वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 50
From जैनकोष
आत्मज्ञानात्परं कार्यं न बुद्धौ धारयेच्चिरम्।
कुर्यादर्थवशात्किं चिद्वाक्कायाभ्यामतत्पर:।।50।।
ज्ञानी के प्रधान कर्तव्य और परिस्थितिकृत्य का वर्णन- आत्मज्ञान के अतिरिक्त अन्य कार्य बुद्धि में देर तक मत रखिये। किसी प्रयोजनवश कुछ करना पड़े तो वचन और काय से अतत्पर होकर, तल्लीन न होकर उसे किया जाए। पूर्व श्लोक में यह बताया गया था कि जिन प्राणियों को शरीर में आत्मा का भ्रम है, उनको तो यह सारा जगत् विश्वास के योग्य लगता है और रमणीक लगता है, किंतु जिनकी निज आत्मा में ही यह मैं आत्मा हूं- ऐसी दृष्टि रहती है उन संतपुरुषों को कौनसा पदार्थ विश्वास के योग्य है और कौनसा पदार्थ रमण करने के योग्य है- ऐसी बात जानने के पश्चात् यह जिज्ञासा होनी स्वाभाविक है, तो फिर ज्ञानी पुरुष भी किसी कारण से घर में रहता है, लोकव्यवहार करता है और विषयों को भोगता है। इसकी क्या वजह है? इसके समाधान में इस श्लोक को समझिये।
मात्र आत्मज्ञान की धारणीयता- समाधान भी हो जाए, ऐसा शिक्षा के रूप में कहा जा रहा है कि हे भव्य प्राणियों ! आत्मज्ञान ही एक नि:शंक सदा धारणा करने के योग्य है। अपनी बुद्धि में यह मैं आत्मा सर्वपदार्थों से न्यारा केवल ज्ञानानंद परमार्थ सत् हूं- ऐसी प्रतीति बनाओ। देखो जगत् में सारा दु:ख व्यर्थ का है। इस आत्मा का दूसरा कोई कुछ लगता है क्या? इस अमूर्त ज्ञानानंदघन आत्मा के साथ किसी पर का कुछ संबंध है क्या? कुछ भी तो नहीं।
खूब ध्यानपूर्वक विचार कीजिए, जिसे आपने समझा हो कि यह मेरा लड़का है, मेरी स्त्री है, मेरा अमुक है, वे सर्व तुमसे जुदे हैं। जगत् का प्रत्येक पदार्थ अपने चतुष्टय में रहा करता है, आपके चतुष्टय से सर्वथा जुदा है, फिर उनमें क्या बुद्धि धारण करना, उनमें उपयोग न फंसावो। लेकिन हो कहां रहा है ऐसा? उपयोग अपने निजस्थान को छोड़कर मानो खूँटा तोड़कर बाहर भगा जा रहा है। जैसे बछड़ा खूँटा तोड़कर बाहर भागता है, यों ही उपयोग अपने स्थान को छोड़कर बाहर भगा जा रहा है। सार कुछ नहीं है।
फुटबाल की तरह मोही की दशा- भैया ! फुटबाल की तरह भागे कहां जा रहे हो? जिसके पास जावोगे, उसी के पास से ठोकर लगेगी। फिर लौटकर आना पड़ेगा। लौटकर कहां आयेगा? अपने निज विश्राम का तो परिचय नहीं है, लौटकर किसी और जगह जाएगा तो वहां भी ऐसी ठोकर लगेगी कि फिर और जगह भागना पड़ेगा। यह फुटबाल एक स्थान पर बैठी रहने के लिये नहीं बनी है। कोई सुहावनी गेंद खरीद ले बाजार से तो क्या वह उसे देखता ही रहेगा? अरे वह तो फुटबाल है, फुट की बाल है, पैर की ठोकर लगे, ऐसा गेंद है।
इसी प्रकार यह संसारी प्राणी किसी जगह स्थित रहने के लिये नहीं है। यह फुटबाल की तरह यहां से ठोकर खाया और दूसरी जगह पर पहुंचा, वहां से ठोकर खाया तो तीसरी जगह पहुंचा, यों ही इधर उधर डोलता रहता है, यों ही अज्ञानी का उपयोग फुटबाल की तरह ही यत्र तत्र धक्के खाता फिरता है। कहां बुद्धि लगाते हो? कोई भी पदार्थ बुद्धि लगाने लायक नहीं है, लेकिन ऐसा हो कहां रहा है?
