वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 29
From जैनकोष
मूढ़ात्मा यत्र विश्वस्तस्ततो नान्यद्भयास्पदम्।यतो भीतस्ततो नान्यदभस्थानमात्मन:।।29।।वास्तविक भय का स्थान-पूर्व श्लोक में कारणपरमात्मतत्त्व की भावना का वर्णन था। उस वर्णन को सुनकर किन्हीं भाईयों को ऐसा लग सकता है कि वह तो बड़ी कठिन और भय वाली बात है। हमें तो सीधा सुखदाई यह घर का रहना ही लग रहा है। कहां का दंदफंद, अकेले रहो, सबसे विविक्त सोचो, कुटुंब का परिहार करो, ये क्या आफतें हैं ? कैसे गुजारे की बात हो ? बड़े भय की बात है, ऐसे भव की आशंका होने पर आचार्यदेव यह शिक्षा दे रहे हैं कि अरे मूढ़ आत्मन् ! तुझे जिस जगह विश्वास लगा है कि यह मेरा सुखदायी है, उससे बढ़कर भय की चीज कोर्इ दूसरी नहीं है। कोई नरक में पहुंचे और वहां रहे सद्बुद्धि, तो ठिकाने वाली अक्ल वहां उसकी समझ में आती है कि जिस कुटुंब के कारण, विषयसुख के कारण, मित्रों के कारण नाना पाप किए हैं उन पापों का यह फल मैं अकेले ही भोग रहा हूँ। अब वे कोई भी मदद देने वाले नहीं हैं, जो 10, 20 की संख्या में मेरा मन बहलाते भी थे। यह मूढ़ आत्मा जिस जगह विश्वास बनाए हुए है उससे बढ़कर दुःख की चीज, भय की चीज और कुछ नहीं है।समागम में लाभ की निराशा―भैया ! वैभव और परिवार से इतना ही तो सहारा होगा कि बनी बनायी दो रोटी मिल जायें और तन ढकने को दो कपड़े मिल जायें किंतु इतनी बात जब बड़ी कला के ढंग से, सांसारिक कला के ढंग से प्राप्त की जाती है तो चिंतावों का बोझा कितना लादा ? केवल दो रोटियों और दो कपड़े के निमित्त से चिंतावों का बोझ कितना लादा जाता है और उस बोझ का फल किसे भोगना पड़ेगा, इस ओर व्यामोही जीव की बुद्धि नहीं जाती। यश, कीर्ति, नामवरी की चाह इनसे क्या लाभ होगा ? इस जीवन में भी पाप का उदय आता है तो कोई साथ न देगा, उल्टा लोग हंसी करेंगे। हो गया इतना बड़ा, बड़ा बन गया, था रीता, अब यह हालत है। होने दो, जो बड़ा बनता है, बड़ा होता है उसके ईर्ष्यालु लोक में अवश्य होते हैं। कहां अपनी नामवरी चाहते हो ? जिनके लिए यश फैलाना चाहते हो वे स्वार्थवश कीर्ति भी गा लें, किंतु स्वार्थ में अंतर तो अवश्य आयेगा तो उस काल में उतने ही वे अवगुण देखेंगे। जिनका जितना अधिक यश होगा, थोड़ी त्रुटि हो जाने पर उतना ही अधिक अपयश फैलेगा। कहां विश्वास बनाए हुए हो ?
भय और अभय के साधन―मोही पुरूष जहां विश्वासी बन रहे हैं वह तो है डर की चीज और जहां यह डर मानता है, जिस जगह से, पद से, स्थान से यह भय मानता है वह ही है अभय की चीज। वैराग्य, ज्ञान, सत्संग इनसे मोही को भय लगता है, किंतु अभय का स्थान यह ही है। अपना आचार और ज्ञान सही रहेगा तो लोग पूछाताछी करेंगे। अपना आचार और ज्ञान ही बिगड़ गया तो कोर्इ पूछाताछी करने वाला नहीं है। रही एक धन की बात, सो वह धन तो मौत के लिए भी होता है। इस धन के पीछे तो प्राण चले जाते हैं। अनेक समाचार में सुन रक्खा होगा कि अमुक बुढ़िया का या अमुक पुरूष का रिश्तेदार लोग कुटुंब वाले या पास पड़ौस के लोग गला घोटकर सब कुछ छीन ले गए। तो यह धन तो इस पुरूष की मृत्यु के लिए भी है। इस धन का क्या विश्वास ?
