वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 36
From जैनकोष
चिच्छक्तिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयम् ।
अतोतिरिक्ता: सर्वेऽपि भावा: पौद्र्गलिका अमी ।।36।।
337―जीव की चिच्छक्तिव्याप्त सर्वस्वसारता―मैं इतना ही नहीं हूँ और चैतन्य शक्ति से अतिरिक्त जितने भी भाव हैं वे सभी भाव पौद्गलिक हैं यहाँ यह बताया गया कि अनादि अनंत अहेतुक असाधारण जो एक निरपेक्ष स्वभाव है, चैतन्यस्वरूप है वह तो है जीव और बाकी जितने अतिरिक्त भाव हैं, विचार तर्क, वितर्क, रागद्वेष, कषाय इच्छा ये सब पौद्गलिक है । देखो इसी प्रकरण में बड़ी घोषणा के साथ कुंदकुंदाचार्य देव ने बताया कि गुणस्थान, जीव समास, मार्गणा, संयम स्थान, लब्धि स्थान सब पौद्गलिक हैं । ये शब्द अमृतचंद्राचार्य और कुंदकुंददेव सभी आचार्यों के हैं । वे यह घोषणा कर रहे हैं, यहाँ हर एक बात को ऐसा मत मान लेना कि यह कथन व्यवहारनय से है सो झूठा है । अरे जिनेंद्रवचनों मे और उस तथ्य में अनास्था होने से मार्ग न पायेंगे । नय के जितने भेद हैं सभी नय सम्यक् माने गए हैं, कोई झूठ नहीं माना गया । नयों से बाहर उपचार है वह है एक लोक व्यवहार । इस भाषा में जो बोला जाये तो उसके प्रयोजन को न समझकर उन्हीं शब्द में समझें तो वह झूठ है । देखिये आपको आत्मानुभव का मार्ग कैसे मिलेगा? उसके लिए सबसे बड़ी बात यह है कि अपना एक ऐसा ध्येय बनाये कि मुझको विभावों से हटकर स्वभाव में मग्न होना है, इसके अतिरिक्त मेरे में और कोई कला नहीं, क्योंकि बाकी तो सब बात संसार में रुलने के हो साधन हैं, तो आपको दो बातें रहीं सामने विभावों से हटना और स्वभाव में लगना । बस यह ही बात यहाँ कह रहे हैं कि स्वभाव में तो यों लगें कि वह चैतन्य शक्ति करके सर्वस्वसार जिसमें भरा बस इतना ही जोव है, इतना ही मैं हूँ अन्य रूप मैं नहीं हूँ । यहाँ से मुख उठाकर अन्य-अन्य रूप में अगर कहने लगे, मानने लगे कि यह मैं हूँ, बस उसकी ही संसार में मिट्टी पलीत है । विचार, वितर्क, कषाय, इच्छा ये सब मैं नहीं, मैं तो एक चैतन्य शक्तिमात्र हूं, अच्छा मैं तो यह हूँ और बाकी सब सो सब । मैं क्या? यह घन वैभव, यह घर ये कुटुंबीजन ये सब क्या हैं ? मैं अंतस्तत्त्व हूँ ये पौद्गलिक चीजें हैं । देखो जो इस भीतरी तथ्य को पहिचान लेता है उसके लिए यह आत्मा, यह अनात्मा स्पष्ट दिखते लगता है और उसके मोह नहीं रहता । अच्छा और यह शरीर पौद्गलिक है और कर्म जा सुनते आये, आगम में बांचते आये, युक्ति से उतारते आये, क्या कि कोई भी पदार्थ अकेला है तो वह विकृत नहीं होता साइंस से पूछो, युक्ति से पूछा केवल एक ही पदार्थ जिसका दूसरे से कोई संबंध नहीं, संयोग नहीं, कोई उपाधि नहीं, अकेला ही है कुछ, तो वहाँ विकार नहीं होता, और विकार सो यहाँ हो रहा है, राग, द्वेष, मोह कल्पना, पक्षपात, अन्याय, अत्याचार न जाने क्या-क्या विकार: है, ये सब