ज्ञानलक्ष्मी की उपासना- अहो ! आजकल ज्ञान का स्थान धनवैभव ने ले लिया। प्राचीनकाल में ज्ञान का ही नाम लक्ष्मी था, विद्या का नाम लक्ष्मी था, क्योंकि लक्ष्मी शब्द का अर्थ लक्षण, लक्ष्य, लक्ष्मी है। तीनों का एक ही मतलब है। तो हमारा जो लक्षण है, वही हमारी लक्ष्मी है। हमारा लक्षण है ज्ञान। ज्ञान ही लक्ष्मी थी और यह ज्ञानलक्ष्मी सर्वप्रकार उपादेय है। तन जाये तो जाये, पर ज्ञानलक्ष्मी प्रसन्न रहे तो कुछ नहीं बिगड़ता है। सब कुछ जाये तो जाए, पर ज्ञानलक्ष्मी प्रसन्न रहे तो कोई भी तो आपदा नहीं है। जहां ज्ञान को स्पष्ट जान रहा हो कि मैं सबसे ही न्यारा ज्ञानमात्र हूं- ऐसे इस जाननहार ज्ञानी संत पर क्या आपदा हो सकती है? नहीं हो सकती।
विडंबना में शान की होड़- आपदा वहां ही हुआ करती है, जहां या तो जीवन से प्रेम है या धन से प्रेम है। जिसको जिंदा बने रहने से प्रीति है, उसको कर्म सताया करते हैं; जिसको धन से प्रीति है, उसको भी कर्म सताया करते हैं। अरे किन जीवों में धनी बनने के लिए दौड़ लगाये जा रहे हो? कुछ मौलिक प्रयोजन की बात निर्णय में तो रक्खो। किसको बताने चलें कि मैं बड़ा हूं। किनमें महत्त्व करने के लिए धनी बनने की होड़ लगायी जाती है? ये अपवित्र शरीर वाले खुद भी विनाशीक हैं। यहां मलिन परिणाम वाले जगत् के मनुष्यों को यह समझाने के लिए कि मैं धनी हूं, होड़ लगायी जा रही है क्या? अरे एक प्रभु को प्रसन्न करने का ध्यान होता तो कुछ हाथ भी रहता। अब मायामयी अपवित्र गंदे पदार्थ वाले मोही मानवों को प्रसन्न करने का आशय बनाया तो अपने आपको बलहीन कर लिया। आत्मबल नहीं रहा। किसे बड़ा देखना चाहते हो? यह धन आता है तो आने दो, किंतु चित्त में वान्छा न रक्खो कि मुझे तो इतना होना ही चाहिए।
आत्मनिर्णय पर सुख की निर्भरता- देखिए भैया ! सुखी करने कोई दूसरा न आयेगा। खुद के ही विचारों से सुख हो सकता है और खुद के ही विचारो से दु:ख हो सकता है। अपने आपमें अपने आपका सत्य स्वरूप देखो। किसी को प्रसन्न करने का मन में आशय न बनाओ, किंतु अपने आपको प्रसन्न करने का, निर्मल बनाने का, निश्चित रहने का आशय बनावो और ऐसा ही यत्न करने का प्रोग्राम बनाओ, आत्मज्ञान से बढ़कर इस जगत् में अन्य कुछ है ही नहीं। धन कन कंचन राजसुख ये सब सुलभ हैं, किंतु एक यथार्थ ज्ञान होना, आत्मा के परमार्थस्वरूप का परिचय पाना यह अत्यंत कठिन चीज है। कठिन क्यों है इस आत्मज्ञान की सिद्धि? धन वैभव हाथी घोड़ा इज्जत ये सब किसी काम नहीं आते, पर अपने आपका यथार्थस्वरूप ज्ञात हो जाय तो यह अतुल निधि है। हुआ सो हुआ। सारा क्लेश दूर हो जाता है। हम ज्ञान के अतिरिक्त अन्य कुछ भी कार्यों में बुद्धि न लगायें।
निवृत्ति के भाव से प्रवृत्ति- भैया ! करना पड़ रहा है। कुछ किसी प्रयोजनवश, कर लिया, पर उसे करने योग्य मत समझो। ज्ञानी जीव की क्रियायें करना एक न करने की स्थिति की तैयारी वाली है। जैसे कोई वावदूक, अधिक बोलने वाला पीछे लग जाय, सामने आ जाय, भिड़ जाय तो कुछ प्रिय वचन या उसकी हां में हां बोल देते हैं, इसलिए कि यह टले। तो यों ही अनुराग जिन पर होता है और उन्हें करना पड़ता है तो करता है यह ज्ञानी इसलिए कि जल्दी इससे