वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 72
From जैनकोष
एकस्य रक्तो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।72।।
697―राग और स्वभाव की दृष्टि में नयपक्षों का ईक्षण―एक के मत में जीव रागी है, एक के मत में जीव रागी नहीं है इस प्रकार इस चैतन्य आत्मा में दो पुरुषों में दो पक्षपात चल रहे हैं । किंतु जो तत्त्ववेदी है, जिसने इस सहज अखंड चैतन्यस्वभाव को अपने उपयोग में लेकर विकल्प परिहार सहित अनुभव किया है वह पक्षपात से रहित है और वह ही साक्षात् इस समयसाररूप अमृत का पान करता है । जीव रागी है एक का सिद्धांत है, यह सिद्धांत गलत नहीं है, जीव रागी नहीं है एक का सिद्धांत, यह भी गलत नहीं है । एक घटना दृष्टि से देखकर कह रहा, एक स्वभावदृष्टि को देखकर कह रहा । क्या आत्मा में स्वभाव ही स्वभाव है । घटना और परिस्थिति नहीं है क्या? इस आत्मा में दो दृष्टियों से दो बातों का परिचय मिलता है । ये दोनो ही विकल्प हैं । विधि किया वह विकल्प, निषेध किया वह विकल्प । हुआ कैसे राग और कैसे नहीं राग, दोनों का एक विवरण सुनो । राग होता किस तरह है? पूर्वबद्धकर्म जो राग प्रकृति के हैं याने अनंतानुबंधी माया, लोभ, हास्य, रति और अप्रत्याख्यानावरण माया लोभ हास्य रति आदिक जो भी राग प्रकृतियाँ है उनका जो उदयकाल आया सामने, उनकी स्थिति पूरी होने से पहले ही उदय आ गया याने उदीरणा हुई तो उस काल में कर्म में ही कर्म का विपाक चलता । तो एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में कुछ नहीं होता । कर्म में वहाँ विपाक चला, पर एक निमित्त नैमित्तिक योग है कि यहाँ उपादान ऐसा ही अशुद्ध है कि ज्ञान विकल्प करने लगा । तो आत्मा में जो ज्ञानविकल्प बना वह तो है जीवराग और कर्म में जो राग अनुभाग का उदय घटा वह है अजीव राग । देखिये निमित्त नैमित्तिक योग है, इसका अर्थ है कि निमित्त अकिंचित्कर है दोनों का मतलब एक होता है । निमित्तनैमित्तिक योग में होता क्या है कि निमित्त उपादान में परिणति तो नहीं करता, पर उस निमित्त की हाजिरी के समय यह जीव अपनी परिणति से उस प्रकार का प्रभाववाला बनता है । सो यह प्रभाववाला अर्थात् उपादान अपने ही प्रदेशों में बना, अपनी ही परिणति से बना, मगर ऐसी कला उपादान ने खेली निमित्त की हाजिरी में । निमित्त के अभाव में उपादान ऐसी कला खेल नहीं पाता । तो यह ही बात है एक बार सिद्ध हुए बाद कभी भी उस सिद्ध अवस्था से च्युत नहीं होता । तो निमित्तनैमित्तिक योग का अर्थ कर्तृत्व न समझना । इस दृष्टि में वह अकिंचित्कर है, अर्थात् निमित्त उपादान में कुछ नहीं करता मगर उस निमित्त का सन्निधान नहीं होने पर उपादान यह कला नहीं खेल पाता । इतना ही निमित्तनैमित्तिक भाव का रहस्य है । इस कारण यह उमंग जगती है कि ये नैमित्तिक भाव तुरंत हट सकते हैं ।
