वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 51
From जैनकोष
य: परिणमति स कर्ता स: परिणामो भवेत्तुतत्कर्मं,
या परिणति: क्रिया सा त्रयमपि भिन्न न वस्तुतया ।।51।।
505―कर्ता कर्म क्रिया की अभिन्न वस्तुता का दृष्टांत द्वारा समर्थन―बात यह विचारी जा रही है कि कोई भी पदार्थ करता किसे है? और किस क्रिया के द्वारा करता है । तो यहाँ यह बात समझना चाहिए कि निश्चय से वास्तव में जो बने उस बनाव को वही करता है । व्यवहार से उस बनाव में जो निमित्त हो वह कर्ता है, यह ध्यान में रखकर यह प्रकरण सुनें । क्या? निश्चय से कौन कर्ता है? जिसमें बात बनती है वह कर्ता है, जिसमें कार्य होता है वह कर्ता है,जो कार्यरूप परिणमता है सो कर्ता है । जैसे घड़ा बनाया गया मिट्टी का । कुम्हार ने बनाया ऐसा व्यवहार में कहते हैं । तो वहाँ काम क्या हुआ? घड़ा । वह काम किसमें हुआ? घड़ा में । घड़े का कर्ता कौन? जिसमें बना ही वह कर्ता । जिसमें बना हो वह कर्ता, जो बन गया हो वह कर्म । घड़े का रूप जो हो सो कर्ता अब आप जान लीजिए कि निश्चय से घड़े का कर्ता कौन है? तो घड़े का कर्ता है मिट्टी और कर्म क्या हुआ? घड़ा और किस क्रिया के द्वारा किया गया? तीसरी बात यह समझना है, मिट्टी ने घड़ा बनाया, यह निश्चय दृष्टि से हो रहा है सब । मिट्टी का घड़ा बनाया तो मिट्टी ने कौनसी क्रिया की कि जिससे घड़ा बन गया? क्रिया किए बिना तो काम तो नहीं बनता । तो मिट्टी ने कौनसी क्रिया की कि घड़ा बन गया? सो भी समझ में आ रहा होगा कि मिट्टी का फैलाव क्या, विस्तार क्या? अब इस तरह से मिट्टी ने अपने में अपना परिणाम किया यों वह घड़ा बना, तो वास्तव में घड़े का करने वाला मिट्टी और कर्म हुआ बड़ा और परिणति हुई मिट्टी की ही परिणति । तो ये तीनों बातें भिन्न-भिन्न तो न रहीं, एक ही चीज रही कर्ता कौन? मिट्टी । कर्म क्या? मिट्टी । परिणति क्या मिट्टी की । उस प्रकार वर्तना, ये तीनों बातें जुदी-जुदी न रही । मायने अन्य वस्तु में न रही वही-वही रही । ऐसे ही निरखना है आत्मा में कर्ता कर्म क्रिया तीनों भिन्न वस्तु नहीं मात्र जीव रूप है देखो आत्मा में रागद्वेष हुआ । रागद्वेष मायने च ज्ञान ने, ऐसा ,सोचा कि यह बड़ा अच्छा, यह बड़ा खराब, इससे मुझे बड़ा सुख हो रहा, इससे मुझको कष्ट हो रहा । ज्ञान के जो ये विचार परिणाम हैं इनका ही नाम रागद्वेष है ये विकल्प हैं सो कर्म, इनका कर्ता जीव, ऐसी परिणति सो क्रिया । अब देखो ये विचार बन कैसे गए? आत्मा का असली काम तो यह था कि वह जानता भर रहे, अपने आपमें जानन मात्र काम को त्याग कर जो ये विकल्प, विचार बने सो कैसे बने? वह कर्म विपाक उसमें झल का । उसका जो प्रतिबिंब हुआ, उसका जो रंग चढ़ा उस रंग में ज्ञान का यह रंग बन गया । नहीं तो, ज्ञान तो अपने शुद्ध काम को करता, केवल जाननहार रहता, पर जाननहार मात्र न रह सका और यह उन राग विकल्पों में