जीव के प्रति यह बात न आये कि ये सब गैर हैं और ये मेरे हैं। व्यवहार में कहना पड़ता है, रहना पड़ता है, वे सब बातें अलग करें, मगर जो भीतर में एक गाँठ- सी लग बैठती कि ये खुद के घर के दो चार जीव तो मेरे है, बाकी सब गैर है और इतना गैररूप से निरखते कि मानो उनकी जान ही न हो। तो ऐसी बुद्धि जब तक है तब तक स्वानुभव की पात्रता भी नहीं होती, इस कारण यह अध्यवसाय त्याग ने योग्य है। सब जीवों में स्वरूप को निरखें, सबका स्वरूप समान है, फिर कौन मेरा, कौन गैर? गैर है तो सब, और मेरे है तो सब। उनमें यह छटनी होना कि ये मेरे हैं, ये गैर हैं, यह किसका घात करेगा? खुद का यह आत्महनन है। इस मोह में, राग में, द्वेष में, अध्यवसाय में आत्महनन है। जैसे भी बने शुद्ध ज्ञानार्जन करें, अपने आप पर ही करुणा करना है। एक आत्महित की भावना से ही ज्ञान का प्रयोग करना और अपने ज्ञान द्वारा अपने में अंत: प्रकाशमान इस सहज ज्ञानमात्र भगवान आत्मस्वरूप का अनुभव करना है। यह हो तो सब ठीक और ये न होंगे तो चाहे दुनिया में दिखाने के लिए कुछ भी कर दिया जाय, मगर उससे पार नहीं हो सकते।
1371- विश्व से विभक्त होने पर भी अज्ञान से आत्मा का विश्वरूपीकरण-
यह जीव सारे विश्व से विभक्त है फिर भी इस अध्यवसाय के प्रभाव से यह आत्मा अपने को नाना विश्वरूप बना डालता है। मैं तिर्यंच हूँ, नारकी हूँ, देव हूँ, उस समय यह तो बात एकाएक नहीं आती समझ में, इस समय तो समझ में आता है कि मैं मनुष्य व्यापारी हूँ, सर्विस वाला हूँ, ज्ञानी हूँ, बुद्धिमान हूँ, मूर्ख हूँ। कितनी-कितनी तरह के अध्यवसाय से अपने को नानारूप कर रहे हैं। यह परखने में नहीं आता कि यह मैं तो इन लदानों से रीता हूँ। ये कर्मरस हैं, मैं अपने गुणों से भरपूर हूँ, मगर जिनसे मैं भरपूर मानता चला आया था भ्रम में, उनसे तो यह ज्ञानमात्र मैं बिल्कुल रिक्त, शून्य हूँ, अकेला, अमूर्त प्रकाशमान हूँ। यह मैं परमार्थभूत पदार्थ हूँ, यह अमूर्त है। यदि अपने आपमें बसे हुए इस अंतस्वरूप की दृष्टि बने तो यह अमृतपान किया और इसको छोड़कर बाहरी पदार्थों में चाहे धर्म के नाम पर, चाहे परिवार के नाम पर, चाहे अन्य लौकिक प्रतिष्ठा के नाम पर, किसी भी बात पर यदि बाह्य पदार्थों में अध्यवसाय रखे तो यह विषपान है। अमृत को पियो और विष को त्यागो, रागद्वेष परिणाम छोड़ो, अपने में समता लावो। रहना तो कुछ यहाँ है नहीं, आपके साथ न सदा मकान रहेगा न परिवार, मरकर न जाने कहाँ से कहाँ पहुँचता है। जीव न जाने मरकर किस जगह गया, किस पर्याय में गया, कुछ पता भी है क्या? फिर वर्तमान में जो संग मिला है इसमें विमोद्वित होना यह कितनी मूढ़ता की बात है। अपने में ज्ञानप्रकाश लावें और इस नरभव को सफल करें। मुझसे सब कुछ ये बाहरी पदार्थ अत्यंत भिन्न हैं, मगर अज्ञान अवस्था में परपदार्थ में अपना उपयोग जुटाकर नाना तरह के अध्यवसाय बनाये गये।