698―संसारवर्द्धक राग, अशुभराग व शुभराग का विश्लेषण―जहाँ स्वभाव का आश्रय किया और बाह्य जो उपचरित कारण हैं उसका उपयोग हटाया तो किसी सीमा तक अबुद्धिपूर्वक प्रतिफलन भी हो और जहाँ अबुद्धिपूर्वक राग चले तो भी उसमें संसार परंपरा बढ़ाने का सामर्थ्य नहीं है, है वह भी संसार, मगर एक तो संसार और एक संसार परंपरा बनाने को कारण । अप्रत्याख्यानावरण राग, यह है तो संसार, मगर संसार परंपरा बढ़ाने की सामर्थ्य नहीं रखता । अनंतानुबंधी राग विकट राग है और संसार परंपरा बढ़ाने का कारण है । तो राग दोनों के मिल जायेगा । अज्ञानी के तो है ही राग, ज्ञानी के भी राग होता है कुछ गुणस्थानों तक, किंतु स्वभावदृष्टि से देखें तो वहाँ राग नहीं है । स्वभाव में राग होता है क्या? स्वभाव अगर रागी है तो वह सदा रागी है फिर कभी उसका राग छूट नहीं सकता तो स्वभाव तो अविकारी है । इस स्वभाव दृष्टि से देखें तो यह विकल्प बनता । जीव में राग नहीं है, यह विकल्प ही तो बना । एक ऐसी परिणति ही तो हुई । क्या ऐसे विकल्प के समय स्वानुभूति हुआ करती है । जीव में राग है ऐसे विकल्प के समय क्या स्वानुभूति होती? दोनों ही पक्षों में, दोनों ही विकल्पों में स्वानुभूति नहीं जगती और ये दोनों पक्षपातों से रहित है ऐसा जो तत्त्ववेदी है, केवल जो सहज चैतन्यस्वभाव को अनुभवे वह साक्षात् इस समयसार अमृत का पान करता है । राग में और मोह में अंतर है वह बात कल कही गई थी । तो अज्ञानी का राग और अज्ञानी का मोह यद्यपि वहाँ अंतर बताना कठिन हो जाता है क्योंकि वह मोहमिश्रित राग बन गया है, लेकिन राग का स्वरूप राग का ही है, मोह का स्वरूप मोह का ही है । प्रभुभक्ति की, वह भी राग है, मगर राग रागों में अंतर है, तब ही तो बताया है समयसार में, और परमात्मप्रकाश आदिक अनेक ग्रंथों में कि ज्ञानी का जो पुण्य है वह परंपरया मोक्ष का कारण है इसका अर्थ क्या है? कहीं पुण्य से मोक्ष नहीं हुआ करता है । पुण्यबंध रागभाव है । जो रागभाव है वह मोक्ष का कारण नहीं, और यहाँ तक बताया गया है कि जिसके मोक्ष की आकांक्षा है उस विकल्प वाले को मोक्ष प्राप्त होगा क्या ? नहीं । तो शुभराग, प्रभुराग, भक्ति राग यह भी एक राग है, संसार है लेकिन ज्ञानी जीव के जितने भी भाव चल रहे हैं उनके फल में पुण्य का फल ऐसा प्राप्त होता है कि उस वातावरण में रहकर मोक्षमार्ग मिलता है, भीतर आश्रय करके मोक्ष मार्ग मिलता है । इस तरह ज्ञानी का पुण्यफल ऐसे-ऐसे वातावरण को उत्पन्न करता है कि जहाँ स्वभाव के लिए उसे एक उमंग मिलती है, यों परंपरया मोक्ष का कारण कहा है । पर साक्षात् तो वह संसार का रूप ही है । कोई भी पुण्य मुक्ति का कारण नहीं मगर जो पुण्य ऐसे-ऐसे वातावरण को बनाये कि जिससे स्वभाव का आश्रय करने के लिए अवसर मिले तो परंपरया मुक्ति का कारण मिलता तो परंपरया शब्द ही सबका समाधान देने वाला है । वास्तव में वह मोक्ष का कारण नहीं, किंतु उस स्थिति में ऐसा वातावरण मिलने का, स्वभाव-दर्शन करने का मौका मिलता जाता है तब ही तो ग्रंथों में श्रावकों के षट्कर्तव्य बताये हैं देवपूजा करना, गुरुसेवा करना, स्वाध्याय, तप, दान और संयम । ये यदि लाभदायक नहीं है, तो फिर इनका विधान ग्रंथों में क्यों दिया गया? इन षट्कर्तव्यों का करना गृहस्थों को आवश्यक क्यों बताया? आखिर इनके करने से पुण्यबंध ही होता है, मगर हर जगह यह बात है कि छद्मस्थ ज्ञानी का एक ही परिणाम आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा चारों का कारण बनता है, क्योंकि आत्मा में एक समय में एक ही पर्याय होती है पचासों नही । यह तो गुणभेद करके समझाने के लिए कहा जाता है, यह दर्शन की पर्याय, यह चरित्र की पर्याय....