वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 182
From जैनकोष
भित्त्वा सर्वमपि स्वलक्षणबलाद्भेत्तुं हि यच्छक्यते
चिन्मुद्रांकितनिर्विभागमहिमा शुद्धश्चिदेवास्म्यहम् ।
भिद्यंते यदि कारकाणि यदि वा धर्मा गुणा वा यदि
भिद्यंतां न भिदास्ति काचन विभौ भावे विशुद्धे चिति ॥182॥
1492- आत्मा और बंध का भेदन और उस भेदन का प्रयोजन-
इस आत्मा में जो कुछ भी भिन्नता की जा सकती है उसको अपने-अपने स्वलक्षण से भिन्न कर देना चाहिए। क्या-क्या भिन्नता की जा सकती है? जो-जो आगंतुक हैं, औपाधिक हैं, स्वभाव से ही नहीं हुये हैं, जिनकी निष्पत्ति में पर निमित्त हैं, जो पर उपाधि के अभाव में हो ही नहीं सकते हैं वे-वे सब भाव भिन्न किए जा सकते हैं। उनको भिन्न किया किसके द्वारा? प्रज्ञा के द्वारा। प्रज्ञा से उसने अपने-अपने लक्षणों को समझा। आत्मा का लक्षण, जिस-जिसमें व्यापकर आत्मा रहे और जिस- जिसको लेकर आत्मा हटे वह सब आत्मा। और, यह बंध क्या है? जो आत्मा में साधारण रूप से न रहे, अर्थात् किसी विशिष्ट सान्निध्य में, परिस्थिति में ही जो रह सकता है वह सब बंध है। और, इस तरह उन लक्षणों की पहिचान करके भेदन किया, भेदन करके क्या करना चाहिए? सो खुद समझ लो। यदि चावल शोधना है, एक थाली में चावल का शोधन किया जा रहा है तो यह समझा गया कि यह तो है चावल और यह है अचावल, चावल से भिन्न पदार्थ। यह जान लिया ना ज्ञान से, अब उसके बाद क्या-क्या जाना? क्यों जाना? ऐसे उस जानने का फल क्या? कि जो अचावल है कूड़ा है और कुछ धान का छिलका, उस सबको अलग कर दिया जाय और जो चावल है उसको ग्रहण कर लिया जाय। क्यों ग्रहण करते हैं क्योंकि वे चावल खाये जायेंगे, सुख-शांति मिलेगी, इसलिए ग्रहण करते हैं। तो ऐसे ही इस आत्मतत्त्व और अनात्मतत्त्व का भेद पहिचानें अपने-अपने लक्षण से। अब भेद करके क्या करना? अनात्मतत्त्व की तो उपेक्षा करें, बाहर फैंके और आत्मतत्त्व को ग्रहण करें। किसलिए ग्रहण करें कि उस ग्रहण में शांति मिलेगी, कल्याण होगा, शांति, शुद्धि की शाश्वता रहेगी, इस कारण से उस आत्मतत्त्व को ग्रहण करें, यही है आत्मा और बंध का भेद करने का फल। याने बंध को छोड़े रागादिक विकारों को छोड़े और अविकार चित्स्वरूप ही जिसका लक्षण है ऐसे शुद्ध आत्मा को ग्रहण करें। बंध के और आत्मा के दो टूक कर देने का प्रयोजन इतना ही है कि शुद्ध आत्मा का उपादान करना, मायने अपने आप आत्मा का जो सहज स्वरूप है उस रूप में आत्मा को ग्रहण करना।
1493- शुद्ध तत्त्व के आश्रय का बल- शुद्ध का अर्थ यद्यपि यह प्रसिद्ध है कि जो निर्मल है, जिसकी पर्याय विशुद्ध है उसे कहते हैं शुद्ध। किंतु यहाँ शुद्ध का अर्थ यह नहीं, निर्मल पर्याय नहीं किंतु वह स्वयं वस्तु अपने आप जो पर से भिन्न है और अपने आपके स्वभाव से तन्मय है, ऐसा पर से असंपृक्त, अविकार, निजवस्तु को देखना- इसका नाम है शुद्ध को ग्रहण करना, याने जोड़ और तोड़ से रहित वस्तु को निरखना सो शुद्ध का ग्रहण करना है। जोड़ तो यह किया था अब तक इस जीव ने कि इन रागादिक विभावों को आप मान लिया, ऐसा जोड़ किया। जोड़ में बात बढ़ती है, घटती नहीं, मगर यहाँ जोड़ में बात घटी, प्रगति नहीं हुई, अथवा इस जोड़ से बात बढ़ती ही गई, बिगड़ती ही गई। 