निपट लें, छुट्टी तो मिले। वचन और शरीर से अतत्पर होकर ही यह ज्ञानी, कुछ करना पड़ता है तो करता है। आत्मज्ञान से अतिरिक्त अन्य कोई बात अपनी बुद्धि में नहीं लानी चाहिए। आते तो हैं परपदार्थ अपनी बुद्धि में, किंतु ज्ञानी पुरुष अपनी बुद्धि में उन्हें अधिक देर नहीं रखता। उनके देखने सुनने लगने में अपनी बुद्धि नहीं फंसाया करते हैं। प्रयोजनवश तो जिसमें कुछ अपना या पर का उपकार है अथवा कुछ आत्महित का विचार है तो इस प्रयोजन के वश वचन और काय से कुछ करना भी पड़े तो उसे करता है।
आशय के अनुसार- आत्मकल्याणार्थी पुरुष का कर्तव्य है कि अपने उपयोग को इधर उधर न भ्रमाये और आत्मचिंतन में ही उपयोग को लगाये। जैसे किसी व्यापारी की धुन है आय होना, वह किसी बड़े पुरुष के पास तगाजे को जाता है तो वह सीधा तुरंत तकाजा तो नहीं कर सकता किंतु कुछ भी बात कर रहा हो, पर आशय यह पड़ा हुआ है कि अपने दाम लेने की बात छेड़ दी जाय। वह यहां वहां की गप्पें करता है और यह भी उन गप्पों में थोड़ा साथ देता है, पर उसकी धुन है अपनी ही चर्चा को छेड़ना।
प्रयोजनवश ज्ञानी की अतत्परता से प्रवृत्ति- यह ज्ञानी संत अतत्पर होकर कार्य करता है। जैसे मुनीम अथवा खजाने के संभालने वाले खजान्ची बैंकर्स सब उस धन को सुरक्षित रखते हैं, हिसाब रखते हैं, लेकिन चित्त में यह बात पूर्णतया बसी हुई है कि इसमें मेरी एक पाई भी कुछ नहीं है। यों ही ज्ञानी पुरुष मकान में रहता है, पैसा कमाता है, उनकी संभाल रखता है, रक्षा करता है इतने पर भी उसके चित्त में यह दृढ़ता से समाया हुआ है कि मेरे आत्मा का तो परमाणु मात्र भी कुछ नहीं है। यह ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञायकस्वरूप महान् दुर्ग में विराजमान् है, इसे रंच भी भय नहीं है, किसी शत्रु का इसमें प्रवेश नहीं है। किसी भी पर का इस चेतन गृह में प्रवेश नहीं हो सकता। फिर डर किस बात का है? जब वस्तुस्वरूप के अभ्यास से चिग जाते हैं तो वहां डर है।
ज्ञानी की अतत्परप्रवृत्ति पर एक दृष्टांत- भैया ! देखा होगा विवाह के दिनों में। पड़ौसनी गीत गाने आया करती हैं और गीत गाने के एवज में उन्हें छटांकभर बतासे मिल जाते हैं। छटांकभर बतासों के लिए वे इतना तेज गीत गाती कि जैसे मानों उन्हीं का दूल्हा हो, लड़का हो, मेरा दूल्हा, मेरा सरदार, रामलखन जैसी जोड़ी, कितने जोर से बोलती हैं और मां काम के मारे पसीने से लथपथ है, यहां यह किया, वहां वह किया, चैन नहीं मिलती है, लेकिन यह तो बतावो कि यदि दूल्हा घोड़े से गिर पड़े और टाँग टूट जाय तो क्या वे गाने वाली पड़ौसिनियां कुछ खेद मानेंगी या वह मां खेद मानेगी? पड़ौसिनियां तो गाती हैं, वे तो गाने के लिए गाती हैं। कहीं दूल्हा में उनका राग नहीं है। यों ही पडौसिनियों की तरह ज्ञानी संत वचनव्यवहार करते हैं दूसरों से, किंतु साथ ही यह भी जानते हैं कि किससे बोलें, यहां कोई मेरा प्रभु नहीं है, कोई मेरा शरण मेरा रक्षक हो यहां, ऐसा कोई नहीं है। किससे बोलें, फिर भी बोल रहे हैं। अतत्पर होकर बोल रहे हैं। धुन है आत्महित की। अंतर में वृत्ति चल रही है ज्ञायकस्वरूप में लीन होने की, किंतु बात की जा रही है दूसरों से अनेक प्रसंगों की।