पर वहाँ तो एक समय में एक अखंड अवक्तव्य पर्याय है । जैसे कि स्वभाव अखंड अवक्तव्य है, पर उसको समझाने के लिए व्यवहार से भेद करके समझाया जाता है कि इस ज्ञानी के दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है । आत्मा में तो बस अखंड स्वभाव और प्रति समय अखंड पर्याय । अब वह जो एक पर्याय होती है ज्ञानी के चौथे, 5वें, 6ठें, 7वें गुणस्थान में तो वह पर्याय एक है मगर उस समय काम कितने हो रहे हैं? चार । आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा । तो उन चारों परिणतियों का कारणभूत एक ही परिणाम है ।
699―कुछ रागांश कुछ विरांगाश वाला परिणाम होने से एक ही परिणाम से आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा चारों तत्त्वों का उद्भव―एक ही परिणाम । आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा चारों क्यों हो गए? तो वह एक परिणाम ऐसी स्थिति का है ऐसी दशा वाला है कि मानो रागभूमि के 100 अंश है । भूमिस्पर्श पर शतप्रतिशत ओर ऊपर चलकर मानो राग का एक अंश रह गया, अब ऊपर चलकर वीतराग हो गए । अब कोई पुरुष अगर राग के, 60 अंशों को व्यतीत कर चुका है अब उसके 40 अंश रहे । पर्याय तो एक है मगर वह ऐसा है कि जहाँ 60 अंश राग नहीं है, 40 अंश राग है । वहाँ हुआ क्या कि जितने अंश में राग का अभाव है उस शक्ति से तो संवर निर्जरा चल रही है और जितने अंश में राग का सद्भाव है उसकी अपेक्षा आस्रव-बंध चल रहा है । परिणाम एक ऐसी स्थिति का है । 6ठे गुणस्थान तक शुभोपयोग की प्रधानता कही गई है । तीन गुणस्थानों में अशुभोपयोग, चौथे, 5वें, 6ठे गुणस्थान में शुभोपयोग और 7वें में शुद्धोपयोग, ऐसा प्रधान्य से वर्णन है । फिर भी जहाँ चौथे, 5वें, 6ठे, गुणस्थान में शुभोपयोग है तो यह न जानना कि वह शुभोपयोग तो राग वाला है । नाम शुभोपयोग राग की प्रधानता की अपेक्षा में किया । उस शुभोपयोग में भी शुद्धोपयोग का अंश विकसित है । इतने अंश में तो संवर निर्जरा चल रही और उस शुभोपयोग में जो अंश राग का है उस राग से आस्रव बंध चल रहा है । परिणमन एक है और उस परिणमन का नाम प्रधानता से आचार्यों ने शुभोपयोग रखा है, और तीन गुणस्थानों में प्रधानता से अशुभोपयोग रखा है और ऊपर शुद्धोपयोग रखा है पर रखा तो है शुद्धोपयोग नाम 7वें, 8वें गुणस्थान आदिक का पर वहाँ यह न समझना कि केवल शुद्धोपयोग है, वहाँ रागांश चल रहा है और वहाँ 10वें गुणस्थान तक राग है । तो पर्याय तो एक होती है मगर वह एक पर्याय इस श्रेणी की होती है कि जिस श्रेणी में कुछ अंशों में राग नहीं है और कुछ राग नहीं है उसके कारण जो शक्ति है उसके अंदर उस शक्ति से तो संवर निर्जरा चलती है, राग है उस शक्ति से आस्रव बंध चलता है तब ही तो कहा है कि जितने अंश में सम्यक्त्व है जिस अंश में से सुदृष्टि है जिस अंश में चारित्र है उस अंश में कर्म बंध नहीं है जिस अंशों में तो एक ही पर्याय एक ही परिणाम है उस परिणाम का नाम रखने में एक विवाद हुआ तो वह नाम का ही विवाद है, तत्त्व का विवाद नहीं, वस्तु का विवाद नहीं । वह पर्याय एक ऐसी स्थिति में नहीं है कि राग नहीं रहा, अनंतानुबंधी राग रहे । अप्रत्यक्ष राग