वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 76
From जैनकोष
एकस्य जीवो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ||76||
731―जीव और जीव प्रतिषेध के विकल्प से अतिक्रांत भव्य की स्वानुभवप्रगति―एक नय की दृष्टि में यह जीव है और एक नय की दृष्टि में यह जीव नहीं दै ऐसे दो नय पक्ष हैं । जिसको यह शब्द से पुकारा जा रहा है वह कौन है? यह खुद हम आप ज्ञानवान हैं, उसके बारे में कहा जा रहा है कि व्यवहारनय में तो यह जीव है और निश्चयनय में यह जीव नहीं है, ऐसा सुनकर कुछ लोग सोच सकते हैं कि यहाँ तो जीव के लिए ही मना किया जा रहा है । जीव का अर्थ क्या है? जीविति जीविष्यति अजीवत इति जीव: याने, जो जी रहा है, जो जीता था जो जियेगा उसे जीव कहते हैं । तब इसका अर्थ क्या निकला कि जो प्राणों से जीता है वह जीव है । 10 प्राण होते हैं, 5 इंद्रिय, तीन बल, श्वासोच्छवास और आयु, इन दस प्राणों करके यह जीव जी रहा है इसलिए इसको जीव कहते हैं । फिर आप बताओ कि मुक्त भगवान तो प्राणों से रहित हैं तो उन्हें जीव कहेंगे कि नहीं? कहेंगे । हां, शब्द दृष्टि से उन्हें जीव न कहेंगे । जो मुक्त प्रभु है वह जीव में ही है । अच्छा जीव नहीं है तो क्या मुक्त अचेतन हैं? नहीं, तो चेतन और जीव में भी फर्क आया क्या? आता ही है । जब आप पूजा कर रहे हों तो आपको कोई व्यापारी तो नहीं कहता, आपको सभी उस समय पुजारी कहते । इतने पूजक हैं, इतने पूजा करने वाले हैं । मंदिर में आये हुए लोगों को यह ही कहा जायेगा कि साहब यहाँ इतने दर्शकं है, इतने पूजक हैं । कोई यह न कहेगा कि इतने व्यापारी हैं, इतने सर्विस करने वाले हैं । और जब आप व्यापार कर रहे हों तो वहाँ कोई आपको यह न कहेगा कि यह पुजारी है, और यह फलाने भाई भी पुजारी हैं । वहाँ तो यही कहा जायेगा कि यह अमुक चीज के व्यापारी हैं और यह अमुक चीज के । लोक में कोई ऐसा शब्द नहीं है जो असली नाम को बताता है । जितने भी शब्द हैं वे सब विशेषण हैं, क्योंकि जितने भी शब्द हैं वे धातुवों से निष्पन्न हैं और धातुवों का अपना-अपना अर्थ होता है और अर्थ से विशेषण बनता है इसलिए लोक में कोई ऐसा शब्द नहीं जो मात्र संज्ञावाचक नाम रखा गया हो । वह तो विशेषण है, तो जीव यह भी विशेषण है । तो व्यवहारनय के पक्ष में यह बात आयी कि यह जीव प्राणों से जी रहा है । देखो करणानुयोग में सब प्रक्रिया बतायी गई है । जो एकेंद्रिय जीव है वह यदि अपर्याप्त है तो उसके तीन प्राण हैं―स्पर्शन इंद्रिय, कायबल और आयु । शेष इंद्रिय नहीं । वचनबल, मनोबल भी नहीं, श्वासोच्छवास भी नहीं । जब वह एकेंद्रिय जीव पर्याप्त बना तो उसके चार प्राण हैं―स्पर्शन इंद्रिय, कायबल, श्वासोच्छवास और आयु । यह जीव जब दो इंद्रिय हुआ तो उसके 5 प्राण हैं रसना इंद्रिय और बढ़ गई किंतु जब अपर्याप्त अवस्था में है तो स्पर्शन इंद्रिय, रसना इंद्रिय, कायबल और आयु ये चार प्राण हैं । अब बढ़ते जाइये । दो इंद्रिय में 6 प्राण हैं । वचन बल और बढ़ जाता है । दो इंद्रिय जीव जैसे जोंक, लट वगैरह हैं, तो स्पर्श नइंद्रिय, रसना इंद्रिय, वचनबल, कायबल श्वासोच्छवास और आयु ये 6 प्राण है । तीन इंद्रिय में 7 प्राण, चार इंद्रिय में 8 प्राण, असंज्ञी पंचेंद्रिय में 9 प्राण । वहाँ मनोबल नहीं हैं । 