वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 49
From जैनकोष
जगद्देहात्मदृष्टीनां विश्वास्यं रम्यमेव च।
स्वात्मन्येवात्मदृष्टीनां क्व विश्वास: क्व वा रति:।।49।।
अज्ञानी और ज्ञानी का ख्याल- पूर्व श्लोक में यह शिक्षा दी गई है अपने आपको वचन और काय से अलग जानो और वचन तथा काय से योजित किया गया जो व्यवहार हो उसे भी त्यागो। इतने अंश के संबंध में एक प्रश्न हो रहा है कि इस व्यवहार को क्यों छुड़ाया जा रहा है? पुत्र, मित्र, स्त्री आदि के स्नेह में और उनके वचनालाप में तो सुख प्रतीत होता है और इस ही में तो बड़े बड़े ऊँचे जन बड़ी कला से लगे चले जा रहे हैं। इस व्यवहार का त्याग क्यों कराया गया है, इस आशंका के समाधानस्वरूप यह श्लोक है। आचार्यदेव कह रहे हैं कि जिसने देह में आत्मा की दृष्टि की है यह ही मैं हूं, देह को लक्ष्य में लेकर उसमें ही सर्वस्व जिसने माना है ऐसे पुरुष को यह जगत् विश्वास के योग्य जंच रहा है और बहुत रमणीक जंच रहा है, किंतु जिसने अपने आत्मा में ही आत्मा की दृष्टि बनायी है ऐसे संत पुरुष को इस जगत् में कहां तो विश्वास हो और कहां वह रमे?
छि:, अपवित्र शरीर में रमण- भैया ! यह हाड़ मांस खून का पुतला जिसमें अंदर से लेकर ऊपर तक सभी असार और अशुचि चीजें हैं। इससे तो अच्छे पेड़ और पृथ्वी हैं। पेड़ और पृथ्वी के शरीर कुछ ठोस हैं। हीरा, जवाहरात, रत्न, सोना, चाँदी आदि इष्ट चीजें सब पृथ्वी के शरीर हैं और वनस्पति के शरीर देखो- सागौन की लकड़ी, शीशम की लकड़ी, देवदार चीड़ की लकड़ी कैसी अच्छी-अच्छी चीजें हैं। एकेंद्रिय के शरीर भी कितने सुहावने हैं, ठोस हैं, लोक में सारभूत हैं। इस शरीर से तो वह ही शरीर अच्छा है। इस अशुचि काय में इस मनुष्य शरीर में कहां सार नजर आता है? नवद्वार बहें घिनकारी। नाक से नाक झरती है उसकी संभाल रखना पड़ता है, मुख से लार बहे, थूक आये, कफ आये और भीतर पड़ा हुआ यह जीव ऐसी ग्लानि करने वाला है कि उसे गोबर दिख जाय, विष्ठा दिख जाय, कहीं पीप खून आदि दिख जाय तो थूक से गला भर जाता है और इसे थूकना पड़ता है। कैसा विचित्र असारभूत यह शरीर है, किंतु इस व्यामोही पुरुष को ऐसा अपवित्र शरीर जिस पर चाम की पतली चादर मढ़ी है, इससे सारी पोल ढकी है, ऐसी शरीर भी इस देह में मुग्ध पुरुष को सुहावना मालूम होता है और इसी कारण विश्वास के योग्य मालूम होता है। यह तो मुझे सुख ही देगा। इससे ही मेरे को शांति होगी, ऐसा समझ रहे हैं और इस शरीर में प्रीतिबुद्धि की जा रही है।
देहात्मबुद्धिता के कारण यथार्थदृष्टि का लोप- इस जगत् में कोई भी स्कंध अपने रमने योग्य नहीं है, विश्वास के योग्य नहीं है। अभी कहा गया था कि सोना चाँदी काठ पत्थर ये भले हैं, ये भी भले नहीं हैं। पदार्थ हैं, स्कंध हैं, यों परिणमते हैं, पर उनमें अपवित्रता ऐसी नहीं पायी जाती है जैसी कि हम आपके शरीर में है। फिर भी देखो- मनुष्यभव में कितने शुभकर्म का उदय है कि जो संस्थान बने हैं सो ठीक बने हैं। बैल घोड़ों की नाक में नथुवा एकदम खुले दरबार जैसे होते हैं। यदि इस मनुष्य के नाक का नथुवा बैल घोड़ा जैसा खुला हुआ होता तो इसकी पोल जरा जल्दी मालूम हो जाती। नाक चाम की नाक से ढकी है और सुवा जैसी नाक है। सारी पोल ढकी हुई है। इस शरीर में कहां है सुहावनापन? सर्वत्र अशुचि है, लेकिन जिन्हें देह में आत्मबुद्धि हो गयी है उन्हें कला की वजह से, कुछ शरीर के रूपों की वजह से और मुख्य तो अपने आपमें होने वाली विषय वेदना की वजह से इस मनुष्य का यह शरीर पवित्र, विश्वास्य और रम्य मालूम पड़ता है।
