वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 183
From जैनकोष
अद्वैतापि हि चेतना जगति चेद् दृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत्
तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्साऽस्तित्वमेव त्यजेत् ।
तत्त्यागे जडता चितोऽपि भवति व्याप्यो विना व्यापका-
दात्मा चांतमुपैति तेन नियतं दृग्ज्ञप्तिरूपास्तु चित् ॥183॥
1501- चेतन की मोक्षविधि का संकेत-
यह मोक्ष अधिकार है। यहाँ बताया गया है अपना मोक्ष। अपना मोक्ष मायने मोक्ष में होता क्या है?दो चीजें थी साथ तो उनका अलगाव हो गया, तो अकेला ही मात्र आत्मा रह गया। देखिये, कर्म का भी मोक्ष हो गया और जीव का भी मोक्ष हो गया, मगर कर्म की आदत बुरी है। मोक्ष होने के बाद फिर वह दूसरे से मिल जायगा, कर्म बन जायगा, पर जीव की ईमानदारी बढ़िया है कि एक बार मोक्ष हुए बाद विकार नहीं आता। तो दो का हटाव करना है। वे दो क्या? आत्मा और बंध, आत्मा और विभाव। इनका लक्षण जाना था ये बिल्कुल जुदे-जुदे तत्त्व हैं। उनमें जो दु:खदायी है, अपवित्र है, औपाधिक है, उससे तो मुख मोड़े और जो अपना स्वरूप है, शाश्वत है, जहाँ धोखा रंच नहीं उसे ग्रहण किया जाय। क्या ग्रहण किया जाता है? बस वह है चेतना। चैतन्यस्वरूप, चेतना, आत्माचेतन, किन्हीं शब्दों में कहो, बंध से मुख मोड़कर यह अंतस्तत्त्व वहाँ ग्रहण किया गया। उस चेतना की बात कही जा रही कि जो ग्रहण किया गया। वह है कैसी? तो यह चेतना अद्वैत है। यह आत्मा अद्वैत है। देखो, धर्म और धर्मी जुदे-जुदे मूड में जब दृष्टि में लिए जाते हैं तो यद्यपि वस्तु वही है, फिर भी उसका एक जुदा-जुदा स्वरस प्राप्त होता है। चेतना अद्वैत है।
1502- सर्वाद्वैत की अविचारित रमणीयता-
अद्वैत होते हैं दो प्रकार के- (1) सर्वाद्वैत और (2) विशिष्टाद्वैत। सर्वाद्वैत वह कहलाता है कि सब कुछ वह एक ही है, जैसे बताया है ‘सर्व वै खल्विदं ब्रह्म’। सारा जगत, जीव- अजीव सब कुछ एक है दूसरा नहीं, ‘‘और दूसरा दिख तो रहा है?’’ दूसरा नहीं दिख रहा, उस एक के ही ये आराम दिख रहे, परिणमन दिख रहे, वह एक है अद्वैत। यह है सर्वाद्वैतवादियों का मत। अच्छा, उनको ऐसा ख्याल आया क्यों? देखो, ज्ञान सबमें है। प्रत्येक ज्ञानी पुरुष, दिमाग वाले, बुद्धिमान, कल्याण की चाह रखने जो कुछ विचारेंगे तो अच्छा, मगर कोई चूक हो जाय तो उसमें दोष आता है। विचार तो अच्छा किया, मगर चूक हो गई, स्याद्वाद का सहारा नहीं रहा। सर्वाद्वैतवादी को क्यों ऐसा नजर आया कि यह यह सब कुछ एक ब्रह्मस्वरूप है? पहली बात तो यह है सद्ब्रह्म, जो कुछ है वह सत् है, सत् से अलग है क्या कुछ? तो जब एक सत्-स्वरूप है उसकी दृष्टि जब सत्त्वमात्र में गई तो उसे वह एक ही प्रतीत हुआ। अथवा चैतन्य ब्रह्म, आनंद ब्रह्म, यह सब एक चैतन्यात्मक ब्रह्म है ऐसा भ्रम क्यों? उसका कारण यह बना कि देखो जो कुछ दिख रहा है आपको, यह चेतन के संबंध बिना यह आकार नहीं बन सकता था। जो भी नजर आ रहा, आँख से जो भी दिखता, नाम ले लो, आप कहेंगे कि यह रेडियो का पोंगा, यह आकार कैसे बना? यह काहे का है? लोहे का। वह कहाँ से आया? बाजार से। उसे कहाँ से लाये? फैक्टरी से। वह माल कहाँ से लाया गया? कच्चे माल वालों से। कच्चा माल कहाँ से आया? खान से निकला। खान में लोहा था तो लोहा जीव है कि अजीव? जीव है, जब तक खान में था बताते हैं ना। भेद की बात अलग है, तो यह जीव था। उस जगह जीव न आता तो उसके शरीर की यह मुद्रा न बनती, यह आकार न बनता, फिर जीव निकल गया, निकल जाय, पर आकार निर्माण जो हो पाया था वह जीवसहित दशाओं में बना था। बना शरीर में शरीर, मगर एक प्रसंग की बात बोल रहे। उनको भ्रम क्यों हुआ कि यह सारा जगत भी चैतन्यब्रह्म है? तो चैतन्य के संबंध बिना कुछ बात ही नहीं बन पाती थी यहाँ, यह हुआ पुद्गल का पुद्गल में, मगर जीव होता तो यह बढ़ता है, फैलता है, उसका रूप बनता है। अच्छा कुछ दिखने में आने वाले पदार्थों में और भी देखो यह दरी है, यह क्या है? कपास से बनी, कपास खेत में पैदा होता, वह पेड़ था, एकेंद्रिय जीव था, वहाँ जीव का संबंध था, सो हरा हुआ, बढ़ा, कपास हुआ, उससे सूत बना, दरी बनी। तो ये रूपक जितने बने वे जीव के संबंध पाकर बने, इसलिए ये सब जीव ही उसे नजर आये, था इसमें जीव पहले, तो सारा यह जीवात्मक है। अच्छा, खैर कुछ भी कारण बने, सर्वाद्वैतवादी ने माना कि सब कुछ एक अद्वैत ब्रह्म है।
1503- प्रकृत चेतना के अद्वैतपने की विशष्टाद्वैत से भी विलक्षणता-