84 लाख योनियों में कैसे-कैसे भ्रमण किया, जन्म लिया, विविधतायें बढ़ीं तो वहाँ बढ़ती ही गई, बिगड़ती ही गई बात। एक भजन है- ‘‘बात थी कितनी-सी जड़ में, हो गया कितना बतंगड़, बात भी कितनी- सी करनी, दूर होगा सब भदंगड़।’’ तो बात मूल में कितनी थी? यहाँ यह उपयोग न मुड़ा। अधिक गलती नहीं हुई, जड़ में (मूल में) बात इतनी-सी थी कि यह अपना उपयोग स्वयं के अभिमुख नहीं मुड़ा और बाह्य की ओर, विपाक की ओर मुड़ गया, सो उस मुड़ने में भी कोई क्षेत्रभेद नहीं हुआ। जैसे कि कोई आदमी बैठे ही बैठे मुख को आगे किए हो और पीछे करना हो तो थोड़ा फर्क पड़ जाता है क्षेत्र का। क्षेत्र का फर्क भी नहीं पड़ा और ऐसी कला से मुड़ा यह उपयोग कि बात कुछ समझ में नहीं आयी, कहाँ मुड़ा, कहाँ गया और अपनी ओर से मुड़ गया, तब विपाक में उस कर्मरस में, उस प्रतिफलन में यह अबुद्धिपूर्वक जुट गया, ऐसा ही जुटान हो जाता अशुद्ध का, बस बात थी कितनी-सी जड़ में, हो गया कितना बतंगड़। कैसा शरीर, कैसी इंद्रिय, कैसा योग, क्या-क्या विकास, ये विभिन्नतायें बन गई। और, बात भी कितनी-सी करनी? बस तो मुड़ गया ना, उसको अब मोड़दो अपनी ओर, स्वतत्त्व के अभिमुख कर लो उस उपयोग को। यही प्रयोजन यहाँ बताया जा रहा है कि उस बंध को भिन्न जानकर क्या करना? अपनी ओरमुड़ना, बस बात भी करनी है इतनी, दूर होगा सब भदंगड़। उपयोग के स्वाभिमुख होते ही जो-जो कुछ नटखट हुये थे वे सब दूर होते जायेंगे। तो आत्मा और बंध में भेद समझने का प्रयोजन क्या? परतत्त्व से हटकर स्वतत्त्व को ग्रहण करना है।
1494- शुद्धतत्त्वाश्रयी की सुभवितव्यता-
भाग्यवान तो उस पुरुष को समझिये भैया, सुभवितव्य वाला तो वह पुरुष है जिसके चित्त में यह बात बैठ गई कि इस जीवन में करने के लिए काम बस स्वसहज स्वरूप को जानना और जानते रहना ही है, बाकी सब बेकार। किसी तरह समस्त अनात्मतत्त्वों से हटकर इस स्वभावमय आत्मतत्त्व में लगना, इसके अतिरिक्त और कुछ न चाहिये, सब बिदा हों। यह तो बने ध्यान, और ऐसा ध्यान बने कि जिसके कारण यह निष्पक्ष बने, आग्रह हीन रहे। परसंग में, परतत्त्व में, परघटना में आग्रह हीन रहे। जहाँ जो कुछ करने में आये सो आये, मेरे को तो यह करने को है, और दूसरी बात, ऐसे दो चार प्राय: सभी गाँवों में मिलते हैं मगर वे कभी मिले-जूले नहीं रहते, फैलफुट रहते। तो जो संसार, शरीर, भोगों से विरक्त हों, अपने आपके स्वभाव में, लक्ष्य में आये हों, ऐसे पुरुषों का सत्संग करें। अपना लक्ष्य सही बनाना और सत्संग करना ये दो बातें जिसमें पायी जाती हैं उसका जीवन सफल है। यहाँ बतलाया जा रहा है कि प्रज्ञा के द्वारा इस जीव ने अनात्मतत्त्व और आत्मतत्त्व में भेद किया। उस भेद करने का फल यह है कि शुद्ध आत्मा को ग्रहण करना।
1495- शुद्ध अंतस्तत्त्व के आश्रय से ही संकटों से मुक्ति-