नहीं रहा, और राग रहे । जो राग रहे उससे तो संवर निर्जरा चल नहीं रहे उससे आस्रव बँध चल रहे, किंतु परिणाम एक है एक समय में कई परिणाम नहीं होते । जो परिणाम बताया जाता है वह एक ही परिणाम का विश्लेषण बताया जाता । इससे कहीं पर्यायें अनेक नहीं हो जाती । एक समय की एक पर्याय आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा का जो कारण बन रहा है तो उसका निर्माण ऐसा होता है कि उसमें ऐसी विविध शक्तियाँ पड़ी है कि जितने अंश में राग नहीं उसका प्रभाव और जितने अंश में राग है उसका प्रभाव और ।
700―जीवन पर मोह के घटना का विधान―पहले बाँधे जो कर्म थे उनका विपाक आया तो कर्म में विपाक का विस्फोट होता है कर्म में कर्म की बात होती है मगर एक क्षेत्रावगाह संबंध है । निमित्तनैमित्तिक बंधन है और यह जीव अपने स्वभाव की सुध भूलकर उस कर्मलीला में, उस राग में एकत्व मान बैठा कि यह ही मैं हूँ । मोह की बात बतला रहे कि जो अज्ञानी जीव देह को मानते कि मैं देह हूँ तो क्या वे इस भाषा में मानते हैं, क्या वे इस ढंग से समझते हैं कि जो देह है सो ही मैं जीव हूं? अज्ञानी ऐसा नहीं समझता कि यह तो देह है मैं जीव हूँ, उसकी दृष्टि में जीव और देह ये दो नहीं है, अज्ञानी तो ऐसा मानता है कि जो देह है सो मैं हूं, यह तो ज्ञानी के समझने की भाषा है, अज्ञानी तो इस देह को मानता कि यही मैं ही हूँ, यह देह है सो ही मैं हूँ, अगर इसके विपरीत माने तो उसके मोह में कर्मलीला बैठेगी क्योंकि उसने दो बातें स्वीकार कर लिया, जो यह देह है सो देह और जो मैं हूँ सो मैं । भला ये दो बातें स्वीकार करने के बाद निपट अज्ञानपना कैसे आयेगा? अज्ञानी मिथ्यादृष्टि इस तरह नहीं समझता है कि जो देह है सो मैं । बस उसकी निगाह में एक ही बात है, दो बातें नहीं कि शरीर और आत्मा । अज्ञानी की दृष्टि में दो बातें नहीं होती एक बात है, इसी को लक्ष्य में लिए हुए मानता है कि यह ही मैं हूँ देह और मैं ये दो उसकी दृष्टि में नहीं हैं । तो इसी तरह से राग प्रतिफलन होता है वह कर्मलीला कर्मरस है । राग था असल में राग कर्म का प्रतिफलन स्वरूप । राग जीव में है तो जो प्रतिफलन होता है उसमें यह अज्ञान ऐसा बस गया है कि वहाँ यह दो चीजें नहीं स्वीकार करता कि कर्म लीला है और मैं चैतन्य स्वभाव हूँ ऐसा मानकर कहां उसमें यह कला आयेगी कि उसमें एकीकरण हो । उसे सुध नहीं आत्मस्वभाव की, उसकी कल्पना भी नहीं उठती कि मैं आत्मा इस दंदफंद से निराला हूँ और ज्ञानी को देखो कितनी एक ज्ञान की स्थिति में कमजोरी है कायरता है और एक विवशता है कि उसके भी राग प्रतिफलन होता और वह यह प्रतीत रखता कि मैं एक विशुद्ध चैतन्यस्वभावमात्र हूँ, प्रतीत रखने की क्या परिस्थिति है कि वह राग करता है, मन वचन काय की उस प्रकार की वह चेष्टायें करता है तो उसे प्रतीति का बल है इससे संसार परंपरा नहीं बढ़ती उस राग से, और अज्ञानी उसमें एकमेक बन गया है इसलिए उसके संसार परंपरा बराबर है ।
701―विभावों की हेयता के परिचय से प्रयोजन की सिद्धि―जीव में राग कैसे घटित होता है इसका विधान जानकर अब घटना दृष्टि से देखें, बीत रही है बात, उसको मिटाने का ढंग उसको मना करना नहीं, किंतु उसकी पोल समझ लेना है, उसे हेय समझ लेना
