वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 44
From जैनकोष
दृश्यमानमिदं मूढस्त्रिलिंगमवबुध्यते।
इदमित्यवबुद्धस्तु निष्पन्नं शब्दवर्जितम् ।।44।।
बहिरात्मा का निज के विषय में अनुभवन- बहिरात्मा जीव जिसको कि बाह्यपदार्थों में आत्मबुद्धि हो गयी है और इसी कारण जो अपने स्वरूप से भ्रष्ट हो गया है वह अपने आपके बारे में क्या कुछ अनुभव करता है या नहीं, इस जिज्ञासा के समाधान में यह श्लोक आया है। वस्तुत: देखो तो जितने भी जीव हैं वे सब चाहे पर के बारे में श्रद्धा हो या अपने विषय में श्रद्धा हो, चाहे मिथ्यादृष्टि हो, चाहे सम्यग्दृष्टि हो, अनुभव तो निरंतर करता ही रहता है और अपना ही अनुभव करता है। मिथ्यादृष्टि जीव अपना किस प्रकार का अनुभव रखता है? इसके विवरण में इस श्लोक को कहा गया है। मूढ़ पुरुष इस दृश्यमान शरीर को आत्मा रूप से मानता है और चूँकि इस शरीर में पुरुष लिंग, स्त्रीलिंग, नपुंसक लिंग ये चिह्न हैं, सो अपने को ही मैं पुरुषलिंगी हूं, मैं स्त्रीलिंगी हूं, मैं नपुंसकलिंगी हूं इस प्रकार का अनुभव किया करता है।
निज का परमार्थस्वरूप- भैया ! परमार्थत: तो न कोई आत्मा पुरुष है, न कोई आत्मा स्त्री है, न कोई आत्मा नपुंसक है, किंतु ज्ञानदर्शनात्मक चेतन सत् है। विभावपरिणाम का निमित्त पाकर जीव कैसी-कैसी शरीर स्थितियों में बँधता है यह बात तो अलग है किंतु स्वरूप तो सर्व से विविक्त एक चैतन्यस्वरूपमात्र है। अपने आपमें ऐसा अनुभव किया जाना चाहिए कि मैं मनुष्य भी नहीं हूं, मैं तो एक चिद्रूप सत् हूं।
अज्ञानी और ज्ञानी के अनुभवन में अंतर- अहो, बंधन बद्धता के कारण इस जीव में कैसा अभिमान हो गया है, शरीर में अहंकार हो गया है कि इसकी प्रतीति बदल गई, इसकी वचन पद्धति बदल गयी और विचार संस्कार भी बदल गये। महाभाग, जिसका होनहार उत्तम है, वह आत्मा देह में रहता हुआ भी अपने में देहरूप का अनुभव नहीं करता है।
लिंगात्मक अनुभवन में अकल्याण- कोई स्त्री अपने आपको ‘मैं स्त्री हूं’ ऐसा अनुभव रक्खे तो वह संसार से पार नहीं हो सकता, यों ही कोई पुरुष अपने आपको ‘मैं मर्द हूं, पुरुष हूं’ ऐसा अनुभव कर ले तो वह भी संसार से पार नहीं हो सकता। जब यह देह भी मैं नहीं हूं तो देह में होने वाले चिह्नों से अपने आपको पुरुष अथवा स्त्री रूप समझना यह समीचीनता से परे है। मूढ़ पुरुष ही अपने आपको इन तीनों लिंगों रूप से अनुभव किया करता है। मूढ़ कहो, मोही कहो दोनों का एक ही अर्थ है। किंतु लोग मोही शब्द सुनकर रुष्ट नहीं होते और मूढ़ कह दो तो रुष्ट हो जाते हैं।
व्यामोह में बुद्धि का दुरुपयोग- दो युवक मित्र सैर सपाटा करने जा रहे थे। रास्ते में एक बुढ़िया मिली। उन्होंने कहा रामराम। बुढ़िया ने कहा खुश रहो। वे दोनों आगे बढ़ गये। रास्ते में उन दोनों में परस्पर में विवाद हो गया। एक युवक बोला कि बुढ़िया ने तो मुझे आशीर्वाद दिया, तो दूसरा युवक बोला कि नहीं, मुझे आशीर्वाद दिया? दोनों में झगड़ा हुआ। तय हुआ कि अपन वापिस चलें और बुढ़िया से पूछे कि तुमने किसे आशीर्वाद दिया। पूछा- बुढ़िया मां, तुमने हम दोनों में से किसे आशीर्वाद दिया? बुढ़िया बोली कि तुम दोनों में से जो अधिक मूर्ख होगा उसे आशीर्वाद दिया। इस पर भी वे दोनों लड़ गये यह कहते हुए कि हम ज्यादा मूर्ख हैं।
मूढ़ता की दो कहानी- बुढ़िया ने एक से कहा कि बताओ कि तुम कैसे बेवकूफ हो? उसने कहा कि मेरी दो शादी हुई, दोनों स्त्री हैं। मैं जब अटारी पर से नीचे उतर रहा था तो एक स्त्री ने ऊपर से हाथ पकड़ लिया और दूसरी स्त्री ने नीचे से पैर पकड़ लिया। दोनों में आपस में खींचातानी हुई। ऊपर की स्त्री कहे कि ऊपर आओ, नीचे की स्त्री कहे कि नीचे आओ, इस तानातानी में मेरा यह वाला पैर टूट गया और अब देखो कि मैं लँगड़ा हो गया हूं।