दूसरा अद्वैत है विशिष्टाद्वैत, अर्थात् प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने में अद्वैत है, पूर्ण है, एक है, अखंड है, वहाँ दो बातें नहीं पायी जाती। तो यह ही एक विशिष्टाद्वैत है। यह विशिष्टाद्वैत भी एक संप्रदाय है, पर उसने आगे चलकर कुछ गड़बड़ी पायी, वैसे तो यह विशिष्टाद्वैत जैन शासन से मिलता हुआ मत है। प्रत्येक पदार्थ है, जुदा-जुदा है और वे सब जुदे-जुदे अद्वैत हैं। यहाँ चेतना की बात चल रही है। इस चेतना में सर्वाद्वैत की बात तो यहाँ प्रकृत नहीं, विशिष्टाद्वैत भी यहाँ नहीं लेना, क्योंकि विशिष्टाद्वैत व्यक्तिभेद करता है और यहाँ व्यक्तित्व नहीं देखना है, क्योंकि व्यक्तित्व देखेगा तो चेतना की वे सब तारीफें जो अभी कही जायेंगी ये तारीफें घटित न होगी। व्यक्तिरूप से चेतना को न देखना, किंतु स्वरूप से चेतना को देखना। यह ही बात होती है अनुभूति के लिए। आत्मा का स्वभाव कैसा है? तो कहते कि पर से रहित। एक और आगे बढ़कर बोला कि अधूरा नहीं, पूरा। तो एक और बढ़कर बोला कि पूरा ही नहीं, वह है आदि, मध्य अंत से रहित। तो एक और उससे बढ़कर बोला कि नहीं, ऐसा सोचकर भी वह है एक, याने अलग-अलग जीवों को देखकर न बताओ आत्मस्वभाव, जैसे कि आप देखते यह भी आत्मा, ऐसा निरखकर आप आत्मस्वभाव को न बता सकेंगे, व्यक्तित्व मिटा दीजिए, एक को लाइये। एक है वह। मगर एक के कहने में व्यक्तित्व तो आ ही गया। इस व्यक्तित्व से भी हटे तो क्या? संकल्प-विकल्प-जाल से रहित दशा हुई, वहाँ यह पायेगा कि आत्मा होता क्या है? सर्वाद्वैत तो चेतना है नहीं, और विशिष्टाद्वैत में व्यक्ति का बंधन है। तब फिर यहाँ स्वरूप में ही निरखना है कि यह चेतना अद्वैत है। इसमें यह है, इसमें दूसरा कुछ नहीं है। ‘न द्वैतं यत्र तत् अद्वैतं’, जिसमें दूसरी चीज नहीं उसे कहते हैं अद्वैत।
1504- चेतना की अपनी अद्वैतता-
यह चेतना अद्वैत है, लक्ष्य की बात है। इसका लक्ष्य करें। देखो- लक्ष्य वाले को लक्ष्य से भिन्न बात पर झुंझलाहट होगी। क्यों हुआ ऐसा? वह लक्ष्य में रहता है इसलिए । एक ऐसी घटना हुई, वह सच घटना है। एक घटना सुनी है, शायद ग्वालियर के राजा की है। राजा एक बार बहुत तंग आ गया एक शेर से। वह पास-पड़ोस के बहुत से लोगों के प्राणों का अपहरण कर चुका था और जनता उससे खूब तंग आ गई थी। राजा ने उस शेर को मारने का उपाय रचा। भील लोग तो रहते ही थे वहाँ, सो किसी भील ने कहा- राजन् हमें पता है उस शेर का कि कहाँ-कहाँ वह रहता है, आप हमारे साथ जंगल चलें तो हम आपको उसे दिखा दें। ठीक है पहुँचे दोनों जंगल में। शेर किसी गुफा के पास बैठा हुआ था। सो भील ने दूर से ही कहा- देखो, राजन् वह शेर बैठा है।...कहाँ?...वह देखो।...अरे ! अभी नहीं दिखा?...अरे ! वह देखो..., फिर भी नहीं दिखा तो उस प्रकरण में उस भील को राजा पर गुस्सा आयी और उल्टी-सीधी गाली बकना शुरू कर दिया, जैसे अरे ! अंधे हो क्या? तुम्हारी दोनों आँखें फुट गई क्या...? तेरी आँखों में......। वहाँ भील को इसकी कुछ खबर न रही कि यह तो राजा है और मैं भील हूँ, मुझे राजा पर इस तरह से क्रोध करके उल्टी-सीधी गाली न देना चाहिए। खैर, राजा ने वहाँ उसको क्षमा कर दिया, आखिर दोनों अकेले-अकेले ही वहाँ थे, अकेले-अकेले में क्या बुरा लगना? यदि किन्हीं अन्य लोगों के सामने इस तरह से बोलता तो बुरा भी लगता। तो जैसे भील के कहने से राजा ने उस लक्ष्य को न पाया इससे उस भील को राजा पर क्रोध आया, भला-बुरा कहा। ऐसे ही ज्ञानी जीव को भी लक्ष्यभ्रष्ट आत्मा नहीं सुहाता तो वह क्रोध नहीं करता, बल्कि दयाभाव लाता। देखिये- दो बातें होती हैं, जब किसी के अज्ञान होता है तो लौकिक लक्ष्यभ्रष्ट सुहाते नहीं अज्ञानी को और, जब ज्ञान होता है तो लक्ष्यभ्रष्टों पर दया आती है ज्ञानी को, न सुहाने की बात क्यों? जगत में अनंत जीव हैं, उनमें से कुछ ही मनुष्य हैं ऐसे जो कुछ धर्म में लगे दिख रहे, बाकी जो धर्म में नहीं लग रहे उनके लिए ज्ञानी पुरुष संक्लेश करेगा क्या? न करेगा। ज्ञानी पुरुष में धर्मविरुद्ध बात निरखकर न सुहाने की बात मन में नहीं आती, किंतु एक करुणाबुद्धि (दयाबुद्धि) उनके प्रति उत्पन्न होती है। कैसी करुणाबुद्धि कि क्यों नहीं ये अपने उस लक्ष्य को निरखते और क्यों नहीं विधिपूर्वक ये अपने आपको धर्म मार्ग में लगाते? यों ज्ञानियों को करुणाबुद्धि तो जगती मगर झुंझलाहट नहीं बनती।
1505- प्रकृत चर्चा का लक्ष्यआत्मधर्म-
वह धर्म क्या है? बस इस चैतन्य को निरखना, जिसकी यह चर्चा चल रही। वह चैतन्य अद्वैत है मायने अपने स्वरूप में स्वरूपमात्र है, केवल स्वरूप को निरखा जा रहा। इस चेतन की, चेतना की चर्चा कर रहें हैं, इतनी ही बात नहीं, किंतु मात्र चेतना की बात कर रहे हैं। वह चेतना अद्वैत है, अद्वैत होने पर भी यह चेतना ज्ञान-दर्शन रूप को नहीं छोड़ रही, मायने जैसे चेतना के भेद करते ना, दर्शन और ज्ञान, वह दर्शन और ज्ञान क्या चीज है? चेतन का सामान्य विशेषात्मक स्वरूप है, कोई भी पदार्थ हो वह सामान्य विशेषात्मक से रहित नहीं होता।
1506- ऊर्ध्वतासामान्य व ऊर्ध्वताविशेष का चेतना में दर्शन-