देखो, एक बात इस प्रसंग में यह समझो कि जो पर्यायत: शुद्ध आत्मा हैं, उनके बहिरंग आश्रय से तो भक्त में शुद्धता होगी नहीं। यह बात सुनने में कुछ अटपटी-सी लगती होगी। शुद्ध आत्मा है अरहंत और सिद्ध, वे हमारा कल्याण करने यहाँ न आयेंगे। हाँ, जब हम उनके स्वरूप का विचार करते हैं तो चूँकि उनका स्वरूप स्वभाव के समान है व्यक्त, सो यह तारीफ है कि उनके स्वरूप का विचार करने में अपना स्वभाव विचार में आ गया, और यही इस प्रकरण में तारीफ है कि वहाँ अपना कल्याण बनता है, मगर परतत्त्व को समझते हुए बाहर में उसका आश्रय करके तो बात न बनेगी। अच्छा और यह खुद शुद्ध है नहीं, कषाय है, विपाक लिए है, संसार में है, खुद यह निर्मल है नहीं तो अब यह बतलाओ कि कौनसा ऐसा सहारा है कि जिससे यह आत्मा शुद्ध परिणति में आये? बस वह सहारा है यह शुद्ध अंतस्तत्त्व। जैसे कोई बलवान और जवान बड़ी भीड़भाड़ को चीरकर अपने ठिकाने पहले पहुँच जाता है जहाँ सभा का मुख्य स्थान है या खेल की मुख्य जगह है, ऐसे ही यह बलवान वेगवान, यह ज्ञान इस पर्याय की भीड़ को चीरकर अपने सही मंच पर पहुँच जाता है, वह उपयोग भूमि, वह है आत्मा का शुद्ध सहज अंतस्तत्त्व; उसको ग्रहण करता है।
1496- प्रज्ञा से आत्मा का चैतन्यस्वरूप में ग्रहण-
आत्मा को कैसे ग्रहण किया जाना चाहिए? बस काम एक ही है- प्रज्ञा से भेद किया, प्रज्ञा से ही ग्रहण करें, क्योंकि यह आत्मा अपने आपमें पर से विभक्त और निज में तन्मय स्वयं ही तो है। और, वह प्रज्ञा स्वयं ही तो है, सो प्रज्ञा के द्वारा स्वयं अपने आत्मा को जैसा विभक्त किया वैसा ही ग्रहण करना। कैसे ग्रहण करना? आत्मा को ग्रहण करने के लिए क्या हाथ चाहिए? ज्ञान से ज्ञान को ज्ञान में पाना, समझना, यह ही उसका ग्रहण करना है। जो पहले से ही है उसका ग्रहण करना क्या है? सुध आ गई ग्रहण हो गया, जैसे मुट्ठी में कोई मुदरी बँधी है और भूल गये, तो उसका ग्रहण करना क्या? जहाँ खबर आ गई कि यह है, बस यह ही ग्रहण करना है, तो प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण करना। पहले भेद किया था, भेदकर उनमें से विभक्त यह चैतन्यमात्र तो मैं हूँ और ये सब जो कुछ बचे हुए भाव हैं वे मुझसे अत्यंत भिन्न हैं। बचे हुए के मायने जो हमें मंजूर है, जो हमें स्वीकृत हैं, जो मेरे हैं उनको ग्रहण किया तब बाकी के वे सब भाव बचे हुए ही तो कहलाये। कई मिली हुई बातें है उनमें से छाँट कर ली तो अब बाकी बातें बची हुई हैं। इस बची हुई को कोई ले जाय, हमें न चाहिए। तो ऐसा जो यह अविशिष्ट भाव है, अनात्मभाव, औपाधिकभाव यह सब तो इस चेतन में व्यापने वाला नहीं, उपयोग स्वरूप वाला नहीं, इसका यहाँ स्थान नहीं; यह तो बाहर लौट रहा, औपाधिक है, यह मेरे से अत्यंत भिन्न है। देखो, भेद की बात तब होती है, मूड होता है तब तैसी बात आया करती है। जब अशुद्ध निश्चय नय से विचारा तब तो यह लगा कि ये राग जीव के हैं, जीव की परिणति हैं, इनका कर्ता जीव है, जीव में यह सब दिखा और जब व्यवहार से विचारा जिसे कहते हैं विवक्षित एक देश शुद्ध निश्चयनय याने स्वभाव की रक्षा करना और विभावों को अलग करना, ऐसे मूड़ में जब देखा तो यह जाना ना कि यह नैमित्तिक भाव है, उपाधि के अभाव में नहीं हो पाता इसलिए यह सब आत्मा के बल पर जिंदा कहाँ है? जिसके होने पर ही हो, जिसके न होने पर न हो, यह तो उसका सेवक बना, मेरे आधार से इसका कुछ नहीं, अत: उनको कहा कि ये मुझसे अत्यंत भिन्न है।