है यह उसका प्रयोजन बनेगा, मना करने से प्रयोजन न बनेगा । मना करने से होता क्या है? वह तो यहाँ अनुभव बन ही रहा है, विभाव हो रहे हैं, उसका फल भी भोगते, दुःखी भी होते, तो मना करने से प्रयोजन सिद्ध नहीं है, किंतु उसकी हेयता समझ लेना, भ्रम समझ लेना, मायारूप समझ लेना यह प्रयोजन काम देता है उससे हटने के लिए, तो यह राग होता है एक घटना दृष्टि में । अगर स्वभाव दृष्टि से देखा तो यह समझ में आया कि मुझमें राग नहीं है, देखो स्वभाव अविकारी है यह तथ्य है मगर स्वभाव में राग नहीं है, इस प्रकार की जो एक तरंग उठ गई यह एक तरंग है, यह भी एक विकल्प है । इस तरह का जब विकल्प उठाया गया तो विकल्प के काल में उसे आत्मा के अनुभव के रस का अनुभव नहीं बन पा रहा है, यह भी टूटेगा और उसको वहाँ कोई विकल्प नहीं रहता, किसी अन्य का आश्रय नहीं रहता । ऐसी होती है एक स्वानुभूति की स्थिति । वही है साक्षात् अमृतवान, ऐसा तत्त्ववेदी जीव इस साक्षात् समयसार का अनुभव करता है ।
702―निमित्तमैमित्तिक योग में कर्म दुर्दशांत का दिग्दर्शन―देखो निमित्तनैमित्तिक योग, जब आत्मस्वभाव का आश्रय करता है तो उन कर्म-प्रकृतियों में कैसी छटापटी, कैसी भाग-दौड़ स्वयं हो रही है । करणानुयोग के अध्ययन से समझिये । हो रही है उनकी ही परिणति से मगर जिस समय आत्मा एक स्वभाव का आश्रय करता है तो कोई न भी जाने कि कर्मों में ऐसे निषेक हैं, ऐसे निक्षेप हैं । लेकिन स्वभावाश्रय से वे सब काम स्वयं हो जाते हैं । करणानुयोग का विषय प्राय: आजकल चलना पढ़ना बंद सा हो गया है मगर उसे जब ध्यान से पढ़ते हैं तो उससे आचार्यों के प्रति एक ऐसी अनूठी भक्ति जगती है और उसके बाद एक ऐसे स्वभाव का दर्शन होता है कि वह भी एक अनोखी घटना होती है । होता क्या है? एक सम्यक्त्वलब्धि पुस्तक बनी है, बच्चों के पढ़ने के लिए । एक लब्धिसार ग्रंथ आचार्य का बना जो बड़ा कठिन पड़ता है उसकी कुंजी है सम्यक्त्वलब्धि । उसमें सम्यक्त्व होते समय करणानुयोग की विधि से क्या-क्या व्यवस्था कर्मों में बनती है और कैसी-कैसी व्यवस्था बनते समय जीव में क्या-क्या परिणति बनती है, इसका बहुत सुगम शब्दों में वर्णन किया गया है । होता क्या है कि यह जीव क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि तक तो एक बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ चलाता और उस ही सिलसिले में फिर इसके ऐसी विशुद्धि जगी कि प्रायोग्यलब्धि बनी । यहाँ तक अभव्य जीव भी प्राप्त करते हैं निकट भव्य तो प्राप्त करेंगे ही । प्रायोग्यलब्धि में इतनी विशुद्धि चलती है कि जिन-जिन प्रकृतियों का चौथे, 5वें छठे गुणस्थान में भी बंध होता है उन-उन प्रकृतियों का प्रायोग्यलब्धि में बंध विच्छेद हो जाता है । यद्यपि वह मिथ्याष्टि है तो भी प्रायोग्यलब्धि में इतनी बड़ी निर्मलता कि उसके बल से कई प्रकृतियों का बंधापसरण होता है । इसी को कहते हैं चौंतीस बंधापसरण, अब इसके करणलब्धि उत्पन्न हुई । करणलब्धि में अध:करण, अपूर्वकरण, और अनिवृत्तिकरण परिणाम होते हैं, तो जब अध:करण, अपूर्वकरण परिणाम के बाद अनिवृत्तिकरण परिणाम होता तो उसमें शुद्ध भाव बनता । उन भावों में जीव कर क्या रहा है कि स्वभाव का आश्रय कर रहा