भोग छूटने की तीन पद्धतियां- एक भंगिन विष्ठा से भरी हुई टोकनी लिये जा रही थी। एक सज्जन ने बहुत बढ़िया साफ एक तौलिया दिया जो बड़ा सुहावना था। इसलिए दिया था कि तू इस टोकनी को ढक ले, क्योंकि इससे बहुत से लोगों को तकलीफ होती है। उस भंगिन ने उसे तौलिये से टोकनी को ढक लिया। अब चली जा रही है। रास्ते में तीन मित्र मिले, बातें करते हुए चले जा रहे थे। उन्होंने देखा कि यह कोई सुहावनी वस्तु है क्योंकि यह कीमती कपड़े से ढकी हुई है। इसमें कोई बढ़िया चीज होगी। वे तीनों उसके पीछे लग गये। वह भंगिन कहती है भाई क्यों लगे हो पीछे? ओ हम जानना चाहते हैं, देखना चाहते हैं कि इस टोकने में क्या रक्खा है? अरे इस टोकने में विष्ठा पड़ा हुआ है। नहीं-नहीं तुम झूठ बोलती हो, इसमें कोई बढ़िया चीज है। कहती है नहीं हम ठीक कहती है। यह गंदी चीज है, लौट जावो। इतनी बात सुनकर एक मित्र तो लौट गया। अभी दो मित्र लगे हैं। उन्हें उसके कहने मात्र से विश्वास नहीं हुआ। अरे भाई क्यों लगे हो पीछे? वे बोले कि हम देखेंगे कि इसके अंदर क्या है? अरे इसमें मैला पड़ा है। नहीं तुम बहकाती हो, दिखावो इसमें क्या है? तौलिया उठाकर दिखाया तो एक और देख करके लौट गया। हां ठीक चीज नहीं है। मगर एक अभी पीछे ही लगा रहा। अरे क्यों पीछे लगे हो? तुम इसे दिखावो- इसमें कोई अच्छी चीज है। दिखा तो दिया, अरे यों नहीं, हम इसकी परीक्षा करेंगे, अरे तो लो भाई देख लो। कपड़ा उठाया, सूँघ सांघकर खूब देखा। जब मन भर गया तो कहा हां ठीक है, है यह गंदी चीज। तब वह लौटा। तो यों समझो कि इन विषयभोगों से सबको जुदा होना पड़ेगा। इन तीन पद्धतियों में से कौनसी पद्धति चाहते हो? सो चुन लो।
निर्वाचन में बुद्धिमानी की आवश्यकता- तीन तरह के लोग हैं, उनमें ये अपना नाम जिनमें लिखाना है, लिखावो। एक तो वह पुरुष हैं जो केवल सुनकर उपदेश मात्र से ही उन भोगों में फँसे बिना वहां से निवृत्त हो जाते हैं। और एक पुरुष ऐसे होते हैं कि कुछ भोगों में लगते हैं, थोड़ा लगे कुछ देखा- निवृत्त हो गए। एक ऐसे हैं कि भोगों में लगे-लगे ही मर जायें तो मर जायें पर 4-5 मिनट भी त्याग नहीं कर सकते। छूटना तो सब है ही, अब अपनी मर्जी है, किसी भांति छोड़ो। कुछ विवेक और ज्ञान का सहयोग लेना चाहिए। यों बुरी मौत छूटा तो क्या छूटा? श्रद्धान् और ज्ञान सहित समस्त परवस्तुवों से भिन्न आत्मा में लगें और यथार्थ बात समझें, आत्मा को छूऐं तो इसमें बुद्धिमानी है। भाई लोग कहने लगते हैं ना कि यह बात आत्मा को टच करती है। अरे यह आत्मा आत्मा को टच कभी कर जाय ऐसी स्थिति तो बनावो। संसार का यह उपद्रव, संसार का यह मायाजाल यह तो यों ही है, इसके विश्वास में तो हानि ही हानि है।
जगत् की अविश्वास्यता व अरम्यता- भैया ! जगत् में कोई भी स्कंध ऐसा नहीं है जो विश्वास करने के योग्य हो और रमणीय हो, लेकिन पर्यायबुद्धि देहात्मदृष्टि मिथ्यादृष्टि जीव को यह जगत् विश्वास के योग्य लग रहा है। धन कमाने की रोज-रोज तृष्णा क्यों बन रही है, इतना हो गया अब इतना और होना चाहिए। यों ही खर्च मत करो और जोड़ों। अरे ज्ञानमात्र अमूर्त तो यह है और लाखों करोड़ों का बोझ संचित करता है जिसमें से कुछ भी इसको प्राप्त नहीं हो सकता। पर्यायबुद्धि की धुन है, विवश है यह जीव क्योंकि अज्ञानी है, उन्मत्त है। जैसे किसी दु:खी पागल पुरुष को देखकर जो कि बहुत अच्छे घराने का पुरुष हो और सबको उपदेश करने वाला, उपकार करने वाला, आचरण से रहने वाला पुरुष हो और पागल हो जाय तो लोग उस पर कितनी दया करते हैं? हाय यह कैसा हो गया, कैसा सुहावना था, कैसा परोपकारी था और क्या हो गया, कैसे यह ठीक हो? दया आती है। ऐसे ही ज्ञानी साधुसंतों को इन लखपति करोड़पति वैभववान् राजा महाराजावों की प्रवृत्ति को देखकर इन पर दया आती है, ओह यह व्यर्थ का लपेटा है, इस परस्कंध में से इसके आत्मा का कुछ नहीं लगता है, अत्यंत पृथक् है, भिन्न वस्तु है। फिर भी यह कितना उसमें लग रहा है, फंसा जा रहा है, उसे दया आती है।