1372- अध्यवसायों का त्रैविध्य–
यहाँ अध्यवसाय का जिक्र हुआ है। ये तीन तरह के अध्यवसाय हैं पहला क्रियागर्भ अध्यवसाय- मैं करता हूँ, मारता हूँ, पढ़ाता हूँ, जलाता हूँ...कितनी-कितनी तरह की क्रियायें हैं। दूसरा अध्यवसाय है विपच्यमान अध्यवसाय- मैं नारकी हूँ, तिर्यंच हूँ, व्यापारी हूँ, रोजगार हूँ, अमुक हूँ, तमुक हूँ। इस प्रकार व्यवहार काम तो चलता है, मगर आस्था में यह बात रहना चाहिये कि मैं चैतन्यप्रकाशमात्र अमूर्त नामरहित भगवान आत्मतत्त्व हूँ। यह आस्था रहना चाहिए हर जगह, मगर अज्ञान अवस्था में इस ओर दृष्टि नहीं पहुँचती और बस निरंतर अपने नाम की चाह रहती। मानो किसी जगह 50 आदमी सो रहे, उनमें से किसी का नाम लेकर किसी ने पुकारा तो जिसका वह नाम हुआ वह झट उठकर बैठ जाता, इतना तेज अपने नाम का संस्कार इन जीवों के पड़ा है। तो बात यह कह रहे कि नाम का संस्कार कैसा भिड़ा पड़ा है अंतरंग में, मैं अमुक हूँ..., अरे ! मैं तो इस निर्नाम चैतन्यप्रकाशमात्र आत्मतत्त्व हूँ। देखिये- बड़ी साधना की जरूरत है। और इसके लिए समस्त बाह्य पदार्थों का परिहार करने का साहस होना चाहिए। यहाँ तो लोग व्यर्थ ही अपनी शान लिए फिर रहे। जैसे कि लंगूर अपनी पूँछ ऊपर किए फिर रहा ऐसे ही ये मनुष्य अपनी शान पूँछ की तरह सम्हाले हुए चल रहे। शान लग रही है पीछे-पीछे, जैसे कि पूँछ लगी हैं बिल्कुल पीछे। यह लंगूर अपनी पूँछ उठाकर सम्हाल-सम्हालकर बड़ी उमंग बनाता है इसी तरह यह अज्ञानी जीव अपनी शान को पूँछ की तरह उठाये-उठाये फिरता और दु:खी होता है। कहाँ की शान? भीतर तो देखो चैतन्यप्रकाशमात्र यह परमब्रह्म तत्त्व हूँ मैं। इसकी बाहर शान कुछ नहीं।
1373- शान मान के अध्यवसाय को सभी उपायों से दूर करने का अनुरोध-
भैया, कल्याण की भावना है तो कभी कुछ समय जान-जानकर भी अपमान कराना चाहिए ऐसा मेरा ख्याल है ताकि अपना ठिकाना फिट तो बैठ जाय। एक बार की बात सुनो। हमने देहरादून में चौमासा किया, तो वहाँ पर सभी लोग बड़े विनय से, श्रद्धाभक्ति से तो रखते ही थे। ऐसा तो प्राय: सभी जगह होता है। तो वहाँ पर रोज-रोज अपने प्रति प्रशंसायें लोगों के मुख से सुनने में आवें। अब कहाँ तक सुनें, ऊब गये। एक दिन हमें यह बात सूझी कि कुछ ऐसा काम करें कि जिससे कुछ निंदा, अपमान या गाली की जैसी बातें सुनने को मिलें। आखिर किया क्या कि प्रात: काल शौच क्रिया के लिये बाहर जाते थे, रास्ते में देखा कि कुछ पंजाबियों के लड़के गोली खेल रहे थे, तो वहाँ हमने जानबूझकर उन लड़कों की गोलियों को पैर मारकर मामूली जरासा इधर-उधर बिखेर दिया। बस शुरू हो गया ऊटपटाँग गाली देना उन बालकों का। तो वहाँ हमको संतोष मिला कि देखो जो हम चाहते थे सो हमें मिल