हो ही रहे हैं । एक भी उदाहरण ऐसा न मिलेगा कि जहाँ कर्मानुभाग का तो नाटक चल रहा हो और विकार न होता हो, और हो सो रहे विकार तो युक्ति बतलाती है कि इस जीव के स्वभाव के विरुद्ध स्वभाववाला कोई दूसरा साथ अड़ा हुआ है । उसी को कहते हैं कर्म । अब देखना ये दोनों बातें भिन्न-भिन्न हैं । कर्म भिन्न है, जीव भिन्न है । कर्म का परिणाम, परिणमन, द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव कर्म से ही हैं । कर्म से बाहर एक सूत भी आगे नहीं है । भले ही एक क्षेत्रावगाह है । जैसे पानी और दूध मिल गए गिलास में, पर पानी के अणु पानी में हैं और दूध के अणु दूध में हैं । ये तो पुद्गल हैं । कदाचित दूध पानीरूप परिणम सकता है पर जितना दृष्टांत दिया उतने के लिए समझे । भले ही एकक्षेत्रावगाह में है जीव और कर्म, मगर कर्म का सब कुछ कर्म में है जीव का सब कुछ जीव में है, यहाँ अनेक द्रव्य हैं ।
338―जीव की स्वच्छता का विकार―अब जीव है स्वच्छ उपयोग वाला, जानने देखने का शक्ति वाला सो इस उपयोग में जैसे ये बाहरी ज्ञेय पदार्थ झलक जाते हैं ऐसे ही कर्म का उद्यम, कर्मों का अनुभाग जो एक इतना विशाल सिद्धांत जैन ग्रंथों में, कर्मसिद्धांत संबंधित विषय और नहीं तो 90 प्रतिशत ग्रंथों में पाया जाता है । जो महान ग्रंथ सिद्धांतग्रंथ है, अवधिज्ञानियों ने जाना, सब अवधिज्ञानियों ने नहीं, किंतु परमावधि ज्ञानियों ने जाना । केवलज्ञानियों ने जाना, युक्ति और आगम से, श्रुत से हम आपने भी जाना । वह ज्ञानानुभव यहाँ प्रतिफलित होता है । वही प्रतिफलन, क्रोध, मान, माया, लोभ, रागद्वेष ये सब कहलाये । यह है कषाय का स्वरूप । अब अज्ञानी तो उसमें मुग्ध हो जाते कि यह ही मैं हूँ क्योंकि उस प्रतिफलन से यह जीव स्वभावदृष्टि में नहीं किया गया ना? सो तिरोहित हो गया । ऐसी स्थिति में अज्ञानी उस ही रूप अपने को अनुभव करता । उससे निराला मैं कोई चैतन्यशक्ति मात्र हूँ, इसका मोहियों को पता नहीं । अब देखना इस संबंध में बात दो चल रही हैं । कर्मोदय का सन्निधान पाया और जीव का प्रतिफलन हुआ । क्यों जी उसकी फोटो अन्य में क्यों नहीं हो जाती? अजीव में वह क्यों नहीं प्रतिफलित होता? इसमें योग्यता ही नहीं है । अच्छा शुद्धता क्यों नहीं होती? उनमें यह भी योग्यता नहीं । क्यों योग्यता नहीं? उस प्रकर का बंधन संबंध बना ही नहीं है वहाँ । जो अशुद्ध जीव की योग्यता से यह कषाय का प्रतिफलन हुआ । कौनसी कषाय का? पौद्गलिक कषाय का । पुद्गल में होनेवाले उस कर्मानुभाग का यह प्रतिफलन हुआ । अब देखना-प्रमाण किसे कहते? एक को देखा, सयोग को देखा, घटना देखी, सब तरह से निर्णय करें उसे कहते हैं प्रमाण, और नय किसे कहते? केवल संयोग को देखकर बात कर सो नय, एक पदार्थ को देखकर बात करे सो नय । अच्छा एक जीव पदार्थ को ही देखकर जब हम बात कर रहे तब यह दिख रहा कि जीव है, जीव की योग्यता से यह परिणमन चल