विभूति का अज्ञात गमनागमन―नारियल का फल तो प्राय: बहुत से लोगों ने देखा होगा। बहुत ऊपर लगते हैं वे नारियल के फल, पर जो ऊपर का बक्कल है, वह इतना कठोर होता है कि लोढ़े से फोड़ो तो फूटता है। पत्थर पर पटको तो टूटता है, ऐसी कठिन नरेटी के भीतर नारियल में पानी डालने कौन जाता है ? उस नारियल में से पाव डेढ़ पाव पानी निकल आता है। लोग उसे पीते हैं। जैसे नारियल में पानी पता नहीं कहां से आ जाता है, इस ही प्रकार उदय ठीक होने पर पता नहीं कि योग्य सामग्री वैभव कहां से आ जाता है ? और कभी देखा होगा―हाथी कैथ खा ले और लीद में वह कैथ निकले तो वह कैथ यों देखने को मिलेगा कि उसमें किसी भी ओर छेद नहीं हुआ है और वह कैथ अंदर से पूरा खोखला हो गया है। उसे उठाकर, धोकर उसका वज़न करो तो कोई तोला दो तोला का ही निकलेगा। तो पाव डेढ़ पाव कैथ के अंदर का गूदा कहां से निकल गया है। न उसमें कहीं छिद्र दिखाई दे, न कहीं दरार दिखाई दे, फिर भी वह गूदा कहां से निकल गया इसका कुछ पता नहीं चलता। इसी तरह उदय प्रतिकूल होने पर वर्षों की संचित लक्ष्मी भी कहां से निकल जाती है, इसका कुछ पता नहीं पड़ता।विश्वास्य और अविश्वास्य तत्त्व के अनुभव के लिए प्रेरणा―भैया ! यहां कौन विश्वास के योग्य है ? बाह्यसमागम तो अनुकूल उदय होने पर सहज मिल जाते हैं और प्रतिकूल उदय होने पर टल जाते हैं। श्रीराम, श्रीसीता जैसी प्रीति और सौभाग्य का उदाहरण और क्या माना जाय ? परंतु उदय प्रतिकूल हुआ तो सीता जी को अकेले जंगल में भटकना पड़ा। किस पर विश्वास करते हो कि ये मेरे जन्मभर के सहायक हैं, कौन से विषयसाधनों में दृष्टि लगाये हो कि यह वैभव यह विषयसाधन मेरे को सुख देने वाले है। बाह्य के समागम सब भय के स्थान हैं, किंतु जिससे डर खा रहे हो वही निर्भयता का स्थान है। अनुभव करके देख लो―जिस काल चेतन, अचेतन समस्त परिग्रहों का विकल्प तोड़कर अपने आपमें निर्विकल्प ज्ञानस्वरूप निजप्रकाश का अनुभव किया जा रहा हो उस काल में अपने आपके अंतर में से जो आनंद झरता है उस आनंद को देखो और विषयसुखों में तृष्णा करने से जो विपदायें आती हैं उन विपदाओं को नजर में लो, कितना अंतर है ? पर जो जहां का कीड़ा है उसका वहां भी मन लगता है।विषयव्यामोही की रूचिपर एक दृष्टांत―दो सखियां थीं ? एक थी धीमर की लड़की और एक थी मालिन की लड़की। बचपन में वे दोनों एक साथ खेला करती थीं। विवाह हो गया उनका जुदे-जुदे नगरों में। मालिन की लड़की का विवाह हुआ शहर में और ढीमर की लड़की का विवाह हो गया किसी गांव में। सो मालिन तो फूलों का हार बनाना, फूलों की शैया सजाना ऐसा ही काम करे और यह धीमर की लड़की मछली मारे, बेचे और खाये यही पेशा करे। एक बार धीमर की लड़की शहर में पहुंच गयी मछली का टोकरा लेकर मछली बेचने के लिए। शाम हो गयी तो सोचा कि आज सहेली के घर रह जायें। पहुंची सहेली के घर। बड़ा आदर किया उसने। खाना खिलाया, रात के 9 बज गए। बहुत बढ़िया पलंग बिछाया और उसे फूलों की पंखुड़ियों से खूब सजाया।