लग गया, यह सब नैमित्तिक बात है, जो केवल जाननहार देखनहार रहेगा, बस जान लिया और अधिक मतलब नहीं, उसे जान लिया देख लिया, इससे आगे मुझे मतलब नहीं, जो ऐसा जाननदेखन हार रहे उसे कोई आकुलता नहीं हो सकती, पर यह संसारी प्राणी जानन देखनहार नहीं रह पाता, और उसमें कोई अपनी तरकीब लगाना, विचार बनाना, उसमें व्यग्र होना आदि करता रहता है, केवल जानन देखनहार तो भगवान हैं, जिनकी प्रति में भी हम बड़ा आदर भाव रखते हैं, जो ज्ञाता दृष्टा मात्र रहता उसको अलौकिक लाभ होता, अपूर्व शांति का लाभ होता है ।
507―धर्म में कृत्व तत्त्व का आलोकन―और भी निरखिये धर्म कुछ कर रहे, धर्मपाल रहे, उस धर्म में और क्या किया जाना है, कोई काम होता तो उसमें बात तो मालुम होती है कि इसमें यह किया जाना है । आप तो यह बतलावो―धर्म में और क्या किया जाना है? मंदिर आए तो क्या करना? किसलिए आए? स्वाध्याय करते, धर्म करते तो किसलिए करते? धर्म में करना क्या है सो तौ बताओ? द्रव्य चढ़ाना, हाथ हिलाना यह करना है क्या? इतना मात्र करने के लिए नहीं है । यह तो एक साधन है कि हमारा इतनी देर तक यहाँ ठहरना बन जाये । धर्म के लिए क्या करना? धर्म के लिए यह करना, ऐसा ज्ञान जगाना, भगवान के स्वरूप का ध्यान रखना जिससे कि हमारी यह परिणति बन जाये कि हम केवल ज्ञाता दृष्टा रहेंगे, हम किसी बात में दखल न देंगे, मायने विकल्प न करेंगे, आस्था न बिगाड़ेंगे, व्यग्र न होगे, इष्ट अनिष्ट की बुद्धि न करेंगे । केवल ज्ञाता दृष्टा रहना है, बस यह करना है धर्म में ।
100―परमात्मतत्त्व चिंतन की सीख पाये हुए सेठ की एक घटना का दृष्टांत―एक ऐसा छोटा कथानक है कि एक सेठ जी से किसी मुनिराज ने महाराज ने कहा कि क्या तुम्हारे कुछ नियम है? तो सेठ ने कहा―महाराज हमारे तो कुछ नियम नहीं है ।....अच्छा तो क्या देव दर्शन का नियम ले सकते ?....महाराज हमारे घर से मंदिर बहुत दूर है, हम यह नियम तो नहीं ले सकते ? तो क्या कोई नियम लेना चाहते?....हां महाराज लेना तो चाहते कोई नियम, पर जो बहुत आसान हो वह नियम दीजिए ।....अच्छा तो बताओ कि तुम्हारे घर के ठीक सामने पास में क्या पड़ता है? ....एक कुम्हार का मकान ।....वहाँ तुम की सबसे पहले सबेरे-सबेरे क्या चीज दिखती?....महाराज हमें तो हमारे द्वार के चबूतरे से उस कुम्हार के झोंटे का चाँद दिखता है ।....अच्छा तो तुम प्रतिदिन उस झोंटे के चाँद का दर्शन करके भोजन किया करो, यह नियम निभा लोगे ना ?....हाँ महाराज यह नियम तो निभा लेंगे ।....