वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 43
From जैनकोष
परत्राहम्मति: स्वस्माच्च्युतो बघ्नात्यसंशयम्।
स्वस्मिन्नहम्मतिश्च्युत्वा परस्मान्मुच्यते बुध:।।43।।
मुक्ति की उत्सुकता की प्रकृति- इस श्लोक में यह बताया गया है कि कौन जीव बँधता है और कौन जीव छूट जाता है। बंधन सबसे कठिन विपदा है व छूटा हुवा होना सबसे विलक्षण संपदा है। कर्मों से छूटा होना, संसार के संकटों से छूट मिलना, इसका नाम है मोक्ष। कभी देखा होगा कि स्कूल में टाइम पर या टाइम से पहिले जब मास्टर कह देवे जावो छुट्टी है तो लड़कों को कितना आनंद आता है, सारा स्कूल गूंज जाता है। उन लड़कों के हाथ पैर कहीं के कहीं पड़ रहे हैं, एकदम भाग दौड़ मचाकर आते हैं। उनसे पूछो कि तुमको यह खुशी किस बात की है? कोई मिठाई मिली है या और कोई इनाम मिला है? मिला कुछ नहीं, पर छुट्टी होने से स्वयमेव आनंद आता है।
बछड़ा बंधा हो खूँटे से, वह गिरमा को खींचकर भागना चाहता है, उसमें वह कष्ट मानता है। जिस समय उसका बंधन खोल दिया जाए तो कैसा वह उचक कर भागता है? छुट्टी मिलने में बड़ा आनंद है, आप ही अंदाज कर लो सुबह के समय, यद्यपि पढ़ाई आप लोग मन से करते हैं, पर जब ये कह देते हैं कि आज की छुट्टी तो भीतर में कुछ खुशी होती है कि नहीं? हालांकि जानते हो कि 9 बजे बाद चले जायेंगे, मगर उस छुट्टी के शब्द को सुनते ही कुछ फर्क आ जाता है।
दुर्लभ अवसर न चूकने की स्मृति- कर्म का बंधन, शरीर का बंधन अनादिकाल से भोगा जा रहा है। कैसा भवितव्य होगा, वह कब भवितव्य होगा कि इस जीव का अनादिकालीन भी संकट छूट जाएगा? उस मुक्ति से बढ़कर और क्या वैभव होगा? यह जीव निगोद से निकलकर, अन्य स्थावरों से निकलकर विकलत्रय अर्थात् दोइंद्रिय, और चतुरिंद्रिय जीव रहा। इन तीनों से निकलकर, पंचेंद्रिय में से अन्य खोटे भवों से ही निकलकर आज यह मनुष्य हुआ है, पर मनुष्य होकर विषयवासनावों में बेसुध होकर जीवन गँवाये तो मनुष्य होने का लाभ क्या हुआ?
विषयानुराग के खेल से क्षति- एक सेठ जी थे। वे राजा के बड़े ही प्रिय थे। पापोदयवश सेठ निर्धन हो गया। जब बहुत ही कठिन मुसीबत आयी तो सेठ कहता है कि राजन्, अब तो दिन मुश्किल से गुजरते हैं। राजा ने कहा कि अच्छा कल के दिन तुम्हें दो बजे से चार बजे तक की आज्ञा देता हूं कि रत्न जवाहरात के खजाने में जावो और जितने रत्न जवाहरात तुम ला सको, उतने ले आना। खजांची को भी आदेश दे दिया कि अमुक सेठ दो बजे आएगा और जितने रत्न जवाहरात दो घंटे में ले जा सके, उसे ले जाने देना। वह पहुंचा दूसरे दिन दो बजे रत्न जवाहरातों के भंडार में। तो वे कुछ सीधे ही एक कोठरी में नहीं होते। कोई विशाल किला हो, महल हो, फिर किसी जगह अंदर भंडार होता है। वहां जाकर देखा तो खेल खिलौने बहुत अच्छे थे। उन सुंदर खिलौनों को वह देखने लगा। उनको देखते देखते ही 2 घंटे का समय व्यतीत हो गया। चार बजे खजांची ने कह दिया कि जावो समय हो गया।