सुगम चिकित्सा न किये जाने पर ज्ञानियों की करुणा- देखो भैया ! इस रोग के मिटाने की, इस पागलपन के दूर होने की रंच ही तो तरकीब है और इसी के अंदर औषधि पड़ी हुई है। थोड़ा इस उपयोग की गति को मोड़ दो, उपयोग जो निज से पराड्.मुख हो रहा है उसकी गति को बदल देना मात्र ही तो इन समस्त संकटों से मुक्त होने की औषधि है। अरे भैया ! यह तो इतना विवश है कि इतनी ही बात याद नहीं हो पाती है। दया आती है ज्ञानीसंत पुरुषों को और जब यह दया अपना चरम रूप रख लेती है तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो जाता है। यह सारा जगत् कैसा व्यर्थ ही अज्ञान में रहकर दु:खी हो रहा है? इस जगत् का अज्ञान मिटे अपने आपके अंत:स्वरूप का दर्शन हो, सर्वसंकटों से दूर हो जायें यह ऐसी अपार करुणा जिस सम्यग्दृष्टि जीव के जग रही हो उसके वहां तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो जाता हैं।
बहिरात्मा की विशेषतायें- इस अज्ञानी जीव के अनेक वाचक शब्द हैं और उन शब्दों के माध्यम से ही इस अज्ञानी जीव की भीतरी बात को परख सकते हो। इसे कहते हैं देहात्मदृष्टि। जिसकी देह में यह मैं आत्मा हूं- ऐसी दृष्टि है, उसे कहते हैं देहात्मदृष्टि। मिथ्यादृष्टि का भी अर्थ यह है कि जिसे लोग जल्दी में यों बोल जाते हैं कि जिनकी मिथ्या अर्थात् विपरीत दृष्टि हो, धारणा हो, उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं। मिथ्या शब्द का अर्थ है संयोगी भाव। मिथ् धातु संयोग अर्थ में आती है। मिथ् से ही मिथुन बना। जिससे मैथुन बना, उसी से मिथ्या बना अर्थात् एक दूसरे का स्वामी है, एक दूसरे का कर्ता है, एक दूसरे का अधिकारी है। इस प्रकार भिन्न पदार्थों में संयोगपने की दृष्टि जिसमें हो, उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं। चूंकि भिन्न पदार्थों में संयोग मानने की बात वस्तुस्वरूप से विपरीत है, इस कारण मिथ्या शब्द का अर्थ विपरीत उल्टा यह प्रचलित हो गया, किंतु मिथ्या शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ यह नहीं है। संयोग को ही सर्वस्व मानने की, सही मानने की जिसकी दृष्टि हो, उसके मिथ्या कहते हैं।
राग और मोह में अंतर- भैया, राग और मोह में बड़ा अंतर है। राग में तो प्रीति का परिणाम है। सुहा गया, सो रागभाव है, किंतु मोह में अज्ञान का परिणाम है। पुत्र का पालन कर रहे हो तो ठीक है, प्रीति है, प्रेम है, राग है, किंतु भीतर में यदि यह अज्ञान बसा हुआ है कि यह तो मेरा है, तो मोह हो गया। इस ही अज्ञान अंधेरे का नाम मोह है। मोह बहुत ही भयंकर कींच है। जिस मोह में फंसा हुआ प्राणी इस संसार में जन्ममरण के चक्र काटता है। मोह गंदी चीज है।
अशुचित्व- लोग कहते हैं कि नाली गंदी है, विष्ठा गंदा है। क्यों नाली गंदी है? उसमें कीड़े का कलेवर है, मांस है। गंदा क्या है? मांस, खून, पीप आदि मलिन हुए। यह तो बतावो कि खून, पीप, मांस जिस उपादान से बना है, वह उपदान इस नवाब साहब के ग्रहण करने के पहिले भी गंदा था क्या? नहीं था। यह मोही जीव मरण करके जब अन्य स्थान में पहुंचता है और किसी पुद्गल स्कंध को ग्रहण करता है तथा नाना शरीर वर्गणायें इसके चारों ओर से आया करती हैं, वे सब वर्गणाएँ इस मोही जीव के जन्म लेने के पहिले भी थीं क्या? थीं।