अच्छा तो ठीक है, इस नियम को निभाना । अब वह सेठ था अपने नियम का पक्का, प्रतिदिन उस झोंटे के चाँद का दर्शन करके नाश्ता, पानी, भोजन आदि करता था । एक दिन क्या हुआ कि वह कुम्हार मिट्टी लाने के लिए जल्दी ही झोंटा लेकर खान में चला गया । अब आया सेठ के नाश्ता पानी का समय, सो अपनी मकान की छत से रोज की भाँति देखा, झोंटा न था, कुम्हार के घर जाकर पता लगाया कि झोंटा कहां गया? तो कुम्हार की स्त्री ने बताया कि झोंटा तो अमुक जगह की खान से मिट्टी लाने के लिए ले गए हैं । तो वह सेठ वहाँ पहुंचा उसी समय वहाँ क्या घटना घटी कि कुम्हार जब मिट्टी खोद रहा था खान में, तो उसे मिला असर्फियों से भरा हंडा । वह खड़े होकर देखने लगा कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा । अगर किसी ने देख लिया और राजा से कह दिया तो ये असर्फियाँ छिन जायेंगी । सो क्या देखा कि वह सेठ खान के निकट ही खड़ा हुआ है और समझ गया कि इसने तो देख लिया, यह राजा से जरूर कह देगा । इधर सेठ को झोंटे का चाँद भी दिख गया और वापिस लौट पड़ा । अब कुम्हार बुलाता है―अरे सेठजी सुनो तो सही । तो सेठ बोला―बस देख लिया ।....अरे क्या देख लिया? यहाँ आवो तो सही ।....बस देख लिया ।....सेठ का तो कहने का मतलब था कि झोंटे का चाँद देख लिया पर कुम्हार ने समझा कि अशर्फियों से भरा हंडा देख लिया । जब सेठ घर पहुँचा तो पीछे से वह कुम्हार आधी अशर्फियाँ भी लेकर पहुंचा और कहा कि देखो―ये आधी अशर्फियाँ आप ले लो आधी हमने ले लिया । आपने जो देखा था वह सब सही था । सेठ को उस समय बड़ा आश्चर्य हुआ । खैर कुम्हार तो घर चला गया । इधर सेठ ने सोचा कि देखो एक झोंटे के चांद का नियम लेने से तो ये अशर्फियाँ मिलीं, यदि मुनिराज के अनुसार देव दर्शन का नियम लेता तो न जाने क्या से क्या लाभ मिलता? सो वह झट से पहुंचा उन्हीं मुनिराज के पास और कहा―महाराज हमें देव दर्शन का नियम दे दीजिए । आखिर मुनिमहाराज ने आर व प्रभु का स्वरूप बताते हुए उसे देव दर्शन का नियम दिया, सेठ ने आत्मा के स्वरूप में, भगवान के स्वरूप में अपना चित्त लगाया, उस प्रकार का ध्यान बनाया और एक अलौकिक शांति पाया । तो मतलब यह है कि क्या करना है धर्म में? बस यह करना, आपको देखना कि मैं ज्ञान मात्र हूँ, ज्ञान के सिवाय मेरा कोई स्वरूप नहीं है, और मैं इस ज्ञान को ही करता रहता हूँ ।
508―जीव में निश्चय से कर्ता कर्म क्रिया की अभिन्नवस्तुता का कथन―भैया । एक सेकेन्ड भी तो ऐसा नहीं गुजरता कि जब मैं ज्ञान का काम न करता होऊं । जब मैं गुस्सा कर रहा हूँ तो भी मैं ज्ञान का ही काम कर रहा कि नहीं? कर रहा । अगर ज्ञान का काम बिल्कुल बंद हो जाये तो गुस्सा हो ही नहीं सकती । गुस्सा भी तो इस धान से मिलकर चल रही है । तो घमंड हो, मायाचार हो, लोभ हो, ज्ञान का काम निरंतर है, कषाय तो बदलती हैं―अभी क्रोध था, अब नहीं है मगर ज्ञान तो अपना कम निरंतर कर रहा है । मैं तो ज्ञान मात्र हूँ, ज्ञान को ही करता हूँ और ज्ञान क्रिया के द्वारा ही करता रहता हूँ । ये तीनों एक हैं, भिन्न-भिन्न नहीं है । जैसे एक मोटा उदाहरण ले लो, कोई एक साँप है, वह लंबा-लंबा चल रहा था, अब एक जगह वह कुंडली बनाकर बैठ गया, जैसा कि पुस्तकों में फोटो आता है, बोलो साँप ने क्या किया उस समय? कुंडली