लौकिक शौर्य के मद से क्षति- अब रोता हुआ सेठ राजा के पास फिर पहुंचा और कहा कि कल के दो घंटे तो हमारे खिलौने देखने में ही व्यतीत हो गये। राजा ने कहा कि अच्छा आज दो बजे से चार बजे तक के लिए तुम्हें इजाजत देता हूं कि तुम सोने के भंडार में जावो और जितना सोना ला सको, ले आना। खजांची को भी राजा ने आदेश दे दिया। अब वह सेठ दो बजे पहुंचा तो देखता है कि बहुत बड़ा महल है और आसपास बहुत सुंदर छोटे छोटे घोड़े बँधे हुए है। देखने में बड़े सुंदर थे। उस सेठ को घोड़े पर चढ़ने का बड़ा शौक था। वह झट एक घोड़े को पकड़कर उस पर चढ़ गया व उसे चलाने लगा। यों कभी किसी घोड़े के पास, कभी किसी घोड़े के पास गया। घोड़ों को देखते देखते ही उसके दो घंटे व्यतीत हो गए। अब फिर खजांची ने समय पूरा होने पर उस सेठ को निकाल दिया।
कामादिविकार व चिंताओं की उलझन से क्षति- फिर सेठ राजा के पास पहुंचा और बोला कि महाराज, क्या बतलाएँ, हमारा उदय खोटा है। उस महल में घोड़े बड़े सुंदर थे तो उनके निरखने में ही सारा समय व्यतीत हो गया। राजा ने कहा कि अच्छा तो फिर तुम्हें दो घंटे की इजाजत देता हूं कि चांदी के भंडार में चले जाना, वहां से जितनी चाँदी ला सको, ले आना। वहां जाकर देखा तो बहुत सुंदर स्त्रियों के चित्र थे और कुछ पत्थर की मूर्तियां भी थीं। उन्हें देखकर वह उनमें ही रमसा गया। उस चांदी के भंडार में और क्या बात हुई कि वहां पर कुछ गोरखधंधे रक्खे थे, उनको देखने में लग गया। कुछ उलझे और कुछ सूलझे। इस प्रकार उनके देखने में दो घंटे का समय व्यतीत हो गया। फिर खजांची ने सेठ को निकाल दिया।
प्रमाद से क्षति- अब सेठ फिर रोता हुआ राजा के पास पहुंचा। राजा ने उसे फिर दो घंटे का समय तांबे के भंडार में से तांबा निकाल लाने के लिए दिया। वहां पहुंचा तो देखा कि बहुत सुंदर स्प्रिंगदार पलंग पड़े हुए थे। सोचा कि इन पर दो मिनट लेटकर देखना तो चाहिए। वह लेट गया। लेटते ही निद्रा आ गई। समय पूरा हो जाने पर खजांची ने उसे वहां से निकाल दिया। तो जैसे उस सेठ ने अपना सारा समय व्यर्थ ही खो दिया, इसी तरह यह मनुष्य अपना सारा जीवन यों ही व्यर्थ में खो देता है। किशोर अवस्था खेल खिलौनों में ही, उद्दंडता के कार्यों में ही खो देता है, फिर कामवासना में अपना सारा जीवन बिता देता है। मनुष्यभव भी पाया और विषयों की वान्छा दूर न हुई तो इस मनुष्यभव का क्या किया जाए? ऐसे जीवन को धिक् है।
विषयप्रेम की तुच्छता पर कवि का अलंकार- एक सभा में संगीत हो रहा था, वेश्या नाच रही थी, मृदंग भी बज रहा था, मंजीरा बज रहा था। हरमोनियम भी थी और हाथ पसार पसारकर नाच रही थी। उस समय के दृश्य का वर्णन कवि करता है--
मिरदंग कहे धिक् है धिक् है, मंजीर कहे किनको किनको।
तब वेश्या हाथ पसार कहे- इनको, इनको, इनको, इनको।।
यह कोई बरात की महफिल लग रही होगी, बराती लोग खूब रस ले रहे होंगे, उस समय का वर्णन कवि ने किया है। यों ही समझो कि यह मनुष्यभव मिला है, श्रेष्ठ तन मिला है तो इस मन के द्वारा तत्त्वज्ञान उत्पन्न करके बंधनों को काट सकते हैं। इस मन को दुरुपयोग में लगा दिया तो उससे आत्मबल भी घट जाता है और पापबंध भी हो जाता है। ऐसे मनुष्यजीवन को पाने से लाभ क्या रहा?