5 इंद्रिय हैं, 3 बल हैं, श्वासोच्छवास और आयु ऐसे संज्ञी पंचेंद्रिय में 10 प्राण हैं । इन प्राणों से जीव जीवता है और जो यों जीवे उसका नाम है जीव । तो यह बात स्वभाव में तो नहीं पड़ी हुई है, स्वभाव में प्राण नहीं हैं । जन्म मरण नहीं है । तो स्वभाव दृष्टि में तो जीव नहीं है यह पदार्थ । और व्यवहार दृष्टि से जीव है, परिणति दृष्टि से देखा तो यह जीव है अथवा मुक्त को भी जीव कह सकते । नैगमनय से जो जिया था वह जीव, जो जी रहा वह जीव, जो जीवेगा सो जीव । इस तरह व्यवहारनय के पक्ष में तो यह जीव है, पर निश्चयनय में अथवा निश्चयनय कौनसा है? शुद्धनय । निश्चयनय भी दो तरह के होते हैं―सविकल्प और निर्विकल्प । तो यहाँ जो निर्विकल्प निश्चयनय है उसका नाम है शुद्धनय । शुद्धनय की दृष्टि में यह जीव है ऐसा नहीं है ।
732―द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु में दो दृष्टियों बिना निर्णय की असंभवता―वस्तु द्रव्य पर्यायात्मक हुआ करती है । पर्याय की कोई बात कहे तो वह असत्य तो नहीं मगर पर्याय भेद है और उस पर दृष्टि रखे, आश्रय रखे, उसी का ही ध्यान रखे तो उसमें आत्मसिद्धि नहीं । तो व्यवहारनय के पक्ष से व्यवहारनय की बात को जानने वाला ही निश्चयनय के लाभ के लिये व्यवहारनय को गौण करे । देखिये जो सिद्धांत व्यवहारनय के विषय को असत्य कहता है और निश्चयपक्ष का आश्रय करता है तो उसी को ही तो कहा गया है ब्रह्माद्वैतवादी, वेदांती, शून्याद्वैत, प्रतिभासाद्वैत और जो निश्चयनय के विषय को और सूक्ष्म-सूक्ष्म करके जो एक निरंशवाद मिला है, उस ही का जो एकत्व करता है, निश्चय करता है उसे कहते हैं क्षणिकवादी, देखो अभेद दो रीतियों में जाना जाता है―एक तो उदार नीति में और एक काट नीति में । जैसे अभेद ग्रहण तो बौद्धों ने भी किया मगर काट नीति से किया और अभेद ग्रहण ब्रह्माद्वैतवादियों ने किया मगर उदारनीति से किया । हालांकि वह उदारनीति निरपेक्ष है इसलिए मिथ्या है । ऐसे ही इनकी काट नीति निरपेक्ष है इसलिए मिथ्या है, जैसे पदार्थ में एक पर्याय यह ही मात्र पदार्थ है ऐसा क्षणिकवादियों ने बताया । तो ऐसा भेद करके जो अंतिम भेद है, एक तो उस काल को एक पदार्थ मान लिया और वह काल अभेद है, जिसका भेद न हो सो अभेद । सबसे बड़े का भी भेद नहीं होता और सबसे छोटे अंश का भी भेद नहीं होता । अच्छा कोई आकाश का भेद कर सकता क्या? नहीं । कोई आकाश का टुकड़ा करके तो दिखावे । जो आकाश पूर्ण है उसका कोई टुकड़ा कर सकता क्या? नहीं । अच्छा जो एक अणु है परमाणु जो कि सबसे छोटा है उसका भी कोई टुकड़ा कर सकेगा क्या? नहीं । सबसे छोटे अंश का अंश क्या? तो यह सब दार्शनिक विषय है । प्रकरण में उन्हें अभी न लीजिए । एक पद्धति बताने के लिए कहा है ।