बनाया, और साँप ने किस चीज के द्वारा कुंडली बनाया किस क्रिया के द्वारा कुंडली बनाया? अपने ही शरीर में, अपने ही मोड़ क्रिया के द्वारा कुंडली बनाया, तो साँप, कुंडली और कुंडली बनाने की क्रिया, ये तीन चीजें सांप से जुदी हैं क्या? कुंडली है तो सांप रूप है और जिस क्रिया के द्वारा कुंडली बनी वह भी सांप रूप है, तो सांप की कुंडली के कार्य में क्रिया, कर्ता, कर्म ये तीनों जुदे तो न रहे वास्तव में, निश्चय से ही वस्तु का निगाह हुआ करता है, वहाँ संयोग नहीं देखा जाता । घटना नहीं त की जाती, पर इसके मायने यह नहीं है कि संयोग असत्य हो, घटना असत्य हो, पर उस ओर दृष्टि नहीं हैं, वह गौण चीज हुए, एक ही द्रव्य को निरखा जा रहा है वहाँ कर्ता, कर्म, क्रिया तीनों एक हैं । भिन्न-भिन्न नहीं हैं ।
509―जीव और पुद्गलकर्म दोनों में अपना-अपना कर्तृत्व―देखो जीव ने राग किया, मायने ज्ञान ने ज्ञान को बहुत मोड़ दिया, विचित्र कुंडली बना लिया, अच्छा है, बुरा है, हितकारी है, अहितकारी है, कष्टदायी है, मेरा है, मेरा नहीं, घृणा है, प्रीति है, इन सब विचारों को कौन कर रहा है? ज्ञान ही तो बना रहा है, सो जीव कर्ता है और उसका यह ज्ञान परिणाम कर्म में है और उसकी जाननरूप क्रिया है, ये तीनों न्यारे-न्यारे नहीं हैं, इसी तरह कर्म में देखो―जो कर्म पहले बांधे थे और अब उदय में आये हैं, मायने अब आत्मा से निकल रहे हैं तो ये कर्म विजातीय हैं, स्थितियाँ विरुद्ध स्वभाव वाली है, तो विरुद्ध स्वभाव वाला जब घर में से निकलता है तो एक बहुत बड़ी चोट, हलचल और खराबी करता हुआ निकलता है । तो कर्म जब उदय में आ रहे तो कर्म में कर्म की हलचल, कर्म का रस, कर्म का अनुभाग ये सब कर्म में हो रहै हैं । कर्म पौद्गलिक हैं, पुद्गल कहते हैं भौतिक चीज को, जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श हो, जो मिलकर बड़ा बन जाये तो ऐसा यह पुद्गल कर्म उदय में आया तो कर्म में क्या बात बनी? कर्मरस, कर्मविपाक । तो उसे किसने किया? पुद्गल कर्म ने किया । क्या किया? कर्म का परिणमन । और किस क्रिया के द्वारा किया? उस कर्म की ही क्रिया के द्वारा वह किया गया ।
510―जीव और कर्म में कर्तृकर्मत्व के भ्रम का ध्वंस करने में शांति मार्ग का लाभ―यहाँ दो बातें बतला रहे―जीव और अजीव, 7 तत्त्वों में जो मूल में दो तत्त्व हैं―जीव अजीव याने प्रकरण में जीव और कर्म, सो जीव का काम, जीव की किया जीव में, कर्म का काम, कर्म की क्रिया कर्म में । मगर निमित्तनैमित्तिक योग ऐसा अवश्य है कि ऐसी क्रिया करता हुआ कर्म जिस काल में उपस्थित हैं, उदय में है उस काल में जीव अपने ऐसे ज्ञान विकल्प को करने लगता है, सो परस्पर में निमित्तनैमित्तिक संबंध तो है, मगर जीव-जीव का ही काम कर पाता और कर्म-कर्म का ही काम कर पाता । यहाँ यह बात देखी जा रही है कि ऐसे ही प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र