ज्ञानी की निज में अनन्यमनस्कता- पनहारिनियां कुए से पानी लाती हैं और सिर पर दो तीन गगरियां रखकर चलती हैं। रास्ता चलती जा रही हैं, गप्पें भी लगाती जा रही हैं, फलानी जिजीयों, फलाने जीजायों, ऐसी बातें भी करती जाती है, किंतु उनके मूल ध्यान में गगरी को संभाल कर चलना रहता है। इस ही प्रकार यह ज्ञानी संत पुरुष भी बहुत बातें यहां वहां की करता है और अनेक प्रसंगों में भी पड जाता है पर ध्यान उसका इस ओर है कि द्वेष की ज्वाला में जल न पायें और राग में अंधे न बन जायें। इन दो बातों की सावधानी ज्ञानी पुरुष के निरंतर बनी रहती है। आत्मज्ञान से अतिरिक्त अन्य कुछ भी कार्य बुद्धि में चलता रहे यह ज्ञानी के नहीं है।
कृतार्थता के साधनों पर रुचिवश विभिन्न उत्तर- भैया ! क्या बात बन जाये तो कृतार्थ हो जावें? इसके उत्तर में कोई तो यह कहेगा कि हमारी दुकान बन जाय फिर हमें कुछ आपत्ति नहीं है, यह मकान बन जाय, लड़की का विवाह हो जाय, लड़की सयानी बैठी है इसका विवाह भर हो जाय फिर तो हम स्वतंत्र हैं। ज्ञानी संत से पूछो- क्या काम हो जाय तो तुम कृतार्थ होंगे? तो उसकी अंतर्ध्वनि निकलती है कि मैं अपने इस सहज ज्ञानस्वरूप को यथार्थ जान लूँ, और ऐसी ही जानने की स्थिति बनी रहे, तब हम कृतार्थ हैं। परपदार्थ आपके करने से क्या बनते हैं। कितने ही विकल्प किए जायें, जब समय होता है, जब भाग्य होता है तब उस कार्य की सिद्धि होती है।
शान अथवा चाकरी- सभी जीवों के भाग्य लगा है, कोई किसी को पालता नहीं है, रक्षा करता नहीं है। एक दिन के बच्चे का भी भाग्य है और कहो पिता के भाग्य से कई गुणा अच्छा भाग्य है। यह बालक तो पूर्व जन्म की सारी साधना से ताजा पुण्य लाया है, किंतु यह पिता 50-60 वर्ष की उमर हो गयी ना, तो सारे मायाचार लोभ तृष्णा करके पापों के कारण, कामवासना के कारण सारा पुण्य खो चुका है। तो उस लड़के का भाग्य उस पिता के भाग्य से बढ़कर है। इसी से उस बच्चे की पिता को चिंता करनी पड़ रही है। जो पुण्यहीन है, वह अपनी चिंता तो नहीं कर रहा है। उस पुण्यवान् बालक को हंसता हुआ पिता देखना चाहता है। पिता उसे गोद में लेकर आहार कराता है। वह लड़का इतना भाग्यवान् है, तभी तो उसकी इतनी चाकरी की जा रही है। चाकरी तो वही करेगा, जो बहुत पुण्यहीन होगा।
किसको प्रसन्न करना- इस जगत् में किस जीव को प्रसन्न रखने के लिये इतनी चेष्टा की जा रही है? अरे खुद को प्रसन्न कर लीजिए, निर्मल बना लीजिए, तो सर्वसिद्धि आपके हस्तगत हैं। बाहर बाहर के उपयोग के भ्रमाने में तो सार कुछ न आयेगा। अपनी बुद्धि में बहुत देर तक किसी पदार्थ को मत रखिये, क्योंकि यहां कुछ भी परपदार्थ विश्वास के योग्य नहीं है। कोई नाम ले लो कि कौनसा पदार्थ पर का ऐसा है कि हमारा हित कर दे, शांति दे दे। है कोई शांति देने वाला पदार्थ? खूब सोच लो कि पुद्गल तो कई प्रसंगों में जले भुनें, चेतनों में कुछ बने, वह तो अचेतन थूलमथूल पड़ा हुआ है। कई घटनाएं ऐसी होती हैं, जहां धोखा खाये, दूसरों के आगे बेवकूफ बना पड़े, हित कुछ नहीं मिला, किंतु अपना अहित ही पर के वातावरण में, पर के संबंध में पाया है। यहां जीव का कौनसा पदार्थ हितकारी है? किसको प्रसन्न करना चाहते हो? कोई रक्षक हो तो प्रसन्न करो।
