वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 6
From जैनकोष
एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मन:
पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यांतरेभ्य: पृथक् ।
सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं
तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसंततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु न: ॥6॥
100―नवतत्त्वसंतति―हम आप सब जाननहार वस्तु हैं याने निरंतर जानते रहते हैं, कोई भी स्थिति हो, सदा जानने का काम तो चलता ही रहता है । अगर जानने का काम सतत न चलता होता तो ये क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक कुछ महसूस न हो पाते । जब अशुद्ध अवस्था है तो ये कषायें अनुभव में आती हैं । तो जाननहार है तब ही तो अनुभव में आती । अचेतन चीज में क्रोधादिक कैसे हो सकते हैं? तो इस तरह भी परख लें कि हम जाननहार पदार्थ हैं और इस समय क्या हालत हो रही है, हम आप संसारी जीव परतंत्र हैं, बंधन में पड़े हुए है । शरीर का बंधन है, अनेक प्रकार की उपाधियाँ उत्पन्न होती हैं । एक दूसरे का स्नेह बंधन, अपना मानना, नाता रखना, इनके बंधन में हैं । तो ये सब बंधन हुए क्यों? जब हम एक जाननहार पदार्थ हैं, जानते रहें बस, बंधन में हम क्यों आ गए और क्यों इन जीवों को बंधन अनेक ढंग से हो रहे हैं, विकार का बंधन सबसे विकट बंधन है । स्नेह का बंधन, राग का बंधन बहुत कटुक बंधन है । यहाँ जो कोई मनुष्य किसी मनुष्य के आधीन नजर आता है तो इन रागादिक भावों के कारण ही आधीन नजर आता है । एक गाय अपने छोटे बछड़े के आधीन बन जाती है―उस बछड़े को कोई मनुष्य ले जाये तो वह गाय भी वहाँ पहुंच जाती है । तो देखने में तो कोई बंधन नहीं, पर बंधन न होता तो गाय उस बछड़े के पीछे-पीछे क्यों फिरती? तो वह बंधन है स्नेह का, प्रीति का । तो हम आप लोग शरीर के बंधन में हैं, शिकार के बंधन में हैं । यह बंधन लग क्यों गया, इसका कारण है कि इस जीव के साथ कोई दूसरी विपरीत बीज का संबंध है । संबंध होने से इस जीव में विकार हुए, विषमतायें आयीं । तो वह दूसरी चीज है कर्म । जीव और कर्म―इन दो का ही यह संघर्ष है कि जो ऐसी-ऐसी स्थितियाँ बन रही है । हम जीव हैं और हमारे साथ कर्म लगे हैं । तो जब जीव के साथ कर्म लगे हैं तो ये कैसे लग गए । इसमें कर्म आते हैं तब लगते हैं तो बस इसी बुनियाद पर ये तत्त्व बन गए । जीव में कर्म आये तो इसे कहते हैं आस्रव । जीव में आये हुए कर्म बँध गए तो इसे कहते हैं बंध, और जीव में कर्म न आ सके, कर्मों के आने का निरोध हो जाये तो इसे कहते हैं संवर और जीव में जो पहले कर्म आ चुके थे, बँध गए थे उनका झड़ जाना सो निर्जरा और जीव से कर्मों का बिल्कुल झड़ जाना, खालिस जीव का रह जाना इसका नाम है मोक्ष । और इसके समर्थक दो और बंधन हैं-पुण्य और पाप । जो कर्म आये थे वे कोई पुण्यरूप होते हैं कोई पापरूप । तो इस प्रकार ये 9 तत्त्व हैं । लेकिन जीव और कर्म में प्रत्येक में भी 9 तत्त्व हैं जो खुद के खुद में है ।