अपने आपमें अपना परिणाम करने वाले हैं, भ्रम मत करो कि मैं बड़ा हूँ, मैं छोटा हूँ, मैं किस पोजीशन का हूँ, मैं मनुष्य h,व्यापारी हुं, अमुक हूँ, तमुक हूँ, यह भ्रम मत रखो, यह तो सब कर्मजाल है और उस कर्मजाल को यह अज्ञानी मान लेता अपना जाल, अपनी चीज, बस यहाँ ही भेद विज्ञान जिसके हुआ उसको ही ज्ञानी कहते हैं, देखो―यहां का भेद हुए बिना भीतर का भंडाफोड़ हुए बिना, जो संसार में अब तक गोरख धंधा भीतर चल रहा है उसका फोड़ हुए बिना भली भाँति यह भी समझ में न आ सकेगा कि जो सब कुछ दिख रहा है यह भी मुझसे भिन्न है, तोतारटंत तो चलेगा―घर मेरा नहीं, शरीर मेरा नहीं, यह तो नष्ट हो जाता है, लेकिन अच्छा, यह मेरा नहीं तो फिर क्या करना? बह कुछ समझ में न आयेगा । कब तक? जब तक कि आत्मा के सहजस्वरूप का ज्ञान न हो तब तक यह समझ में न आयगा कि घर मेरा नहीं, अच्छा तो घर छोड़ दोगे, कुटुंब मेरा नहीं, चलो शहर छोड़ दोगे, कुछ भी छोड़ दो, आखिर करना क्या है? करना क्या है यह बात जब तक ध्यान में न आयगी, त्याग हो जाने पर भी तब तक मार्ग न मिलेगा । कब तक ध्यान में न आयेगा कि मुझको क्या करना है और किसमें मेरा समय निकल जायेगा, बड़े प्रेम से, बड़े आनंद से बह काम कब तक समझ में न आयगा, जब तक कर्मरस व ज्ञानरस का हमारे जो एक साँझा सा बन रहा, इसकी जब तक टूट न हो और कर्मरस से यह जुदा न बने और अपने शानस्वभाव की महिमा का भान न हो तब तक ध्यान में न आयेगा कि जगत की चीजों को छोड़-छोड़कर भी आखिर हमको करना क्या है? और मेरा समय गुजर कैसे जायेगा ? कितना महत्त्व है सम्यक्त्व के लाभ का? कितना महत्त्व है भीतर में अपने आपके सहज स्वरूप के परिचय का, जिसके बिना संसार का कष्ट मिट नहीं सकता ।
512―निरापद निजपद के ध्यान में कष्टों का दूरीभवन―लोग जरा-जरा सी बातों में दुःखी हो जाते हैं, कहीं नुकसान हो गया तो कष्ट मान रहा, हाय इतने रुपये चले गए, अरे चले गए तो जाने दी, वह चीज क्या है? न कुछ हैं, वह तो अहित मल है, मेरा इससे कौन सा संबंध है? क्या परवाह? अच्छा घर में कोई गुजर गया, अब गुजर गया तो गुजर गया, ऐसा ही होना था, और फिर उरस से तुम्हारा क्या संबंध था? तुम्हारा तो केवल ज्ञानस्वरूप से संबंध है, कौन सा कष्ट होता? दुनिया में कष्ट किसको कहते हैं? आप कुछ भी न बता सकेंगे । हैं ही नहीं कष्ट, आप कष्ट क्या बतावेंगे? मान रही सारी दुनिया कष्ट । जितने मनुष्य हैं सब अपने में कष्ट का अनुभव कर रहे, उनसे ही पूछो विश्लेषण करके कि आपको क्या कष्ट है? तो कुछ न बता सकेंगे । बतावेंगे ऊपरी-ऊपरी बातें, पर सही कुछ बयान नहीं कर सकते कि मुझको यह कष्ट है । अजी इसमें हमारे 50 हजार रुपये घट गए, तो भला बतलावो इससे तुम्हारे इस ज्ञानस्वरूप आत्मा में क्या कष्ट आया? तुम्हारे भीतर में बताओ क्या कष्ट है? तुम तो सब ये ऊपरी-ऊपरी चीजों के विकल्प से कष्ट मान