यहाँ विचारें क्या सामान्य है, और क्या विशेष है? सामान्य और विशेष कितने रूपों में निरखे जाते? तो पहली बात लीजिए, ऊर्ध्वता सामान्य, ऊर्ध्वता विशेष, एक ही पदार्थ में निरखना है यह सब। पदार्थ प्रति समय पर्यायों से परिणमता रहता है, वहाँ परखिये ऊर्ध्वता सामान्य व ऊर्ध्वता विशेष। तो जो भी पर्याय है भिन्न-भिन्न समय में जो पर्यायें हुई हैं वे कहलाती है ऊर्ध्वता विशेष और उन सब पर्यायों में, उन सब समयों में रहने वाला जो एक तत्त्व है वह है ऊर्ध्वतासामान्य। ऊर्ध्वता कहते हैं ऊपर की ओर, ऊपरपना, ऊँचा-ऊँचापना। दो विधियाँ होती हैं, जब कोई एक समान एक साथ वस्तु की चर्चा की जाती है तो उसका संकेत हाथ से यों तिरछा बनता है और जब किसी एक पदार्थ में भूत भविष्य वर्तमान याने ऐसे समय की बात की जाती है तो उसका संकेत हाथ को ऊँचा उठाकर किया जाता है। जैसे जब यह कहा जाता कि उस सभा में बहुत से लोग थे, ब्राह्मण थे, क्षत्रिय थे, वैश्य थे यों बताते ना तिरछा हाथ करके, यह एक प्राकृतिक बात है। कोई यों नहीं कहता कि ब्राह्मण थे, क्षत्रिय थे, वैश्य थे, यों ऊँचा हाथ उठाकर एक साथ एक सभा में बैठे हुए का संकेत नहीं किया जाता, तिरछा हाथ चलता है समानता से और जब काल-भेद की बात करते हैं- जैसे एक मनुष्य देखा पहले बच्चा था, फिर जवान हुआ, फिर बूढ़ा हुआ, यों ऊँचा हाथ चलाते, भेद यहाँ भी बताया वहाँ भी भेद बताया, मगर एक साथ ऐसी स्थिति में जब सामान्य विशेष की बात कहते हैं तो हाथ तिरछा चलता है, इसी को कहते हैं तिर्यक्। और, जब काल-भेद से भेद की चर्चायें चलती हैं तो हाथ ऊँचा उठता है, इसे कहते हैं ऊर्ध्वता, तब ऊर्ध्वता सामान्य और ऊर्ध्वता विशेष में देखा तो वहाँ ऐसा सामान्य विशेष पड़ा हुआ है।
1507- तिर्यक् सामान्य व तिर्यग् विशेष का चेतना में भी दर्शन-
तिर्यक् सामान्य और तिर्यग् विशेष- ये दो प्रकार होते हैं। एक ही पदार्थ में सामान्य विशेष देखना और अनेक पदार्थों में सामान्य विशेष देखना। एक पदार्थ में कैसे सामान्य विशेष देखा कि आत्मा यह सामान्य। इसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनंदगुण भेद किया यह हो गया विशेष। यह भी तिर्यक् व्यवस्था रखता है क्योंकि एक ही समय में है ना सब। और नाना जीवों में सामान्य विशेष क्या? जैसे सामान्य सबका स्वरूप, यह है तिर्यक् सामान्य। और बाबू व्यापारी, ब्राह्मण आदि भेद करना, यह है तिर्यग् विशेष।
1508- प्रकृत चेतना के सामान्य विशेष की विलक्षणता-
इस चेतना का सामान्य विशेष जो इस छंद में बताया जा रहा है वह इससे भी विलक्षण है, इससे निराला तो नहीं, मगर जिसका लक्ष्य किया जा रहा है उसका सामान्य विशेष देखिये इसमें होता हुआ भी इसकी रश्मियाँ किस प्रकार हैं। यह चेतना एक वस्तु को लेकर देखी जा रही, चेतना में चेतना को निरखो, जैसे हँसना, बोलना, खेलना, उठना, बैठना ऐसे ही चेतना, जब उस चेतना में चेतने को देखा तो वह चेतना दो प्रकार से विदित होगी। सामान्य और विशेष, सामान्य चेतना का नाम है दर्शन, विशेष चेतना का नाम है ज्ञान। अब देखो तो जितने अद्वैत बताये उनसे निराला अद्वैत आधार बैठा चेतने में। जितना सामान्य विशेष प्रसिद्ध है उनसे भी निराला यह सामान्य विशेषपना चेतना में नजर आया। अत्यंत निराला नहीं, किंतु एक उसी का ही पोषण करने वाला, तो यह चेतना दर्शनज्ञानस्वरूपता को नहीं छोड़ती।
1509- दर्शन और ज्ञान के स्वरूप का दिग्दर्शन-
दर्शन क्या और ज्ञान क्या? इसके बारे में कई प्रकार से लक्षण किया गया, मगर लक्ष्य सबका एक है। अंतर्मुख चित्प्रकाश को दर्शन कहते हैं, बहिर्मुख चित्प्रकाश को ज्ञान कहते हैं। एक यह लक्षण है, बाह्य अर्थ पदार्थों का भेद न करके अविशेष रूप से प्रतिभास होने को दर्शन कहते हैं। अच्छा घरेलू भाषा में बोलना जरा, यह आत्मा जानता है, बाहर नहीं जानता, अंतर में ही जानता, यह आत्मा जानता सबको है, पर जानता अपने में है, सबको सबमें नहीं जानता, सबको अपने में जानता, यह तो एक बड़ी कठिन समस्या-सी लग रही होगी कि सबको जाना और अपने में जाना ऐसा तो कहीं नहीं होता। कहीं दूर की चीज पर प्रयोग करें और प्रयोग यहाँ होवे ऐसा तो जरा बड़ा कठिन लग रहा। यह कठिन नहीं, यहाँ यह ही सुगम है। यह ज्ञान अपने से हटकर सबमें जाय और वहाँ जाने ऐसा नहीं हैं, किंतु इसका स्वरूप की ऐसा है, इसकी जिंदगी ही ऐसी है कि यह निरंतर इसी तरह जानता ही रहे। जो सत् हैं जगत में वे सब यहाँ ज्ञेय बनें, प्रतिभासित हों, इसका स्वरूप ही ऐसा है। तो हमने अपने में जाना, ज्ञान किया, बस इस ज्ञान करने वाले आत्मा को प्रतिभासे यह है दर्शन। इसमें थोड़ा यों अंतर आयगा कि यह बात तो वहाँ बहुत अच्छी घटेगी जहाँ युगपत् ज्ञानदर्शन उपयोग है। 13 वें 14 वें गुणस्थान में और सिद्ध भगवान में, सयोगकेवली व सिद्ध प्रभु के केवलज्ञान केवलदर्शन एक साथ होते हैं, निरंतर जान रहे हैं और जानते हुए अपने को प्रतिभास रहे हैं। अब यहाँ समझ लीजिए कि ऐसा प्रतिभासे बिना ज्ञान नहीं ठहर सकता और ज्ञान हुए बिना यह दर्शन नहीं ठहर सकता।
1510- छद्मस्थों के ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग की विधि-