101―नवतत्त्वसंतति को छोड़कर पूर्णज्ञानघन अंतस्तत्त्व के दर्शन की ओर लगने का संकेत―इन 9 तत्त्वों में जीव को तो कुछ बोल पाते हैं, पर 9 तत्त्वों से पृथक् स्वरूप में अपने को नहीं देख पाते । जैसे यहाँ जो पशु, मनुष्य आदि दिख रहे उनकी खूब पहिचान है कि ये जीव हैं । कीड़ा मकोड़ा पशु पक्षी ये जीव है, यह बात तो बड़ी जल्दी समझ लेते हैं, तो जो जीव और कर्म के बंधन से शरीर मिला है उन शरीरों में ही तो जीव की खोज की है कि यह जीव है, पर शरीर के बिना जीव का जो असली स्वरूप है उस रूप से तो कोई खोज नहीं कर रहा । शरीरधारी को देखा और मान लिया कि यह जीव है, पर उसमें जो शरीर से निराला वास्तविक एक जीव पदार्थ है उसे तो नहीं कोई पहिचान रहा । जीव और कर्म का बंध है उसे खूब समझ रहे । चर्चा होती है कि जब सम्यग्ज्ञान हो जाता है तो जीव के संवर होता है । संवर दशा में जीव को जाना है । कर्म झड़ रहे, तपश्चरण हो रहा उस दशा में जीव को जाना है और जीव मुक्त हो गया, सिद्ध हो गया, अनंत चतुष्टयमय विराजमान है उस दशा में जीव को जाना है । पुण्य पाप के फल को देख रहे हैं, पुण्य पाप को देख रहे हैं, तो इस तरह लोग अगर जीव के बारे में कुछ समझ बनाते हैं तो इन 9 तत्त्वों की संतति में समझ बनती है पर इन 9 तत्त्वों से हटकर केवल एक चैतन्यप्रकाश है उसकी दृष्टि नहीं बनाते । तो यहाँ आचार्य यह बतला रहे हैं कि 9 तत्त्वों में लगे हुए जीव को देखा तो वह तो सम्यक्त्व का रूप नहीं है, परिचय जरूर है, मगर श्रद्धा कोई ऐसी बना ले कि जो पशु है सो ही जीव है, जो मनुष्य है सो ही तो जीव है, ऐसी श्रद्धा बन जाये तो उसके सम्यक्त्व नहीं, मिथ्यात्व है, क्योंकि उसने इन पर्यायों को ही जीव मान लिया है । कोई मानता यह पुण्यवान है ऐसा कोई जीव है, जो पापयुक्त है ऐसा कोई जीव है याने 9 तत्त्वों में किसी तत्त्व रूप ही जीव समझता, ऐसा श्रद्धान रहे तो सम्यग्दर्शन नहीं कहलाता । मोक्ष तक को भी कोई समझे कि लो कर्मों से छूट गया जीव, ऐसा जीव होता है जो कर्मों से छूटा है और मुक्त है, ऐसा ही पर्याय के ढंग से समझे तो सम्यक्त्व नहीं है, यह सब श्रद्धा की बात कह रहे हैं । श्रद्धा में यह रहे कि मैं आत्मा मात्र ज्ञानस्वरूप हूँ, ज्ञानानंदमय हूँ, सहज ज्ञानानंदमय हूँ, अपने सत्त्व के कारण ही ज्ञानानंद स्वरूप हूँ, अन्यरूप नहीं, अन्य के संयोगरूप नहीं हूँ, ऐसे निराले ज्ञानानंद स्वरूप को जो मान ले कि यह मैं हूँ और ऐसी ही दृष्टि बनाये और अनुभूति जगे तो समझो कि वह सम्यग्दर्शन है ।