जगत् में अशरणता- भैया ! यहां तो ऐसी हालत है कि जैसे किसी जंगल में ऐसी जगह हो, जहां आगे तो नदी हो, अगल बगल पहाड़ों में आग लगी हो और वहां बीच में कोई हिरण खड़ा हो और पीछे से 100 शिकारी धनुष बंदूक ताने, उस हिरण के बच्चे को मारने के लिए दौड़ रहे हो, तो अब यह अंदाज कीजिए कि उस हिरण के बच्चे की क्या स्थिति है? उससे भी भयंकर स्थिति हम आप लोगों की है। यहां कौनसा शरण है? किसको प्रसन्न रखना चाहते हो? अपने उपयोग को अपने में डुबाओ, अपने निजज्ञानस्वरूप को देखो और सदा प्रसन्न हो जावो। यही कार्य करने योग्य है। इस आत्मज्ञान के अतिरिक्त अन्य कार्य में इस बुद्धि को देर तक मत लगाइये।
प्रायोजनिक ज्ञान की आवश्यकता- आत्मा का ज्ञान अन्य आत्मावों से व समस्त अचेतनों से भिन्न अपने को समझने पर होता है, इससे समस्त पदार्थों का प्रायोजनिक ज्ञान होना आवश्यक है। जैसा वस्तु का स्वरूप है, उस स्वरूप सहित पदार्थों के परिज्ञान होने को सम्यग्ज्ञान कहते हैं। यह समस्त विश्व अनंत पदार्थों का समूह है, इसमें अनंत तो जीव हैं, उससे अनंतानंत गुणे पुद्गल हैं। एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक अकाशद्रव्य है और असंख्यात काल द्रव्य हैं। ये प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप से हैं, अपने द्रव्यक्षेत्र कालभावरूप हैं, पर के द्रव्यक्षेत्र काल भावरूप नहीं हैं। यदि इन समस्त पदार्थों में उनके असाधारण स्वरूप पर और सभी प्रकार के गुणों पर दृष्टि जाए तो साधारण गुणों पर ही दृष्टि है। समस्त पदार्थों का स्वरूप एक समान है।
अस्तित्त्व गुण की व्यापकता- कोई भी पदार्थ हो, आखिर है तो, अस्तित्व होता ही है। अस्तित्व न हो तो फिर किसकी चर्चा हैं? इससे सर्व पदार्थों में अस्तित्व गुण है, सभी पदार्थ सत् हैं। ऐसा भी कुछ है, जो न हो? किसी का नाम लो, ऐसी चीज बताओ जो नहीं है। आप कहेंगे कि कमरे में पुस्तक नहीं है। कमरे में पुस्तक नहीं है, यह तो ठीक है, पर पुस्तक वस्तु कोई चीज तो है, ऐसी चीज का नाम बतावो, जो न हो। कोई सा भी नाम लो। आप कहेंगे कि गधे के सींग नहीं होते। गधे के सींग नहीं हैं। अरे भले ही गधे के सींग नहीं होते, पर गधा कोई होता है, तब तो नाम गधा है। सींग कुछ होती है, तब तो सींग नाम है। जो है ही नहीं ऐसी चीज का नाम लो। ऐसा कोई पदार्थ ही नहीं होता। है तो है ही है। अस्तित्वगुण समस्त पदार्थों में हैं।
वस्तुत्वगुण की व्यापकता- सर्व पदार्थ हैं। हैं सो हैं, इतने से वस्तु का निर्णय नहीं हो सकता। हम हैं, हम हम ही हैं, हम अन्य कुछ नहीं हैं। इतनी बात यदि ना हो तो हम हैं नहीं रह सकते। घड़ी को उठाकर कहो कि यह है, तो यह घड़ी है। अलावा अन्य जितने दुनिया में पदार्थ हैं, वे तो यह नहीं है। यदि कहें कि यह घड़ी भी है, पुस्तक भी है, चौकी भी है तो यह कुछ नहीं रहा फिर। घड़ी तो घड़ी है, अन्य कुछ नहीं है। मनुष्य तो मनुष्य है, अन्य कुछ नहीं हैं। प्रत्येक पदार्थ में अपने स्वरूप का तो सत्त्व है और स्वातिरिक्त अन्य किसी का भी सत्त्व नहीं है। इतनी बात यदि है तो है, रह सकता है।
