वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 64
From जैनकोष
जीर्णे वस्त्रे यथाऽऽत्मानं जीर्णं मन्यते तथा।जीर्णे स्वदेहेऽप्यात्मानं न जीर्णं मन्यते बुध:॥64॥
जीर्ण देह में भी विविक्त ब्रह्मस्वरूप का प्रदर्शन – जैसे वस्त्र के जीर्ण हो जाने पर कोई पुरुष अपने को जीर्ण नहीं मानता है इसी प्रकार अपने देह के जीर्ण हो जाने पर भी यह ज्ञानी अंतरात्मा अपने आत्मा को जीर्ण नहीं समझता है । जीर्ण का अर्थ है कमजोर होना, बोदा होना या कुछ फट सा जाना । यदि वस्त्र प्राचीन हो गया है और जीर्ण हो गया है तो फटे कपड़े को पहिने हुए कोई पुरुष क्या ऐसा सोचता है कि मैं फट गया हूं ? संभव है कोई ऐसा भी व्यामोही होगा कि कपड़े की दशा को देखकर अपने को भी उसी प्रकार दुर्गत समझ लेता हो ? होगा कोई ऐसा कहने वाला फिर भी वह भीतर में जानता ही होगा कि यह कपड़ा है और यह मैं अलग हूं । यहां मैं से मतलब इस देह से है क्योंकि श्लोक के पूर्वार्द्ध में अज्ञानियों को समझाने के लिए प्रयत्न होने से अज्ञानी की चर्चा की गई है । अज्ञानी भी फटे कपड़े पहिनने पर अपने को फटा नहीं मानता है ।
अज्ञानियों की किसी विविक्तता के दृष्टांत से विविक्तता का पोषण – भैया ! कोई आवेश में भले ही वस्त्र की दुर्गति से अपनी दुर्गति कह दे । जैसे एक बाबू ने कोट बनवाया । दर्जी की ही दुकान पर उस कोट को पहिना । पहिनकर देखा कि ठीक है कि नहीं ? दृष्टि गयी कि कंधे के पास सिकुड़न बन रही है । वह मिटती ही नहीं है तो उस सिकुड़न को देखकर बाबू साहब कह बैठते हैं कि इसने तो मेरा नाश कर दिया । जरा सी कोट में सिकुड़न आयी और इस शब्द से भी पुकार देते हैं कि इसने हमारा नाश कर दिया । और कुछ अपने पर मेहरबान हुए तो कह देते हैं कि हमारे कपड़े का नाश कर दिया । पर ऐसा कहने पर भी अंतर में यह समझ बनी भई है कि मेरा नाश नहीं हो गया, मैं जीर्ण नहीं हो गया । ऐसे ही ज्ञानी पुरुष देह के जीर्ण हो जाने पर भी अपने को जीर्ण नहीं समझते हैं ।
देह की जीर्णता होने पर भी ज्ञानी के आत्मतत्त्व की पुष्टि – बुढ़ापा हो गया, यह जीर्ण ही तो शरीर हो गया । जरा बुढ़ापे का नाम है और जरा से जो ग्रस्त है, उसका नाम जीर्ण हो गया। जिसके देह में और इस आत्मा में एकत्वबुद्धि है, वे ऐसा नहीं समझ पाते हैं कि यह शरीर ही बूढ़ा हुआ है । इस शरीर की ही यह दशा हुई है । मैं तो सदा अपने स्वरूपमात्र सदा जवान रहता हूं अर्थात् अपने स्वरूपमय रहा करता हूं – ऐसा अज्ञानी नहीं सोच पाता है ज्ञानी पुरुष वृद्ध हो जाने पर भी अपने अंदर की चेतना को निरखते हैं । उन्हें विशद बोध है कि मैं बूढ़ा नहीं हो गया हूं । न चलें हाथ पैर तो न सही, न उठ सकें खाट पर से तो न सही, स्वयं ही करवट नहीं बदल सकते न सही, बुढ़ापे का बहुत प्रकोप आ गया है, इतने पर भी यह ज्ञानी अपने अंतर में जानता है कि यह इस शरीर की दशा है, मैं तो ज्ञानानंदस्वरूपमात्र इस देह की दशा से विविक्त हूं और सदा ही पुष्ट हूं ।