असत् का तो कुछ बनता नहीं है। वह किस रूप थी? क्या हाड़, मांस, पीप नहीं थे? रूप, रस, गंध, स्पर्श थे, किंतु सही ढंग में थे। जब मोही जीव ने उन्हें ग्रहण किया तो वे गंदे बन गये। तो जिसके संबंध से वे सभी वर्गणाएँ गंदी बन जायें तो मूल में गंदा कौन हुआ? यह मोही जीव हुआ। जिसके छू लेने से, जिसके स्पर्श मात्र से वे सब शरीर वर्गणाएँ गंदी बन गयीं।
मोह की ही सर्वाधिक शुचिता- इस मोही जीव में भी जीव गंदा नहीं है, उसे तो यों समझिये कि जैसे ‘‘मैं वह हूं जो हैं भगवान्, जो मैं हूं वह है भगवान्’’ जीव का स्वरूप गंदा नहीं हैं, वह तो पवित्र चेतनापुन्ज है। उसमें जो विकार पड़ा है मोह का, अज्ञान का वह गंदा है। दुनिया में सबसे अधिक गंदी, अत्यंत निंदनीय, जिसकी शक्ल भी न देखी जानी चाहिए- ऐसा गंदा है कुछ, तो वह है मोह। मोह से गंदा दुनिया में और कुछ नहीं हैं, मोहियों को यह विदित नहीं होता। वह तो मोह को ही सर्वस्व जानता है, किंतु जो यथार्थज्ञानी है, सावधान है, सहजस्वरूप का जिसने परिचय पाया है, वह जानता है कि मोह कितना गंदा हुआ करता है। इस अज्ञानी जीव का नाम बहिरात्मा है। अपने से बाहर के पदार्थों में आया जो माने, उसे बहिरात्मा कहते हैं।
स्वप्नसम विश्वास- अहो, एक जीव की दूसरे जीव के साथ कितनी फुटकर मंत्रणा होती है कि पुत्र पिता को, पिता पुत्र को, पति स्त्री को, स्त्री पति को, मां बेटे को, बेटा मां को कितने विश्वासपूर्वक निरखता है? मेरा तो सब कुछ यह है और इससे ही सुख है, इससे ही बड़प्पन है। यों इस देह में आत्मा की दृष्टि रखने वाला जीव बहिरात्मा कहलाता है। इसके अनेक नाम हैं। वे सब नाम इस अज्ञानी जीव की खासियत को बताने वाले हैं। इस मुग्ध प्राणी को यह सारा जगत् विश्वसनीय हो गया है और रमणीक हो गया है।
प्राकृतिकता का रहस्य- किसी जंगल में पहुंच जाएँ। कोई भलासा दृश्य देखने को मिल जाये तो बड़ा मन बहलता है। क्या कर रहे हो भाई? तफरी कर रहे हैं, दृश्यों के देखने का मौज ले रहे हैं। कैसा है यह दृश्य? प्राकृतिक दृश्य है, कुदरत का दृश्य है। अरे, किसी ने कुदरत को देखा है कि कैसी उसकी शकल होती है, कैसे हाथ पैर होते हैं, कहां से वह कुदरत आती है, कहां जाती है? वह कुदरत क्या है कि जिसका यह रूप-रंग बड़ा सुहावना है? अरे, वह प्रकृति और कुछ नहीं है, वह है 148 प्रकार के कर्मों की प्रकृतियों का विपाक। इस प्रकृति को प्रकृति बोला करते हैं। कितने सुंदर पेड़ हैं, कैसे हरे पीले पत्ते हैं, कैसे रंग-बिरंगे फूल हैं, उन फूलों में कैसा मकरंद का डोरा लगा है और उन सब प्रकृतियों के उदय से जीव का काय बना है- ये सब प्रकृतियां ही तो हैं।
कर्मों का ढेर है, कर्मों का भार है- ये सब मिथ्यादृष्टि को रमणीक लगते हैं और विश्वास के योग्य जँचते हैं, किंतु ज्ञानी को ये सर्वविषय न विश्वास्य जँचते हैं और न रमणीक जँचते हैं।
व्यर्थ का व्यवहार- जिस ज्ञानी योगी संतपुरुष ने अपने आत्मा में ही ज्ञायकस्वरूप अंतस्तत्त्व का अवलोकन किया है और इस अवलोकन के प्रसाद में स्वाधीन सहजआनंद का अनुभव किया है, उस पुरुष को इस लोक में किस पदार्थ पर विश्वास जमें। यह सारा जगत् इस ज्ञानी के विश्वास के योग्य नहीं रहा है। इस दिखती हुई दुनिया में किस बात का विश्वास करें? न यह सदा रहेगा, न मेरे निकट रहेगा, न इसके किसी परिणमन से मेरे में कुछ परिणमन होता है। यह दृश्यमान् सब अत्यंत भिन्न पदार्थ हैं, फिर ऐसा कौनसा कारण है, जिससे यह जगत् कुछ विश्वास के लायक बने। वस्तुत: कोई भी विश्वास के योग्य नहीं है, फिर भी यहां विश्वास की बात चल रही है। पिता का पुत्र के साथ और पुत्र का पिता के साथ, स्त्री का पति के साथ और पति का स्त्री के साथ, गुरु का शिष्य के साथ कैसा विश्वास चल रहा है?