एक देहाती आहाना बोलते है कि छूमाबाई सासरे जावोगी? हां। मायके जावोगी? हां। कोई लड़की होगी छूमाबाई। वह नहीं जानती है कि सासरा क्या है व मायका क्या है? ऐसा अविवेक कोई वस्तुस्वरूप में करे। यह क्या है? घड़ी है। और भी कुछ यह है कि नहीं? हां सब रूप है। यह वस्तु का अविवेक है किसी भी पदार्थ को सर्वात्मक मान लेना उस पदार्थ के अस्तित्त्व को ही खो देना है। तो सब पदार्थ हैं और अपने स्वरूप से हैं, पर स्वरूप से नहीं हैं। पदार्थ में इस समय दो बातें समझ में आयी ना कि हर एक पदार्थ है और अपने स्वरूप से है और पर के स्वरूप से नहीं है।
द्रव्यत्वगुण की व्यापकता- कोई अस्तित्व व वस्तुत्व तक ही रह जाय तो काम नहीं चलता। पदार्थ है, ठीक है, पर वह ‘‘है’’ तभी रह सकता है, जब निरंतर उसका परिणमन होता रहे। उसकी दशाएँ अदल बदल होती रहें तो वह मैं ‘‘है’’ रह सकता है। अनादि से अनंतकाल तक एक ही रूप रहे- ऐसा कोई पदार्थ नहीं होता। यद्यपि स्वभावदृष्टि से सब एक रूप है, किंतु सर्वथा एकरूप रहे, उसमें कुछ परिणमन ही न हो- ऐसा नहीं होता है। कोई मनुष्य ऐसा है, जो न बालक, न जवान, न बूढ़ा, न बच्चा बना हो। क्या ऐसा कोई है? ले आवो उसे, जो सदा एक रूप रहता हो।
उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य की अविनाभाविता- भैया ! ध्रौव्य का संबंध है उत्पाद, व्यय से और उत्पाद व व्यय का संबंध है ध्रौव्य से। बनना, बिगड़ना, बना रहना- ये तीन बातें प्रत्येक पदार्थ में है। कोई पदार्थ बनता व बिगड़ता तो रहे और बना रहे- ऐसा कोई हो तो बतलावो। कोई पदार्थ बना तो रहे, पर बनता बिगड़ता रंच न हो, हो कोई पदार्थ ऐसा तो यह बताओ। जो बनता बिगड़ता हैं, वही बना रह सकता है। जो बना रह सकता है, वह नियम से प्रति समय बनता बिगड़ता है। प्रत्येक पदार्थ है, वह अपने स्वरूप से है, परस्वरूप से नहीं है, किंतु यदि परिणमनशील न हो तो उसके ये दोनों गुण भी टिक नहीं सकते। प्रत्येक पदार्थ निरंतर परिणमते रहते हैं। यह जो वस्तुस्वरूप की चर्चा छिड़ गई है, इसमें हित की बात निकलेगी और मौलिक हित बनेगा। हम पदार्थों का कैसे मोह छोड़े, इसकी शिक्षा वस्तुस्वरूप के ज्ञान में मिलेगी।
अगुरुलघुत्व गुण की व्यापकता- तीन बातें हुई हैं अब तक। पदार्थ हैं, अपने स्वरूप से हैं, पर के स्वरूप से नहीं हैं, निरंतर परिणमते रहते हैं, किंतु पदार्थ स्वच्छंद होकर न परिणमेगा कि इसको तो परिणमते रहने का हुक्म मिला है। सो वह चाहे घड़ीरूप परिणमें, चाहे चौकी रूप परिणमें, चाहे पुद्गलरूप परिणमें, चाहे जीवरूप परिणमें। यदि ऐसी बात हो, तब तो यह पदार्थ स्वयं ही मिट जायेगा। इसी कारण से तो चौथी बात प्रत्येक पदार्थ में यह है कि वह अपने ही रूप में परिणम सकेगा।
अपना परवस्तु पर अनाधिकार- यह तत्त्वज्ञान हमें यह शिक्षा देता है कि अंतर की आंखें खोलो, प्रत्येक पदार्थ मुझसे अत्यंत भिन्न है, अणुमात्र भी पर के परिणमन से मेरे में कुछ सुधार बिगाड नहीं होता है। आपका इस शरीर पर भी वश नहीं है जिस शरीर में बस रहे हो। आप इसे न दुर्बल होने दें, जब अपने से मिले हुए इस शरीर पर भी हमारा वश नहीं चलता तो फिर पुत्र स्त्री आदि अन्य लोगों पर अपना अधिकार जमायें कि मैं इनका यों करने वाला हूं- यह कितनी अज्ञानता की बात है?