733―शुद्ध अंतस्तत्त्व को विषय करने वाले ज्ञान के विकल्प में भी समयसारामृतपान में बाधा―यहां प्रकरण यह है कि “जीव” यह तो व्यवहारनय का पक्ष है और ऐसा नहीं “यह शुद्धनय का पक्ष है । इस संबंध में एक बात ओर समझें कि शुद्धनय क्या इस विषय को ग्रहण नहीं करता? शुद्धनय तो मात्र देख रहा है एक अखंड तत्त्व को, पर वह गूंगा है, बोल नहीं सकता । जहाँ बोला वहाँ शुद्धनय नहीं रहा । तो शुद्धनय का जो एक अखंड विषय है, अवक्तव्य, उसमें बोलने की बात न आयेगी । जहाँ बोला तो निश्चयनय बनेगा या व्यवहारनय बनेगा वह विषय बोलने का नहीं है, और जितनी बोलने की बात है वह सब विकल्प हैं, तब शुद्धनय का विषय एक तरह से कहा जाये तो 'नेति' भी नहीं है, हाँ की बात न ला पायेंगे क्योंकि शुद्धनय तत्त्व को तो देख रहा है मगर बोल नहीं पाता । इसलिए इसका विषय नेति है, यह नहीं सो नेति भी विषय नहीं करता । उस शुद्धनय वाले से जबरन कहलाया जा रहा है कि तुमने क्या देखा? क्या यह देखा? नहीं । इस परमार्थ आत्मतत्त्व को निरखा है इसने शुद्धनय से । तो जरा बताओ तो तुमने ज्ञानस्वरूप देखा क्या? नहीं । तुमने जीव देखा क्या? नहीं । चेतन परमात्मा देखा क्या?....नहीं । यों कितने ही सूक्ष्म से सूक्ष्म तुम प्रश्न करते जावो, यह तो यह ही कहेगा―नहीं । तो क्या देखा? तो वह गूँगा बता नहीं सकता । देख लिया, बता नहीं सकता ऐसा विषय है शुद्धनय का । तो एक नय पक्ष में कहा जा रहा है जीव और एक नय में बताया जा रहा कि जीव है ऐसा नहीं । अच्छा तो नहीं, इस तरह से समझा उसकी तो हम प्रशंसा करेंगे, मगर नहीं” इस प्रकार जो बोला वह विकल्प है । वह निश्चय नय बन गया, शुद्धनय न रहा । देखो शुद्धनय का जो आश्रय करेगा वह आश्रय ही नहीं कहलाता, वहाँ तो स्वानुभव मग्नता हो जायेगी । तो व्यवहारनय के पक्ष में तो जीव है इस प्रकार आया और निश्चयनय के पक्ष में जीव है ऐसा नहीं है, यह आया ।
734―सहजज्ञानानंदमय समयसारामृत के पान का विधान―एक ही चेतन में, एक ही वस्तु में दो दृष्टियों के दो पक्ष हैं लेकिन जो इन नय पक्षों से अलग हो गया, अतिक्रांत हो गया और एक सहज अंतस्तत्त्व में विश्राम जिसने किया उसने ही इस सहज परमात्मतत्त्वमय समयसारामृत का पान किया । बाकी तो वह बिगड़ता ही गया । कदम न बढ़ा सका तो अब यह देखो कि हमको किस मार्ग से चलना है । प्रयोग का फल मिलता है । वचन का तो इतना ही फल है कि थोड़ा बहुत प्रतिभास करले, कुछ लाइन की बात कह ले, मगर वचनों से आनंद नहीं मिलता । आनंद तो प्रयोग में मिलता है । वह प्रयोग किस तरह से किया जाता उसकी विधि यह सब चल रही है । काम की सब बातें आयेगी । जो प्रयोग करना चाहेगा उसको काम की सब बातें आयेगी प्रथम-प्रथम के कुछ परिचय में उपचार का काम आ रहा और आ भी रहा है । काम धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं उस उपचार में उसने प्रयोजन जाना । बस उपचार भाषा का काम इतना ही है कि वह प्रयोजन समझा देवे । अब आगे बढ़ा वह तो व्यवहारनय से । उसने वस्तु को भेद पद्धति से जाना । भेद पद्धति से समझ बिना वस्तु के परिचय का अन्यकोई उपाय नहीं है, क्योंकि यह व्यवहार परमार्थ का प्रतिपादक है । वस्तु को अभेद से कैसे समझाये? तो व्यवहारनय से काम लें । आगे बढ़ें, अतिक्रांत हो होकर । निश्चय नय से एक ही पदार्थ को देखा मगर निर्विकल्प ढंग से नहीं देखा । विकल्प तो किया एक का ही, एक में ही किया इसलिए तो निश्चयनय रहा मगर निर्विकल्प नहीं बन पाया । निर्विकल्प नहीं देखा इसलिए वह निश्चय भी एक पक्ष रहा, विकल्प रहा । उसने देखा कि जीव केवलज्ञानी है, शुद्धनिश्चयनय । केवल रागी है, अशुद्धनिश्चयनय । समझे, आखिर काम की बातें है ये सब अब वहाँ पर और आगे बढ़ें, इन सब पक्षों का उल्लंघन करके जब यह भव्य जीव उस अखंड सहज अनादि अनंत अहेतुक चित्स्वरूप में उपयुक्त होता है तो बस वही उसके उपयोग में वही आयेगा । दूसरा कुछ उसके विकल्प में आयेगा ही नहीं । जिस लक्ष्य को देखा उस लक्ष्य में ही उपयोग । ऐसी जब यहाँ प्रयोग द्वारा स्थिति बनती है तब स्वानुभव क्यों न आयेगा? कौनसी वजह है जो स्वानुभव न बने? जो विधि है उस प्रकार करने से कार्य कैसे न बनेगा? जब मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र द्वारा संसार की विधियाँ बन रही हैं, जो जिसका विधान है उस विधान से उसका निर्माण है, जब यह जंच रहा है तो यह सद᳭भाव का विधान है । उस प्रकार अंत: प्रयोग बने तो स्वानुभव क्यों न बनेगा? बनकर रहना पड़ेगा । उस ही का एक प्रयोग प्रक्रिया में बताया जा रहा है ।
735―सर्वअनुयोगों से परख करने में स्पष्टता―अब देखो करणानुयोग का कुछ भी विषय समझे बिना यहाँ अध्यात्मतत्त्व की बात में कुछ स्पष्टता ही न आ पायेगी । केवल एक बात-बात रह जायेगी । जैसे कि पर्याय को मना करके ब्रह्माद्वैतवादियों ने बताया तो इतना बढ़िया सिद्धांत कि सुनते ही मन खुश हो जाता है । उन्होंने कहा कि एक ब्रह्मसर्वव्यापक, निरंजन, निर्लेप पर्यायरहित कूटस्थ नित्य है और देखो थोड़ा-थोड़ा कुछ यहाँ वहाँ के विकल्प भी रहते हैं । उस ब्रह्माद्वैत के स्वरूप की चर्चा में यहाँ वहाँ के विकल्प भी हटते हैं । विकल्प तो यों हट गए कि जब किसी का ध्यान एक ऐसी अनोखी बात में लग गया कि जब यहाँ ले जाया गया तो आगे का अगल बगल का ख्याल नहीं रहता तो वहाँ कुछ आनंद जगा और लगा कि है कुछ तथ्य, और वहाँ कुछ तथ्य है नहीं । यों तो जब कोई बच्चा रोता है तो माँ उसे चुप करने के लिए कहती है अरे रो मत, देख हौवा आ जायेगा । अब देखो हौवा कोई चीज नहीं, केवल कल्पना की चीज है मगर उसका भी प्रभाव उस बच्चे पर पड़ता है । वह बच्चा हौवा का नाम सुनकर चुप हो जाता है । अब भला बतलावो उस बच्चे पर वह प्रभाव किसका है? क्या उस हौवा का प्रभाव है? नहीं । उस बच्चे पर प्रभाव हुआ उसके ही ज्ञान विकल्प का । मगर वस्तु में तथ्य क्या है यह प्रमाण से, स्याद्वाद से परखा जाता है ।
736―सम्यग्ज्ञान का फल परमविश्राम―वस्तुस्वरूप परखकर फिर क्या करना? तो देखो देखने की प्रक्रिया चार प्रकार की हुआ करती है । बाई आंख को बंद करके दाहिनी आँख से देखना, दाई आंख को बंद करके बांई आंख से देखना, दोनों आँखों को खोलकर एक साथ देखना और दोनों आंखों को बंद करके देखना । अब देखने-देखने की बात न्यारी-न्यारी है । सामने कोई अगर बल्ब जल रहा है और आप दाहिनी आंख बंद करके बाई से देखें तो वह बल्ब उस स्थान से कुछ सरका हुआ दिखेगा और उसी बल्ब को बाई आँख बंद करके दाहिनी आँख से देखें तो वह बल्ब उस स्थान से कुछ सरका हुआ दिखेगा, अब दोनों आंखों से देखें तो वह बल्ब एक स्थान पर स्थिर दिखेगा, और जब दोनों आँखें बंद करके देखेंगे