है, यह कुछ नहीं कर रहा । कर्म पर दृष्टि डालने से कर्म नहीं कटते । मैं कर्म को काट दूँगा, नष्ट कर दूंगा, कर्म बड़े दुःखदायी हैं, इस तरह कर्म दूर नहीं होते । स्वभाव की आराधना के बल से स्वयं ही एक ऐसा सामर्थ्य है कि वह अपनी विशुद्धि में बढ़ता है और वहाँ कर्म में विकट भगदड़ मचती है, देखो निमित्तनैमित्तिक योग कि कर्मविपाक, कर्मउदीरणा, उनका उदय पाकर जीव अपने आपमें क्रिया करता है तो जीव के विशुद्ध निर्मल परिणाम चैतन्यस्वभाव के आश्रयरूप स्थिति जब बनती है तो उसका निमित्त पाकर कर्म में इस प्रकार की भगदड़ हुआ करती है । क्या होता, मानो कर्म बंध बहुत स्थितियों का है, अब उस स्थिति में जिन कर्मों का क्षय होना है सम्यक्त्व के बाद की बात । पहले तो जिस काल में उपशम सम्यक्त्व हुआ है तो जैसे कोई वकील हो और धर्म में उसकी रुचि है, उसकी इच्छा है कि मैं दशलक्षण के समय में कोर्ट में न जाऊँ तो वह जेठ आषाढ़ से यह प्रबंध करता है कि पहले से अगर कोई दशलक्षण की तारीख पड़ गई है तो उसे दशलक्षण से पहले या बाद में करायेगा याने उस दशलक्षण के समय में तारीख ही न रहे । इसे कहते हैं आगाल और प्रत्यागाल । अब होगा क्या कि जिस समय दशलक्षण आया उतने समय में कोई तारीख नहीं । मगर केस तो पड़े हुए हैं, आगे भी तारीख में केस पड़े हैं, मगर केस आगे पीछे की सत्ता में है, उतने समय में नहीं है कोई तारीख, इसी तरह प्रथमोपशम सम्यक्त्व जितने समय को होता है उससे अंतर्मुहूर्त पहले आगाल प्रत्यागाल की क्रिया में उस समय की स्थिति के निषेक पहले के बंधे में मिल जावेंगे और उस समय की स्थिति के निषेक आगे बँधे के समय में मिल जायेंगे, फिर प्रथमोपशम सम्यक्त्व वाले अंतर्मुहूर्त में कोई सत्ता नहीं रहती है । देखो यह भी कितना बड़ा पतन, कितनी बड़ी दुर्दशा समझो कर्म में कि ऐसे भी बँधे कर्म सत्ता में गए कि मानो दर्शनमोह 8 बजे से पहिले की सत्ता में है और उससे एक मिनट के आगे बहुत काल तक की स्थिति का है मगर 8 बजे बाद एक मिनट तक की स्थिति तक के कोई निषेक नहीं पाये जायें उतना लंगड़ापन यह भी कितना विचक्षण परिवर्तन कर्मप्रकृतियों में हो जाया करता है, अब सम्यक्त्व हुए बाद वहाँ जो कुछ थोड़ी शिथिलता बनती है तो होता क्या है? प्राय: सम्यक्त्व के बाद तो वैसी विशुद्धि नहीं होती जैसी अंतर्मुहूर्त में प्रारंभिक समय में होती है । इतनी विशुद्धि आगे नहीं हो पाती, ऐसे ही अनेक कामों में होती है । जैसे जब संयमासयम होता है तो प्रथम बड़ी विशुद्धि होती है, बाद के संयमासंयम के काल में उतनी विशुद्धि नहीं रहती । सम्यक्त्व होता है तो जितनी विशुद्धि सम्यक्त्व उत्पन्न करने के काल में रहती है उतनी विशुद्धि सम्यक्त्व उत्पन्न होने के बाद नहीं रहती । यह ही तो कारण है, सबसे बड़ा पुरुषार्थ करना पड़ता है उसे सम्यक्त्व उत्पन्न होने में, तभी तो अनंत संसार का छेदकर विकट कर्मभार दूर होता है ।