बुढ़ापे में ज्ञानी के ज्ञानप्रकाश की बुद्धि – जो ज्ञानी संत पुरुष अपने सारे जीवन में व्रत, तप, संयम की साधना करते हैं, वे भी तो बूढ़े होते हैं ना । उनका ज्ञान पुष्ट है और ज्यों ज्यों बुढ़ापा उनके खाते में आता जाता है, त्यों त्यों ज्ञान जवान होता जाता है, क्योंकि अनुभव, भेदविज्ञान बढ़ा चढ़ा है और जब असार अवस्था होने लगती है, तब वैराग्य बढ़ने लगता है और जब मरणकाल जान लिया तो वहां ही सब राग छूटने का मौका आ जाता है । ऐसा ज्ञानीसंत बुढ़ापे में और जवान होता है । ज्ञान की अपेक्षा प्रबल बलवान् पुष्ट होता है और शरीर को जीर्ण हुआ जान रहा है । ज्ञानी जीर्ण देह से भी अपने आत्मा को जीर्ण नहीं समझता है ।
शरीर की जीर्णता के कारण – शरीर के जीर्ण होने के दो कारण हैं । एक तो सामान्यतया पुद्गल के नाते का कारण है । कोई भी पुद्गल हो, बहुत समय की स्थिति के बाद पुराना पड़ जाता है, कमजोर हो जाता है । जिसमें अब जीव का संबंध नहीं रहा है, वह स्कंध में काठ, पत्थर, लोहा ये सभी समय गुजरने के बाद कमजोर हो जाते हैं । लोहा जैसा पुष्ट पदार्थ भी बहुत समय गुजरने के बाद कमजोर पड़ जाता है । सभी पदार्थ समय गुजरने पर जीर्ण हो जाते हैं । एक तो इस पुद्गल के सामान्य नाते से यह शरीर भी जीर्ण हो जाता है, पर एक और विशेष कारण लगा हुआ है कि इस भव की आयु की स्थिति है । सो जैसे मनुष्य और तिर्यंचों में आयु ऊँचे से आगे बढ़ने लगती है तो उसका भी सहयोग ऐसा होता है कि यह शरीर ऐसी वृद्धावस्था को प्राप्त हो जाता है । उस समय आहारवर्गणावों के प्रकरण का आना तो रहता है, मगर उनका संकलन संग्रहण अंगीकरण अपेक्षाकृत पहिले से कम हो जाता है और यह शरीर, यह चाम अपनी अस्थियों के स्थान को कम ग्रहण करता है, जगड़ने सा लगता है । ऐसी जीर्ण स्थिति होना आत्मा का काम नहीं है ।
आत्मा तो ज्ञानबल से पुष्ट है और ज्ञानबल न हो तो अपुष्ट है, आकुलित है, विह्वल है, गरीब है । ज्ञानीपुरुष अपनी ओर बढ़ती हुई उम्र में और वृद्धावस्था में अंतर प्रबल होता है, बलवान् होता है, उसका ज्ञान पुष्ट हो जाता है ।