दुर्लभ समागम की उपेक्षा का फल- देखिए यह नियम है कि यह जीव त्रस की पर्याय में साधिक दो हजार सागर के लिए ही आता है, इससे अधिक त्रस पर्याय में नहीं रह सकता। दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, पंचेंद्रिय के भव लगातार चलते रहें तो अधिक से अधिक ऐसे दो हजार सागर तक चल सकते हैं, इससे ज्यादा नहीं चल सकता। यदि इस अवधि में मुक्ति न हो सके तो उसे स्थावरों में जन्म लेना पड़ेगा। दूसरी कोई गति नहीं है और कुछ विशेष काल उन स्थावरों में रहता है। तब भी न निकल सके तो फिर निगोद में जाना पड़ता है। उस त्रसकाल में भी अधिक से अधिक मनुष्य की पर्याय इसको यों तो 8, 8, 8, बार में 24 पर्यायें मिलती हैं। पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद में, किंतु मनुष्य हुए और पशुपक्षियों का जैसा जीवन गुजारा तो नंबर ही तो कट गया और कदाचित् आखिरी समय हो मनुष्य का तो इतना समझ लेना चाहिये कि कुछ काल बाद स्थावरों में जन्म लेना पड़ेगा।
व्यामोह में प्राप्त निधि का अलाभ- मनुष्यभव बहुत दुर्लभ है। सभी लोग गाते हैं, किंतु इसका मूल्य नहीं आंकते। यहां तो ऐसी प्रकृति है कि जिसे जो कुछ मिला है, उसका वह मूल्य नहीं करता। जैसे जो आज दो लाख का धनी होगा, वह दो लाख कुछ नहीं समझता और मन में जानता है कि मुझे कुछ नहीं मिला। मुझे तो करोड़पति होना चाहिए। जिसे जो भी कुछ मिला है, उसे वह कहता है कि मुझे कुछ नहीं मिला। अरे, बहुत कुछ मिला है। जिसे जो मिला है, वह आवश्यकता से अधिक मिला है, परंतु मोह में ऐसा अनुभव करते कि मुझे कुछ नहीं मिला है। करीब-करीब जितने यहां बैठे हैं, सबको आवश्यकता से अधिक मिला है। मानों जिसके पास जो है, उससे आधा होता तो क्या उसमें गुजारा न होता? करेंगे तो सब कुछ, करते ही हैं, लेकिन ऐसी भावना क्यों नहीं आती कि हमें तो जरूरत से भी ज्यादा मिला हुआ है। फिर हम आगे के लिए क्यों तृष्णा बनायें? इसी स्थिति में धर्म के लिए, ज्ञानार्जन के लिए सद्गोष्ठी का, सत्संग का लाभ लेने के लिए समय व्यतीत होना चाहिए।
बंधनों में व्यग्रता- भैया ! बंधन और मुक्ति दोनों तत्त्व परस्पर विरूद्ध हैं। बंधन से तो क्लेश हैं और मुक्ति से आनंद है। अभी किसी बालक से कहें कि बेटा, यहीं दो घंटे तक बैठना तो उसका मन न चाहेगा कि हम यहां बैठ जायें, क्योंकि बंधन महसूस किया ना। वैसे चाहे चार घंटे तक बैठा रहे, पर वह बंधनरूप वचन कह देने पर वह रह ही नहीं सकता है। प्रत्येक जीव को मुक्त होने में आनंद मानने की आदत पड़ी हुई है। यह जीव सही मायने में मुक्त कैसे होता है और यह बँधता कैसे है? इन दोनों का स्वरूप इस श्लोक में बताया गया है। जो जीव परपदार्थ में है, यह मैं हूं, यह मेरा है- ऐसा बताया करता है, वह नि:संशय परपदार्थों से बंध जाया करता है और जो अपने आपमें ‘यह मैं हूं’ ऐसी बुद्धि रखता है, वह परपदार्थों से छूट जाता है।
पर से शांति की असंभवता- इस अशरण संसार में कौनसा बाह्य पदार्थ ऐसा है कि जिसकी आशा करें, उपासना करें, अनुराग करें तो उससे शांति मिल सके? जरा छटनी करके बता तो दो कि कौनसा पदार्थ ऐसा है? कोईसा पदार्थ ऐसा हो ही नहीं सकता। स्वरूप ही ऐसा नहीं है कि किसी परपदार्थ संबंधी विकल्प बनायें और शांति पा लें। हां, इतनी बात जरूर है कि पहिले के अशांति के विकल्पों से कोई मंद विकल्प हो तो हम शांति का अनुभव करते हैं।