703―स्वभावाश्रय होने पर कर्मक्षपण का स्वयं विधान―कैसे कर्म क्षीण होते हैं यह सब बात कर्म में चल रही है, एक आवली के बाद के कितने ही और निषेक हैं उन निषेकों में से एक आवली के आगामी निषेक उनमें निकलते हैं और उस आवली के कुछ समय को छोड़कर बाकी में मिल जाते हैं, ऐसे ही आगे-आगे के निषेक निकलकर पहले मिल जाते हैं, ये निकलते कुछ नहीं, वहीं के वहीं रहकर स्थिति घट जाने का नाम भागना है । ऐसे ऊपर के निषेक नियत समय वाले निषेकों में कहां तक मिलते जाते हैं जहाँ तक पूरी आवली नहीं होती । उसके बाद फिर निषेक बढ़ते हैं और अतिस्थापना कम होती जाती है, इसके बाद भगदड़ कर्म में किस कारण से हुई कि इस आत्मा ने स्वभाव का आश्रय किया है, और ऐसे कर्म घटते-घटते वहाँ तक घट जाते हैं, जहाँ सिर्फ आवली मात्र स्थिति रहती है, फिर वहाँ सर्व संक्रमण होकर अंतिम आवली का भी परिवर्तन हो जाता है । इस तरह सारे कर्म में इतना बड़ा व्यायाम इतनी काटछाट कोई उपयोग देकर करता है क्या? अगर केवल स्वभावाश्रय है तो वहाँ इतनी काटछाट स्वयं चलती है । जीव जब विशुद्ध परिणामों में आता तो कर्म में बड़ी खलबली मचती, ऐसी एक निमित्तनैमित्तिक मात्र की बात है, जैसे बताया कि जीव परिणाम है । “कम्मते पुग्गला परिणमति इत्यादि, जीव के परिणाम का निमित्त पाकर पुद्गल कर्म वर्गणायें कर्मरूप से परिणमती और कर्मविपाक का निमित्त पाकर जीव रागादिरूप परिणमता, मगर इन दोनों में कर्तृ कर्म भाव रंच नहीं है कि जीव ने कर्म की दशा बनायी है, कर्म ने जीव की दशा बनायी हो । देखो ऐसा कोई कहे कि जीव ने कर्म काटा, कर्म ने जीव में राग किया तो उसे बोलते हैं उपचार ।
704―उपचार और व्यवहार में मिथ्यापन व समीचीनता का निर्णय―उपचार मिथ्या या व्यवहार मिथ्या ? व्यवहार शब्द जहाँ-जहाँ उपचार के लिए कहा गया हो उसही व्यवहार को मिथ्या समझना । व्यवहार को मिथ्या नहीं कहा गया । समयसार में हर जगह यही परख करनी होगी । आपको एक नई बात दृष्टि में दे रहे कि आप परख करें कि यह निश्चय का कथन है या व्यवहार का, या उपचार का । जितना उपचार का कथन है वह मिथ्या है । उसमें कुछ प्रयोजन है तब तो कहा गया । जैसे जिस डिब्बे में घी रखा जाता उसे सभी लोग कहते घी का डिब्बा । अब कोई इसे सुनकर ऐसा समझे कि जैसे लोहा, पीतल, ताँबा आदि धातुवों का डिब्बा होता वैसे ही घी का डिब्बा होता होगा तो यह गलत हो गया । अरे उसका प्रयोजन है कि जिस डिब्बे में घी रखा है वह कहलाता है घी का डिब्बा । उसे यदि कोई उपादान दृष्टि से समझे कि जैसे ताँबे का डिब्बा वैसे ही घी का डिब्बा तो वह मिथ्या है । उपादान दृष्टि से पर कर्तृत्व, पर स्वामित्व की प्रक्रिया बनाना मिथ्या है । तो व्यवहार मिथ्या है, ऐसा अनेक जगह कहा है तो उसका अर्थ है कि जो उपचार वाला व्यवहार है, पर कर्तृत्व, पर स्वामित्व की माया वाला व्यवहार है वह मिथ्या है । इस दृष्टि को रखते हुए आप समयसार में देखेंगे तो समझ जावेंगे कि हाँ वह सब कथन ठीक है, जीव ने कर्म काटा, कर्म ने राग काटा आदिक बातें बता-बताकर जो मिथ्या बात कही गई वह बिल्कुल सही बात है । वह उपचार से कहा गया जो कुछ कथन है वह उसही रूप में मिथ्या है । प्रयोजन समझें और प्रयोजन समझकर काम निकाल लें । जैसे घी का डिब्बा कहा तो सभी लोग उसे झट उठाकर दे देते । काम तो बन गया । अगर कोई यों समझें कि घी से बने डिब्बे की बात कह रहे तो वह तो कभी ला ही न पायेगा । कौनसी भाषा आप बोलेंगे? उपचार भाषा बोलने में दोष नहीं है किंतु उपचार भाषा को उपादान दृष्टि से अर्थ लगाकर सुनने और बोलने का दोष है । प्रयोजन जान लें । तो ऐसा प्रयोजन भर जान लें कि निमित्तनैमित्तिक योग से यह राग हुआ है । इतना ही मात्र प्रयोजन है और यों कोई समझे कि कर्म ने जीव को रागी बना दिया तो यह त्रिकाल असंभव है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ करता नहीं, पर निमित्तनैमित्तिक योग बिना कभी विकार होता नहीं । हां तो इस तरह राग बन रहा ।