जब धीमर की लड़की सोने लगी तो अब धीमर की लड़की को वहां नींद न आये, मारे फूलों की गंध के इधर उधर करवटें बदले। मालिन की लड़की ने पूछा―सहेली ! तुम्हें नींद क्यों नहीं आती है ? सो धीमर की लड़की कहती है कि सहेली क्या बताऊँ, यहां तुमने फूलों की पंखुड़ियां बिछा रक्खी हैं इनकी बदबू के मारे सिर फटा जा रहा है। इन्हें अलग कर दो तो शायद नींद आ जाय। फूलों को अलग कर दिया, फिर भी नींद न आए, क्योंकि वह गंध तो उन कपड़ों में बस गयी थी और कमरे में भी फैल गयी थी। फिर मालिन की लड़की ने पूछा कि सहेली ! तुम्हें नींद क्यों नहीं आती है ? तो बोली―अरे बदबू तो कमरे भर में भर गयी है, नींद कहां से आये ? एक काम करो-हमारा जो मछलियों का टोकरा है उस हमारे सिरहाने रख दो और उसमें पानी के छींटे डाल दो। उसने वैसा ही किया। जब मछलियों की दुर्गंध सारे कमरे में फैली तब उस बेचारी धीमर की लड़की को नींद आयी। ऐसे ही रात दिन पंचेंद्रिय के विषयों की धुन रहती है जिन मनुष्यों को, उन मनुष्यों को ज्ञान वैराग्य सोहं, अहं, अंतस्तत्त्व की बात कहां से सुहाये ?
योग्यतानुसार परिणमन―भैया ! बैठ जायें विषयव्यामोही मनुष्य मंदिर में तो इससे क्या, बैठ जायें किसी धर्मस्थान में तो उससे क्या, परिणमन तो वही चलेगा जैसी कि योग्यता होगी। एक बार बादशाह कहीं जा रहा था तो उसे एक गडरिये की लड़की दिखी, जो कि रूपवान् थी, वह उस राजा को सुहा गयी और उसी से ही विवाह करवा लिया। अब वह गडरिये की लड़की राजमहल में पहुंच गयी। उसने वहां बड़ा हाल खूब सज़ा हुआ देखा, जिसमें अनेक चित्र थे, नाना तरह के फोटो थे, वीरों के फोटो, ऐतिहासिक पुरूषों के फोटो, वर्तमान महापुरूषों के फोटो तथा भगवान इत्यादि के फोटो वहां पर लगे हुए थे। वह गडरिये की लड़की सभी चित्रों को देखती जाये, पर उसका कहीं मन न भरा। यह राम की फोटो है, होगी। यह शिवाजी की फोटो है, होगी। बड़े-बड़े पुरूषों की फोटो देखी, पर किसी पर दृष्टि न थमीं। एक फोटो में दो बकरियां बड़ी सुंदर बनी हुई थीं उसको देखकर उसकी दृष्टि थम गई और टिक्टिक् की आवाज करने लगी। तो गडरिये की लड़की को बड़े शोभा वाले महल में बैठाल दिया तो भी अपनी धुन के अनुसार ही, वासना के अनुसार ही अपनी प्रवृत्ति का गयी। रात दिन मोह विषय सुख ममता ही में बसने वाले पुरूष मूढ़ आत्मा व्यामोही जन, मिथ्यादृष्टि जीव कदाचित अपने मान हो बढ़ाने का कारणभूत जो मंदिर बना रखा है, धर्मस्थान है वहां पर भी रहे तो भी उसकी प्रकृति में वह स्थान अंतर कहां से डाल देगा ? वह तो वहां भी विषयों की बात ही सोचेगा।