रहा, ये परिणतियाँ चल रही हैं । जब संयोग को देखा तो यह नजर आया ति कर्म के अनुभाग का निमित्त पाकर इस जीव में यह कषाय का प्रतिफलन हो रहा, परिणमन हो रहा । देखिये―व्यवहार का एकांत तो एक नितांत गलत बात है, जो ऐसा माने कि कर्म ने जीव को कषायरूप परिणमा दिया, जीव ने कर्म को अपनी परिणति से परिणमाया, एक द्रव्य की परिणति दूसरे में नहीं होती, पर निमित्त पाकर जीव अपनी कला से इस रूप परिणम गया । निमित्त बिना सन्निधान बिना विकार नहीं हो सकता । यह है निमित्त नैमित्तिक योग ।
339―निमित्तनैमित्तिक आब व वस्तुस्वातंत्र्य के परिचय से विभाव से उपेक्षा करके स्वभाव में लगने के पौरुष की जागृति―भैया यहाँ दो बातें सामने आयीं कि कर्मोदय का सन्निधान पाकर कितने विकार प्रतिफलन इस जीव में हुए । यह है व्यवहारनय का कथन । निश्चयनय―जीव में जीव के परिणमन ये होते चले जा रहे हें, यह है निश्चयनय का कथन । मगर इसमें यदि एकांत कर लिया जाये कि जीव में जीव की योग्यता से परिणाम होते जा रहें हैं, जीव में बंधे है, निकल रहे हैं और विभाव होने में अनवारित उपाधि संपर्क का तथ्य गोन कर दिया जाये, निमित्तयोग का विरोध किया जाये कि और तरह है ही नहीं, और बात है ही नहीं, सो कुछ संयोजन नहीं, उपाधि नहीं, नैमित्तिक भाव नहीं, और जीव की योग्यता से ही होते जा रहे तो बस अब क्या है । विकार भी, योग्यता भी स्वभाव हो गया । जीव से ही उठ रहे विभाव । और जब कहा जाये कि विकार इसमें ब से नहीं हैं, पर पदार्थ का निमित्त पाकर यह बात क्षणिक हो जाती है । तो अब इसके मेटने का कुछ उपाय बन जायेगा । यदि कहा जाये कि निमित्त नहीं, जीव में विकार भरे और वे प्रगट हो रहे, तो ऐसो एकांत दृष्टि रखने से इससे निराला कोई चैतन्य शक्तिमात्र अंतस्तत्त्व है इसकी दृष्टि नहीं बन पाती । देखो शुद्धनय:-द्युद्धनय से तो एक चैतन्यशक्ति स्वरूप ही अनुभव में होता है । वह नहीं जानने में आ रहा उसका ही परिणाम संसारभ्रमण है तो शुद्धनय तो एक ऐसा तथ्य है कि निश्चय उपादेय है । मगर जब तक इस शुद्धनय को प्राप्ति नहीं है तब तक अशुद्ध निश्चयनय, शुद्ध निश्चयनय, सद्भूत व्यवहार, असद्भूत व्यवहार इन सबसे समझना । ये भी सब सच बात बतलाते हैं । उपचार ही एक ऐसा है जो एक निमित को कर्तारूप में पेश करता हूं और निमित्त कभी पर का कर्ता होता नहीं, परंतु निमित्त नैमित्तिक भाव सहो समझे बिना यह भाव नहीं भर सकता कोई कि दूर हटो, दूर हटो, हे कर्मानुभाग, हे मलिनताओं दूर हटो, तुम मेरे स्वरूप वहाँ । तुम मेरे ही कारण मात्र से उत्पन्न हुए नहीं, यह तो पर की झलक है । दर्पण में पर की झलक तो है, पर स्वभावत: दर्पण को नहीं फर्क यह पड़ गया कि वहाँ तो निमित्त को हटा दो, दर्पण में से प्रतिबिंब हट गया । यहाँ कोई ऐसी कला नहीं है कि उस कर्म को हटा दे जीव कम में कुछ नहीं कर सकता, कर्म जीव में कुछ नहीं कर सकता । जीव अपने भावों को सम्हाले कि यह तो कर्म का प्रतिफलन है, मेरा स्वरूप नहीं, मैं तो चैतन्यशक्ति मात्र हूँ । तो एक निज भाव के सम्हालते ही कर्मों को बेड़ियाँ तड़ातड़ टूटने लगती है ।