विश्वास का आधार सदाचार- यह सब विश्वास सदाचार की नींव पर निर्भर है। सदाचार हटे तो विश्वास भी रंच किसी का किसी पर लोकव्यवहार में भी नहीं रह सकता। कौन विश्वास के योग्य है? गुरु जब तक भला है, तब तक शिष्य उस पर विश्वास रखता है। शिष्य जब तक भला है, तब तक गुरु शिष्य पर विश्वास रखता है। विश्वास रखते हुए भी तो ऐसी घटना आ जाती है कि जो विपदाओं को बिछाकर मुसीबत कर देते है।
श्रीराम का सीता पर क्या विश्वास न था? पूर्ण विश्वास था कि शुद्ध है, सती है फिर भी क्या घटना बन गयी? श्रीराम ने लोकमर्यादा रखने के लिए सीताजी को जंगल में भेज दिया। विश्वास होने पर भी घटना बनने पर विच्छेद कर दिया करते हैं लोग। फिर जब विश्वास ही न हो एक दूसरे का तो वहां गाड़ी रंच भी नहीं चला करती है।
ज्ञानी व अज्ञानी का विश्वास्य स्थान- इस ज्ञानी संत को तो परमार्थ की दशा में किसी भी परपदार्थ में अणुमात्र भी विश्वास नहीं है। काहे का विश्वास करे? ये अत्यंत भिन्न हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव सभी तो न्यारे हैं। प्रत्येक सत् के सदृश्य धर्म एक है। उसमें क्या कोई व्यन्जना निभती है? इस आत्मवेदी पुरुष को तो मात्र निजसहजस्वरूप में ही विश्वास है। ज्ञानी को अन्यत्र इस जगत् में कहीं विश्वास नहीं होता और न कहीं यह रम सकता है। जबकि इन देहात्मदृष्टि जनों को, जिन्होंने शरीर को ही आत्मसर्वस्व मान लिया है- ऐसे देहात्मदृष्टि जनों को इस जगत् में सारा विश्वास रम्य बना हुआ है।
एक दृष्टांत द्वारा जगत् की रम्यता का पर्दाफाश- दो मित्र थे, एक साथ स्वाध्याय करते थे। ज्ञानचर्या में दोनों सम्मिलित रहा करते थे। उनमें आपस में निर्णय हुआ कि हम दोनों में से जो पहिले मरे, वह मरकर देव हो तो वह दूसरे को संबोधने के लिए समझाने आये। कोई देव समझाने आये और यह विदित हो कि यह तो अमुक था, मरकर देव बना है, उसका अतिशय भी विदित हो तो धर्म में कितनी श्रद्धा बढ़ जाती है? दोनों में यह निश्चय हुआ। अब उनमें से एक गुजर गया और वह मरकर देव हुआ। अब वह मंदिर में समझाने के लिये आया। मित्रमनुष्य स्वाध्याय कर रहा था। देव बोला कि भाई सारा जगत् असार है, तुम्हारा यहां कुछ भी नहीं है, आत्महित में लगो। तो वह कहता है कि क्या कह रहे हो तुम? हमारी स्त्री तो बड़ी आज्ञा मानती है, पुत्र हमारा बड़ा विनयशील है, मां तो मुझे अपना दिल समझती है, पिता की आंखों का तारा हूं, तुम क्या समझते हो?
देव बोला कि अच्छा, एक काम कर सकोगे क्या? हां। देखो कल के दिन 12 बजे दोपहर को बीमार होकर पलंग पर पड़ जाना। अच्छा, यह तो कर लेंगे। बीमारी के लिए सबसे बहाना क्या है? पेट का दर्द और सिर का दर्द। कोई इसी फिराक में बैठा होगा तो बड़ा खुश हो रहा होगा कि लो बहाने की आज अच्छी तरकीब बता दी। डाक्टर हैरान हो जाये, कहां हैं सिरदर्द? वह चिल्लाता रहे कि अरे ! अरे ! मरे जा रहे हैं तो डाक्टर क्या करेगा?
