वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 73
From जैनकोष
एकस्य दुष्टो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।73।।
706―चित्प्रकाश का विभाव निरीक्षण से भी परिचय―आत्मा के सत्य स्वरूप के अनुभव का क्या उपाय है, इसका दिग्दर्शन कराने वाला यह प्रकरण है, वस्तु का परिचय दो नयों से होता है अथवा कहो दो ढंगों से होता है, उसकी घटना समझना कि उस पर क्या घट रहा है, और उसका स्वभाव समझना कि इसका सहज निरपेक्ष स्वभाव क्या है? दो बातें समझें बिना पदार्थ का ठीक-ठीक परिचय नहीं होता । आत्मा को सर्व ओर से समझना है । आत्मा का स्वभाव क्या है और इस पर घट क्या रहा है? विकार घट रहे हैं, विकार बन रहे हैं और स्वभाव अविकार का है । कितनी एक बेमेल बात है कि स्वभाव तो है अविकार रहने का और परिणमन हो रहा है विकार का लेकिन बेमेल तो नहीं है, विकार का स्वभाव का उस प्रकार का इस योग में प्रकट रूप बना है । चेतन से अचेतन बन जाये तो बेमेल कहा जाये पर चेतन की सीमा में रहकर बन रहा है विकार । वह विकार तो इस चेतन का अनुमान कराता है, जैसे किसी कमरे में एक खिड़की है और बल्ब जल रहा है किसी कोने से तो बाहर से देखा तो कमरे में उजेला नजर आया, बल्ब तो नजर नहीं आया मगर जैसे वह उजेला-उजेला भी नजर नहीं आता किंतु प्रकाशित वस्तु नजर आती । तो प्रकाशित वस्तु टेबुल, कुर्सी वगैरह जो चीजें रखी हों कमरे में वे प्रकाश में आयीं, तो उससे यह जान लिया जाता कि यहाँ बल्ब जल रहा है, ऐसे ही रागद्वेष कषाय आदि जो विकार हैं, अनर्थ हैं वे हो रहे हैं जहां, तो उन विकारों को देखकर यह निर्णय हो जाता कि यहाँ चेतन जगमगा रहा है । अचेतन में तो ये बातें नहीं बनती ।
707―परमार्थत: विकार की निराधारता का दिग्दर्शन―यह विकार क्या है, किसका कहें, किसका मालिक बतायें? जैसे सिनेमा के सफेद पर्दे पर पीछे से बल्ब का अक्स पड़ रहा है और उस पर सब चित्रण हो रहा है, मनुष्य आया, कार आयी, दृश्य आया, अब वह दृश्य वह चित्रण उसका मालिक किसे कहा जाये? जो पर्दे पर चित्रण हो रहा उसका मालिक पर्दा तो नहीं, क्योंकि पर्दा मालिक होता तो सदा उस पर चित्र रहना चाहिए था । वह पर्दे की चीज तो नहीं । हां आधार पड़ता है, और जो चित्रण हो रहा वह फिल्म मशीन की चीज नहीं, या जो रील है उसकी भी चीज नहीं । रील की चीज रील में है, पर्दे का स्वरूप पर्दे में है और चित्रण आ रहा है, यह ही तो निमित्तनैमित्तिक योग है इसी तरह आत्मा में विकार आया तो यह विकार किसका कहा जाये? आत्मा के स्वरूप में तो नहीं । यह तो एक आधार है जहाँ फोटो आ रही है, कर्म की चीज नहीं । कर्म में तो है विकार मगर कर्म का विकार कर्म में है । तो जिस विकार पर अज्ञानी जीव इतना मुग्ध हो रहे, इनना लगाव रख रहे उस विकार के लिए जान दे दें, सारा जीवन बरबाद कर दें और देखो किस आधार पर जीवन बरबाद किया, वह आधार कुछ मिला नहीं, जैसे कोई लड़े मरे आपस में और आधार कुछ भी न हो, उन लड़ने वालों को भी पता नहीं पड़ता कि आधार कौन? कभी कुछ लड़के बैठे हों तो एक लड़का हँसा, उसे देखकर दूसरा हँसा, फिर सभी हँस पड़े, पर किस बात पर हंसे, यह किसी बालक को पता नहीं । इसी प्रकार जिन विकारों से लगाव रखकर हम बरबाद हो रहे, ध्यान खो रहे, जीवन गुजार रहे वहाँ हाथ कुछ आने का नहीं । आधार कुछ सही है नहीं, और अपना समय बरबाद करते । तो उन्हीं विकारों में से द्वेष नामक विकार की चर्चा इस कलश में की गई है ।