तो कुछ न कुछ सामान्य रीति से इस ही ढंग का नजर आता है ना? तो इसी प्रकार निश्चय, व्यवहार, प्रमाण, और अनुभव ये चार बातें हुआ करती है । तो निश्चयनय है मानो एक दाहिनी आंख; व्यवहारनय है मानो बाई आंख, और निश्चय व्यवहार दोनों का समीक्षण, यह प्रमाण कहलाता है । निश्चयनय असत्य नहीं, व्यवहारनय असत्य नहीं, तब ही तो दोनों से निरखने का काम प्रमाण करता है । वह असत्य नहीं । असत्य उपचार हुआ करता है । यह सब जगह आप एक समीक्षण पायेंगे । जहाँ व्यवहार को असत्य कहा है उसका अर्थ यह मिलेगा कि यह उपचार वाला व्यवहार है । अच्छा और निश्चयनय में जो उपयोग न हो, व्यवहारनय में भी न हो और प्रमाण में भी न हो, ऐसी कोई स्थिति होती है उसे कहते हैं अनुभव । याने यह अनुभव नय और प्रमाण दोनों से अतिक्रांत है । केवल नय की ही बात नहीं, तब ही तो बताया है―उदयति न नयश्रीरस्ते मेति प्रमाणं, क्वचिदपि न च विद्मो याति निक्षेपचक्रं इत्यादि । जिस सहज परमात्मतत्त्व का अनुभव होने पर उस अनुभव की स्थिति में नयलक्ष्मी का उदय नहीं है । न व्यवहारनय का न निश्चयनय का । और प्रमाण तो अस्त को प्राप्त हो जाता है याने प्रमाण का भी वहाँ प्रयोग नहीं । और मालूम नहीं कि यह निक्षेप समूह कहा चला जाता है? और तो मैं क्या बात कहूं? यह तत्त्व, यह सहज परमात्मस्वरूप तो सर्वंकष है, सर्वंकष के मायने जो सबको कष्ट देवे, सबको खा लेवे, अलग रहे मायने जहाँ कुछ न रहे, यह विकल्प ऐसा सर्वंकष है यह उपयोग धाम जब अनुभव से आता है तो अन्य की बात ही क्या कहें, वहाँ द्वैत भी प्रतिभासित नहीं होना ।
737―अद्वैतवाद और द्वैतवाद की नयपक्षरूपता―अद्वैतवाद, द्वैतवाद, यद्यपि ये दोनों एकांत हैं, अद्वैतवाद का शिरोमणि कौन है? ब्रह्माद्वैत, ज्ञानाद्वैत । अच्छा और द्वैतवाद का शिरोमणि कौन है? वैशेषिक आदि । जैन सिद्धांत उन दोनों को पुचकार कर समझाता है । भाई अद्वैत भी तत्त्व है, मगर वह अद्वैत तत्त्व कहाँ से आया? वह अनुभवगम्य है । गप्प की चीज नहीं । और देखो द्वैत भी तत्त्व है, जिसे वैशेषिक कहते हैं कि द्रव्य अलग पदार्थ है, गुण अलग पदार्थ है, पर्याय अलग पदार्थ है, सामान्य विशेष, समवाय ये अलग-अलग पदार्थ । जैन दर्शन के अध्ययन से मालूम पड़ेगा स्पष्ट सही-सही, जैसे बताया गया अभाव प्रमाण है वैशेषिकों का और उसके चार भेद किए वैशेषिकों ने प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यंताभाव और अन्योन्याभाव, यह बताया गया है वैशेषिक दर्शन में । इन चारों की मुख्यता अभावरूप स्वतंत्र पदार्थ की मान्यता वैशेषिक दर्शन में है, जैन दर्शन में तो यह कहने के लिए है ये चार अभाव मात्र अभाव रूप नहीं हैं, किंतु भावरूप हैं, मायने तुच्छाभाव नहीं होता जबकि वैशेषिक तुच्छाभाव मानते हैं, मायने कुछ नहीं, ऐसी अभाव की मुद्रा है लेकिन जैन दर्शन ऐसा नहीं कहता । जैन दर्शन कहता है कि अभाव की मुद्रा किसी के सद्भावरूप हुआ करती है । जो इस तथ्य को नहीं समझते और इन चार अभावों को तुच्छ अभावरूप मानते वैशेषिकों की तरह वे और न जाने क्या-क्या कहेंगे कि जो-जो वैशेषिक और क्षणिकवाद सम्मत होता है सब मान लेंगे । देखो किसी ने कहा कि भाई उस कमरे में से घड़ा उठा लावो । अब घड़ा वहाँ था नहीं । यह देखने वाला गया और खूब कमरे को देखा और देखकर कहता है कि घड़ा नहीं है वहाँ ।....