1497- अशुद्धनिश्चयनय से परमशुद्धनिश्चय में आकर शुद्धनय के लाभ की संभावना-
कल्याणमार्ग में साक्षात् कृपा शुद्धनय की होती है। निश्चयनय और व्यवहारनय, ये दोनों वस्तु की परीक्षा के लिए हैं, जानने के लिए हैं। निश्चयनय एक ही दृष्टि कराकर एक द्रव्य में, पदार्थ में ही दृष्टि रखकर निर्णय करता है तो व्यवहारनय अगल-बगल की घटना, संपर्क, निमित्तनैमित्तिक इन सब बातों का पूर्ण चिंतन करता हुआ निर्णय बनाता है, इसका फायदा किससे मिला? इसका फायदा देखो अशुद्धनिश्चयनय से मिला, वह जरा देर में मिला, क्योंकि जीव का यह राग है, जीव की यह परिणति है, जीव के परिणमन से हुआ, और कुछ नहीं देखा जा रहा ना। अभी तो जरा तकलीफ है, जीव ने राग से संबंध जोड़ा, राग इस जीव की परिणति से हुआ। अच्छा जोड़ा तो सही, अभी तो कोई बढ़िया बात नहीं आयी इस निश्चय में, मगर एक तपश्चरण इसमें जरूर हो रहा कि उस एक को एक में ही निहार रहे और मन को ऐसा नियंत्रित कर रहे, ऐसा नियंत्रण कि उस निमित्त को तो भूल ही गया, आश्रय को तो भूल ही चुका, उसका तो यह ख्याल कर ही नहीं रहा, तो जब बाह्य पदार्थ का यह ख्याल नहीं करता है और ऐसी उस वीतरागता से उस एक में एक को ही निरख रहा तो एक ऐसी स्थिति आ जाती है कि जो सोच रहे हैं वह भी सोचना बंद हो जायगा। जैसे कभी-कभी अच्छी तरह से सुन रहे हैं, एक मन से सुन रहे हैं और कभी-कभी एक अच्छी मीठी नींद भी आ जाती और सुनते-सुनते जो-जो सोच रहे थे वह भी छूट जाता है या हाथ में माला लिए हों तो वह भी गिर जाती है। यों सोच तो रहे थे यह कि इस जीव में हुआ, जीव की परिणति से हुआ, पर इस एकाग्रता के कारण याने जहाँ अन्य वस्तु का संबंध नहीं बनाया ऐसी दृष्टि में जब राग के जिंदा रखने का साधन नहीं बन रहा यहाँ, तो स्वत: अवसर ऐसा आयगा कि पर्याय की दृष्टि न हो व स्वभाव को देखे। राग जिंदा रहता है बाह्य पदार्थों में आश्रयों में उपयोग लगाने से, बाह्य पदार्थ का आश्रय करने से, तो जिस राग की चर्चा कर रहे हैं उस राग की जिंदगी का कोई साधन नहीं जुड़ा रहा है इस अशुद्ध निश्चय में तो एक निसर्गत: अवसर आता है कि वह भी बात छूटती है और एक स्वभावदृष्टि में आ जाता जो कि परमशुद्ध निश्चयनय का विषय है।
1498- निमित्तनैमित्तिकयोग के यथार्थ परिचय से शुद्ध तत्त्व को सुगमता से ग्रहण करने की संभावना-
अच्छा, जब निमित्तनैमित्तिक योग के विचार में चल रहे तब की तारीफ देखिये। वहाँ ज्ञान हो रहा है कि ये विभाव हैं, ये नैमित्तिक हैं, ये स्वभाव में नहीं हैं, ये तो आये हैं, ये मेरे स्वरूप नहीं, मुझसे ये अत्यंत भिन्न हैं। देखो, इस निमित्तनैमित्तिक योग के परिचय से शुरू से ही रागादिक की भिन्नता, उपेक्षा, अनादर, तिरस्कार सब कुछ चित्त में आया, और ऐसे प्रयास में तो बहुत ही जल्दी स्वभावदृष्टि में आ गया, अपना स्वभाव ग्रहण किया, चेता, जाना, देखा। वह हुआ परमशुद्ध निश्चयनय। अब यहाँ एक से एक को अखंड देखा, आत्मा में यह स्वभाव, इतना भी भेद मिटा और अखंड अंतस्तत्त्व आया, यह हुआ शुद्धनय। यहाँ अभेद स्व का उपयोग, स्वानुभूति, यह सब शुद्धनय के प्रसाद से हुआ। जैसे बने वैसे अंतस्तत्त्व का उपयोग बनावें। भैया, उपदेश में जो कुछ लिखा है सबका सदुपयोग करना, बजाय इसके कि यह गलत है ऐसी कोशिश करें, उसका ऐसा सदुपयोग बनायें कि हम निज स्वभाव का आश्रय कर सकें।