102―अहितमय मिथ्यात्वभाव को छोड़कर अंत: परमार्थदर्शन की भावना―भैया ! सम्यग्दर्शन नहीं होता तब तक जीव का कुछ पार नहीं पड़ता । मिथ्यात्व के वश ही तो यह जीव संसार में रुल रहा । शरीर को माना कि यह मैं हूँ तो उसे शरीर मिलते रहते हैं और शरीरों के मिलते रहने का ही नाम संसार है, जन्म-मरण है । तो पहले तो यह निर्णय बनायें कि हम को क्या शरीर सहित ही रहने में सार है या शरीर रहित रहने में सार है? शरीर सहित रहने में तो सार यों नहीं कि एक तो शरीर का ही भरोसा नहीं कि मनुष्य का ही शरीर मिलेगा । यह तो भावना के अनुसार बात है । जैसे भाव होते वैसा ही कर्मबंध होता, वैसा ही फल प्राप्त होता । तो यह ही निश्चय नहीं कि मनुष्य मरकर मनुष्य बन भी जायेगा क्या? और प्राय: करके नहीं बनता । मनुष्य एक उत्कष्ट स्थिति है, उत्कृष्टभव यों ही सुगमतया नहीं मिलता, बड़ा दुर्लभ है । तो ऐसा मानना कि मैं मनुष्यादिक हूँ, कुछ हूँ, किसी पर्यायरूप माने तो शरीररूप जब अपने को माना, तो इसको शरीर मिलते रहेंगे । अब शरीर कैसा मिलेगा? सो संसार के सब जीवों को देखकर समझ लो कि ऐसे-ऐसे शरीर मिलेंगे, कीट पतंगा, स्थावर, मनुष्य आदि । इन शरीरों में प्रीति रहे, श्रद्धा रहे कि जो यह शरीर है सो मैं हूँ तो उसका फल यह है कि उसको शरीर मिलते रहेंगे । अगर किसी का यह प्रोग्राम हो, यह मन में हो कि मैं तो शरीर रहित रहूँ । शरीर तो कलंक है, शरीर तो एक कष्ट का साधन है, उस शरीर से निराला केवल अपने स्वरूपमात्र रहूँ ऐसी जिसकी भावना है, ऐसा ही जो अंतरंग में देखता है उसको ऐसी स्थिति प्राप्त होगी कि उसके शरीर न होगा याने सिद्ध भगवान हो जायेगा । तो जैसे एक शरीर की बात कही वैसे ही सारे ही तत्त्वों की बात समझो । जो जीव को इन रूपों से देखता है उसके हैं मिथ्यात्व और जो जीव को अपने असली स्वरूप से देखता है उसके हैं सम्यक्त्व । जैसे एक यह चौकी है अब कोई चौकी को समझता है कि यह लाल है, चौकी लाल ही होती है, इसका स्वरूप ही ऐसा है तो यह बात सही तो न रही । लाल होने पर भी इसके अंदर चौकी असल में कैसी है उसको ज्ञान से ही जानेगा कोई, आंखों से न जानेगा । जैसे देवदारू लकड़ी की चौकी है, चीड़ की चौकी है उस सर्व का इसको भान है कि चौकी का क्या रूप होगा, क्या मुद्रा होगी । तो वह है उसका असली रूप, और जो यह वार्निस का रंग लग गया, रंगीली बन गई, ऐसा रंगीली देखा और चौकी को वैसा ही माना तो यह है उसका एक विपरीत रूप । तो ऐसे ही जीव को कर्मसहित, शरीरसहित, कषायसहित अथवा कुछ मंदकषाय ऐसे नाना रूप में देखें कि यह है जीव, ऐसी श्रद्धा बनाये कोई जीव के बारे में तो उसके हैं मिथ्यात्व । तब फिर कैसी श्रद्धा बनायें कि जिसे कहेंगे सम्यक्त्व, यह बात इस कलश में कही गई है ।
103―अपने आप को अपने एकत्व में याने स्वरूप में नियत निरखने का संदेश―प्रत्येक पदार्थ मात्र अपने स्वरूप में ही नियत रहता है । कोई सी भी चीज हो, परमाणु हो, जीव हो, अपने स्वरूप में ही नियत रहता है अर्थात् अपना ही स्वरूप लिए हुए रहता है, दूसरे के स्वरूप को नहीं ले सकता । जैसे मेरा स्वरूप ज्ञानमात्र है तो मेरे स्वरूप में तो स्वरूप ही रहेगा, किसी दूसरी चीज का प्रवेश न हो जायेगा । मैं और कुछ हो जाऊँ तो मैं ही कहाँ रहा, फिर वह भी कुछ हो जाये तो वह भी कहाँ रहा । तो अंदर में इस तरह देखना कि मैं अपने एकत्व स्वरूप में नियत हूँ, मैं अन्य-अन्य रूप नहीं बन रहा, ऐसी दृष्टि बने, श्रद्धा बने तो वह है सम्यग्दर्शन । अपने स्वरूप में नियत आत्मतत्त्व का जो अवलोकन है सो सम्यग्दर्शन है । क्या बात आयी कि अपने को मनुष्य के रूप में न देखें या और और बातें जो सोच रखा है, मैं ऐसी इज्जत वाला हूँ, ऐसे परिवार वाला हूँ, अमुक गाँव का हूँ आदिक इन सब रूप मत देखें, क्योंकि इनमें अगर श्रद्धा रहेगी तो यह फसाव है, संसार में रुलाने वाला है । तो इन रूपों में अपने को न देखें । अपने को इस रूप में देखें कि मेरा स्वरूप तो एक चैतन्य है । जो चेत रहा है उसमें आभा है । तो जो चेतनामात्र है सो मैं हूँ, ऐसा अपने एकत्वस्वरूप में नियत आत्मा का दर्शन करना सम्यग्दर्शन है ।
104―व्यापक अंतस्तत्त्व के वर्णन का अनुरोध―अपने आपको और, फिर किस तरह देखना? जो व्यापक है याने मैं वह हूँ जो मेरी पहली अवस्था है और इस समय की अवस्था है, इन सब अवस्थाओं में जो रहता है वह मैं हूँ । जैसे मनुष्य कौन है? जो बचपन, जवानी और बुढ़ापा इन सब अवस्थाओं में एक रहे उसे कहते हैं मनुष्य । खास मनुष्य, शुद्ध मनुष्य, असली मनुष्य क्या आँखों से दिखता है? नहीं, क्योंकि आंखों से तो कोई बालक जानता और कोई बूढ़ा जानता । इन किन्हीं अवस्थाओं का नाम तो मनुष्य नहीं है । मान लो आप बचपन की अवस्था को मनुष्य मानते हैं तो बचपन की अवस्था बदल जाने पर जवान हो गया तो बताओ वह मनुष्य खत्म हो गया क्या? खत्म तो नहीं हुआ । तो जो बचपन, जवानी और बुढ़ापा इन तीनों अवस्थाओं में एक रूप रहे उसे कहते हैं मनुष्य । लेकिन इस तरह की शैली में एक शुद्ध मनुष्य की पहिचान होना कठिन हो रहा है, फिर मनुष्य भी एक पर्याय है, नारकी, तिर्यंच, मनुष्य, देव ये सब पर्यायें हैं, तो इन सब पर्यायों में जो रहता है, जो एक आधार है उसे कहते हैं जीव । जीव व्यापक है, इन सब दशाओं में रहने वाला है, तो ऐसे व्यापक अपने आपके स्वरूप को देखना सो सम्यग्दर्शन है । ये सब बातें शुद्धनय से समझी जायेंगी, व्यवहारनय से नहीं । व्यवहार तो जोड़ मेल की बात करता है और शुद्धनय केवल एक द्रव्य की बात करता है । तो इस शुद्धनय की स्थिति में गुजरते हुए हम आत्मा को पहिचान रहे हैं ।
105―अपने आपको सहज पूर्णज्ञानघन मात्र निरखने का अनुरोध―कैसा है यह आत्मा जिसका दर्शन करने से सम्यग्दर्शन होता है? यह पूर्ण ज्ञानघन है । इस जीव के स्वरूप में क्या बात बसी भई है? ज्ञान ही ज्ञान ठोस । याने ज्ञान ही ज्ञान से रचा हुआ यह जीव है । तो अपने आपको इस तरह जो कोई निरखेगा अंदर में कि मैं तो ज्ञानमात्र हूँ, अमूर्त ज्ञान ज्योति, केवल जाननमात्र ज्ञानस्वरूप ही मैं हूँ, इस प्रकार जो अपने को परखेगा उसके सम्यग्दर्शन होता है । जीव का जो वास्तविक स्वरूप है, जो पर के आश्रय नहीं है, पर के संबंध बिना है ऐसा स्वतंत्र आत्मस्वरूप का अवलोकन करना इसको कहते हैं सम्यग्दर्शन । कैसा अपने आपको देखें कि अपने स्वरूप का अनुभव बने? यों देखें कि मैं अन्य सब द्रव्यों से निराला हूँ, अणु-अणु मात्र से भी निराला हूँ । घर गृहस्थी वैभव धन ये तो सब प्रकट जुदे हैं, पर इनके संबंध में जो विचार