भेदाभ्यास के प्रकरण में भेदाभ्यास का अंतिम अवस्था में भी समर्थन – यहां यह प्रकरण चल रहा था कि जब यह जीव शरीर, वचन और मन को आत्मबुद्धि से ग्रहण करता है, तब इसका जन्म मरण बढ़ता जाता है और जब इस शरीर से अपने आत्मा को भिन्न निरखता है और ऐसा भेदज्ञान का अभ्यास प्रबल हो जाता है तो इस मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है । उसी भेद विज्ञान के संबंध में कुछ विस्तार बनाने के लिए स्वतंत्ररूप से ये श्र्लोक कहे जा रहे हैं और लौकिकजनों को समझाना है, इस कारण ये लौकिकजन जैसे उस भेदविज्ञान की बात शीघ्र समझ सकें, उन लोकों की घटनाओं को बताकर कहा जा रहा है कि देखो पहिने हुए वस्त्र जीर्ण हो जाने पर, फट जाने पर कोई अपने को फटा हुआ नहीं मानता है ।
लोग अच्छा भी वस्त्र पहिनते हैं और पहिनी हुई हालत में कहीं कील छिद गई, कांटा छिद गया तो थोड़ा जीर्ण हो जाता है, फट जाता है – ऐसी स्थिति में वह पुरुष यह सोचे कि मैं फट गया हूं तो ऐसे सोचने वाले को आप पागल ही कहेंगे । जैसे उसे इस पहिने हुए वस्त्र से भी अपने आपके न्यारेपन की श्रद्धा है, चाहे माना उसने देह को ही आत्मा, आत्मा को आत्मा नहीं माना, पर उस वस्त्र को तो न्यारा माना ना अपने से । ऐसे ही ज्ञानीपुरुष इस शरीर के जीर्ण होने पर, सड़ने पर अपने आपको सड़ा और जीर्ण नहीं मानता है ।
सन्मार्ग का परिणाम – भैया ! पूर्वकाल में एक ऐसे मुनिराज हुए हैं, जिन्हें मुनि अवस्था में विशेष रोग हो गया, कोढ़ भी हो सकता है, अन्य व्याधियां भी हो सकती हैं―ऐसी स्थिति में भी उन्होंने अपने को कोढ़ी रोगी अनुभव नहीं किया । अपने को ज्ञानानंदमात्र देखा और अनुभवा । उस ही प्रताप से उन्हें केवलज्ञान हुआ और जैसे केवलज्ञान हुआ तो वह रोगी जीर्ण शरीर एकदम परमौदारिक हो गया और पुष्ट बन गया । ज्ञानी पुरुष इस देह के जीर्ण होने पर भी अपने को जीर्ण नहीं समझते अथवा जैसे पहिले श्र्लोक में यह बताया गया था कि देह के मोटा हो जाने पर भी अपने को मोटा न समझना, घन न समझना, ऐसे ही उसी कथन के निकट उसके प्रतिपक्ष में कह रहे हैं कि देह के दुर्बल हो जाने से अपने को कहीं दुबला नहीं मान लेना । अरे इस आत्मतत्त्व के अनुभव के समय तो शरीर की याद भी नहीं रहती है । क्या है शरीर, हैं भी शरीर ? इस ओर उसकी दृष्टि भी नहीं रहती है । वह तो अपने शुद्ध ज्ञानप्रकाश को ही निरखता है । ऐसा ज्ञानीपुरुष इस देह को स्वबुद्धि से ग्रहण नहीं करता है ।
अज्ञानी का मिथ्या अभेदाभ्यास – अज्ञानी पुरुष इस देह में और इस जीव में ऐसी एकत्वबुद्धि किए हुए है कि वह इस रूप में ग्रहण नहीं कर रहा है कि यह जो देह है, सो मैं हूं, यों अनुभव नहीं कर रहा है । उसे कहां खबर है कि मैं कुछ और हूं, देह कुछ और है । जो दो कर्ता के रूप में वाक्य बनाए, यह और मैं हूं । यह जो देह है, सो मैं हूं – ऐसे वाक्य में भी कर्ता में अभेदभाव नहीं आ सकता है । उसकी तो शरीर में ऐसी बुद्धि है, जैसे कोई एक गोल घड़ा हो तो उसे लोग कहते हैं कि इस घड़े की गोलाई बहुत