1499- चैतन्य और बंध में भेद करने का फल चेतना में चेतना-
यहाँ इस साधक ने स्वलक्षण-ज्ञानबल से उन सबका भेदन किया जो-जो कुछ भिन्न किया जा सकता था, भेद करके फिर अपने आप उस शुद्ध अंतस्तत्त्व को प्रज्ञा से ग्रहण किया। किसने ग्रहण किया? मैंने ग्रहण किया। बाहर में सोचना हो तो अन्य पुरुषों की बात सोचना। मैंने ग्रहण किया, किसको ग्रहण किया? मुझको ही मैंने ग्रहण किया। यह काहे के द्वारा किया? सब कुछ निरखते जाइये याने इस ज्ञान ने अपने स्रोतभूत ज्ञान- स्वभाव को अपने ज्ञान में लिया, तो उसमें क्या बना? ज्ञान का ही ग्रहण किया, ज्ञान में ही ग्रहण किया, ज्ञान के द्वारा ही ग्रहण किया, ज्ञान से ही ग्रहण किया, कोई अलग स्वभाव नहीं है जिससे कि कोर्इ विषमता, व्यग्रता या चिंता होवे कि यह काम बने कैसे? हाँ, ग्रहण किया, इस ग्रहण का अर्थ क्या? मायने चेतना ने चेता, चेतना है ना, यह प्रतिभासमात्र है ना? तो इसने अपने में अपने काम को प्रतिभासा, चेता, तो अब उसकी चर्चा करें। कहाँ से चेता? खुद से। किसमें चेता? खुद में। काहे के द्वारा चेता? खुद के द्वारा। अथवा यहाँ दूसरी कुछ बात ही नहीं है। है मात्र चकचकायमान, बस इतनी-सी बात और इस तरह अपने को ग्रहण करना है। चेतना है, यह ही ग्रहण करना है।
1500- व्यवहार से काम लेकर व्यवहार छोड़कर शुद्धनय में प्रवेश करके तत्त्वानुभव का योग-
हाँ, थोड़ा समझने के लिए तो बात की गई थी ऐसी कि मैं चेतता हूँ, अपने में चेतता हूँ आदिक, मगर वहाँ है क्या? वह चेतना कैसी है, किसके द्वारा चेता गया? अरे ! वह तो एक चेतना है और परिणति हो रही है, मैं शुद्ध चैतन्यभाव मात्र हूँ। अच्छा फिर ये भेद तो किये गये हैं अभी कारक के। हाँ, तो इसमें देखा विशुद्ध चैतन्यमात्र और उसका परिचय कराया गया कारकों द्वारा। अच्छा, और ये कारक भी तब प्रयुक्त होते जब इसके गुण समझे गये और इसके साथ धर्म जाने गये, अपने में है पर में नहीं, पर का प्रवेश नहीं, ये सारी बातें ये परिचय के लिए बतायी गई। भेद किया गया, तो करें, वे भी कुछ काम के थे, उनके बिना भी गाड़ी चलती न थी, मगर तत्त्व तो दिखा उस विशुद्ध चैतन्य में, इस अपने व्यापक तत्त्व में, तो ये कोई भेद पड़े हुये नहीं, भेद करके समझाया गया। भेद का ही नाम व्यवहार है, सो यह भेद करके समझाया गया तो समझने दो, होने दो भेद, चलने दो तीर्थ प्रवृत्ति, वह भी काम की है, लोग आयेंगे रास्ते में, समझेंगे मगर तत्त्व तो देखें, जो व्यवहार से काम ले चुका वह समझ रहा है कि यह जो अखंड विशुद्ध चैतन्य तत्त्व है इस चैतन्यतत्त्व में कोई भेद नहीं। देखो, व्यवहार से काम लेकर व्यवहार को छोड़ा है, व्यवहार से काम लिया ही नहीं और पहले से ही इसको हेय कहा तो वह आगे नहीं बढ़ सकता। व्यवहार से जब परिचय किया, सब जानने के बाद अभेद तत्त्व को निरखें ऐसा निर्व्यवहार अभेद चैतन्य तत्त्वमात्र मैं हूँ, सो यहाँ अपने में अपने को अनुभवते हुए अपने स्वरूप को ग्रहण किया गया है।