क्लेश साधनों से हटकर आत्महित की ओर―कितने क्लेश हैं परिग्रह में, विषयों के साधन जुटाने में, किंतु इन क्लेशों को स्वयं जानते हुए भी होंगे तो भी उसको विवेक में नहीं ला सकते। किसे नहीं मालूम कि कितने झंझट हैं, पर फिर भी उसे उस झंझट में ही अपना जीवन दिखता है कि इनको छोड़कर या इनसे राग कम करके हम और कहां पलेंगे, कहां पुषेंगे ? भैया ! क्लेशसाधनों से हटकर आत्महित की ओर आवो। जहां हित है, सुख है वह है ज्ञान और वैराग्य। जहां स्वस्थ चित्त होना, ज्ञान की ओर उन्मुखता हो उसके आनंद को कौन प्राप्त कर सकता है ? वह ज्ञान क्या है इस ही बात का वर्णन कल आया था। कैसी भावना करके यह जीव उस ज्ञानस्वरूप पर पहुंचता है वह भावना है सोहं की। वह मैं हूँ। मैं वह हूँ जो हैं भगवान, जो मैं हूँ वह हैं भगवान्। यह कारणपरमात्मतत्त्व की दृष्टि रखकर समझना। नहीं है मुझमें भगवान् जैसा स्वरूप, तो कैसा भी यत्न करें मुझमें भगवत्ता प्रकट हो ही नहीं सकती।ज्ञान और वैराग्य की अविनाभाविता―ज्ञान और वैराग्य परमार्थ से दो बातें अलग-अलग नहीं हैं किंतु मर्म का जिन्हें परिचय नहीं है वे यों ही जानते हैं कि ज्ञान बात और होती है, वैराग्य बात और होती है। यहां सूक्ष्म विवेचन भी नहीं करना है और मूढ़ दृष्टि भी नहीं रखना है। अभेद भाव का संबंध बनाकर निर्णय करना है। लोग यों जानते हैं कि घर त्याग दिया, चीजें छोड़ दीं तो लो वैराग्य हो गया। घर त्याग दिया तो राग लग गया और तरह का। कोई एक खाने की चीज छोड़ दे तो तृष्णा लग गयी दूसरी चीज के खाने की। नमक छोड़ दिया तो अब मीठा और मुनक्का किसमिस होना ही चाहिए, ऐसा परिणाम रक्खे तो अभी राग कहां छूटा, नमक ही छूटा। या परिवार छोड़ दिया तो जिस समागम में रहते हैं वहां ही मैं, मैं, मेरा, मेरा चलता रहता है। जो भी वस्तुवें कपड़े लत्ते जो भी पास में हैं उनकी संभाल, उनकी ममता, उनका संचय करने की ही भावना हो, दूसरों को उपयोगी वस्तु देने की जहां भावना न रहती हो, वहां घर छोड़ने से क्या सुख पाया ?
वैराग्य अलग चीज नहीं है, ज्ञान का रूप वैराग्य है। ज्ञान को छोड़कर वैराग्य कहीं अलग नहीं रक्खा है। वैराग्य का अर्थ है रागभाव का न रहना। अच्छा रागभाव न रहा तो रहा क्या ? ज्ञान इसका स्वरूप है। ज्ञान कभी टलता नहीं। तो इस ज्ञान का ज्ञानरूप रह जाना यह ही तो वैराग्य है। मूल में जब तक इस मर्म को पाया जाय तब तक वैराग्य की दशा में प्रगति नहीं हो सकती है। ज्ञान और वैराग्य में वह शक्ति है जिस शक्ति के प्रसाद से किसी भी स्थिति में रहकर बंधन नहीं होता है।वैराग्यसहित ज्ञानकला―ज्ञानी विरक्त पुरूष उदयवश कदाचित् विषयों को सेवता हुआ भी सेवक नहीं कहलाता है। भोगता हुआ भी भोक्ता नहीं कहलाता है। किसी लड़के को जबरदस्ती मारकर मुख कौर देकर खिलायें तो क्या बालक खाने वाला कहला सकता है ? जब खाने में उपयोग ही नहीं है, कुछ भी चाह नहीं है, जबरदस्ती का खाना है तो वह भोग क्या कहलायेगा ? ज्ञानी पुरूष को शुद्ध ज्ञानस्वभाव में रमने का ऐसा दृढ़ चित्त है कि वह उस ही ओर झुका रहता है। इतने पर भी कर्मोदय की कोई ऐसी प्रेरणा होती है कि किन्हीं कार्यों में पड़ना भी पड़े, भोगना भी पड़े तो भी सब गले पड़े की बात है। वह भोगता नहीं है। वह भोगता हुआ भी नहीं भोगता है, यह बात सुनने में तो