जैसे घर के कामधंधों के प्रसंग में जो आकुलता होती है, वह आकुलता मंदिर के कामों के प्रसंग में नहीं होती। मंदिर में वैसे काम बहुत रहता हैं, जैसे अब द्रव्य नहीं है, अब अमुक प्रबंध करना है, अब यह चीज लानी है, अब दसलाक्ष्णी आ रही है, अब सफाई करवानी है, अब अमुक काम करवाना है, कितने ही काम करने पड़ते हैं। अब आप यह बतावो कि ये सारे काम शांति से किए जा रहे हैं या आकुलता उत्पन्न हुई है, उसको मिटाने के लिए ये काम किए जा रहे हैं? ये भी सारे काम आकुलता के कारण किए जा रहे हैं। उन सभी कामों में भी आकुलता भरी है, अशांति पड़ी है, पर इतनी बात है कि घर के कामों में आकुलता यदि 80 डिग्री है तो मंदिर के कामों में आकुलता 10 डिग्री है।
आपेक्षिकता में शांति की कल्पना- जैसे किसी के 104 डिग्री बुखार था और उतरकर 102 डिग्री रह जाए तो पूछने वाले पूछते हैं कि कहो भाई ! तुम्हारी तबीयत कैसी है? तो वह उत्तर देता है कि अब तो तबीयत ठीक है। यद्यपि अभी 102 डिग्री बुखार है, फिर भी मान लिया कि तबीयत ठीक है। हां वह 104 डिग्री बुखार के मुकाबले में कह रहा है। इसी प्रकार पूजा के, साधना के, तपस्या के जितने जितने भी काम हैं, वे सब काम भी बिना आकुलता और अशांति के नहीं होते हैं, लेकिन विषयकषायों के काम के मुकाबले में ये सब अल्प अशांति वाले काम हैं। इतनी बडी अशांति के काम न होने से हम इन्हें शांति के काम बोला करते हैं, पर कोई भी परपदार्थ का संबंध ऐसा नहीं है जो शांति से बने। शांति का कारणभूत कोई भी द्रव्य का प्रसंग नहीं हो सकता है। फिर परपदार्थों में यह मैं हूं, ऐसी बुद्धि करना तो महाबंधन ही है।
अपनी दयापात्रता- अज्ञानीजन दया के पात्र बताये गए हैं। पापीजन घृणा के योग्य नहीं कहे गए, किंतु दया के पात्र कहे गए हैं। ओह इन विषयकषायों में मस्त हुए ये जगत् के प्राणी अपनी प्रभुत्ता को खोये चले जा रहे हैं। कितनी खेद की बात है कि हैं स्वयं प्रभुत्त्व से भरे हुए ज्ञानानंदस्वभावमय, किंतु अपने आपको ज्ञानानंदरूप में अनुभव नहीं कर सकते। बाह्यपदार्थों की ओर ही दीनवृत्ति बनाए हुए हैं, मुझे अमुक से बड़ा ही सुख है, मुझे अमुक बड़ा आराम देता है। अरे, वह सुख और आराम तुम्हारे ही आनंदगुण की पर्याय है, परपदार्थों के गुणों की पर्याय नहीं है। इस तत्त्व को भूलकर पर की ओर एहसान का भाव रक्खा है तो वह भी अपने आप पर अन्याय है। दूसरों पर एहसान डालना और दूसरों का एहसान मानना ये दोनों ही बातें अपनी प्रभुता पर अन्याय करने की हैं, परमार्थदृष्टि से विचारो।
आध्यात्मक्षेत्र की स्वच्छता- भैया ! लोकव्यवहार में तो दूसरों का ऐहसान मानने को गुण कहते हैं, कृतकृत्यता कहते हैं। बड़ा भला पुरुष है, दूसरों के उपकार की इसे सुध तो है। पर अध्यात्मक्षेत्र में दूसरों पर ऐहसान डालना और दूसरों का ऐहसान मानना- ये दोनों ही विकारकारक हैं। दूसरों पर ऐहसान थोपने में मान का दोष लगता है, तो दूसरों का ऐहसान मानने में दीनता का दोष लगता है। यह अध्यात्मक्षेत्र की बात कह रहे हैं। क्या व्यवहार में दूसरे के प्रति कृतज्ञता का भाव न किया जायेगा? किया जायेगा पर जिसे अपने आपके ज्ञानस्वरूप में संकल्प विकल्प है, ठहरने की धुन लगी है इसके लिए तो ये सारी बातें सुगम हैं।