वह सिर दर्द और पेट दर्द की बात बनाकर 12 बजे पलंग पर लोट पोट होने लगा। उसी समय वह देव वैद्य का रूप रखकर झोली लिए हुए फेरी लगाने आया। मेरे पास बड़ी अचूक दवा है, कैसा ही रोग हो मेरी दवा से तुरंत ही ठीक होगा। घर वालों ने उस वैद्य को बुला लिया और कहा कि वैद्य महाराज मेरा यह बच्चा बहुत बीमार है, इसे ठीक कर दीजिए। हां ठीक कर देंगे। उसने झूठमूठ की दवा निकाली और कहा कि एक गिलास स्वच्छ जल ले आवो। ले आये, उसमें जरासी वही भभूत सी डाल दी और वैसे ही ओठों से मंत्र पढ़कर घर वालों से कहा कि लो इस दवा को पियो कोई। लोग सोचते हैं कि बीमार तो पड़ा है यह और दवा पिलाना चाहता है घर के कुटुंबियों को। सबने कहा महाराज यह क्या कर रहे हो, बीमार को ही दवा पिलावो ना। तो वैद्य जी बोले कि यह ऐसी दवा नहीं है। इसमें तंत्र मंत्र और औषधि के सर्व रस मौजूद हैं। इसका अनुपान यह है कि इस दवा को दूसरा ही पीवेगा। जो पीवेगा वह तो मर जायेगा और जो बीमार है वह बच जायेगा। मां जी पी लो दवा। अब मां जी के मन में बिल्लियां लोटने लगी। मैं ही मर जाऊँगी तो किसका सुख देखूँगी और यह एक मर जायेगा तो अभी तीन बच्चों का तो सुख देखने को मिलेगा। बाप से दवा पीने को कहा तो उसने भी यही सोचा। स्त्री से कहा तो वह यह सोचती है कि मेरे दो तीन लड़के हैं। यदि मैं ही मर गयी तो फिर क्या सुख देखूँगी और पति गुजर गया तो लड़के तो हैं, इन लड़कों से तो सब आराम है। उसने भी दवा पीने को मना किया। तो वैद्य जी कहते हैं कि क्या मैं इस दवा को पी लूँ? तो कुटुंबी लोग बड़े खुश हुए। वाह-वाह वैद्य जी, आप बड़े दयालु हो, आप तो साधु पुरुष हो, हां हां आप पी लीजियेगा। वैद्य ने कहा अच्छा तुम सब जावो। हम इसे ठीक कर लेंगे, इस दवा का एकांत में ही अनुपान होगा। सब चले गए, अब कान में कहता हैं कि देख लो तुम कहते थे कि हमारे घर के लोग बड़े आज्ञाकारी हैं, बड़े विनयशील हैं कुटुंब के लोग। देखो यहां कोई तुम्हारे लिए कुछ हुआ? तुम किस पर गर्व करते थे?
वस्तु की अनन्याधीनता- भैया ! यह तो वस्तु का स्वरूप ही है। प्रत्येक वस्तु अपने लिए अपने में अपने द्वारा परिणमेगी, यह तो वस्तु के स्वरूप में ही बात पड़ी हुई है। इस ज्ञानी संत को इस लोक में किस पदार्थ में विश्वास जमें? किस पदार्थ में यह रमण करे? यहां कोई भी पदार्थ विश्वास के योग्य नहीं है, रमण के योग्य नहीं है। जब कभी जीवन में कोई बड़ा संकट आता है, जब मरणहार हो जाते हैं तब मन में यह निश्चय हो जाता है कि अबकी बार अगर बच जाऊँ तो फिर जीवन भर मैं धर्म करूँगा, और ठीक हो गए तो थोड़े ही दिन बाद फिर वही रफ्तार हो जाती है जो पहिले से चल रही थी।
कष्ट में धर्म की सुध- कोई लोभी आदमी नारियल तोड़ने के लिए एक नारियल के पेड़ पर चढ़ गया। वहां फल तोड़ने लगा। फल तो तोड़ लिया पर नीचे उतरने लगा तो बड़ा भय लगा। सोचा कि अब तो उतर नहीं सकेंगे, मरण ही निश्चित् है। सों संकल्प करता है कि हे भगवान् हम उतर जायें तो 100 बामन जिमायेंगे। जरासी हिम्मत किया तो थोड़ा सा नीचे उतर आया। अब वह सोचता है कि 100 तो नहीं पर 50 जरूर जिमायेंगे। फिर कुछ और नीचे उतरा हिम्मत करके तो कहता है कि 50 तो नहीं पर 10 जरूर जिमायेंगे। जब बिल्कुल नीचे उतर गया तो सोचा कि वाह उतरे तो हम हैं बामनों को हम क्यों जिमायें? तो अपने जीवन में ही देख लो जब बहुत वेदना में हो जाते है तब ख्याल होता है कि ऐसा दुर्लभ नरजीवन ओह व्यर्थ ही गंवा दिया, क्या हाथ लगा, 50-60 वर्ष की उम्र बिता डाली- अब भी सूने के सूने हैं।