गया। आखिर समता से उन्हें सुनकर आगे बढ़ गया, क्षोभ का अवकाश वहाँ न आने पाया। वेदांत की टीका में एक कथा है कि कोई गुरु शिष्य थे। वे बहुत पहुँचे हुए माने जाते थे। उनकी प्रशंसायें चारों ओर खूब फैल रही थी। उनका चमत्कार देखकर लोगों का समूह उनके पास आता-जाता था। वे बस्ती से बाहर एक पहाड़ी पर रहते थे। वहाँ के राजा ने भी उनकी प्रशंसा की बातें सुनकर उनके दर्शनार्थ अपना प्रोग्राम बनाया। खूब सज-धजकर एक बड़े समूह के साथ चल दिया राजा। उधर गुरु को यह सब भीड़भाड़ एक अपने ऊपर आफत दिखने लगी, जब यह जानकारी हुई कि राजा भी मेरे दर्शनार्थ आ रहा है तो समझा कि अब तो और भी आफत आ गई। आखिर उसने सारी आफतों से बचने का एक उपाय बनाया। क्या उपाय बनाया कि अपने शिष्य को समझा दिया कि देखो आज अपने पास राजा आयेगा। उसके सामने हम तुम दोनों रोटियों के लिये इस तरह से झगड़ेंगे। सब समझा दिया। आखिर राजा एक बहुत बड़े समूह के साथ आया, आते ही गुरु शिष्य परस्पर में रोटियों के लिए झगड़ने लगे, अरे आज तो हमको दो ही रोटियाँ दी, तुमने तो 6 खाई।...कल आपने भी तो 6 खाई थी, हमने तो सिर्फ दो ही खाई थी...। ऐसा यह सुनकर राजा दंग रह गया, सोचने लगा- अरे ! काहे के साधु ! ये तो रोटियों के लिये लड़ते-फिरते, हमने तो इनकी बड़ी-बड़ी चमत्कार की बातें सुनी थी, पर यहाँ तो कहीं कुछ नहीं। राजा तुरंत समूह सहित वापस लौट गया। बाद में गुरु बोला अपने शिष्य से- देखो अब तो अपना काम बन गया। यदि लोगों का अधिक आना-जाना बना रहता तो वह तो अपने लिए एक आफत थी। तो मतलब यह है कि यहाँ नामवरी की बात क्या सोचना? उस बाहरी सम्मान में धरा क्या है? बल्कि वहाँ अशांति है। यदि शांति चाहिये हो तो कभी अपमान की बात हो रही हो तो उसका भी स्वागत करें।
1374- अध्यवसायों की मोहमूलता-
यहाँ जितनी जो कुछ अटपट बातें लोगों में दिख रही है वह सब एक इस अध्यवसाय का ही प्रभाव है। यह अध्यवसाय कैसा है? मोह ही जिसकी एक जड़ है। यह अध्यवसाय क्यों बनता है? बाह्य पदार्थों में लगाव है, प्रीति है तो ये अध्यवसाय बनते हैं। इन सबकी जड़ है मोह। मोह के मायने क्या? अज्ञान। बहुत से लोग तो इस मोह में और राग में कुछ भेद नहीं समझते, मोह में भी प्रेम होता और राग में भी प्रेम होता। लोग यों मोटे रूप में मोह और राग में फर्क नहीं समझते पर जैसे मोह में राग होता ऐसे ही मोह में द्वेष नहीं होता क्या? द्वेष भी होता। तो राग और द्वेष इन दोनों परिणतियों से न्यारी परिणति है मोह की, वह कैसे? मोह के मायने अज्ञान है। जैसे हाथी को पकड़ने वाले शिकारी लोग क्या करते कि जंगल में एक बड़ा गड्ढा खोदते, उस गड्ढे को बाँस की पतली पतली पंचों से पाटते, उस पर ऊपर पतली सी मिट्टी लीपते, फिर उसके ऊपर एक बाँसों की कागज वगैरह चिपकाकर हथिनी बनाते, उससे