708―द्वेषविकार की अनर्थकारिता―विकार के मूल रूप दो हैं―राग और द्वेष, राग मायने प्रीति के परिणाम याने ज्ञान इस तरह से जाने कि जिस जानने में प्रीति स्नेह का भाव आ रहा, वह तो है राग और ज्ञान का ऐसा परिणमन बने, विकल्प बने कि जहाँ द्वेष का लगाव चल रहा वह है द्वेष । तो राग जैसे आग है तो द्वेष पानी है क्या? द्वेष भी ज्वाला है, आग है, जिस काल में जीव में द्वेष परिणाम होता है उस काल में यह बड़ा संतप्त हो जाता है, दूसरे को बरबाद किए बिना चैन नहीं पड़ती । द्वेष सारे गुणों को फूंक देता है और द्वेषी को यह पता नहीं कि किस आधार पर द्वेष किया जा रहा है, किस पर द्वेष करना? जगत में कौनसा ऐसा जीव है जो द्वेष के योग्य हो? कोई कहे―वाह किसी ने हमारे धन में हानि कर दी या हमारा कोई घर बिगाड़ दिया या निंदा कर दी तो वह द्वेष किया जाने योग्य हो गया । अरे उसने कुछ नहीं किया, वह खुद अपने में परिणम रहा है और अपनी शांति के लिए परिणम रहा है, उसका ऐसा ही कर्मोदय है कि उसने इस क्रिया में शांति नहीं समझा जिसको यह दूसरा अपने अनुकूल प्रतिकूल लग रहा है । द्वेष कोई नहीं करता । सब जीव अपना-अपना आनंद सुख पाने के लिए प्रयत्न किया करते हैं । कोई किसी से मूल में द्वेष नहीं रखता, कोई विरोध नहीं रखता, विरुद्ध जंचने लगता है । यह द्वेष परिणाम क्या है? क्रोध, मान, अरति, शोक, जिन कषायों का प्रकृतियों का उदय हुआ उन कर्मों में उसही प्रकार का विकार जगा और उसकी फोटो, प्रतिफलन, छाया इस उपयोग में आयी और चूंकि इस समय उपादान ऐसा ही है कि वह ऐसा समझता है कि स्वभाव की दृष्टि छोड़ देता है और उस द्वेष प्रतिफलन से अपना लगाव कर लेता है ।
709―निर्लेप निरंजन चित्प्रकाश का प्रतीक्षण―मूलत: इस मुझ जीव में द्वेष नही, विकार नहीं । मैं तो शुद्ध चित् हूँ । एकांतत: बात न समझना ! घटना तो चल रही है मगर स्वभाव नहीं है ऐसा । स्वभाव दृष्टि से देखें तो द्वेष नहीं, घटना दृष्टि से देखें तो द्वेष लग रहा । सो द्वेष की दृष्टि रखे उससे तो अच्छा है कि द्वेष नहीं है यहाँ ऐसा निरखा जाये । अगर द्वेष नहीं है ऐसा विकल्प भी रहे जब तक, तब तक अविकल्प स्वानुभव नहीं होता । तो जो तत्त्ववेदी जीव है वह इन सब नय पक्षपातों को त्यागकर अपने में एक चैतन्यमात्र अंतस्तत्त्व का अनुभव करता है । राग-द्वेष ये दोनों चक्की के पाट हैं? जिनके बीच पड़ा हुआ यह चेतन पिस रहा है । द्वेष परिणाम किया याने कर्म की जो छाया आयी द्वेषरूप जिससे उसका कुछ मतलब नहीं, मैं तो चेतन हूँ, पर आयी छाया, उसको जो अपनाया तो ऐसा संताप लगा कि यह दूसरों के विरुद्ध, दूसरों के विनाश की बात सोचता है और करता है । फल यह होता है कि तत्काल भी दूसरों के द्वारा इस पर उपद्रव पड़ जाता है । धर्म बिना जीव को शांति न मिलेगी और धर्म कोई ऐसी कठिन चीज नहीं है कि शरीर में शक्ति नहीं तो न कर सके, धन नहीं तो न कर सके, परिजन, मित्रजन नहीं तो न कर सके, ऐसा धर्म नहीं होता । धर्म तो अपने आपके सहज स्वरूप के अनुभव का नाम है और इस काल में यह जीव अपने को निरपेक्ष सहज चैतन्यमात्र होने का दृढ़ भाव रखता है । कैसा दृढ़ भाव? अन्य सबसे उसका मोह टूटा, सब पदार्थ उसको भिन्न जंचने लगे । सब पदार्थ एक समान जंचने लगे, जो मेरे नहीं वे सब एक बराबर । चाहे परिजन हों, मित्र को वैभव हो, कुछ भी वस्तु हो, उससे मेरा क्या संबंध है? मैं तो एक ज्ञानमात्र अमूर्त आकाशवत् निर्लेप निरंजन आत्मवस्तु हूँ ।