अब बुढ़िया ने दूसरे से कहा कि अच्छा बताओ कि तुम कैसे मूर्ख हो? दूसरा बोला कि मेरे भी दो स्त्रियां हैं। मैं पलंग पर पड़ा था। एक स्त्री मेरे बायें हाथ पर सिर रखे सो रही थी और दूसरी स्त्री दायें हाथ पर सिर रखे सो रही थी। रात का समय था, सरसों के तेल का दिया जल रहा था। एक चूहा आया, उसने जलती हुई तेल की बाती को अपने दांतों से पकड़ कर गिरा दी। वह बाती हमारी आंख पर आकर गिरी। मैंने उस बाती को उठाया नहीं। मैंने सोचा कि यदि इस हाथ से उठाता हूं तो इस स्त्री को कष्ट होगा और यदि इस हाथ से उठाता हूं तो इसे कष्ट होगा। सो देखो मेरी एक आंख चली गयी, मैं कितना मूर्ख हूं? बुढ़िया बोली कि ठीक है बेटा, मैंने तुम दोनों को आशीर्वाद दिया।
अहंता और ममता का प्रकोप- भैया ! मूढ़ कहो या मोही कहो- दोनों में कुछ अंतर नहीं है। मोह करने वाले का नाम ही मूढ़ है और उसी का नाम मोही है। यह मूढ़पुरुष अपने आपको पुरुषरूप में, स्त्रीरूप में अथवा नपुंसकरूप में अनुभव किया करता है। इतना ही नहीं, बल्कि इसके ही तो माध्यम से यह अपने को कि मैं बच्चों वाला हूं, मैं बच्चों वाली हूं, मैं धनिक हूं, मैं सुभग हूं, कुरूप हूं आदि नाना प्रकार के अनुभव यह जीव किया करता है, किंतु हे आत्मन् ! ये तेरे नाना अनुभव तेरी बरबादी के लिए हैं, इनमें तू हर्ष मत मान। अपने आपको सबसे न्यारा ज्ञानानंदमात्र ही अनुभव किया कर। मोही जीव अपने को नानारूप अनुभवता है, किंतु ज्ञानीपुरुष अपने को ‘अनादिसिद्ध, स्वत:सिद्ध’ शब्दमात्र से भी रहित यह चैतन्यप्रकाशमात्र मैं हूं- ऐसा अनुभव किया करता है।
मैं-मैं में क्लेश है, प्रसिद्ध बात है-
जो मैं ना मैं ना कहती है, पिंजड़े में पाली जाती है।
जो मैं-मैं, मैं-मैं करता है, वह अपना गला कटाता है।।
अर्थ यह है कि जो अपने को मैं मैं कहा करता है, वह बुरी तरह से बरबाद होता है और जो अपने को न कुछ मानता है, उसका कभी कोई बिगाड़ नहीं है।
स्वार्थसाधना में छलव्यवहार- बहुत समय पहिले की बात है- ‘माधुरी’ पत्र निकलता था। उसमें एक कहानी आयी, बचपन में मैंने (मनोहरजी वर्णी ने) पढ़ी थी। कहानी यह थी कि एक नटखट लड़का था। नाम तो उसका रामू था, पर उसने किस किस जगह क्या क्या नाम बताकर कैसे-कैसे चकमा दिया, इस बात को सुनो- वह पाव भर रसगुल्ले लेकर चला। एक गांव के किनारे एक धोबी कपड़े धो रहा था, उसका छोटा लड़का भी उसके संग में था। धोबी के लड़के को उसने रसगुल्ला खिला दिया। उसे मीठा लगा तो वह उनको खाने के लिए मचल गया, मैं तो और खाऊँगा। धोबी पूछता है कि अरे, तूने इसे क्या खिला दिया? वह बोला रसगुल्ला, रसगुल्ला। धोबी ने पूछा कि कहां होते हैं? अरे चले जावो, ये बाग खड़े हैं, वहां से तोड़ लावो।
अब वह धोबी चला अपने लड़के को लेकर रसगुल्ले तोड़ने। सारे कपड़े बर्तन वहीं रख गया। उस लड़के से कह गया कि थोड़ी देर इसे देखते रहना। अब इस लड़के ने यहां क्या किया कि थाली लोटा व बढ़िया कपड़े लेकर चंपत हो गया। धोबी ने पहिले उसका नाम पूछ लिया था- उसने बताया था कि मेरा नाम है कलपरसों। अब धोबी को कहीं रसगुल्ले न दिक्खे तो वह हैरान होकर गुस्से में वापिस आया तो देखा कि अच्छे कपड़े, थाली, लोटा गायब। तो वह चिल्लाने लगा कि दौड़ों भाईयों मेरे कपड़े कलपरसों ले गया। लोग आये और कहा कि अरे, कलपरसों कपड़े कोई ले गया तो आज क्यों रोते हो?