अच्छा, अब देखो ये ही उपयोग चूँकि वासना-संस्कार वाले संसारी जीवों में, छद्मस्थ जीव में बने हुए हैं ना, तो वहाँ यह बात क्रमश: बन गई। किसी पदार्थ को जान रहे थे, उसका जानना छोड़कर दूसरे पदार्थ को जानने चले तो चूँकि दूसरे पदार्थ के जानने से पहले की जो एक प्रतिभास की तैयारी या परिणति या अंत: वातावरण जो है बस उस ही स्थिति में यह दर्शनोपयोग अपना काम करता है। तो चूँकि यह संसारी जीव इस समय इतना अक्षम है कि यह मानो भिन्न-भिन्न पदार्थों को जानने के लिए जानने से पहले एक बल प्रकट करता है। दर्शन, ज्ञान को बल देता है। अपने आत्मा का स्पर्श-ज्ञान के लिए बल देता है। जैसे ऊँची कूद (High Jump) होती है ना, तो उसमें जो लड़का नीचे जमीन में पैर तेजी से गड़ाकर उछाल लेता है वह ऊँची कूद पाता है। कोई अगर डोरी के पास यों ही ढीला-ढाला-सा रहकर कूदना चाहे तो वह नहीं कूद सकता। उस ऊँची कूद के कूदने में जो लड़का सबसे ऊँची कूद कूदता है उसके कूदने में जमीन में गड्ढा सा बन जाता है। वह मानो ऊपर उठने के लिए नीचे की ओर जोर देता है। ऐसे ही यह उठना कहलाया ज्ञान। अभी उठा-सा फिर रहा यह जीव। इसे जाना, उसे जाना, यह जाना, तो ऐसे ही जो जंप कर रहा है, यह आत्मा ज्ञान कर रहा, जान रहा नाना पदार्थों को। तो ऐसा ज्ञान होने के लिए इसका बल चाहिए और वह बल है अपने आपमें स्पर्श का जोर देना। कैसा यह अपने में घुसकर प्रवेश करता, यह जोर दे रहा है स्व में।
1511- चेतना की दर्शनज्ञानस्वरूपता-
भैया, दर्शन के लक्षण से देखो सब आत्मा का दर्शन कर रहे। जितने भी जीव हैं, मगर उन्हें इस दर्शन की सुध नहीं है इसलिए अज्ञानी हैं। दर्शन करते हुये भी इसका दर्शन नहीं किया। न आत्मा की सुध और न दर्शन की सुध। इसलिए दर्शन का फल नहीं मिल पाया। दर्शन का दर्शन हो तो सम्यग्दर्शन हो जाता। यों यह चेतना दर्शन-ज्ञानरूप है। अगर वह सामान्य विशेषरूप को छोड़ दे तो चेतना ही क्या है? वह अपने स्वरूप को खो बैठेगा। सर्व पदार्थ सामान्यविशेषात्मक है और उसमें से आप क्या अलग निकालेंगे? अगर सामान्य फेक दें, है ही नहीं इसमें सामान्य, मानो नीचे से लुड़ककर बाहर कहीं भी हो जायगा तो किसमें वह विशेष विराजेगा? अच्छा, तो सामान्य बड़ा जबरदस्त है, इसे तो फेंका नहीं जा सकता। इन विशेषों को फेक देंगे। यह भी नहीं हो सकता फिर यह सामान्य कहाँ विराजेगा? कहाँ पहुँचेगा? आप किसे फैंके? केवल सामान्य ही बनायें तो नहीं बनता, मात्र विशेष ही बनायें तो नहीं बनता। इसी हठ पर तो अनेक संप्रदाय बने। देखो, बहुत बड़े खोज की बात है। केवल एक ही बात है सामान्य विशेष की। इस ही त्रुटि के आधार पर चाहे सैकड़ों संप्रदाय हों वस्तुस्वभाव के खोजी, इसने सामान्य विशेष के संबंध में यहाँ त्रुटि की, इसलिए यह विवाद खड़ा हो गया। सामान्य विषय को तोड़ा नहीं जा सकता। तदात्मक पदार्थ है इसी कारण यह चेतना भी सामान्यविशेषात्मक है। अद्भुत सामान्यविशेषात्मकता के कारण यह आत्मा दर्शनज्ञानस्वरूप है।
1512- बंधाधिकार के उपदेशों में स्वभावाश्रयविधि का दिग्दर्शन-
मोक्षाधिकार में मोक्ष कैसे होता है इन उपायों पर प्रकाश डाला गया है। क्या करना चाहिये पहले; पहले तत्त्वज्ञान करें, वस्तुओं का स्वरूप जानें, घटनाओं का तथ्य जानें। बंध है एक घटना, और उससे हटना है, तो जब बंध की घटना से हटना है तो आखिर बंध की घटना भी तो जानें कि बंध हुआ किस तरह, यह बात बतलायी गई थी। बंधाधिकार में बताया तो गया था कि बंध कैसे होता है, मगर प्रत्येक उपदेश में निचोड़ यह निकलता कि स्वभाव का आश्रय कैसे बनता है। वैसे कुछ भी कथन हो सबमें तथ्य यह ही निकलेगा कि स्वभाव का आश्रय किस प्रकार हो। बंधाधिकार में जो अंत में बात कही गई थी वह अपना प्रयोग करने के लिए खास बात है। वहाँ बताया गया था स्फटिक का दृष्टांत देकर। अपने में ऐसा निरखें कि मैं विशुद्ध स्वभावमात्र हूँ। मेरे में स्वयं से अपने आप विकार की गुंजाइश नहीं। मैं खुद हूँ, विशुद्ध हूँ, चैतन्यप्रकाशमात्र हूँ। मैं परिणमूँ अपने आप तो मेरा इसके अनुरूप ही परिणमन होगा, विशुद्ध चैतन्य, ज्ञाता-द्रष्टा रहना मात्र, तो विकार मेरे स्वरूप में नहीं। फिर जिज्ञासा होती कि ये विकार आये तो किस तरह आये। ये विकार कर्म –उपाधि, परद्रव्य के सन्निधान में आये। आचार्यों ने तो इन शब्दों में बताया है कि उन परद्रव्यों के द्वारा विकाररूप परिणमाया गया है। तात्पर्य उसका यह है कि पर उपाधि के सन्निधान में ही यह जीव रागादिक विकाररूप परिणमा। चूंकि वह परके सान्निध्य में ही परिणमा, उसके बिना नहीं परिणम सकता, अत: विकार नैमित्तिक है, मेरा स्वरूप नहीं।
1513- निमित्त के सान्निध्य में उपादान का निमित्तानुरूप विपरिणमन-