710―अनर्थ व्यर्थ प्रवृत्तियों का अंतस्तत्त्व पर विकट प्रहार―अहा, अंतस्तत्त्व तो समृद्ध है, मगर यह जीव की कमजोरी है कि बाहर जब दृष्टि डालता है, लोगों को देखता है तो यह सब विचारधारा से रह जाता है और तृष्णा में झुलस जाता है, हाय ऐसा धन मेरे पास क्यों न हुआ । ये इतना बढ़ रहे समाज में, ये इतना बढ़ रहे देश में, ये इतना धनिक बन रहे और यह मैं कुछ नहीं । यह एक बड़ा उपद्रव है । इस प्रकार जो आँख से देखता है और विचार बनता है, यह तो ठीक ज्वारियों जैसा फल है । जैसे ज्वारियों के बीच फंस गए तो फिर निकलना बड़ा मुश्किल हो जाता । हार कर निकलना चाहे तो ज्वारी लोग उसे चिढ़ाते हैं―बस हो गए, इतनी ही दम थी, और अगर जीतकर निकलना चाहे तो कहते―अरे यह कितना खुदगर्ज निकले, बस कुछ जीत लिया चल दिया । तो जैसे ही ज्वारियों के अड्डे में से फंसे हुए को निकलना कठिन होता ऐसे ही यहाँ भी जब लोगों को निरखते हैं तो निकलना बड़ा कठिन हो जाता है । किसी को अकेले में रहना बने तो वह तो इसके लिए भले की बात है मगर खुद भी अथवा लोग उसे अभागा कह देते । किसी तरह से उनका मनोबल हीन कर देते हैं । कोई हीन नहीं करता, सब अपने आपकी कमजोरी हे । अन्यथा तूल जाये सारी दुनिया क्या बिगाड़ है? बिगाड़ तो विकार है, राग है । मोही जीव अलौकिक तत्त्व से स्नेह रखने वाले को भला कैसे कह सकते? मगर परवाह न करें । मुझ लौकिकों में सिर भिड़ाकर नहीं रहना है । मेरा प्रोग्राम तो इस मायामय संसार से मुक्त होने का है, फिर संसारी जीवों में संकोच की क्या बात रही? अपना स्वरूप देखें आराधना बनायें, परम विश्राम लें, सारे विकल्पों को तज दें, कुछ न सोचें, आने दें ज्ञान में जो यह स्वयं है सो आता रहे । ज्ञान में बाहरी काम क्या पड़ा? ऐसे एक अंतर की दृढ़ता के साथ अपने आपके स्वरूप में कोई पहुंचे, वही पुरुष धन्य है ।
711―नयपक्षातिक्रांत पुरुष की मंगलरूपता―प्रकृत कलश में कहा जा रहा है कि एक नय के मत में तो यह जीव दुष्ट है, दोषमय है द्वेषी है, यह बताया व्यवहार ने । पर्याय को, घटना को, योग को संबंध को व्यवहार ने बताया और जब स्वभावमात्र देखा तो यह द्वेषी था यह बात नहीं है । यह तो विशुद्ध स्वभावमात्र है । निर्णय करके विकल्प मात्र से हटकर जो अपने आपमें सहज रहता है वह तत्त्ववेदी है, निष्पक्ष होकर अनुभव करता है । उसके लिए तो यह चेतन चैतन्यमात्र है, संस्कार में जब बसा हुआ हो कि मेरा तो यह यह है तो संस्कार में जब एक अज्ञानमयभाव बन रहा तो वहाँ ज्ञानस्वरूप का अनुभव कैसे जगेगा? इस मोह के संस्कार को मिटाना है । सही विधि से धर्ममार्ग में चलें तो थोड़े क्षण में ही धर्म पा लेंगे और विपरीत मार्ग से धर्म में सारा जीवन गुजरे, कितने हीं दस लक्षण गए, कितने ही पर्व गए, प्रतिवर्ष वही करते आये, क्रियायें वही सब कर डाला, समय बिता दिया, उत्सव पूजन सब कुछ किया मगर सहज निरपेक्ष जो अंतस्तत्त्व है उसका अनुभव नहीं पाया फिर धर्म कहां से हो? धर्म है आत्मा का स्वरूप, स्वभाव, उसकी पहिचान हो, उससे मिलन हो, उसका अनुभव हो तो धर्म मिलेगा । जो अपने में पर्यायें निकलती हैं उनसे निराला और स्वभाव के बारे में जो विचार जगता है उनसे निराला केवल चित्स्वभावमात्र सहज ज्ञानज्योति मात्र जो अपने को निरखता है, वही एक सही विश्राम पा लेता है उस ज्ञानी की दृष्टि में ही इस चित् का अनुभव है । यह ही करना है जीवन में । अन्य कुछ करने लायक काम है ही नहीं जो जीव का हित करे । एक अपने आपके सहज स्वरूप का अनुभव यह ही एक आत्महितकारी कदम है किसी भी क्षण कहीं भी हों, धुन अगर है तो किसी भी जगह अनुभव हो सकता है और धुन नहीं है तो कितनी चेष्टायें की जायें इस सहज अंतस्तत्त्व का अनुभव नहीं हो सकता । तो धुन बनेगी अभ्यास से । हम अधिकतर अपने आपको इतना देखें कि जो बात गुजर रही है विकार द्वेष यह सब कर्मछाया है मेरा रूप नहीं है मैं इनमें क्यों चिपकूं? मैं तो शुद्ध चेतनामात्र हूँ ।