माया में मायाचार- वह लड़का बहुत दूर बढ़ गया। आगे जाकर एक घुड़सवार मिला। घुड़सवार को प्यास लगी। उस लड़के के पास लोटा डोर थी, उसने पूछा कि अच्छा तुम्हारा नाम क्या है? उसने कहा कि मेरा नाम है, कर्ज देने में। वह उस लड़के को घोड़ा पकड़ाकर कुवे का पानी पीने लोटा डोर लेकर चला गया। अब घुड़सवार चिल्लाता है कि अरे भाईयों, दौड़ों, कर्ज देने में मेरा घोड़ा ले गया। लोग आए और कहा कि ओ भाई, कर्ज देने में घोड़ा ले गया तो क्या बुरा किया?
मैं मैं की प्रतिक्रिया- अब वह लड़का एक शहर में पहुंचा, सोचा कि कहां ठहरूँ? एक धुनिया का घर था, वहां उतर गया। धुनिया तो वहां था नहीं, कहीं बाहर गया था, घर में धुनिनी थी। वह उससे कहता है- मां मुझे रात्रि भर ठहर जाने दो, सवेरा होते ही अपने घर चला जाऊँगा। तो उसने कहा- अच्छा बेटा ! ठहर जावो। क्या नाम है तुम्हारा? तो वह लड़का बोला मेरा नाम है, तू ही तो था। अच्छा तू ही तो था, बेटा ठहर जावो। वह ठहर गया। पास में थी एक बनिये की दुकान, वहां से शक्कर, घी, आटा, दाल सब ले लिया और कहा कि सबेरे तुम्हारे सब पैसे चुका देंगे। वह बढ़िया कपड़े पहिने था सो उसे उस लड़के की बात पर विश्वास हो गया। उसने नाम पूछा तो बताया कि मेरा नाम, मैं ही था। उसने रोटी बनाई और जहां रूई रक्खी थी वहां पर धोवन डाल दिया। अब वह तो रात्रि व्यतीत होते ही सुबह चला गया। दोपहर में धुनिया आया सारी रूई खराब देखी। तो वह पूछता है कि यहां रात्रि को कौन ठहरा था? तो स्त्री कहती है कि तू ही तो था, क्योंकि यह नाम ही था उसका। उसने कहा ठीक-ठीक क्यों नहीं बताती? कहा, तू ही तो था। उसने डंडे लेकर दो चार जमाये। अब वह बनिया आकर दया करके बोलता है, अरे भाई, इसे मत मारो जो यहां ठहरा था, वह मैं था। लो वह बनिया पीटा।
लिंगात्मक मायास्वरूप की हेयता- तो भैया! जो मैं मैं करता है वह पीटा जाता है। अच्छा घर गृहस्थी और समाज में भी देखो- क्या दु:ख है? यदि यह जान जायें कि मैं तो सबसे अपरिचित चैतन्यतत्त्व हूं तो किसी बात का झगड़ा ही नहीं है। अज्ञानी जीव को शरीर से भिन्न इस निज आत्मतत्त्व की प्रतीति नहीं है, इस कारण वह अपने को नानारूप मानता है। अभी किसी छोटी बच्ची से कहो कि तू तो लड़का है तो वह लड़की कहेगी कि हट, तू ही होगा लड़का, मानों वह समझती है कि लड़का होना खराब बात है। लड़के को कहो कि तू तो लड़की है, तो वह कहेगा कि हट, तू ही होगा लड़की। तो लड़का जानता है कि लड़की होना खराब है और लड़की जानती है कि लड़का होना खराब है। तो उसका अर्थ यह हुआ कि दोनों होना ही खराब है। जब लड़की को लड़का सुनना पसंद नहीं और लड़के को लड़की सुनना पसंद नहीं तो इसका अर्थ यह हुआ कि दोनों ही होना खराब है।