बहुत कुछ देखने पर यों जंचेगा भी कि दर्पण के सामने रखी हुई चीज का फोटो आया दर्पण में तो वह फोटो उस वस्तु के अनुरूप है, जैसा कि निमित्तसन्निधान है लाल, पीली वस्तु, उसके अनुरूप है वह फोटो। अब चूंकि उसके सान्निध्य में ही हुआ है, उसके अभाव में नहीं हुआ फोटो, इसलिए इसका संबंध उस निमित्त के साथ जोड़ दो, क्योंकि दर्पण का स्वच्छ स्वरूप ही निरखना है। ऐसे ही कर्मविपाकानुरूप विकल्प का संबंध विकल्प के निमित्तभूत कर्म के साथ जोड़ दो क्योंकि मुझे तो अपने विशुद्ध स्वरूप में विश्राम लेना है, यहाँ नहीं है विकार यों निरखना है। अब वहाँ बात हुई किस तरह? देखिये, सर्वत्र एक यह कुंजी जानें कि ये विकारभाव उत्पन्न हुए कैसे इस विषय में। क्या? कि निमित्त के सान्निध्य में यह उपादान अपनी योग्यता से, अपनी कला से विकाररूप परिणम जाता है। उपादान के विकार को निमित्तभूत द्रव्य ने परिणमाया नहीं, क्योंकि उसकी परिणति उस ही में रहेगी, निमित्तभूत द्रव्य का जो कुछ उठता है वह उसका उसमें ही है। निमित्तभूत द्रव्य का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, प्रभाव यह कुछ वहाँ नहीं पहुँचा, मगर उस अशुद्ध उपादान की प्रकृति इस प्रकार है कि वह ऐसे वातावरण में उसके अनुरूप अपने में विकार परिणाम कर लेता है। जैसे कोई देहाती आदमी पहली बार अदालत गया और पहले से ही उसने सुन रखा था कि वहाँ जज बैठता है, सिपाही होते हैं, बड़ी चीज है, अदालत इस नाम से वह डर रहा था। अब उसे किसी मुकदमें की वजह से जाना पड़ा। जब वहाँ पहुँचा तो उस जज को देखकर वह डर गया, भयभीत हो गया, धोती ढीली हो गई या यों कहो कि धोती बिगड़ गई। बताओ, अब वह प्रभाव उस पर उस जज ने डाला क्या? अरे !वह तो अपनी कुर्सी से उठा तक भी नहीं, वहाँ बात यह हुई कि वह देहाती की ऐसी योग्यता थी, ऐसा ही बल था, ऐसा ही डर था, ऐसा ही स्वभाव था कि जिससे उस जज का आश्रय कर, जज को निरखकर उसने अपने आपको भयभीत बना डाला। अच्छा, तो देखिये निमित्त ने किया नहीं और निमित्त के अभाव में हुआ नहीं। कहीं, ऐसी घटना को देहाती घर में तो न करता था कि यों कांपे, यों करे। तो दोनों बातें निरखना है निमित्तभूत द्रव्य ने कुछ नहीं किया और निमित्तभूत द्रव्य के सान्निध्य बिना यह विकार कुछ हुआ नहीं। इस परिचय से यह बल मिला कि विकार को कर्म करे तो करे मुझे इससे क्या, मैं तो अपने में अविकार, सनातन, अहेतुक चित्प्रकाशमात्र अंतस्तत्त्व में ही विश्राम करता हूँ।
1516- विभावों को परभाव जानकर विभावों के संवेग हटाव का पौरुष-
मोक्ष का कारण है स्वभाव का आश्रय। स्वभाव है चैतन्यभाव, उस चैतन्यभाव का निरखना कैसे बने? इस संसार-अवस्था में जहाँ कि कर्म का बंधन है, विभाव लदे हैं वहाँ इस चैतन्यस्वरूप का अलग से कैसे निरखना बने? इसके उपायों में बंधाधिकार के अंत में बताया था कि चूँकि ये विभाव, ये आत्मा में आत्मा के द्वारा स्वयं नहीं बनते, किंतु परद्रव्य के सान्निध्य में बनते, वहाँ कहा है परद्रव्य के द्वारा परिणमाया जाता है। यहाँ अर्थ लेना कि परद्रव्य कर्मविपाक के सान्निध्य में यह आत्मा विकाररूप परिणमता है, ऐसा निरखना किस प्रयोजन से है कि विकार को मैं स्वयं अपने आपसे नहीं करता, वे मेरी चीज नहीं हैं, मेरे स्वभाव में नहीं बसे हैं। वे तो नैमित्तिक हैं, औपाधिक हैं। नैमित्तिक हैं, एक आक्रमण है यों किन्हीं भी शब्दों में कहो, विभावों से अपना हटाव बड़ी तेजी से करना है जिनसे मेरा कुछ मतलब नहीं। हाँ, तो उस प्रसंग की चर्चा चल रही थी कि कर्मविपाक हैं पर निमित्त, उस पर का संग ही निमित्त है, इसका मतलब क्या हुआ? क्या उस कर्म ने जीव के परिणाम को कर दिया? नहीं किया, किंतु वह कर्मविपाक, वह प्रतिफलन ऐसा वातावरण है कि उसमें ही यह जीव विकार कर पाता है। उस वातावरण के अभाव में, उस निमित्त के असान्निध्य में जीव विकार नहीं कर पाता। निष्पत्ति विधि से देखना, उस बीच में ज्ञप्ति की दृष्टि लायी गई तो विकार को परभावता का तथ्य न मिलेगा और परभावों से अपने को निराला समझना है इसके लिए उमंग और दृष्टि न बनेगी। तो यह बताया गया है कि जब कर्मविपाक हुआ तो जीव में रागविकार हुआ, हुए दोनों एक समय में, उपादान उपादेय में तो समयभेद है, किंतु निमित्तनैमित्तिक भाव में समयभेदन नहीं है, क्योंकि उपादान कहलाता है पूर्व पर्यायसंयुक्त द्रव्य और उपादेय हुआ वर्तमान पर्याय। तो पूर्व पर्याय प्रागभाव है उत्तर पर्याय का याने उस प्रागभाव का उपमर्दन उत्तर पर्याय कहलाता। देखिये, यहाँ रहस्य की बात, प्रागभाव के अभाव का नाम कार्य नहीं, किंतु प्रागभाव के उपमर्दन का नाम कार्य है। परंतु निमित्त नैमित्तिक क्या है कि जिस काल में निमित्त है उसी काल में नैमित्तिक है, तो निमित्त ने जीव में विकार परिणति नहीं की, फिर भी ऐसा सहज योग है कि कर्मविपाक के अभाव में यह विकार नहीं बनता, इसके लिए उदाहरण कई आये थे। मतलब यह जानना कि अपने को अपने स्वयं चैतन्यभाव को सर्व विशुद्ध शुद्ध का भेद न करके पर्याय को न निरखकर केवल उस चैतन्यस्वरूप को निरखना। उसकी बात बोल रहे हैं कि वह चेतना सामान्यविशेषात्मक है।