ही अच्छी है अथवा इस घड़े में गोल आकार है । भले ही कहते जावो कितनी बातें, पर गोल आकार और घड़ा ये क्या न्यारी न्यारी चीजें हैं ? गोल आकार आदि रूप में परिणत यह पदार्थ ही घड़ा है । जैसे यहां घड़े में और घड़े के उस संस्थान में भेद नहीं है, बस वह तो वैसा है, जैसा है । जैसा है, वैसा वर्णन करने में भेद आता है, पर वह घट तो घट ही है । इसी प्रकार अज्ञानी जीव इस देह में यह मैं आत्मा हूं – ऐसा अनुभव नहीं करता, किंतु मैं हूं । मैं शब्द का यहां उस चित्स्वभाव से अर्थ न लेना, यह अज्ञानी की "मैं" है । जो यह मायामयरूप देहपिंड है, उसको ही यह अज्ञानी मैं मान रहा है । वह तो इस देह और मैं में अपनी एकत्वबुद्धि बनाए हैं । उसे यह होस नहीं है कि यह जो देह है, सो मैं हूं । उसकी दृष्टि में यह देह न्यारा कहां है, जो यह मैं को विलग कर सके ।
अज्ञानी में भेदाभ्यास की अबुद्धि – कोई पुरुष कहीं यह का प्रयोग करे तो वह अन्य जगहों में करेगा । आपने शब्दशास्त्र में पढ़ा ही है कि पुरुष तीन होते हैं – अन्यपुरुष, मध्यमपुरुष और उत्तम पुरुष या थर्ड परसन, सेकेंड परसन और फस्ट परसन । अब उत्तमपुरुषीय कर्ता के रूप में उपस्थित हुआ, कोई यदि कदाचित् कहीं अन्यपुरुष को कर्ता बोल दे तो उसका अर्थ यह ही तो हुआ कि वह समझ रहा है कि ये भिन्न भिन्न दो बातें हैं । मैं मैं हूं, यह यह है। फिर माना कि यह मैं हूं । तो फिर इस मान्यता का क्या उठेगा ? पहिले तो उसने भेद डाल दिया। यह तो अज्ञानी के व्यवहार के बारे में ज्ञान की भाषा है, अज्ञानी की भाषा नहीं है । यह शरीर मैं हूं – ऐसा अनुभव अज्ञानी नहीं करता है, किंतु मैं हूं । शरीर को ही देख करके मैं हूं – ऐसा अनुभव करता है ।
अज्ञानी के क्लेशमय अनुभवन – भैया ! जीव और देह के अभेदानुभव के कारण वह अज्ञानी शरीर के जीर्ण होने पर क्लेश मानता है कि मैं बूढ़ा हो गया हूं, ओह चल फिर नहीं सकता हूं। अरे, ज्ञानी यह जानता है कि मैं चल फिर नहीं सकता तो न सही । एक चलने फिरने के व्यर्थ के व्यायाम से बच गया । आंखों से नहीं दिखता है, नहीं दिखता है न सही न देखे, न भोंके । अरे कुछ न देखा और न कुछ रागद्वेष किया । ठीक है, यह भी अच्छा है, पर अज्ञानी तो घबड़ा जाता है । अब मैं चल फिर ही नहीं सकता, क्या करूँ ? अब मुझे कुछ सूझता ही नहीं क्या करूँ ? वह तो अज्ञानी इस देह को ही आत्मसर्वस्व समझता है । वृद्धावस्था में बहुत से लोग ऐसी भी हैरानी मान लेते हैं । क्या करें ? भूख कम हो गई है, मंदाग्नि हो गई, क्लेश मानते हैं, क्योंकि इच्छा तो है बहुत खाने की और मंदाग्नि हो गई, सो अधिक खा सकते नहीं । इसका भी बड़ा क्लेश है और केवल खाने का ही नहीं । पांचों इंद्रियों के विषयों को भोगने की भी यही बात है । पांचों विषयों को भोगने में अब यह समर्थ नहीं रहा, अब नहीं सुनाई देता है । चाहते यह हैं कि मैं राग का संगीत का भली बात का मौज पाऊँ । आंखों नहीं दिखता । चाहते यह हैं कि मैं सुंदर रूप को खूब आँख भर निहारूँ । भोगना चाहते हैं पर भोग नहीं सकते हैं । इसका क्लेश इस अज्ञानी बूढ़े को बढ़ जाता है ।