रहे, अजी यह कष्ट है कि उसके ख्याल तो निरंतर आ रहे हैं, तो भाई यह तो तुम्हारी बेवकूफी सी है, यह तो तुम्हारी अज्ञानत । है कि तुम अपने में अंत: प्रकाशमान इस शाश्वत चैतन्य स्वभाव को तो निरखते नहीं, और जो मेरा न था, कभी नहीं हो सकता, न है, न होगा ओर जिसका संबंध मानकर कष्ट ही हाथ आया है, शांति का तो स्वप्न भी नहीं होता, ऐसे अत्यंत भिन्न बाहरी पदार्थों में तुम ध्यान रखे हो तो कष्ट होगा ही । बच्चा अगर एक असंभव कार्य के लिए हठ कर जाये तो उसको सुखी करने वाला कौन हैं? एक यहीं की (सहारनपुर की) तो लोग घटना सुनाते हैं कि कोई बजाज का बालक था और उसके घर के पास एक रईस के घर हाथी था, सो एक बार बह बालक अपने पिता के सामने रोने लगा कि मुझको तो हाथी चाहिए । तो उस बजाज ने महावत को कुछ पैसे देकर कहा कि भाई यह हाथी हमारे द्वार पर खड़ा कर दो । महावत ने हाथी लाकर बजाज के द्वार पर खड़ा कर दिया । अब बजाज ने कहा अपने बालक से लो बेटा हाथी आ गया । तो फिर बालक बोला―ऐसे नहीं, इसे तो खरीद दो । लो, फिर बजाज ने महावत को कुछ पैसे दिया और कहा कि भाई इस हाथी को हमारे बाड़े के अंदर कर दो । महावत ने हाथी को बाड़े के अंदर कर दिया । बजाज बोला―लो बेटा यह हाथी खरीद दिया । फिर बालक बोला―यह नहीं, इसे तो हमारी जेब में धर दो ओं अब भला बताओ यह काम कैसे किया जाये? और इस पर वह हठ करने लगा तो उसका दु:ख कौन मिटायेगा । तो ऐसे ही जगत के मोही प्राणी पर पदार्थों के बारे में हठकर रहे हैं और इन परे पदार्थों पर हमारा अधिकार नहीं, उसकी हठ करते हैं । रही संपदा की बात तो जैसा पुण्य होगा उससे के अनुसार संपदा भागकर आयेगी चारों ओर से, अगर पुण्य नहीं होगा तो घर में रखी हुई चीज भी नष्ट हो जायेगी । अपने परिणाम शुद्ध बनावें, अच्छे भाव रखें जिससे भविष्य अच्छा बने । बस यही करने का काम है ।
513―अध्रुव औपाधिक भावों से उपेक्षा करने में ही कल्याण―यहाँ यह ही बात तो देखी जा रही है कि मैं यह हूँ सो मैं ज्ञान को ही कर सकने वाला हूँ । इसके बाद मेरी और कोई करतूत नहीं । हमको ज्ञान मात्र अपने में परखकर तृप्त होना चाहिए । बाहरी विभूति को देखकर तृप्त होने की आदत इतनी बड़ी चोट पैदा करेगा कि जिसका झेलना कठिन हो जायेगा, इस भव में नहीं तो अगले भव में । इस कारण सच्चा सीधा सद्गृहस्थ बह है जो इन पाये हुए चेतन, अचेतन, समागमों में न हर्ष माने न खेद माने, ज्ञाता द्रष्टा रहे । बाहर मेरा कुछ नहीं, मैं कुछ नहीं कर रहा इन बाहरी पदार्थों में, मैं तो ज्ञान मात्र हूँ, और जानन क्रिया के द्वारा अपने परिणामों को करता हूँ दूसरे किसी भी पदार्थ का मेरे इस काम में कोई दखल नहीं । अब रही बात विभावों की, रागद्वेषादिक मलिन परिणामों की सो बात यह है कि जैसे कोई मुसाफिर सड़क पर से जा रहा है, दिन में 4 बजे जा रहा है, वह खूब साफ स्वच्छ सफेद झिलमिल करने बाले कपड़े पहिने जा रहा