अरे तुमने क्या अच्छी तरह देखा?....हाँ खूब अच्छी तरह देखा घड़ा नहीं । अब यह देखकर क्या आया?....अरे घड़ा रहित कमरे को देखकर आया, घड़ा नहीं, यह भी कोई वस्तु है क्या? तुच्छाभाव कोई वस्तु नहीं, किंतु घटशून्य कमरा देखकर आया इसलिए कहा कि वहाँ घड़ा नहीं । घड़ा का अभाव कोई वस्तु नही किंतु घटरहित कमरे के सद्भाव का नाम घट का अभाव है । अब चारों प्रकार के अभावों में आप यही प्रक्रिया लगा लें । अभाव का अर्थ है दूसरे का सद्भाव । इस बात को समझने के लिए प्रमेय कमलमार्तंड, तथा अष्टसहस्री ग्रंथों में काफी विवेचन है । अभाव पर के सद्भावरूप होता है, अभाव तुच्छाभावरूप कभी नहीं होता । तुच्छाभावरूप अभाव मानने वाले को वैशेषिक कहते हैं । उनके यहाँ 7 पदार्थ हैं । अच्छा तो वे द्वैतवाद में बढ़ गए । द्वैतवादियों के वे शिरोमणि बने ।
738―स्याद्वाद से विशेषैकांतवाद की प्रतिबोधन―विशेषवादी के मत में द्रव्य, गुण, पर्याय, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये 7 पदार्थ अलग-अलग हैं । तो जैन दर्शन उन्हें समझाता है कि भाई वस्तु एक है उसे पदार्थ कहो या द्रव्य । द्रव्य पदार्थ के निकट वाली बात है । वस्तुत: द्रव्य भी पदार्थ नहीं, किंतु द्रव्य, गुण, पर्याय में रहने वाला जो सत् है वह पदार्थ । जैसा कि प्रवचनसार में कहा है―दव्वगुणपज्जयत्थो अत्थो अत्थित्तणिब्वत्तो । द्रव्य बिना परिणाम नहीं, परिणाम बिना द्रव्य नहीं । द्रव्य गुण पर्याय में स्थित जो अर्थ है वह अस्तित्व से रचा हुआ अर्थ है । लेकिन द्रव्य शब्द उस पदार्थ का एक निकट शब्द है । जैन शासन समझाता है कि द्रव्य स्वतंत्र सत् है गुण, पर्याय, क्रिया, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये पदार्थ नहीं, किंतु क्या? उसही द्रव्य को जब अन्वय शक्तियों से देखा तो गुण समझ में आये । उसही द्रव्य को जब व्यतिरेक दृष्टि से देखा तो पर्याय समझ में आयी, उसही द्रव्य को जब अन्वय से देखा तो सामान्य नजर आया, उसही द्रव्य को भेददृष्टि से देखा तो विशेष नजर आया, और समवाय तो तुम्हारा कल्पित है । जब तुमने द्रव्य गुण पर्याय को न्यारा-न्यारा समझा तो अब यह कैसे कहा जाये कि यह ज्ञान जीव का है? यों समझाने के लिए तुमने समवाय की कल्पना की । समवाय कल्पित है जो समवाय क्या चीज है? समवाय एक तन्मयता का नाम है, जैन शासन में और विशेषवाद में यह बताया गया है याने दो पदार्थों का ऐसा संबंध जो कभी अलग हो ही नहीं सकता है उन्हें समवाय कहा है । अब बतलावों व्यर्थ की दंड बैठक ही तो लगा रहे ना? याने वे यह कहते हैं कि जिन पदार्थों का कभी भी अलगाव हो ही नहीं सकता उन दो पदार्थों के संबंध का नाम है समवाय । मायने आत्मा और ज्ञान । उनके यहाँ आत्मा स्वतंत्र पदार्थ है, ज्ञान स्वतंत्र पदार्थ है, ऐसे दो पदार्थों का स्वरूप संबंध बताना आवश्यक है, उसके लिए समवाय जोड़ दिया । वैशेषिक सिद्धांत की बात कह रहे जो द्वैतवाद में बहुत ऊँचे चढ़ गए । द्रव्य स्वतंत्र पदार्थ, गुण स्वतंत्र