मनुष्य में मान की टेव- अपने को मानो कि मैं सबसे विविक्त एक यथार्थ ज्ञानात्मक तत्त्व हूं। यह सब स्वप्न का सा बड़ा विकट झमेला है। किंतु कोई गम नहीं खाता, इसी को सार मानकर इसी में आसक्त हुआ जा रहा है। मनुष्यगति में मान कषाय की प्रबलता है, सो मानों अपने सिद्धांत की बात मनुष्यजन रख रहे हैं कि कहीं सिद्धांत न गलत हो जाय। नरक गति में क्रोध कषाय अधिक है, तिर्यंचगति में माया कषाय अधिक है और देवगति में लोभ कषाय अधिक है। सो मानों मनुष्य ऐसा सोच रहे हैं कि खूब मान किए जावो नहीं तो कहीं ऐसा न हो कि जैन शास्त्र गलत हो जायें। यह हँसी की बात कह रहे हैं। जैन शास्त्र यह भी तो कह रहे हैं कि मनुष्य कर्म काटकर मुक्ति प्राप्त करता है, ऐसा क्यों नहीं किया जाय?
मान का अनुद्वमन- देहरादून के चातुर्मास में एक डेढ़ मील रोज घूमने जाना पड़ता था सुबह के समय। तो रास्ते में कुछ पंजाबियों के या और किसी के लड़के गोली, पतंग इत्यादि खेल खेला करते थे। तो कभी कभी ऐसा मन में आता था कि बहुत दिनों से गालियां सुनने को नहीं मिली हैं चलो इनके खेल को पैरों से थोड़ा मिटार दें तो कुछ न कुछ तो सुनने को मिलेगा ही, कुछ न कुछ गालियां तो देंगे। मैंने मिटार भी दिया तो किसी लड़के ने कुछ गाली दी, किसी लड़के ने कुछ गाली दी। सो वह मन बहलावे की बात थी। क्योंकि जानते हैं कि बच्चों की गालियां मधुर होती हैं। मान कषाय इस मनुष्य में कूट-कूट कर भरी हुई हैं।
व्यामोहियों से आशय में व्यामोह का महत्त्व- यह समझना चाहिए कि मेरे को जानने वाला कोई है ही नहीं। भीतर प्रवेश करके देखो मेरा क्या स्वरूप है? क्या यह दृश्यमान शरीर मैं हूं? यदि यह शरीर मैं हूं तो यह बहुत बुरी तरह से जला दिया जाता हूं मृत्यु के बाद। इस घर के ही लोग इस मुर्दा को बहुत देर तक रखना पसंद नहीं करते, जिसकी बड़ी सेवा की जाती है। करीब-करीब ऐसा रोज आंखों में दृश्य आया करता है, फिर भी अपने आपके बारे में ऐसा सुझाव नहीं होता है कि क्या रक्खा है इस शरीर की मान्यता में? इस शरीर को ही लोग महत्त्व दिया करते हैं। आत्मा को कोई महत्त्व नहीं देता। आत्मा तो अमूर्त है, ज्ञानानंद-स्वरूप है। इसकी ओर किसकी दृष्टि है? अज्ञानी की इस शरीर पर दृष्टि है, सो शरीर जैसा है उस ही रूप यह अपने को अनुभव किया करता है।
आत्मा की स्वत: निष्पन्नता- किंतु अंतरात्मा को देखो वह अपने आत्मा को देखता है कि मैं अनादि सिद्ध हूं, पैदा भी होने वाला नहीं हूं, किसी गति से आता किसी गति से जाता हूं, फिर भी सदा रहता हूं। जैसे कोई पुराने घर को बदलकर नये घर में पहुंचता है तो क्या कोई खिन्न होकर जाता है? वह तो खुश होकर पहुंचता है। यों ही यह जीव पुराने शरीर को बदलकर नये शरीर में पहुंचता है, वहां हो रहे है ये सब काम, उसमें खेद की बात क्या है? किंतु जिसको शरीर ही आत्मा विदित है उसको तो उस समय बड़ा संक्लेश होता है। यह मैं आत्मा स्वत: निष्पन्न हूं, किसी अन्य पदार्थ से रचा हुआ नहीं हूं, मेरे उत्पन्न करने वाले माता पिता नहीं हैं। यह परमार्थ स्वरूप की बात कही जा रही है। यह अज है।