विकार उठते हैं उनसे भी मेरा स्वरूप जुदा है । मैं सबसे निराला हूँ । देखो यहाँ मोह न ठहरेगा । जो समस्त द्रव्यों से निराला अपने आत्मा को माने उसके मोह नहीं रह सकता । जैसे जगत के समस्त जीव मेरे से अत्यंत भिन्न हैं, निराले हैं वैसे ही निराले ये कुटुंबी परिजन लोग हैं, इनसे कोई संबंध ही नहीं बन सकता । वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है कि एक से दूसरे में कुछ नहीं जाता । तो ऐसा निराला अपने स्वरूप को देखें तो वहाँ ममता नहीं ठहर सकती । और, ममता नहीं तो जीव का भला हो जायेगा । यह ममता व्यर्थ की ममता है । चार दिन का संयोग है, फिर कुछ नहीं है इसका । अथवा चार दिन बाद यह महसूस करेगा कि मेरे पास कुछ नहीं रहा । तो अभी से क्यों नहीं मानता कि मेरे पास कुछ और है ही नहीं । ज्ञानस्वरूप है सो ही मेरा । अगर इस हालत में भी जब कि सब समागम मिले हुए है, मान लें कि मेरा यहाँ कुछ नहीं है, मैं अकिंचन हूँ, मेरा तो एक मात्र ज्ञानस्वरूप है तो उसका मोक्षमार्ग बन गया और जो मिले हुए स्त्री पुत्रादिक हैं उनमें ममता रखें कि ये ही मेरे हैं, इनसे ही मेरा बड़प्पन है, तो इससे संसार में रुलना मिलता है । रहना तो कुछ है नहीं, जो अपने को इनसे न्यारा मान ले वह तो हो जायेगा पार, और जो इन पदार्थों में अपने को मिला हुआ मान ले वह संसार में रुलेगा । तो अपने आपको कैसा निरखें, उसको सम्यग्दर्शन कहते हैं, यह बात इस कलश में बतायी गई है ।
106―द्रव्य क्षेत्र काल भाव से अपने को पहिचानकर अभेद भाव में अपने को अनुभवने का संदेश―देखो किसी भी पदार्थ के पहिचानने के चार तरीके होते हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव । जैसे इस चौकी को पहिचानना है तो द्रव्य की दृष्टि से यह चौकी क्या है? यह इतनी लंबी चौड़ी पिंडरूप । यह चौकी है यह जाना और काठ के क्षेत्र से चौकी कैसी है? तो कहेंगे कि जो 1।। फिट चौड़ी है 1।। फिट लंबी है, एक फिट ऊँची है, इतने में जो फैल रही है वह है चौकी । यह क्षेत्र की ओर से उत्तर है और काल की ओर से क्या उत्तर है? परिणति की ओर से कि चौकी कैसी है, पुरानी है, लुढ़कती है, कुछ भी स्थिति बनती है उसको बताना यह काल की ओर से चौकी का उत्तर है । और भाव की ओर से क्या उत्तर आयेगा कि इस चौकी में रूपशक्ति है, रसशक्ति है, गंधशक्ति है, स्पर्शशक्ति है, मूर्तिक है, जो-जो कुछ गुण हैं पुद्गल में, उनको देखकर बताये तो यह हुआ भाव की दृष्टि से चौकी का परिचय । हर एक चीज का परिचय आपको चार बातों में मिलेगा । किसी मनुष्य से पूछते हैं कि आप कौन हैं, कहां रहते हैं, क्या करते हैं, और उसका कोई प्रशंसा वाला गुण भी जानना चाहते हैं तो परिचय बन जाता है, ऐसे ही जीव का परिचय करना हो तो इस जीव को शुद्ध द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से देखना । जैसे द्रव्य से जीव क्या है? तो कहेंगे कि सब गुण और पर्यायों का पिंड । जिसमें ज्ञानशक्ति है, दर्शनशक्ति है, चारित्रशक्ति है और आनंदशक्ति है, और इसकी