पदार्थ, क्रिया स्वतंत्र पदार्थ, सामान्य विशेष सब स्वतंत्र पदार्थ हैं, ऐसा है विशेषवाद में किंतु द्रव्य ही सत् है । शेष सब द्रव्य को निहारने की मुद्रायें मात्र हैं । अभाव भी द्रव्य के सद्भावरूप है । देखो पूछो विशेषवादियों से कि अभाव को तुम एक अलग से चीज मानते हो, वह अभाव तुच्छ है, कुछ है ही नहीं, अवस्तु है फिर भी उसे प्रमाणरूप मानते हो किंतु अभाव दूसरे पदार्थ के सद्भावरूप पड़ता है ऐसा जैन दशन ने उन द्वैतवादियों को समाधान दिया । मतलब यह है कि अब यहाँ द्वैत अद्वैत दोनों नजर आ रहे । शुद्धनय से कहा तो अद्वैत नजर आया, व्यवहारनय ने कहा तो द्वैत नजर आया, मगर ये द्वैत और अद्वैत दोनों ही पक्ष हैं ।
739―निष्पक्ष का अंतर्दर्शन―यहाँ इस कलश में बताया जा रहा है कि व्यवहारनय से यह जीव है, शुद्धनय से जीव है ऐसा नहीं है यह सिद्ध होता है । ये दोनों ही नयपक्ष हैं । इन दोनों नयपक्ष से अतिक्रांत होकर जो एक शुद्धनय के विषयभूत तत्त्व में केवल प्रयोग ही करता रहे, उपयुक्त ही होता रहे वह ही पुरुष परमात्मतत्त्व का अनुभव करता है और वह ही अनुभव सहज परमात्मतत्त्व का अनुभव सर्वंकष है । देह संपर्क क्या, कर्म क्या, विभाव क्या? ये सब कौन, इसका पता ही नहीं पड़ता और फिर यह अपने आप है । महिमान का आदर आप न करेंगे तो वह कितने दिन ठहरेगा? आते समय तो ठीक है, हो आदर, एक प्रकृति ऐसी बन गई मगर उसका भीतर में आदर नहीं तो आपका जो व्यवहार बनेगा, महिमान का आदर न बनेगा तो वह आपके यहाँ ठहर कैसे सकेगा? ये रागद्वेष विभाव मेहमान हैं । इन मेहमानों का आदर न बने, ये परभाव हैं इनसे मेरी बरबादी है उनके प्रति आदर न रहेगा उपेक्षा रहेगी तो ये रागादि विभाव अड्डा न जमा सकेंगे । अगर कर्म विपाक का निमित्त पाकर विकार जगता है, तो यह भी एक निमित्तनैमित्तिक योग है अगर यह देखकर सहज स्वभाव का आश्रय करें, विभावों की उपेक्षा हो जाये तो यहाँ संवर निर्जरा बनती है । यह भी एक निमित्तनैमित्तिक योग है । अपने को कहाँ पहुंचाना है । वह मंजिल कितनी दूर है और कितनी पास है । यह आप सब अंदाज कर रहे होंगे हमें जहाँ विश्राम लेना है, जहाँ उपयोग टिकाना है वह परमार्थ तत्त्व कभी तो आपको लगता होगा कि बड़ी दूर है और कभी आपको लगता होगा कि कहाँ दूर है? यह ही तो है ऐसा समझते हैं । तो ऐसी दो तरह की बातें क्यों लगती हैं? यों लगती है आपकी विशुद्धि के भेद से । कभी-कभी तो ऐसा भी स्वप्न आपको आ जाता होगा कि कोई कीमती चीज बिल्कुल हाथ के पास में पड़ी है और चाहते हैं कि उसे उठा लें मगर उठा नहीं पाते । जरा भी हाथ नहीं बढ़ता । दूर तो नहीं है मगर दूर हो रही है । ऐसे ही यह सहज परमात्मतत्त्व दूर तो नहीं मगर दूर हो रहा है । इसको निकट बनायें । निकट बनाने का यह अंतर्मनन ही साधन है ।