आत्मा की शब्दवर्जितता- इस आत्मतत्त्व में किसी प्रकार का शब्द ही नहीं है। जीव यह ज्ञान करता है तो ज्ञान करने से पहिले या साथ साथ इसको अंतरंग में कोई शब्द उठा करते हैं। अच्छा हम आपसे पूछें कि यह क्या चीज है, इसको जानो? तो आप जान तो लें पर अंतरंग में घ और ड़ी ऐसे शब्द न बनावो और जान जावो। तो ऐसे जानने में आपको मुश्किल पड़ रही होगी। वस्तु के जानने के साथ अंतरंग में कुछ शब्द उठा करते हैं। तो आचार्यदेव यह बताते हैं कि व्यवहारिक संस्कार के कारण ऐसा हो जाता है, परमार्थत: तेरे में तो शब्द ही नहीं है। यह जीव अपने को किसी रूप अनुभव करने से पहिले अथवा उस अनुभव करता है तो उस अनुभव के साथ-साथ इसमें कोई शब्द उठा करते हैं, अरे तू तो शब्दों से भी रहित है अथवा शब्दमूलक जो अनुभव है, उस अनुभवरूप तू अपने को क्यों मानता है? अपने आपको शब्द रहित स्वत: सिद्ध एक चैतन्यस्वरूप मान कि यह मैं हूं और इस मुझ स्वरूप के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नटखट यह मैं कुछ नहीं हूं।
देहविविक्त ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व की भावना- भैया ! ये सब मायास्वरूप हैं, जो नष्ट हो जाते हैं। मैं कभी नष्ट नहीं होता। यह मैं परमार्थ रूप एक चैतन्यस्वरूप हूं। अपने आपमें बिना गिने जाप करो कि यह मैं इस शरीर से भी न्यारा ज्ञानमात्र हूं। देखो किए बिना कुछ न होगा। और करना भी क्या है धर्म के लिए? मात्र भावना। क्योंकि, यह जीव भावना के सिवाय अन्य कुछ किया भी नहीं करता है। और धर्म के प्रसंग में तो भावना ही एक कर्तव्य है। अपने आपमें ऐसी भावना बिना गिने बहुत काल तक बनावो, कहीं भी बैठे हो, सब ओर का ख्याल छोड़कर के मैं शरीर से भी न्यारा ज्ञानमात्र हूं- इस प्रकार की बारबार की भावना करने से अर्थात् ज्ञानभावना होने से अविद्या का संस्कार खत्म होगा और अपने आपको ज्ञानरूप अनुभूति प्रकट होगी। जब ज्ञानरूप में अपने को अनुभूति प्रकट हो लेगी उस काल में अलौकिक आनंद प्रकट होगा। बस उस ज्ञान और आनंद के अनुभव का नाम ही सम्यक्त्व का अनुभव है। ऐसा जिसका अनुभव हो जाता है उसे फिर ये सब विषय सुख, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, प्रतिष्ठा, यश, वैभव सब कुछ उसे असार जंचने लगते हैं। वह बार-बार अपने ज्ञानस्वरूप में प्रवेश करने का यत्न किया करता है।
अज्ञानी और ज्ञानी के भाव में अंतर और परिणाम- भैया ! यों देखो- अज्ञानी के और ज्ञानी के भावों में कितना अंतर है? अनुभव में भी कितना अंतर है? अज्ञानी अपने को पुरुष, स्त्री, नपुंसक आदि रूप मानता है और ज्ञानीपुरुष अपने को स्वच्छ, शुद्ध, शब्द रहित ज्ञानानंदस्वभावमात्र मानता है। देखो मानने के सिवाय और कुछ कर ही नहीं रहा है, इस मानने को बदल दें भीतर में, तो मोक्ष का मार्ग निकट है। यदि पहिले ही जैसी मान्यता बने कि यह दृश्यमान् मैं हूं, ये मेरे हैं, मेरे कुटुंबी हैं, इनसे मेरा हित है, सुख है, इनसे ही मेरा जीवन है, ऐसी मान्यता बनी रहेगी तो इस खोटी मान्यता में क्लेश ही क्लेश हैं। इससे तो जन्ममरण की परंपरा बढ़ती रहेगी। ऐसा जब भी ख्याल आये तो एक बात पकड़कर रह जायें, ऐसा अनुभव करें कि मैं देह से भी न्यारा केवलज्ञान स्वरूप हूं। ऐसा ही अंतर में निरखिये तो इस पुरूषार्थबलसे ज्ञानस्वरूप का अनुभव जगेगा और सत्य आनंद की प्राप्ति होगी।