प्रतिसमय परिणतियां हैं । क्या जान रहे हैं, क्या भोग रहे हैं तो ऐसा गुण पर्यायों का जो पिंड है वह जीव है, ऐसा देखा द्रव्यदृष्टि से । क्षेत्रदृष्टि से जीव क्या है कि इस समय में हम आपने जितना शरीर पाया है और जितने में यह फैला है बस उतने ही क्षेत्र में हम आपका जीव फैला है । यह हुई एक क्षेत्र की दृष्टि से जीव की पहिचान । काल की दृष्टि से जीव की क्या पहिचान है? जो इसकी परिणति बन रही, कषायवान बन रहा या शांत हो रहा, जो भी इसकी परिणति बन रही उस परिणतिरूप से जीव को देखना है । और भाव दृष्टि से वह ज्ञानगुण वाला है, दर्शनगुण वाला है, आदिक । और, एक अभेदभाव से देखें तो एक विशुद्ध चैतन्यस्वरूप । तो ऐसा एकत्व में नियत विशुद्ध चैतन्यस्वरूपमात्र अपने आपको देखना, अनुभवना सो सम्यग्दर्शन है, अथवा यों कहो कि जितना यह आत्मा ज्ञानमात्र अपनी अवस्थाओं में व्यापक, ज्ञान से ठोस अन्य सबसे निराला, ऐसा अपने आत्मा का जो दर्शन है सो सम्यक्त्व है और इतना ही मात्र आत्मा है ।
107―शुद्धनय से अंतःस्वरूप को निरखने की भावना―यहाँ यह भावना बनावे कि हे प्रभो 9 तत्त्वों के रूप में ही जो जीव को निरखते वह निरखना मिथ्यात्व है, यह तो छूटे और एक शुद्ध आत्मतत्त्व मेरी अनुभूति में रहे । मोटे रूप से यह बात समझें कि जीव को पशु पक्षी मनुष्यादिक रूप देखें तो मिथ्यात्व है और जीव को केवल चैतन्यमय स्वरूप में देखें तो सम्यक्त्व हुआ । यहाँ जितना जो कुछ अपने आप पर बीतता है वह अपने ज्ञान द्वारा बीतता है । हम कैसा ज्ञान बनायें कि हम को संसार में रुलना पड़े और कैसा ज्ञान बनायें कि हम इस संसार से छूट जायें? ये सब बातें हमारी ज्ञान कला पर निर्भर है, इसलिए सम्हाल करना है तो ज्ञान भाव की सम्हाल करना है । बाहरी पदार्थों का क्या है? पास में हैं तो क्या, नहीं हैं तो क्या? यह एक बड़ी विपत्ति है कि यह जीव बाहरी पदार्थों को पाकर उन्हें अपनाता है और उन ही से अपने सुख का निर्णय बनाना चाहता है । यह है जीव को अशुद्ध रूप में देखना । इसमें शांति नहीं मिल सकती, और केवल जैसा है उस रूप से अपने को देखें तो वहाँ शांति है । तो यही तो बात हुई कि जो जीव को 9 तत्त्वों के रूप में देखते, कर्मसहित हैं, कर्म आते रहते हैं सो जीव है । कर्म बँधे रहते हैं सो जीव है कर्म जिसमें नहीं फटकते सो जीव है, जो कर्म बँधे हैं वे दूर हो रहे हैं इस जीव का ऐसा निर्जरा स्वरूप है और कर्म बिल्कुल न रहें, एकमात्र जीव रह गया, यह सोचा तो मुक्ति को मान लिया, पर इतने मात्र से सही बात न आ सकी । मुक्त होनेपर भी कर्मों से छूट गया, ऐसा देखें तो अनुभव नहीं बनता कि जीव क्या चीज है । न मुक्त का विकल्प हो, न संसारी का विकल्प हो किंतु जीव में जो अपने आपका निजी स्वरूप है वह दिखे तो उसे सम्यक्त्व कहिये ।