अपूर्व प्रेम का एक दृष्टांत- एक पौराणिक घटना है कि जब रामचंद्र जी लंका विजय करके आये और खुशी में राजावों को सबको कुछ कुछ देश बांट दिये कि तुम अमुक देश पर राज्य करो, तुम अमुक देश पर राज्य करो, सबको वितरण कर दिया। एक हनुमान को कुछ न दिया। अब हनुमान जी खड़े होकर पूछते हैं, हे राम ! सबको तो तुमने सब कुछ दिया और मुझे कुछ नहीं दिया, इसका क्या कारण है? तो राम कहते हैं कि हम तुम्हें भी कुछ देते हैं, सुनो- मय्येव जीर्णतां यातु यत्त्वयोपकृतं कपे। नर: प्रत्युपकारार्थी विपत्तिमभिवान्छति।। हे हनुमान ! तुमने हमारा बहुत उपकार किया, मैं जानता हूं। बड़े-बड़े संकटों से तुमने मुझे बचाया, मैं जानता हूं, सीता का पता तुमने ही लगाया और इस युद्ध में भी जब-जब संकट आया तो तुमने ही सहारा दिया, जब भाई लक्ष्मण के रावण की प्रक्षिप्त शक्ति लग गई, मूर्छित हो गए तब भी उपाय तुमने ही किया, बहुत उपकार है तुम्हारा। लो अब तुमको उसके एवज में कुछ देते हैं सुनो, हे हनुमान जी, तुमने हमारा जितना उपकार किया है वह सब उपकार मुझमें खत्म हो जाय, मैं बिल्कुल भूल जाऊँ, यह बात मैं तुम्हें देता हूं।
आंतरिक मर्म- भैया ! क्या सुना? क्या दिया? तुमने जो कुछ हमारा उपकार किया उस सब उपकार को मैं बिल्कुल भूल जाऊँ, एक भी तुम्हारा उपकार मुझे याद न रहे। यह मैं देता हूं। शायद आप लोग यह सोच रहे होंगे कि यह बुरी बात है। अरे राम तो यह कह रहे हैं कि मैं तुम्हारे सब उपकार को भूल जाऊँ। कोई पूछता है- क्यों साहब क्या दिया राम ने? तो दूसरी पंक्ति में इसका समाधान कर रहे हैं कि देखो हे हनुमान ! यदि तुम्हारा उपकार मुझे याद रहेगा तो मैं यह चाहूंगा कि मैं हनुमान का बदला चुकाऊँ। बदला चुकाऊँ का अर्थ यह है कि हनुमान पर कोई विपदा आये तो उस विपदा को दूर करूँ, प्रत्युपकार करूँ। ऐसी भावना यदि मुझमें जग जाय तो मैं इसको उत्तम नहीं समझता हूं। जो मनुष्य प्रत्युपकार की इच्छा रखते हैं उन्होंने आपत्ति तो पहले ही चाह ली कि इस पर कोई आपत्ति आए तो मैं इसकी आपत्ति को दूर करूँ। सो हे हनुमान ! मैं तो यही चाहता हूं कि तुम पर कोई आपत्ति न आए। प्रत्युपकार करने की इच्छा तब होती है जब यह भावना हो कि इस पर संकट आए तो मैं भी इसका संकट दूर करूँ। देखिये, ऐहसान धरने में तो मदविकल्प है ही, किंतु ऐहसान मानने में भी तो पहिली बात यह है कि दीनता आई, दूसरी बात यह है कि प्रत्युपकार के माध्यम से विपत्ति चाह ली। तो हुआ ना, दोनों में चित्तत्त्व पर अन्याय। यह अध्यात्मिकक्षेत्र की बात कही जा रही है।
शांति की ज्ञानसाध्यता- भैया ! जितनी भी प्रवृत्तियां है, चाहे वह लोकप्रवृत्ति हो, चाहे व्यवहारप्रवृत्ति हो वे सब अशांति को उत्पन्न करने का स्वभाव रखती हैं। शांति उत्पन्न करने का स्वभाव तो केवल ज्ञातृत्व में है। ज्ञान द्वारा ज्ञान के स्वरूप को निहारने में ही शांति उत्पन्न होती है। शांति का दूसरा कोई उपाय नहीं है। तब फिर ऐसा ही उद्यम करें कि जिससे परपदार्थों में हमारी ममता बुद्धि न जगे। भीतर में ज्ञान का झक्काटा तो हो जाय, समझ में एक अटूट बात तो आ जाय कि यह अपने स्वरूप में पूर्ण है। मैं अपने स्वरूप में पूर्ण हूं। सर्व पदार्थ स्वतंत्र हैं। यह तो ज्ञानी की बात है। ऐसा ज्ञान जगे कि मैं मैं ही हूं, पर पर ही हैं। अपने में अहं और ज्ञानमात्र का अनुभव बने तो यह जीव परपदार्थों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। मुक्ति से बढ़कर वैभव और कुछ नहीं है।