1517- चेतना की विलक्षण सामान्यविशेषात्मकता-
यह सामान्य विशेषपना क्रिया में आया, अब सामान्य विशेषपना वस्तुधर्म में घटित किया जाता है। मगर उन दोनों प्रकार के सामान्य विशेषों से विलक्षण कुछ तार्तीय (तृतीय) चीज है। क्या, कि चेतनासामान्य तो दर्शन और चेतनाविशेष ज्ञान है। अर्थात् यह आत्मा स्व को पर को जानता है और ऐसा जानते हुए आत्मा को यह प्रतिभासता रहता है। एक दर्पण का ही दृष्टांत लो, दर्पण बाह्य पदार्थ के आकार को झलकाता रहता है, फोटो आयी ना, याने परिणमा वह स्वयं, भाषा उपचार की ही चलेगी बोलने-समझने में, तो दर्पण में आकार झलका और आकार झलकाये हुए दर्पण को स्वयं दर्पण ने अपनी चिलचिलाहट से अपने को कायम रखा या नहीं? बहुत ध्यान देने की बात है, अगर दर्पण ने अपने भीतर अपनी चिलचिलाहट से अपने को, उस फोटो वाले दर्पण को अपने में कायम नहीं रखा तो वह फोटो नहीं हो सकती और केवल अपने भीतर चकचकामात्र ही बने, फोटो न आए, तो वह चिलचिलाहट ही क्या है? वह एकमेकपना ही क्या है? तो जैसे वहाँ स्वच्छतासामान्य और विशेष के बिना बात नहीं चलती, दर्पण की निजी स्वच्छता में चकचकाहट नहीं तो फोटो भी नहीं आ सकती, और अगर फोटो नहीं आती तो समझ लो वहाँ चकचकाहट नहीं, ऐसे ही आत्मा में समग्र पदार्थों का ज्ञान होता है, वह किस बल पर? अगर आत्मा दर्शनस्वरूप न हो, अपने आपके भीतर के चकमक को प्रतिभास को, यह न आए तो बाह्य वस्तु का ज्ञान नहीं हो सकता, और बाह्य वस्तु का ज्ञान न हो तो किस अपने को प्रतिभास करें, किस रूप अपने को अपनी चिलचिलाहट में रखे वह भी न बनेगा, इसलिए दोनों बातें चेतन में पायी जाती हैं। उनमें से एक को निकाल दिया जाय तो दूसरा ठहर नहीं सकता।
1518- दृष्टांतपूर्वक सामान्यविशेषात्मकता का परिचय-
मोटे रूप से सामान्य विशेष को यों देख लो, मनुष्य तो है सामान्य और बच्चा, जवान बूढ़ा है विशेष। अगर बच्चा, जवान, बूढ़ा ये कुछ न मानें तो फिर आप बताओ मनुष्य क्या कहलायेगा? आप कोई ऐसा मनुष्य लाकर तो दिखाओ जो न शिशु हो, न बच्चा हो, न कुमार हो, न जवान हो, न बूढ़ा हो, जितनी भी दशायें हैं वे सब कह लो, किसी दशा में तो हो नहीं और मनुष्य लाओ तो कहाँ मिलेगा ऐसा मनुष्य? ऐसा कहे कि आप बच्चे को तो लाओ, पर मनुष्य मत लाओ, आप जवान को तो ले आओ मनुष्य मत लाओ, ऐसा भी तो नहीं बनता। सामान्यविशेषात्मक है पदार्थ। आत्मा भी सामान्यविशेषात्मक है, अर्थात् चेतन भी सामान्यविशेषात्मक है, अगर सामान्यविशेषात्मक न हो मायने यहाँ प्रतिभास न हो ज्ञान का, चेतने का तो आत्मा जड़ हो गया, अगर ऐसी सामान्यविशेषात्मक चेतना नहीं तो आत्मा जड़ हो गया। अरे, और जड़ भी क्यों हो गया? आत्मा तो कुछ रहा ही नहीं, जड़ भी क्या बतायें? तो वहाँ यह समझिये कि सामान्यविशेषात्मक चेतना अद्वैत होकर भी ज्ञान में आ रही है।
1519- चेतना के अभाव में चेतन के अस्तित्व की असंभवता-
यहाँ इस छंद में बतलाया है कि चेतना है व्यापक, आत्मा है व्याप्य। देखिये व्यापक के अभाव में व्याप्य रह नहीं सकता। जैसे एक दृष्टांत लो कि वृक्ष तो है व्यापक और नीम है व्याप्य। जैसे कोई आम का पेड़ खड़ा है तो नीम का पेड़ कैसे व्याप्य है और वृक्ष कैसे व्यापक है याने नीम भी वृक्ष है, नीम के अतिरिक्त और भी वृक्ष हैं, जो वृक्ष ही नहीं है वह नीम कैसे रह सकते हैं? व्यापक के अभाव में व्याप्य नहीं रहता, तो व्यापक कहो चेतना और व्याप्य कहो आत्मा, चेतना के बिना आत्मा नहीं रह सकता। यहाँ एक शंका हो सकती है कि लगता तो ऐसा है कि व्यापक है आत्मा और व्याप्य है चेतना। चेतना मायने ज्ञान और दर्शन। आत्मा ज्ञानरूप है, दर्शनरूप है, अब कुछ और बचा क्या? हाँ बचा तो है, चारित्ररूप है, आनंदरूप है, और और भी बातें बतायेंगे तो आत्मा ज्ञानदर्शन के अलावा और रूप भी हो गया तो आत्मा व्यापक कहलाया। व्याप्य हुई चेतना, तो यहाँ चेतना को व्यापक और आत्मा को व्याप्य कहने का प्रयोजन क्या है? समाधान- परख जो होती है वह चेतना द्वारा हो रही है, और यह निरखा जा रहा है कि यह चेतना आत्मा की सर्व अवस्थाओं में रहती। यहाँ परिचायक है चेतना, परिचेय है आत्मा तो चेतना परिचायकता के कारण व्यापक है और आत्मा परिचेयता के कारण व्याप्य है, चेतना न हो तो आत्मा नहीं रह पाता। इस प्रकार यह आत्मा दर्शन-ज्ञानस्वरूप मायने सामान्यविशेषात्मक है।
1520- चेतनासामान्यमात्र का आग्रह करने वालों के प्रतिबोध के लिये चेतना की सामान्यविशेषात्मकता का विवरण-