प्रदेशत्व व प्रमेयत्व गुण की व्यापकता- यों वस्तु में चार गुण बताये गये हैं, किंतु साथ ही यह जानना कि वस्तु कुछ न कुछ अपनी जगह को अपने प्रदेश को घेरे हुए रहती है। न हो कुछ आकार, न हो कुछ प्रदेश तो वह पदार्थ ही क्या है? साथ ही प्रत्येक पदार्थ ज्ञान में आया करता है। यों 6 साधारण गुणों करके तन्मय समस्त पदार्थ हैं।
वस्तुस्वरूप के परिज्ञान से भेदज्ञान का उदय- इन साधारण गुणों की ही दृष्टि रखकर यह सिद्धांत विदित होता है कि समस्त पदार्थ अपने अपने स्वरूप से अद्वैत है। साधारण गुणों को असाधारण गुण का सहयोग देने की बात इनके स्वरूप में गर्भित है। ऐसे विविक्त निज एकत्वमय सर्वपदार्थों का स्वरूप जान लेने वाला ज्ञानी संत अब किस परतत्त्व को अपनी बुद्धि में धारण करे? क्या है कोई ऐसा पदार्थ संसार में जिससे कि हमारा हित हो जावे, जिससे हमें सुख की प्राप्ति हो जावे। इस दिखने वाले मायामय संसार में कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं हैं। इस कारण ज्ञानी जीव अपनी बुद्धि में किसी भी परपदार्थ को धारण नहीं करता। कदाचित् करे भी धारण यानी अपने-अपने उपयोग में तो चिरकाल तक नहीं करता।
पानी में मीन प्यासी- ओह व्यर्थ के ही दु:ख मोल ले रक्खे हैं। निज का स्वरूप तो है अनंतज्ञान, अनंतशक्ति, अनंत आनंद वाला किंतु अपने स्वरूप को भूलकर बाहर में दृष्टि देकर भिखारीपन लादा करते अपने आप पर। मोही बनकर ये जीव आशा करते हैं इंद्रियों के विषयों की और इंद्रिय विषयों के साधनों की। जैसे लोग कहते हैं कि ‘पानी में मीन प्यासी। मोहि सुनि-सुनि आवे हांसी।।’ पानी में रहने वाली मछली यह कहे कि मैं प्यासी हूं तो ऐसी बात सुनकर हँसी आयेगी या नहीं। यों ही आनंद का स्वरूप होता हुआ भी यह जीव यह अनुभव करे कि मुझे तो बड़ा दु:ख है तो यह हँसी की बात नहीं है क्या? पर हँसे कौन? जहां सभी एकसा बोट है मिथ्यात्व का, मोह का, अब वहां हंसने वाला कौन है?