अविद्यासंस्कार- भैया ! परप्रसंग में पड़े हुए इतने दिन तो हो गये कुछ भी हाथ लगा हो तो बतावो। आत्मा के गुणों के विकास में वृद्धि हुई हो अथवा शांति या आनंद की वृद्धि हुई हो तो बतावो। अरे वृद्धि तो क्या अशांति ही बर्ती जा रही है और गुणों की अवनति ही होती चली जा रही है। कभी-कभी यहां प्रभुभजन, आत्मचिंतन, सत्संग ये कुछ सहारा दे देते हैं समझने के लिए, सावधानी के लिए, किंतु क्या किया जाय- ऐसे चिरकाल के संस्कार हैं हम लोगों के कि क्या कहा जाय? अगर बुरा न लगे तो एक अहाना में कहते हैं कि कुत्ते की पूँछ बांस की पूगेड़ी में रखी, पर जब निकली तो पूंछ टेढ़ी की टेढ़ी निकली सीधी नहीं हो सकी। यों ही हम आप यत्न करते हैं, बहुत-बहुत प्रभुभजन करते हैं, सत्संग करते हैं, धर्म चर्चा करते हैं, लेकिन जैसी योग्यता है वैसी बात बाहर में चला करती है। कहां तक छिपायें अपना दोष, कहां तक बनावें अपनी पोजीशन, कहां तक अपना महत्त्व दिखावें? आखिर ये जैसे हैं तैसे ही रह जाते हैं। ज्ञानी संत पुरुषों को इस जगत् में किसी भी परपदार्थ में अणुमात्र भी विश्वास नहीं है कि यह मेरे हित का साधक है। अपने दोष निरखना और अपने दोषों को दूर करने का यत्न करना, यह काम आंखें मींचकर कर लो। बड़ा बेढब रंग है इस जगत् का।
दोषग्रस्तता- भैया ! अपने दोष देखें तो दोष बहुत दिखेंगे। मोह, राग, पक्ष, मात्सर्य, अविद्या और पाँच पापों की वृत्तियां क्या-क्या बातें दिखायी जायें, इन सब दोषों में ग्रस्त यह आत्मा अपने स्वरूप में निश्चल निस्तरंग, नीरंग अवस्थित नहीं रह सकता है और बाहरी पदार्थों में दौड़ दौड़कर भागता है। दौड़ता नहीं है फिर भी बड़ी दौड़ करता है। कहां जाता है ज्ञान, अपने प्रदेशों से बाहर किसी बाह्य पदार्थ में यह ज्ञानगुण जा ही नहीं सकता है। वहीं का वहीं प्रदेशों में ही गुथागुथा शाश्वत अवस्थित है, फिर भी दौड़ इतनी लंबी है कि इतनी दौड़ के मारे जगत में हैरान हो गया।
विषयविडंबना- पुराने जमाने में कोई पुरुष या स्त्री जरा-जरा से झगड़े में कुए में गिरने का डर बताया करते थे। हम कुए में गिर जायेंगे। जब उसका हाथ पकड़ पकड़कर मना करो तब तो वह कहेगी कि हम तो गिरेंगे और जब कहें कि अच्छा चलो, हम तुम्हारे गिरने में मदद करेंगे, हम रस्सा लिये चलते हैं, तुम अपनी कमर में बांधकर लटक जाना, हम तुम्हारे गिरने में मदद दे रहे हैं तो वह हाथ जोड़कर कह देगी ना, ना, हमें नहीं गिरना है। इसी तरह हम आप विषयों के गर्त में थोड़ा-थोड़ा गिर रहे हैं व गिरने में हठ कर रहे हैं, पर लोग थोड़ा-थोड़ा कुछ ध्यान रोकते हैं कि न गिरो विषयों में और कोई कहे कि गिर तो लो विषयों में खूब मन भर लो, जितना चाहो उतना भोग लो, तो वह मना कर देगा कुछ ही समय बाद कि ना, ना, अब न चाहिए विषयभोग, इनमें तो बड़ी विडंबना है, बड़ी विपदा है।