शंका- चेतना की सामान्यविशेषात्मकता पर इतना जोर क्यों दिया जा रहा है? सीधी बात कहते कि आत्मा चेतन है, थोड़ा बोल देते, पर इतना विशेष तूल क्यों बनाया? तूल यों बनाना पड़ा कि आचार्यों का उपदेश सर्व के हित के लिए होता है। वे कहीं किसी संप्रदाय के लिए बोलते, ऐसा नहीं है, उनकी दृष्टि में तो सब संज्ञी मानवमात्र दर्शन के पात्र हैं। कई लोग चेतन को मात्र सामान्यरूप ही मानते आये उनका भी तो क्या करना, कोई पुरुष चेतना को केवल विशेषरूप ही मानते आये तो उनको भी तो प्रतिबोधना है। है कोई ऐसा कोई दार्शनिक जो चेतना को केवल सामान्यमात्र मानता हो, चेतना सामान्य, मायने उस चेतन को ज्ञान न मानता हो, केवल एक दर्शन जितना ही मानता हो, प्रतिभासमात्र ही मानता हो। प्रथम तो सांख्य दर्शन ही ले लीजिए- ज्ञान आत्मा की चीज नहीं है। वहाँ ज्ञान प्रकृति का धर्म है और प्रकृति है अचेतन, अचेतन से ज्ञान की उत्पत्ति हुई है याने उपादान अचेतन है ज्ञान का, ऐसा इस दर्शन में माना है। आत्मा ज्ञानरूप नहीं और बल्कि जब तक इस आत्मा में इस ज्ञान का संबंध रहता है याने प्रकृति अचेतन का गुण जो ज्ञान है, धर्म वह जब तक आत्मा में चिपका रहता है तब तक यह जीव मोही है, अज्ञानी है, संसारी है, रुलने वाला है और जिस काल में यह ज्ञान आत्मा से दूर हो गया याने पुरुष और प्रकृति का विवेक हो गया उस समय आत्मा मोक्षमार्ग में लग गया। कौन लग गया? और कुछ ऐसा सोचना, ऐसा ही है मोक्षमार्ग। यहाँ तक तो अभिप्राय बना हुआ है कुछ दार्शनिकों का। मगर ऐसा होता क्या कि प्रकृति का धर्म है ज्ञान और आत्मा है केवल एक सामान्य चेतना मात्र, तो फिर बतलाओ इस आत्मा में भ्रम होता कि नहीं? उस दर्शन के हिसाब से भ्रम नहीं है आत्मा में। वह सदा भ्रमरहित है। तो भ्रम करता कौन है? प्रकृति करती है भ्रम। तो अब आत्मा को अटकी क्या है जो अपने को मोक्ष दिलावे, प्रकृति को भ्रम हुआ सो प्रकृति को मोक्ष दिलाओ। अच्छा, तुम आत्मा हो कि प्रकृति? तो प्रकृति कहने में जरा उसे अच्छा नहीं लगा। जो श्रेष्ठ पदार्थ है उस ही रूप अपने को मानेगा। जब बच्चे लोग खेल खेलते तो एक खेल खेलते चोर, सिपाही, राजा, तथा वजीर बनने का, उनमें से एक किसी बच्चे से कोई बच्चा कहता कि तुम चोर बन जाओ तो पहले तो वह चोर बनना पसंद नहीं करता। वह तो यही कह देता कि मैं क्यों बनूँ चोर, मैं तो राजा बनूँगा। तो ऐसे ही इस आत्मा से पूछो कि बोलो तुम प्रकृति हो या पुरुष? तो कहेगा, पुरुष, सो तुम हो केवल सामान्य चेतना मात्र, इसमें कुछ गड़बड़ होती नहीं। तुम तो सदा शुद्ध हो। विकार तुममें नहीं आते। विकार आते हैं प्रकृति में। ज्ञान इसमें नहीं आया, ज्ञान होता है प्रकृति में, अहंकार होता है प्रकृति में। तो ऐसा केवल चेतन सामान्य को मानने वाले दार्शनिकों के प्रतिबोध के लिए यहाँ चेतना को सामान्यविशेषात्मक कहा है।
1521- कल्याणार्थ प्रयास होने पर भी स्याद्वादशैली को तजने का दुष्परिणाम-
देखिये- उन सांख्य दार्शनिकों ने सोचा तो है ऐसा, मगर भीतर में बेईमानी उनके भी न थी। किसी कारण से चूक जाय वह बात अलग है। अगर कोई ऐसा जोर देकर कहे कि मैं तो ऐसा उल्टा दर्शन बनाऊँगा कि इन सब लोगों को खूब भटकाऊँगा, ऐसी उनकी मंसा थी क्या? नहीं। उनकी भी कल्याण की अच्छी भावना थी। कभी देखा होगा कि दार्शनिक लोग कितने निष्पक्ष होते हैं। अगर कोई किसी विषय में पी. एच.डी. कर रहा या कोई बड़ी खोज कर रहा है, दार्शनिक है, और वह खोज करने में जिस संप्रदाय का वह खुद है उसमें अगर कोई दोष की बात दिखती तो उसको कहने में उसे कुछ हिचकिचाहट नहीं होती। दार्शनिक के लिए स्व और पर कुछ नहीं रहता। यह मेरा मजहब है यह दूसरे का मजहब, ऐसा दार्शनिकों की दृष्टि में पक्ष नहीं होता, पर समझ में ही जो आया सो बन गया। किस तरह उन्होंने यह बात निकाली कि आत्मा तो मात्र सामान्य चेतना मात्र है, इसमें ज्ञान नहीं। ज्ञान तो कलंक है और ज्ञान तो इसकी प्रकृति के संबंध से जबरदस्ती जुड़ा हुआ है, यह विकार है, यह बात उन दार्शनिकों के चित्त में कैसे आयी? तो चित्त में यों आयी कि इतनी बात तो यहाँ ही बतायी जा रही है कि रागद्वेष, विकार ये आत्मा में नहीं हैं। आत्मा के धर्म नहीं है ये कर्मविपाक हैं। इसी तरह से तो अभी वर्णन चला था। ये कर्मरस हैं, ये पौद्गलिक हैं, ये आत्मा के विकार नहीं। तो आत्मा की विशुद्धता समझने के लिए यह आवश्यक समझा गया ना कि आत्मा को तो ऐसा शून्य की ओर ले जाओ कि इसमें जो बातें तरंगरूप हुई वे हट जायें, ये विकार परभाव हैं। तो अब इससे बढ़कर उन दार्शनिकों ने और कदम बढ़ाया कि हम तो इस आत्मा का पूरा विशुद्ध रखेंगे तो देखो कि यह आत्मा में विकार जगा क्यों? यह विकार जगा यों कि ज्ञान में आया तो विकार जगा। उपयोग में प्रतिफलित हुआ, उपयोग जगा। सो कहते हैं कि जड़ से ही हटाओ इस विडंबना को मायने उपयोग और ज्ञान इसको ही अस्वरूप बताकर पूरा हटा दो तो खाली शुद्ध चैतन्य सामान्य रह जायगा। बेचारे ने कोशिश की अच्छी, विशुद्धता की ओर बढ़ना चाहा, मगर अति सर्वत्र विडंबना उत्पन्न कर देती हैं। तो इस तरह माना कि प्रकृति से यह महान याने ज्ञान जगा, प्रकृति से महान उत्पन्न हुआ। महान को वे ज्ञान कहते हैं।
1522- ज्ञान की महत्ता-