340―अज्ञात कर्मानुभागांधकार से आच्छन्न प्राणी का अज्ञात आश्रयभूत कारण में उपयोग जुटाकर व्यक्त विकार मुद्रा बनाने का प्रयोग―यहाँ निरखना है कि मैं तो एक चैतन्यशक्ति मात्र हूँ । इसके अतिरिक्त जो कुछ भाव है वह सब पौद्गलिक भाव है अर्थात् पुद्गल का निमित्त पाकर उत्पन्न हुआ भाव है देखो सम्मति बैठा लो, सही समझो । चिद्भाव के अतिरिक्त समस्त भावों को पौद्गलिक कहा तो उ का तात्पर्य क्या? उसका तात्पर्य यह है कि जैस जैसे रंग कपड़ों में है वैसा ही प्रतिबिंब दर्पण में है । दर्पण का प्रतिबिंब यह बताता है कि ऐसे-ऐसे रंग वाला कपड़ा है । यह नहीं कि पहले प्रतिबिंब बन गया । पीछे प्रतिबिंब के आगे कपड़ा आया वह समकाल है । निमित्त कारण समकाल होता, उपादान कारण पूर्व समय मैं होता है अर्थात् पूर्व पर्यायसंयुक्त द्रव्य उत्तर पर्याय का उपादान कहलाता और निा?मत्त उसी काल में, वह बाहरी क्षेत्र में पड़ा है । पड़ा रहने दो, तो प्रयोजन क्या है? जैसे आम खाना है तो प्रयोजन आम खाने का है ना, न कि पेड़ गिनने का । तो ऐसे है प्रयोजन तो है विभावों से हटने का और स्वभाव में आने का । दुनियाँ कहीं जावों, कैसे हो रहो, विवाद न करें । जहाँ अपने प्रयोजन को लेकर आगे बड़े ज्ञान में वहाँ विवाद नहीं उत्पन्न होता । जहाँ प्रयोजन छोड़ दिया और बाहरी बातों में ही आकर्षण किया वहॉ विवाद उठने लगता हैं? मैं कौन हूँ? चैतन्य शक्ति व्याप्त जिसका सर्वस्व सार है वह मैं हूँ और बाकी भाई पौद्गलिक हैं पौद्गलिक उपादान वाले व पौद्गलिक का निमित्त पाकर हुआ राग । पौद्गलिक दोनों अर्थ है पुद्गल उपादान वाला है, शरीर वर्ण, रस, कर्म कर्म का खुद में अनुभाग । और जो प्रतिफलन रूप है वह है पौद्गलिक कर्म का निमित्त पाकर होने वाला भाव । इस कारण ये सारे भाव पौद्गलिक कहलाते हैं । नैमित्तिक भाव का अर्थ है कि जो निमित्त का सन्निधान पाकर उपादान में होते, उपादान के परिणमन से, पर निमित्त का सन्निधान पाकर हो उसे कहते हैं नैमित्तिक । नैमित्तिक की यह व्याख्या नहीं कि यह जीव निमित्त में जुटकर यह भाव बनाये सो नैमित्तिक निमित्त क्या? कर्म उसमें भाव जुटाना क्या । देखिये आश्रयभूत पदार्थ ज्ञात होकर झलका करते हैं और निमित्तभूत कर्म की दशा, यह अज्ञात होकर झलका करती है । यह झलक अंधकार है इसमें जुटाव तो नही होता है, जुटाव होता है आश्रयभूत कारण में । कर्मोदय में जुटने से विभाव बनते हैं कर्मोदय में उपयोग को जुटाने से विभाव बनते हों तो बताओ । कर्मोदय मायने कर्म की परिणति । तो यह ध्यान एकेंद्रिय को है क्या, दो इंद्रिय को है क्या? अरे अनेक मनुष्यों को भी पता नहीं कि ये कर्म हैं, इनमें मैं जुट जाऊँ । ऐसे कोई नहीं जुटता, पर वह तो अज्ञात ही उसका एक आक्रमण है प्रतिफलन । ज्ञेय पदार्थ का ज्ञात होकर प्रतिफलन है, पर कर्मदशावों का अज्ञात होकर प्रतिफलन है । होता क्या है? कर्म का ज्ञान हुआ प्रतिफलन उससे हुआ शानस्वभाव का अभिभव, क्योंकि ऐसे ही भावों से पुद्गल बँधा था, वैसे ही पुद्गल का उदय आया, वैसा ही यह अभिभव हुआ । घबड़ाकर यह उसके अनुकूल आश्रयभूत पदार्थ में जुट गया, यहाँ उपयोग जुटाने की बात है । जो चीज ज्ञात हो जाये उसमें ही उपयोग लगता है, अज्ञात में उपयोग नहीं लगा करता । कर्मानुभाग ज्ञात नहीं, फिर भी उसका निमित्त पाकर उपयोग विकल्प बन गया, वहाँ ज्ञात आश्रयभूत कारणों में उपयोग जुटाये, विकार की व्यक्त मुद्रा बन गई तो नैमित्तिक यों कहलाया । पुद्गल कर्मानुभाग तो स्वच्छता में झलक गया । अज्ञानी उसे स्वीकार करता है ।
341―नैमित्तिक भावों से निवृत्त होकर चैतन्यमात्र अंतस्तत्त्व में लगने की भावना―हे नैमित्तिक भाव? दूर हटो तुम मेरे स्वरूप नहीं । देखिये-प्रतिबिंब तो दर्पण की परिणति है प्रतिबिंब जो दर्पण में हुआ वह सामने रहने वाले पदार्थ की परिणति नहीं, लेकिन सामने रहने वाले पदार्थों के अनुरूप प्रतिबिंब है, इसका कारण क्या कि उसका निमित्त सन्निधान पाकर यह दर्पण अपनी योग्यता से प्रतिबिंब रूप परिणम गया तब ही यह प्रतिबिंब परभाव है, दर्पण का स्वभाव नहीं । ऐसे ही यह सारा ऊधम, यह सारी कर्मलीला, यह सारा कर्मरस यह मेरा स्वरूप नहीं, मुझसे पृथक् है । दूर हटो, दूर हटो परकृत परिणाम । पर का निमित्त पाकर होने वाले परिणाम से दूर हटो । सहज आनंद स्वरूप ही रहूँगा मैं; कैसे? अभिराम मायने यह आत्मा इसके सर्व प्रदेशों में सहज आनंदस्वरूप रहेगा हटो और लगो यही है असहयोग और सत्याग्रह । असहयोग जब तक नहीं बनता तब तक जिससे असहयोग करना है उसमें परत्व की बुद्धि न जगे । सत्याग्रह तब तक नहीं बन सकता कि जिस सत्य का आग्रह करना है उसमें जब तक स्वत्वबुद्धि न जगे, मायने जब तक बाहर किसी में स्वपरत्व न देखे, अंतर में देखे स्व चैतन्यशक्ति मात्र, अनादि अनंत निष्कारण सत्त्व के स्वरूप में जो एक चैतन्य शक्ति है वह हूँ मैं । मैं इस गाँव वाला नहीं, इस शरीर वाला नहीं, इस जाति वाला नहीं, इस पार्टी बाला नहीं, इस पक्ष वाला नहीं, अमुक का मित्र नहीं, अमुक का विरोधी नहीं, व्यापारी नहीं, मैं सुखी दुःखी मैं रंक राव, सभी प्रकार की ये बातें मैं नहीं । मैं हूँ एक अखंड शायक स्वरूप, अच्छा तो यह मैं हूँ और बाकी? बाकी पौद्गलिक हैं । पुद्गल में होने वाली बात तो उपादानतया पौद्गलिक है और पुद्गल का सन्निधान पाकर होने वाली इस स्वच्छता में प्रतिफलन, यह पुद्गल का निमित्त पाकर होने वाला परिणमन है, अतएव पौद᳭गलिक है । इससे मैं दूर हटूं और एक अपने आपके स्वरूप में रहूँ । इस छंद में कहा गया है कि मैं चैतन्य शक्ति मात्र हूँ और इस चैतन्य शक्ति से अतिरिक्त जितने भाव हैं ये सब पौद्गलिक हैं ।