ज्ञानी की प्रगतिशीलता – ज्ञानी वृद्ध पुरुष को एक ज्ञान की ही प्रबल दिशा मिलती है, वैराग्य बढ़ता है । बाह्यवस्तुओं से उपेक्षा हो जाती है । वह अपने आपमें ज्ञानानुभव ज्ञानप्रकाश अधिकाधिक प्राप्त करता है । बहुत उम्र बीतने के बाद जो बुद्धि प्रस्फुटित होती है वह बुद्धि छोटी अवस्था में होना कुछ कठिन है । इसीलिए वृद्ध पुरुषों का, बड़ों का, बुजुर्गों का सम्मान रहता है । जो युक्ति, जो बात बालक और जवान नहीं समझ सकते हैं उसे वृद्ध पुरुष जानते हैं क्योंकि उनका सारे जीवन का अनुभव है । यों ही समझो ज्ञानी पुरुष जितना विशुद्ध ज्ञान रख सकता है वह बुढ़ापे में और अधिक रख सकता है ।
ढोंकी सूझ – लोक में एक ऐसी कथा प्रसिद्ध है कि एक बार लड़की वाले ने लड़के वाले से यह कह दिया विवाह के समय कि हमारी बरात में बूढ़ा कोई न आये । अब लड़के वाला सोचता है कि बूढ़ों को मना क्यों किया ? कोई इसमें तथ्य है । सो एक काठ की संदुकिया लाया और उसमें दो चार छेद करके एक बूढ़े को उसके अंदर बैठाल दिया । जहां तमाम संदूक साथ में है वहां एक और संदूक साथ में हो गया । लड़की वाले ने क्या किया कि बरात को छकाने के लिए, मजाक करने के लिए जितने बराती थे मानो 25 थे तो 25 गुड़ की भेली डेढ़ डेढ़ सेर की रख दी और उन सब बरातियों से कहा कि नाश्ते में आप सबको एक-एक भेली खानी होगी । अब आप सोचो कि इतनी बड़ी-बड़ी भेली कैसे खायी जा सकेगी ? तो उनमें दो आदमी पहुंचे, संदूक खोल अलग में पूछा कि ऐसी मौत सामने आ गयी है क्या करना चाहिए ? तो उस बूढ़े ने सलाह दी कि सब लोग उछल कूद कर, नाच कूद कर एक दूसरे से छीन-छीनकर भिन्न-भिन्न भेली से तोड़ तोड़ कर खाना शुरू करो तो सारा गुड़ खा लिया जायेगा । उन सबने वैसा ही किया । सबने एक दूसरे से छिन-छिन कर प्रत्येक भेली में से निकाल निकाल कर खाया, यों उछल कूदकर सारी भेलियां खा डाली ।
ज्ञान की विशदता – लोग कहते हैं कि बूढ़ा सठिया जाता है या बुद्धि कम हो जाती है यह बात झूठ है । यह बात उनके लिए ही सत्य है जो विषयों में आसक्त हैं, परिग्रहों में लीन हैं उनकी बुद्धि कम हो जाती है, पर जिनको ज्ञान स्वभाव से ही रुचि है उनकी बुद्धि में तो यह ज्ञानप्रकाश और विशद हो जाता है । ज्ञानी पुरुष जीर्ण देह में भी अपने को जीर्ण नहीं मानता है ।