है, जैसे बहुत से कपड़े हैं ना―टेरालीन, लाइलोन आदिक । कैसे कपड़े? टेरालीन, दूकानदार ने बहुत टेरा पर भले ग्राहक ने ली न, सो बन गया टेरालीन, इतनी खराब चीज है टेरालीन, दूकानदार ने टेरा बहुत, पर ग्राहक ने ली न । कदापि उसमें आग लग जाये, तो सारे शरीर में वह कपड़ा चिपक जाये और पूरे शरीर को जला दे । लाईलोन―कोई स्त्री हठीली थी वह ले आई अपने घर लाईलोन का कपड़ा, तो पुरुष समझाता है उसे कि लाई सो लाई पर अब लो न, यह कपड़ा बढ़िया नहीं है । तो ऐसे ही झिलमिल चमकीले कपड़े पहने हुए कोई मुसाफिर सड़क से जा रहा था, उस पर वृक्षों की छाया भी पड़ती जाती थी तो अब उस छाया में उस कपड़े की झाँकी देखने का मिश्रण हो गया । अब दूसरी-दूसरी प्रकार से उसका परिणमन बन गया, झाँकी बन गई, तो ऐसे ही यह जीव कर तो रहा ज्ञान का ही ज्ञान । चलता जा रहा है जानता हुआ अपनी कांति में बेधड़क बढ़ता ही चला जा रहा है जीव, मगर कर्म वृक्ष की जो छाया पड़ती जा रही रास्ते में उस छाया के पड़ने से इस ज्ञान की झाँकी पर कर्मरसरूप विचित्र अन्य-अन्य भाव बनते जा रहे हैं, मगर वहाँ चलने वाला तो ज्ञान है, जानने वाला तो ज्ञान ही है, सो निरखो, मैं अपने में अपना परिणाम ही करता हूँ ।
514―जीव और कर्म की दशा में परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव होने पर भी जीव व कर्म में निश्चय से परस्पर कर्तृकर्मत्व का अभाव―यद्यपि जीव के विभावों में कर्म का उदय निमित्त है और कर्मोदय के निमित्त हुए बिना जीव में विभाव हो नहीं सकते और इसी प्रकार कर्म का जो बंधन है, स्थिति अनुभाग आदिक है सो वे जीव के रागद्वेष का निमित्त पाकर हुये । निमित्त पाये बिल कर्म का बंधन भी नहीं बनता, फिर भी कर्म का काम कर्म में है, जीव का काम जीव में है, कर्म अपनी परिणति से कर्मरूप चल रहे हैं, जीव अपनी परिणति से अपने संकल्प विकल्प रूप अथवा सिद्ध हों तो अनंत ज्ञानादिक चतुष्टय रूप चल रहे हैं । यहाँ यह निरखना है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप नहीं बनता, दूसरे द्रव्य की दयारूप नहीं बनता, प्रत्येक द्रव्य में अपनी ही क्रिया से अपना ही कर्म अपनी ही अवस्था बनती है, और इस तरह प्रत्येक पदार्थ उत्पादव्यय ध्रौव्य युक्त है, अपने में नई दशा बनाना, पुरानी दशा विलीन कर देना और खुद का निरंतर बना रहना, जो भी देखो सबमें ये तीन बातें पायी जातीं एक साथ, उसमें नई दशा बनती, पुरानी दशा विलीन हो जाती, जैसे यह अंगुली टेढ़ी बन जाने पर टेढ़ी दशा बन गई, सीधी दशा मिट गई, अंगुली वही की वही है, जीव मनुष्य से देव बन गया, देव दशा बन गई, मनुष्य दशा विलीन हो गई, जीव वही का वही है, प्रत्येक पदार्थ इस प्रकार से उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त हैं, अपने में अपना परिणाम करते हुए सब रहते हैं, ऐसा जानकर पर पदार्थों में रति और अज्ञान मूल से छोड़ देना चाहिए ।