705―स्वभाव जताकर विभावविवशता दूर करने का संदेश―भैया ! राग से रोज-राज दुखी होते, रोज अनेक काम करने पड़ते । हम आप बड़े विवश हैं, अनेक लोग बड़ी विवशता अनुभव किया करते हैं, वह क्या स्वभाव है जीव का? अरे वह तो राग ही है, वह कर्मरस है, उसके प्रतिफलन पर जीव विवश हो गया । एक इतना आग्रह कर लें कि अब हमें विवश नहीं होना है । आग्रह करके तो देखें । आग्रह करते अभी बनता नहीं है । एक इतना आग्रह कर लें कि मेरे को क्या काम पड़ा है ? मेरा जो सहज चैतन्यस्वरूप है वह मेरे उपयोग में रहे, अनुभव में रहे, और कुछ बात चित्त में आये नहीं, अगर ऐसा कर लिया तो आप बुद्धिमान हैं और आप ऐसे कल्याण के मार्ग में लग गए कि जिसकी कोई प्रशंसा नहीं की जा सकती । यह जीव एक इस सहज चैतन्य स्वभाव की आराधना नहीं कर पाया इसीलिए अभी तक इस संसार में भटक रहा है । अब एक यह विवेक करना होगा कि इस तरह का राग करके हमारा गुजारा न चलेगा । मुख्य बात एक यह ही रहनी चाहिए कि किसी भी प्रकार के राग में हम न रहें । अगर राग करना पड़ रहा है तो वहाँ यह विवेक चाहिए कि हमें ऐसा राग न करना चाहिए । इस राग से अपने को निपटा लेने में ही हमारी बुद्धिमानी है, हमें ऐसे राग को नहीं करना, और ऐसे राग से गुजर लेना या ऐसे राग में अपना एक समय उपयोग कर लेना कि जिससे हम इस सहज चैतन्यस्वरूप भगवान के दर्शन करने के अपात्र न बन जायें । बस इसी विवेक से व्यवहार, व्यवहार चारित्र, व्यवहार संयम बस उसी का एक विवेक बना, पर राग का जो स्वरूप है वह राग का स्वरूप तो मलिन ही है, राग कभी पवित्र नहीं रहता । राग तो राग ही है, वह तो एक विकल्प ही है, वह तो इस चैतन्य स्वभाव के लिए कलंक है, मगर परिस्थिति ऐसी होती है कि राग की परिस्थिति पायी है तो उसमें विवेक बना लें कि मुझे ऐसा राग नहीं करना है । इस राग से अपना गुजारा बना लें । जैसे कोई बात करने के लिए मन नहीं चाहता फिर भी उसे करना पड़ता । इसके बहुत उदाहरण हैं, अभी आप मकान बनवाने के लिए मजदूर लगा दें तो वे मजदूर काम तो सब करते मन में इस प्रकार की लगन रखते हुए नहीं करते कि हमें बहुत बढ़िया ढंग से काम करते रहना चाहिये, वे तो एक अपनी ड᳭यूटी अदा करते हैं । कैदी जेल में चक्की पीसता है, पर उसके मन में यह बात नहीं रहती कि मैं खूब अच्छी तरह से चक्की पीसूं । उसके मन में है कि यह तो झंझट है, परिस्थितिवश पीसना पड़ रहा है । ऐसी ही अनेक बातें हैं कि काम करना मन में नहीं है, फिर भी परिस्थितिवश करना पड़ता है । तो ऐसी ही बात राग के प्रसंग में रहे कि यह राग करते रहना मेरा स्वभाव नहीं, यह तो मेरे लिये कलंक है, आफत है, झंझट है, पर परिस्थितिवश राग करना पड़ता है । प्रत्येक प्रसंग में अपना विवेक सही रहेगा तो अपना उद्धार होगा, अन्यथा दुर्गति का पात्र ही बने रहना पड़ेगा ।