वस्तुस्वरूप के पारखी का चिंतन- वस्तु के स्वरूप का पारखी ज्ञानी संत अपने उपयोग में किसी परपदार्थ को चिरकाल तक धारण नहीं करता है। वह समझता है कि मैं ज्ञानमात्र अमूर्त चेतनतत्त्व हूं। इसे कोई समझता भी नहीं है कि मैं क्या हूं। कोई समझ भी जाय तो मेरे लिए उससे कोई व्यवहार नहीं निभता। यह मैं परमार्थ कारणब्रह्म व्यवहार से परे हूं, इसका कोई परिचय करे तो क्या, न करे तो क्या? किसी भी प्रकार के पर के परिणमन से मेरे सुख दु:ख में अंतर नहीं आया करता है। सुख जैसे विचार बनावो अभी सुखी हो जावोगे, दु:ख जैसे विचार बनावो अभी दु:खी हो जावोगे। उपादान अशुद्ध है ना। अधिक धन का अभिलाषी और धनवानों पर दृष्टि देकर वर्तमान में पाये हुए धन का भी सुख नहीं ले पाता है, क्योंकि उपयोग तो तृष्णामय बना हुआ है।
संतोषार्थ एक सिंहावलोकन- आज देश में कितने मनुष्य ऐसे होंगे जो भूखों मर रहे हैं, प्राण दे रहे हैं। किसी को आधा पेट भोजन भी नसीब नहीं होता है। कुछ दृष्टि डालकर, कुछ जगह घूम फिर कर देख तो लो। लाखों और करोड़ों पुरुषों की तो ऐसी हालत है और ये तृष्णा के गुंतारों में अपने को चिंतित बनाये जा रहे हैं। शांति पावो, अपने से हीन उन करोड़ों पर भी दृष्टि दो, जो पाया है उसका सदुपयोग करो। अपनी धर्मसाधना में सावधान रहो। सीधे-सीधे चलोगे तो वहां काम बनेगा भी, टेढ़े उल्टा चलोगे तो वहां हानि ही हानि है। सर्व परपदार्थों से भिन्न अपने को ज्ञानस्वरूप जानकर ज्ञानीसंत अपनी बुद्धि में किसी परपदार्थ को चिरकाल तक धारण नहीं करते हैं। हां कभी कोई प्रयोजन हो तो ज्ञानी प्रयोजनवश वचन और काय से अतत्पर होकर लीन न होकर कुछ करता है, किंतु देखिये कर्मबंध होता है तो अंतर के संस्कार के अनुसार होता है। सो कर्तृत्व का महाबंध इस ज्ञानी जीव के भी नहीं है।
आत्मज्ञान के संप्रधारण का आग्रह- भैया ! जिनके अंतर का आशय विशुद्ध है और परिस्थितिवश वचन और काय से करना पड़ता है तो उसे करना नहीं कहा जाता है। कर्ता वह है जो अंतर में ऐसा आशय रखता हुआ करे। ज्ञानी पुरुष वचन और काय से अतत्पर होता हुआ प्रयोजनवश कुछ करता है जहां तक बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए मुख्यतया यह शिक्षा दी गई है कि बहिरात्मापन को तो छोड़ना चाहिए और परमात्मस्वरूप को ग्रहण करना चाहिए। इन दिनों ही कार्यों का उपाय है अंतरात्मा बनना चाहिए। उस अंतरात्मा का क्या स्वरूप है, उसकी कैसी प्रवृत्ति है, उसका कैसा ज्ञान है? इन समस्त बातों पर प्रकाश डालकर अनेक शिक्षा देकर अंत में यह बात दर्शायी गयी है कि कल्याणार्थी पुरुषों ! तुम्हें अपनी बुद्धि में एक आत्मज्ञान बनाये रहना चाहिए।
हितरूप लक्ष्य और लक्ष्य के अनुसार यत्न में सफलता- भैया ! आशय, लक्ष्य एक ज्ञायकस्वरूप अंतस्तत्त्व के निहारने का ही हो। लक्ष्य बिना कोई नाव भी चलाये तो थोड़ा इस ओर चलाया, थोड़ा दूसरी ओर चलाया, फायदा क्या हुआ? यों ही लक्ष्य बिना धर्म की धुन में कुछ इस ओर का काम किया, कुछ उस ओर का काम किया, इस प्रकार की धर्म की धुन बनाई तो उससे लाभ क्या? पहिले लक्ष्य को स्थिर करो। हम मनुष्य जीवन में जी रहे हैं तो क्यों? इसलिए कि हम अपने आत्मस्वरूप को परखकर ज्ञानानंदनिधान अंतस्तत्त्व का निर्णय करके मैं इस अंतस्तत्त्व में ही स्थिर होऊं, यह काम अब तक न किया गया था, आहार निद्रा आदि के काम तो अनंत बार किये। अब इस अपूर्व कार्य को करके अपना जन्म सफल करना है। मोह ममता से दूर हटकर शुद्ध ज्ञानानंद का अनुभव करना है। ऐसा निर्णय होना चाहिए और ऐसा ही यत्न होना चाहिए। ऐसे ही पुरुषार्थ में हम आपका कल्याण है।
।। समाधितंत्र प्रवचन द्वितीय भाग समाप्त ।।