108―ज्ञानघन मात्र रूप में अंतस्तत्त्व की भावना व योजना―भैया ! धर्ममार्ग धर्मपालन कितना सुविधा वाला है, कितना सुगम है । अपने आपको एक सही ज्ञान ज्योति इस प्रकाशरूप में अनुभव लिया तो सम्यक्त्व हो गया । और जो अन्य-अन्य पर्यायों के रूप में अनुभवे उसके मिथ्यात्व है । तो जीवन में एक यह ही बात आनी चाहिये कि हे प्रभो, मेरे सम्यग्दर्शन प्रकट होवे । संसार में तो ऐसा दिख रहा है कि लोग धन वैभव इज्जत प्रतिष्ठा की ओर खूब दौड़ लगा रहे हैं, होड़ मचा रहे हैं, ऐसे इस दुविधा वाले संसार में रहकर कोई अगर एक अपने को ऐसा अनुभव करे कि मैं तो शुद्धचैतन्यमात्र हूँ, चेतना बनी रहे, ज्ञान बना रहे, इस ज्ञान का ही मैं कर्ता हूँ, इसी का भोक्ता हूँ ऐसा जो एक अपने आप में विकार भाव को छोड़कर शुद्धस्वरूप की श्रद्धा बनाये उसके होता है सम्यग्दर्शन । सम्यग्दृष्टि जीव देवों द्वारा भी पूजा जाता है । सम्यग्दर्शन पूज्य है । नारकी जीव है, सम्यग्दृष्टि, उस पर खूब कुटाई पिटाई भी हो रही फिर भी वह भीतर में बड़ा तृप्त रहता है । लोग चाहते हैं कि हम संतुष्ट रहें, शांत रहें, पर बाह्य पदार्थों संबंध से सुख शांति की प्राप्ति नहीं हो सकती । जैसे ईंधन का संबंध मिलते रहने से अग्नि कहीं संतुष्ट नहीं हो पाती, शांत नहीं हो पाती, वह तो बढ़ती ही रहती है, इसी प्रकार बाह्य पदार्थों के संबंध से शांति नहीं मिल पाती बल्कि अशांति की ज्वाला बढ़ती रहती है । ये पंचेंद्रिय के विषयभूत साधन इस जीव के लिए महा दुःखदायी है । जीव को अपने असली स्वरूप में देखो । बाहर के विकल्प न बनें, बाहर का लगाव न रहे तो अपने स्वरूप में तृप्ति हो सकती है । तृप्ति का और कोई दूसरा साधन नहीं । तो देख लो मोक्षमार्ग एक आनंद की चीज है । विशुद्ध आनंद पाना है तो मोक्षमार्ग में अपने को लगना चाहिए और मोक्षमार्ग में लगना है तो उसका उपाय क्या? कर्मरहित, शरीररहित, उपाधिरहित, विकाररहित जो मेरा वास्तविक स्वरूप है, जो अंदर में ही गुप्त है, प्रकाशमान है उस रूप से अपने को अनुभव करें कि यह मैं हूँ, अन्य रूप नहीं हूँ तो उसकी सारी विडंबना दूर हो जायेगी । ऐसा ही ज्ञानघन आत्मतत्त्व मेरी दृष्टि में रहे, अनुभव में रहे, ऐसी अपनी एक भावना योजना होनी चाहिए । अंत: यह तो ऐसा है ही, था ही, उपयोग में अनुभव में यह अंतस्तत्त्व आवे यह ही है आत्मप्रभु का मिलन । अंतस्तत्त्व तो परिपूर्ण है, कृतार्थ है, परंतु मिथ्यात्व परिणाम के कारण भ्रांति थी वह भ्रांति दूर हो वे यही मोक्षमार्ग की प्राप्ति है । यद्यपि नवतत्त्व में से किसी भी तत्त्व वाली स्थिति में आत्मा न रहे यह हो नही सकता, वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है, फिर भी पर्यायरूप में अपने को निरखना मोक्षमार्ग में साधकतम तो है ही नहीं, प्रत्युत बाधक है, संसरण का साधक है । साधक का साध्य शुद्धपना होना है, उस शुद्धपने का द्योतक शुद्धनिश्चयनय है । तथा मात्र शुद्धत्व स्वरूप का उद्योतक
परमशुद्धनिश्चयनय है जिसका प्राय: अपरनाम शुद्धनय है । शुद्धनय से एकत्व में नियत, सर्वकाल में व्यापक, द्रव्यांतरों से पृथक् पूर्ण ज्ञान मात्र अंतस्तत्त्व का दर्शन सम्यक्त्वानुभूति का साक्षात् कारण है । यह ही शुद्ध तत्त्व मेरे उपयोग में रहो ।