जगत में महान कौन है? ज्ञान। ज्ञान से भी बड़ा कोई है क्या? कुछ नहीं। अच्छा, इस बात को जैनदर्शन की ओर से देखिये, बड़ा और छोटा। मोटी चीज बड़ी होती या पतली, ऐसा एक प्रश्न रखा। लोग तो यों कहेंगे कि मोटी चीज बड़ी होती है, पतली चीज कहाँ से बड़ी होगी? मगर यह बतलाओ कि मोढे में पतली चीज समाती या पतले में मोटी? अच्छा, सुनो इसका उत्तर- देखो पतले में मोटी चीज समाती। जैसे पृथ्वी मोटी है जल से, मगर जिससे चाहे पूछ लो, वैज्ञानिक भी यही कहेंगे कि जल में पृथ्वी समायी है। जल का बहुत बड़ा विस्तार है और पृथ्वी कम जगह में है। अच्छा इस मध्य लोक की अपेक्षा जैन दर्शन भी बताता है कि पानी अधिक जगह में है, पृथ्वी कम जगह में है। एक स्वयंभूरमण समुद्र का ही विस्तार देख लो कितना बड़ा है कि जिसकी तुलना में सारे द्वीप समुद्र भी नहीं हैं, तो जल में पृथ्वी समायी है, पतली चीज में मोटी चीज समायी है। अच्छा तो जल और हवा इनमें पतला कौन? हवा में जल समाया है। जहाँ जल है वहाँ भी हवा और जहाँ पृथ्वी है वहाँ भी हवा और बाहर भी हवा। अच्छा हवा और आकाश इन दो में पतला कौन? आकाश। जहाँ हवा चलती, पृथ्वी है, वहाँ भी आकाश है, और उसके बाहर भी आकाश है, और आकाश में ये सब समाये हुए हैं। अच्छा यह बतलाओ कि आकाश और ज्ञान इनमें पतला कौन है? ज्ञान। याने जितना लोक है वह भी ज्ञान में समाया और ऐसे लोकालोक कितने ही होते तो वे सब भी ज्ञान में समा जाते, तो महान कौन? ज्ञान।
1523- ज्ञानस्वरूप माने बिना चेतनासामान्य की भी सिद्धि का अभाव-
सांख्यों ने ज्ञान का नाम धरा महान। वे ज्ञान शब्द को अधिक बोलते ही नहीं, कभी-कभी बोलेंगे, और सिद्धांत भी यह कहता है कि प्रकृति से महान उत्पन्न होता, महान से अहंकार उत्पन्न होता। देखिये सब लौकिकता से समर्पित होता जा रहा है, अहंकार वहाँ बनता? जहाँ ज्ञान हो, मैं बड़ा हूँ, ज्ञानी हूँ, यों इस ज्ञान से बना अहंकार और अहंकार से ये इंद्रिय आदिक बन गए, और उनसे बना यह शरीर, और फिर ये जितने भूत दिख रहे हैं यह सब प्रकृति का विकार है। तो उन्होंने ज्ञान को प्रकृति का विकार मानकर एक चैतन्यसामान्य ही करार किया है कि आत्मा पुरुष केवल चैतन्य मात्र है, मायने दर्शन-स्वरूप है, ज्ञानस्वरूप नहीं। ज्ञानस्वरूप माने बिना आत्मा के चेतनासामान्य की भी सिद्धि नहीं हो सकती।
1524- मात्र ज्ञानक्षणस्वरूप विशेष की छलांग भरने वालों के प्रतिबोध के लिये चेतना की सामान्यविशेषात्मकता का निरूपण-
अच्छा, तो कोई दार्शनिक ऐसे भी हैं ना कि जो केवल चैतन्यविशेष मानते हैं, चैतन्यसामान्य नहीं मानते। ऐसे भी दार्शनिक हैं उनमें से एक निरंशवादी पुरुष हैं जो आत्मा को एक ज्ञानस्वरूप ही मानते हैं और इतना ही नहीं, इनकी मान्यता है- ज्ञानक्षण, बस उसी को ही लोग आत्मा कह देते हैं और इसी कारण तो ज्ञान क्षण-क्षण में नया-नया बनता है, तो जो लोग ज्ञान को आत्मा बोलें तो यह समझ लो कि आत्मा भी प्रतिसमय में नया-नया बनता है और उनका वह नया-नया बनना ऐसा पृथक्त्व है उसमें कि एक का दूसरे से अन्वय नहीं है, संबंध नहीं है, हैं बिल्कुल पृथक्-पृथक्। ये निरंशवादी हैं, इनका नाम क्षणिकवादी तो कह दिया है, असल में क्षणिकवाद नहीं, किंतु निरन्वय (नि:संतति) निरंशवाद है वहाँ क्योंकि क्षणिकवाद शब्द तो है उस संप्रदाय का एक धर्म कहने वाला और निरंश शब्द है उस संप्रदाय की सारी बात कहने वाला। जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव निरंश माना। द्रव्य से निरंश, काल से निरंश, भाव से निरंश माना। ये चारों ही निरंशता उस संप्रदाय में हैं, मगर परिणमना काल के अंश में है। सो केवल काल का अंश हो सो नहीं, द्रव्य का अंश करके अणु अणु एक पदार्थ है। ऐसा तो जैनदर्शन भी मानता नहीं? उस अणु में भी रूपक्षण अलग पदार्थ, रस अलग पदार्थ, गंध अलग पदार्थ, स्पर्श अलग पदार्थ, उस द्रव्य में से और अंश कर दिया और उन अंशों को स्वतंत्र मान लिया, ऐसे ही तो भाव के अंश मायने ज्ञानक्षण और उनको ऐसा स्वतंत्र मान लिया कि एक का दूसरे से संबंध नहीं। यह ऋजुसूत्रनय का एकांत है। तो कुछ लोग चेतना विशेष मात्र ही मानते, कुछ लोग चेतना सामान्य मात्र ही। मानते, पर ऐसा है नहीं। तो उनके प्रतिबोध के लिये संकेत दिया है कि यह चेतना सामान्यविशेषात्मक है, दर्शन ज्ञानात्मक। ऐसे उस चित् को निरखिये, यह उसका स्वरूप है, अविकार है, वहाँ पर का प्रवेश नहीं स्वरूप में। वह स्वयं परिपूर्ण है, अपने आप दु:खों से रहित है, ऐसे इस चैतन्यस्वभाव को प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण करना, यह ही आत्मा और बंध के भेदन का प्रयोजन है। ज्ञान से ही भेद किया। यह मैं आत्मा हूँ, यह विकार बंध है, ज्ञान से ही ग्रहण किया कि मैं तो चैतन्यस्वभावमात्र हूँ, मैं अन्यरूप नहीं हूँ। कुछ ग्रहण करके क्या करना? अब क्या करना, बस यह ही हमारी मंजिल है। हमारा पुरुषार्थ, आखिरी मंजिल यही है। अपने स्वरूप को निरखें और अपने स्वरूप में अपने आत्मतत्त्व का अनुभव करें।