कुछ ही दूरी पर उसकी ओर बढ़ता हुआ एक झूठा हाथी बनाते। अब उस जंगल का हाथी वहाँ आता, उस हथिनी को देखता, साथ ही उसकी ओर बढ़ता हुआ हाथी को भी देखता तो झट उस हथिनी के पास दौड़ लगाकर पहुँचता, वहाँ पहुँचते ही वह हाथी उस गड्ढे में गिर जाता। अब देखिये, जंगल में उस हाथी की यह दशा क्यों हुई? क्यों गिरा वह हाथी गड्ढे में? तो उसके गड्ढे में गिरने के तीन कारण हुए। पहला कारण तो है अज्ञान (मोह), उसके ज्ञान में यह बात न थी कि यह झूठी (बनावटी) हथिनी है, यहाँ गड्ढा है, यह हमको पकड़ने के लिए रचा है। दूसरी बात उस हथिनी (कुट्टनी) के प्रति उसे राग हुआ और तीसरी बात उस नकली बनावटी हाथी के प्रति द्वेष जगा कि यह मेरा विषय छुड़ाने आ रहा। तो अब यहाँ अंतर आ गया ना मोह, राग, द्वेष का? द्वेष क्या चीज है? जिस विषय को हम चाहते हैं उस विषय में कोई बाधा डाले, प्रतिकूल बात बोले तो वह यद्यपि अपनी कषाय का ही काम करता है, मगर इसने तो बाधा समझा उसे। उसे मान लिया कि यह राग, द्वेष की चीज है तो मोह, राग, द्वेष ये अध्यवसाय के मूल में हैं।
1375- क्रियागर्भाध्यवसाय व विपच्यामानाध्यवसाय की मिथ्यारूपता का दिर्ग्दशन-
मोह ही जिसका एक मूल है, ऐसा अध्यवसाय जिसके नहीं है वह ही पुरुष यति, मुनि, साधु, साधक याने आत्मविकास में प्रयत्न करने वाला है। वे सब मोहमूलिक अध्यवसाय हैं, जैसे कि पहला अध्यवसाय बना? में अमुक को करता हूँ, मैं पढ़ाता हूँ, लिखाता हूँ, इसका सब कुछ करता हूँ, तो अब वहाँ इतना ज्ञान न रहा कि मैं हूँ ज्ञानमात्र अंत: प्रकाश और मेरी क्रिया जानन है। भीतर ज्ञानस्वरूप है ना यह जीव आत्मा ज्ञानमात्र अमूर्त, जिसका ज्ञान इंद्रिय द्वारा नहीं, वचनों द्वारा नहीं, उपयोग वैसा बनावें, प्रयोग करें वैसा बन सकें तो अपना आत्मस्वरूप अनुभव में आ जायगा। मैं ज्ञान मात्र हूँ, मेरा काम तो जानन है। जो इस स्वरूप में ही, अंदर प्रदेशों में ही स्वच्छ तरंग जाननरूप से उठ रही है, जिसमें रागद्वेष की कोई कीचड़ नहीं, कोई विकल्प नहीं, विशुद्ध जानन क्रिया है, मेरा काम तो विशुद्ध जानन है, खाना-पीना, लिखना-पढ़ना, अमुक-तमुक जो कुछ भी बातें चल रही है, इनको मैं नहीं करता मैं तो जानन को ही करता। देखो, काम तो स्वभाव के आश्रय का और स्वभाव का आश्रय सुगमता से जानना है तो एक बार निमित्तनैमित्तिकभाव के यथार्थ परिचय के माध्यम से प्राप्त करने तो चलें। उसके बाद परम शुद्धनिश्चयनय बनेगा, अनंतर शुद्धनय होकर ऐसा जल्दी उतरेंगे स्वभाव में कि और आसानी रहेगी। उस परिचय में आपको दिखेगा क्या कि ये जो रागद्वेष, विकार क्रियायें, जितनी भी ये विकृतियाँ हैं ये मूल में तो कर्म में पड़ी हुई हैं और उस विकार रूप से परिणम रहे कर्म का यह प्रतिफलन है क्योंकि मैं उपयोग दर्पण की तरह स्वच्छ हूँ उसमें इसकी फोटो है, प्रतिफलन है, यह मैं नहीं, यह मेरे स्वरूप की चीज नहीं। यह तो पौद्गलिक, नैमित्तिक, औपाधिक है, मैं तो अंत: चैतन्य स्वभावमात्र हूँ। देखिये, विभाव में उपेक्षा कब बनेगी, जब वे परभाव हैं, यह बात समझ में आयगी और परभाव हैं, यह समझ बनाने के लिए समयसार में इस बात पर जोर दिया ‘कर्मोदयविपाकप्रभवा भावा: परभावा न ते मम स्वभावा:’ ये कर्मोदयविपाकप्रभव, ये विकृतियाँ विभाव हैं मेरे स्वरूप नहीं, मैं तो अपने अंत: जानन क्रिया को करता हूँ, अपने स्वरूप में ही रहता।
1376- स्वभावाभिमुख होकर स्वभावस्थ होने के पौरुष की श्लाघनीयता-
अंत: स्वभाव के परिचय का उद्देश्य केवल एक ही है कि किसी भी तरह उन सर्व विकल्पों से हटकर स्वभाव का आश्रय करूँ। स्वभावाश्रय के पहले शुद्धनय आता है, शुद्धनय बिना स्वभावाश्रय नहीं हो सकता। उस शुद्धनय से पहले परमशुद्ध निश्चयनय आता, उससे पहले अनेक बातें आती हैं मगर उसका प्रयोग इस ढंग से करना होता कि जिससे विभाव छूटें और स्वभाव की अभिमुखता बने, यह ही एक प्रयोग करना। और देखो, अपने को तो अपना काम बनाना है, एक चैतन्यस्वरूप का आलंबन बने उसमें ही मग्नता रहे, एक यह बात चाहना है। इसके लिए जो प्रयोग बन सके उसे करें, पर यह निश्चय है कि आखिरी प्रयोग शुद्धनय है, शुद्धनय हेय नहीं। जिसने शुद्धनय को नहीं त्यागा, जिसने शुद्धनय का ग्रहण किया उसके बंध नहीं है। मगर और और बातें और और परिणतियाँ जो शुद्धनय से पहले होती हैं या जो जो कुछ भी काम करके उस सबसे हम ऐसा प्रयोग बना सकते हैं कि जिससे स्वभाव में मदद पा सकते हैं, सो ये पूजन-वंदन आदिक क्रियायें ये मंदरागमयी है। मेरी क्रिया तो ज्ञप्ति है, जानन है, ऐसा भेद जिसने जाना, अध्यवसाय को जिसने मिटा दिया वह पुरुष धनी है और अपने आपमें वह एक ब्रह्म प्रकाश पाता है। ये अवस्थायें, ये परिणतियाँ मनुष्य, तिर्यंचादिक जो जो भी चीजें बन रही हैं यह मैं नहीं हूँ, ये कर्मविपाकप्रभव हैं। मैं तो एक ज्ञायकस्वरूप हूँ, मैं तो एक अंतस्तत्त्व चैतन्यस्वभावमात्र हूँ। इसमें तो बहुत अंतर है- कहाँ तो ये विकार और कहाँ यह मैं ज्ञान स्वभावमात्र।
1377- ज्ञायमानाध्यवसाय के मिथ्यापन का कारण-
जानने में जो कुछ आ रहा यह कुछ भी जानने में नहीं आ रहा। जिसको हम जान रहे हैं कि इतने लोग बैठे हैं परमार्थत: ये कुछ भी मैं नहीं जान रहा हूँ। किंतु मैं उस प्रकार के ज्ञेयाकार ग्रहणरूप, जाननरूप अपने आत्मा को जान रहा हूँ। मेरा ज्ञान मेरे आत्मा से निकलकर कहीं बाहरी पदार्थों में घूमता है क्या? जाता है क्या? अरे ! यह ज्ञानराजा अपने इस ज्ञानकिले में ही विराजा हुआ, बस यह सब कुछ अपने में इन सबको जान रहा है। जैसे दर्पण सामने है तो पीठ पीछे की दूसरी चीजें उसमें प्रतिबिंबित होती है। देखते हैं सामने दर्पण