740―संस्कृति में प्रवर्तन का महत्त्व―देखो जो इस पद्धति में है कि अपने अनुयायी साधर्मीजन, उन सबमें एक वात्सल्यभाव है तो उनके संग प्रसंग से अपने को सहज परमात्मतत्त्व के प्राप्त करने का मौका मिल सकता है । और किसी अन्य के प्रति वात्सल्य है या नहीं इसकी पहिचान है व्यवहार । कोई कहे कि हम को तो साहब सबसे बड़ा प्रेम है, बड़ा वात्सल्य है सबके प्रति और उसका व्यवहार हो दूसरों के प्रति घृणापूर्ण तो क्या यह कहा जा सकेगा कि उसके दूसरों के प्रति वात्सल्य है? नहीं कहा जा सकता । इस बात को तो उसका व्यवहार बताता है । सर्व विधियों से एक विशुद्ध भूमिका बनाकर हम अपने आप में प्रसन्न हो जायें । जहाँ कषाय नहीं रहती वहाँ प्रसन्नता है । जहाँ कषाय रहती है वहाँ प्रसन्नता नहीं होती । अप्रसन्न आसन पर भगवान का निवास नहीं होता । प्रसन्न आसन पर ही भगवान का निवास होता । ऐसा अपने आपको प्रसन्न निर्मल एक विशुद्ध व्यवहारी बनाकर फिर अंदर में सर्व पक्ष का उल्लंघन करके एक उस शुद्धनय के विषयभूत अखंड तत्त्व में प्रवेश करना है । काम करने को यह पड़ा है । ऊपर मंजिल में पहुंचना है तो सीढ़ियों पर चढ़कर छोड़कर चढ़कर हम ऊपर पहुंचते हैं । सीधी सी बात है । तो हमें जो एक जैन संस्कृति प्राप्त हुई है वह एक बड़े सौभाग्य की बात है, वह एक ऐसी निर्मल संस्कृति है कि जिसमें बने रहे तो हमें आगे बढ़ने का मार्ग मिलता है ।
741―गंतव्य स्थान का सुपरिचय होने पर मार्ग लाभ की सुगमता―यदि बोध रहे हमें कहाँ जाना है तो हमें उसके रास्ते का भी पता हो, रास्ता यह है और रास्ते के साथ-साथ अगल बगल की चीजों का भी पता रहना है । अगर अगल बगल की चीजों का पता न हो तो रास्ते का भी पता नहीं रहता । जो भी रास्ते में पेड़, नदी, तालाब, पहाड़ी आदि पड़ते हैं उन सबका भी पता हो तो रास्ते का सही पता होता । उन अगल बगल की चीजों का पता होने से ही हम उस रास्ते से गुजर कर अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुंच जाते हैं । तो ऐसे से ही जिसे यह पता ही न होगा कि उसे निश्चय मोक्षमार्ग में बढ़ना है, चलना है, उस रास्ते में बढ़ना है उनके अगल बगल क्या होता है । ये व्रत, ये नियम, ये संयम ये सकल चारित्र, ये उनके अगल बगल हैं जिन्हें इसका पता न हो उन्हें स्पष्ट रूप से इसका भान नहीं होता । रास्ते का भी भान हो और अगल बगल की चीजों का भी भान हो तो पता पड़ता है । जो अध्यात्म में बढ़ता है वह ऐसा फकीराना रख लेता है कि कुछ नहीं है उसके पास । हाँ उसे खाना तो होता ही है, भूख तो लगती है कही असमय में मृत्यु न हो जाये इसलिए क्षुधानिवारण के लिए वह आहार ग्रहण करता है । वह आहार भी वह अपमानपूर्वक असम्मानपूर्वक नहीं ग्रहण करता । उसके लिए तो बताया है कि यदि कोई आहार दाता नवधाभक्ति पूर्वक बड़े विनय के साथ आहार दान करता है तो वह आहार ग्रहण करता है । वहाँ कोई यह प्रश्न कर सकता कि जब उसने सम्मान तक की बात की भी परवाह न की तब फिर यहाँ सम्मान की अपमान की बात क्यों सोचता? उसे तो जैसे भी जो आहार दे दे उसे ग्रहण लेना चाहिए । तो ऐसी बात नहीं है । उस आहार के प्रति लालसा, लिप्सा तो है नहीं । जो सम्मान अपमान की परवाह न करे, उसका तो आहार के प्रति उपेक्षा भाव रहता है । तभी तो जब कोई बड़े विनय से नवधाभक्ति पूर्वक आहार देता है तो वह उसे ग्रहण करता है । ऐसे ज्ञानी संत को मोक्षमार्ग में पड़ने वाली सब चीजों का पता रहता है जिससे वह निर्बाध रूप से आगे बढ़ता रहता है और धीरे-धीरे बढ़ते वह अपने निर्दिष्ट लक्ष्य पर पहुंच जाता है ।