सरल लगती है पर वह कौनसा परिणाम है जिस परिणाम के होने पर इसकी भोगने की और मन, वचन, काय की क्रियाएं नहीं चलती, किंतु प्रेरणावश चलना पड़ता है। ऐसा शुद्ध ज्ञान और वैराग्य का जो परिणाम है वह तो आया नहीं और भोगता हुआ भी भोगता नहीं है, हम भी भोगते हैं, हमें भी क्या दोष होगा ? भोग तो कर्मों की निर्जरा के लिए हैं। तो कहीं नाममात्र के जैन होने से कर्मों के बंधन में फर्क नहीं आ जाता है, किंतु जिस कला से, जिस कर्तव्य से, जिस ज्ञान और वैराग्य से कर्मों के बंधन में अंतर आया करता है वह कला आये तो बंधन नहीं होता। यह मूढ़ आत्मा जिससे डरता है, जिस तत्त्व से भय खाता है वही तो अभयपद है।प्राणी की स्वार्थवृत्ति―जगत् में किसका विश्वास हो ? जो भी अनुकूल होता है वह अपनी ही किसी भावना से, वासना से हुआ करता है वस्तुत: कोई किसी पर न्यौछावर नहीं होता है। गरज पड़े कुछ हो। परसों की बात है जंगल में कुटिया की छत पर बैठा हुआ मैं देख रहा था कि एक गिलहरी 4 अंगुल का एक रोटी का टुकड़ा लिए जा रही थी। चार पाँच चिड़िया उस टुकड़े को छीनने के लिए उसके पास आती थीं। वह गिलहरी उस रोटी के टुकड़े को लिए हुए भागती फिरे सारे बाग़ में घूम आई, आपत्ति न टले। फिर वह गिलहरी हमसे डेढ़ हाथ दूर पर वह रोटी का टुकड़ा लिए हुए बैठ गयी। अब वहां चिड़िया कैसे आएं ? फिर वहां दोनों हाथों से उठा उठाकर उस गिलहरी ने आनंद से रोटी खायी। फिर कल के दिन उन ही गिलहरीयों को अपने पास बुलाया तो कोई भी गिलहरी पास नहीं आयी। जब उसे किसी अभय स्थान में रोटी खाना था तो हमारे पास ही बैठकर नोच-नोचकर रोटी खा ली।सोऽहं की भावना में अभयत्व का समर्थन―भैया ! जब कोई स्वार्थ होता है और जहां देखते हैं कि इस स्थान में हम अभयपूर्वक रह जायेंगे, सो वे रह लेते हैं, लेकिन किसी के प्रति क्या विश्वास पूर्वक कहा जा सकता है कि वह मेरा पूरा विश्वासी ही है ? नहीं। तो यहां यह बताया है कि मूढ़ आत्मा जहां विश्वास बनाये है वही भय का आस्पद है और जिससे भयभीत है उसका अभय स्थान उससे अतिरिक्त अन्य नहीं है। जिससे यह मोही आत्मा भय खाता है, उस ही तत्त्व को कल बताया गया था। सोहं की भावना में वह तत्त्व आया था। यहां उस ही के समर्थन में व्यावहारिक बात कही। अब आगे उस ही तत्त्व की प्राप्ति के उपाय में वर्णन चलेगा।अभयपद के उपाय के वर्णन का उपक्रम―एक मात्र शरणभूत निजपरम स्वभाव का अनुभव ही अभयपद है और इस तत्त्व की भावना से ही आत्मा में स्थिति होती है, अनाकुलता प्रकट होती है। इस तत्त्व से मोहीजन भय खाते हैं। इसकी चर्चा भी सुनने को उनका मन नहीं करता, इसके प्रयोग की तो बात दूर ही रहे, किंतु जिस तत्त्व से मूढ़ घबड़ाते है, भयभीत होते हैं वह तत्त्व अभयपद है और जिस तत्त्व में विश्वास करते हैं मोही जीव वही इसका विपदा का स्थान है। वह पद है, जो अभय अनाकुल बनता है, चैतन्यस्वभाव। वह मिले कैसे ? इसके उपाय में पूज्यपाद स्वामी अगले श्लोक में कह रहे हैं―