को मगर वर्णन पीछे होने वाली घटनाओं का करते जाते हैं। इसी तरह यह आत्मा देख किसे रहा, जान किसे रहा? अपने आत्मा को, अपने आत्मा की परिणति को मगर यह समस्त विश्वाकार ग्रहण चल रहा है; इस ज्ञाता की, इस ज्ञान की प्रकृति ही यह है कि दुनिया में जो भी सत् है वह सब यहाँ झलके। यह जाना तो असल में हमने जाना किसे? अपने को ही, मगर यह भ्रम बन गया कि मैं इसको जानता हूँ, इसको समझता हूँ, तो इसके साथ ही साथ उसमें ऐसा लीन हो जाता है कि अपने आपके उस स्वरूप को भूल जाता है। जैसे दर्पण पर अंधकार का फोटो आया तो दर्पण की स्वच्छता विलुप्त हो गई इसी तरह इस उपयोग ने इन बाहरी पदार्थों में अपना जुटान किया भर तो जुटान करने के कारण अब यह उपयोग की स्वच्छता तिरोहित हो गई। यह सब आया तो उसी पद्धति से ही उपयोग में, मगर अपने को भूले और बाहर में उपयोग जुटाया इस कारण से यह आत्मा पूरा अंधेरे में है। उस समय यह अज्ञानी ज्ञायमान अर्थ में तन्मय होता हुआ अपने स्वरूप को भूलकर व्यग्र होता है।
1378- त्रिविधाध्यवसायरहित यतियों के आत्मतृप्ति-
ये अध्यवसाय तीनों तरह के जिन पुरुषों के नहीं है वे पुरुष यति हैं, उन मुनिजनों का निरंतर साक्षात्कार हो नहीं तो प्रतीति में तो निरंतर है। कभी अनुभव, कभी प्रतीति यह सब है। लोग तो बड़ा आश्चर्य करते कि मुनिजन अकेले ही रहते हैं एकांत निर्जन स्थान में, फिर भी प्रसन्न रहते हैं, उनको यह इच्छा ही नहीं होती है कि मेरे पास कोई आये। कोई आ नहीं रहा, भीड़-भाड़ नहीं हो रही, कुछ नहीं हो रहा, जंगल में उन मुनिराज के पास कोई प्रकार का सहारा देने वाला नहीं, कोई बात करने वाला भी नहीं, उनका कैसे मन लग जाता होगा? यहाँ लोग संदेह करते ना? अरे ! उन मुनिराज को तो इतना बड़ा भगवान मिला है कि वे उससे ही बातें करते रहते हैं। भला भगवान बातें करने को मिल जाय तो फिर उसके आगे मोह, रागद्वेष से बात करने की उमंग रह सकती क्या? उन मुनियों को जंगल में, अपने आपके आत्मा में अपना भगवान अंतस्तत्त्व मिल गया; उसी की दृष्टि में, उसी की चर्चा में, उसी के ध्यान में जब वे मग्न हो रहे, वहीं जब उनको आनंद मिल रहा तो वे क्यों इच्छा करे कि मेरे पास कोई आता नहीं, मेरे से कोई बोलता नहीं, मैं कहाँ हूँ? कोई नौकर भी नहीं, कोई परिवार भी नहीं, कुछ धेला पैसा भी नहीं, उन्हें क्या परवाह? वे तो अपनी अंत:दृष्टि करके निरंतर अमृतपान करते रहते हैं, ज्ञानमात्र अपने आत्मा का अनुभव करते रहते हैं, ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व में तृप्त होते रहते हैं, संतुष्ट होते रहते हैं। उनको अन्य किन्हीं बातों की क्या परवाह? यों उनको संतोष होता है। तो जिन्होंने इस अध्यवसाय को त्याग दिया वे पुरुष अपने आपमें तृप्त रहते और मोक्षमार्ग में अपनी प्रगति बनाते हैं।