मेरे लिये पर की हितकारिता का अभाव- कितनी ही विडंबनावों को अनादिकाल से यह जीव सहता हुआ आज मनुष्य हुआ है। पुण्य का उदय है, पर यहां के मायामय लोगों में अपना पोजीशन रखना चाहते हैं। अरे सोचो तो पहिले की स्थितियां, पेड़, फूल भी तो तुम्हीं थे, कीड़ा मकोड़ा भी तो तुम्हीं थे। अब क्या है? कुछ चेतो, कुछ सावधान होओ, नहीं तो तुम्हारी दुर्गति होगी। इस चार दिन की चाँदनी को पाकर इतराने में क्या पूरा पड़ेगा? यह जगत् विश्वास के योग्य नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं तो बड़ा विश्वासी हूं और समस्त लोग विश्वास के काबिल नहीं हैं, यह अर्थ नहीं है, किंतु मेरे हित के लिए मेरे सिवाय प्रत्येक पदार्थ चेतन या अचेतन कोई भी समर्थ नहीं है।
यथार्थज्ञान बिना व्यर्थ की हाय- जब तक इसको अपने ज्ञानानंदघन अंतस्तत्त्व का बोध न था, तब तक इसको देह में आत्मबुद्धि रही आयी थी और परिजन के समूह को इस प्रकार देखता था कि मेरा प्राण, मेरा आधार, मेरा सर्वस्व यह ही है और कल्पना में आ जाये कि यह नहीं रहा तो बड़ी श्वास लेता है, बड़ा खेद करता है, किंतु यह नहीं समझता कि अनादिकाल से ही सर्वजीव अकेले के अकेले ही हैं। सुख में अकेले, दु:ख में अकेले, कर्मबंध में अकेले, मोक्ष में अकेले, सर्वत्र अकेले। दो द्रव्य मिलकर एक परिणमन नहीं करते हैं, एक द्रव्य दो द्रव्यों का परिणमन नहीं करता। सर्वपदार्थ अपने में परिपूर्ण एवं स्वतंत्र हैं, इसका भान नहीं किया और ऐसी संयोगदृष्टि रही कि यह मेरा है, यह उनका है, इसी दुर्बुद्धि से इस संसारसमुद्र में गोते खाता आ रहा है।
निजचेष्टा का विपरीत आक्रमण- जरा यथार्थ बात और निमित्तदृष्टि दोनों को साथ लगाकर देखो तो जिसको माना कि यह मेरा सर्वस्व है, यह मेरा परिजन है और ये मेरे कुछ नहीं हैं, इनसे मुझे कुछ लाभ नहीं है तो जिन्हें माना कि ये मेरे हैं, ये ही मेरे सर्वस्व हैं, उन्हीं के पीछे सारा तन, सारा मन, सारे वचन सब न्यौछावर किए जा रहे हैं। उन नातीपोता, बाल-बच्चों में ही सारा व्यय किया जाता है। कितना गहरा पक्ष है इस व्यवहारी जीव का। पर करे क्या? जैसे चोर चोरों का ही मुहल्ला हो तो वे सब भाई-भाई हैं। अब उन्हें चोर कौन कहेगा? इसी प्रकार मोही मोहियों का यह संसार है। इसमें कौन एक दूसरे को मूढ़ कह सकता है? मोह की कला जिससे जितनी ऊँची बन जाए, वह यहां चतुर माना जाता है। यह है मूढ़ पुरुषों की कथा।
ज्ञानी और अज्ञानियों की परस्पर विपरीत धारणा- जिन्हें आत्मा का परिज्ञान हुआ है, अपने इस ज्ञानस्वरूप में ही यह मैं आत्मा हूं- ऐसा अनुभव जगा है उनकी दशा इन व्यामोही पुरुषों से विपरीत होती है, वे ज्ञान की वृत्ति लिये हुए होते हैं। अज्ञानियों की धारणा उनसे विपरीत होती है। तभी तो सारे अज्ञानी मिलकर ज्ञानी को पागल देखते हैं। कोई अपने बीच 14-15 वर्ष का बालक वैराग्य भरी बातें करे और ज्ञान की ओर रुचि जगाये तो लोग सोचते हैं कि इसके कुछ बीमारी हो गयी है, कुछ दिमाग में खराबी आ गई है। सो डाक्टर को भी दिखाते हैं कि दिमाग ठीक हो जाये।
यह ज्ञानी जानता है कि भोगों में लिप्त होना, भोगों के प्रति ख्याल बनाना चतुराई नहीं है, यह मूढ़ों का काम है। अज्ञानीजन ज्ञानी को पागल निहारते हैं, किंतु ज्ञानीपुरुष इन सब व्यामोहियों को पागल निरखता है। दोनों में परस्पर विरुद्ध वृत्ति होती है। अज्ञानीजन इस जगत् में रमें तो रमें, किंतु ज्ञानी की यह धारणा रहती है कि मेरे आत्मा को तो मेरे अंतस्तत्त्व का आश्रय ही शरण है और सब धोखा है।