वर्णीजी-प्रवचन:समाधिभक्ति - श्लोक 16
From जैनकोष
नहि त्राता नहि त्राता नहि जगत्त्रये।
वीतरागात् परो देवो न भूतो न भविष्यति।।16।।
आत्मशरण- हमारी रक्षा इसी बात में है कि हममें रागद्वेष मोह की तरंग न उठे और हम एक जाननहार रहें।जिसको भी अपने आप पर दया आती हो कि मुझे संसार में अब नहीं रूकना है।जन्म मरण के दु:खों को मैं अब नहीं चाहता तो मेरा यह कर्तव्य होता है कि ऐसा ज्ञान बनायें, ऐसा उपयोग बनायें कि रागद्वेष मोह रूप न बर्ते और इस बात के लिए बाहर में किसकी शरण लें? तो मेरा शरण बाहर में वही आत्मा हो सकता है जो रागद्वेष मोह से बिल्कुल दूर हो।उसी को कहते हैं वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा, भगवान।उस वीतराग देव से ऐसे अन्य कोई देव न मेरा कभी रक्षक हुआ है और न हो सकेगा।हम जब दूसरे का सहारा तकें कि जिससे उत्कृष्ट कोई दूसरा न हो।
अपने ज्ञान पर अपने वेदन की निर्भता- भैया !सही बात तो यह है कि हम पर जो कुछ बीतता है वह हमारे उपयोग से ही बीतता है।बाहर कोई कहीं बड़ा रोजगार चल रहा हो और वहां किसी का लाख दो लाख का नुकसान हो गया और खबर उल्टी मिली तो हुआ तो वहां नुकसान पर यहां वह सेठ खुश हो रहा है अथवा हुआ हो वहां फायदा और खबर आ जाय कि नुकसान हो गया तो यहां वह सेठ दु:खी हो रहा है।तो यहां तो ये सुख दु:ख बाहरी चीजों पर निर्भर नहीं हैं।उन बाहरी चीजों के प्रति जो विचार बनाये जाते हैं उन विचारों पर ये सुख दु:ख निर्भर हैं।एक बात और विचारिये कि उसे जो फायदे की बात सुनकर खुशी हुई अथवा नुकसान की बात सुनकर दु:ख हुआ था वह भी उस बात से सुख अथवा दु:ख नहीं हुआ, किंतु उस बात को सुनकर जो गहरे रूप से विचार उससे उसे सुख अथवा दु:ख हुआ।अगर उस नुकसान की बात सुनकर भी यदि वह सेठ विवेक से काम लेता कि अरे उस नुकसान से मेरा क्या बिगाड़ हो गया, वे तो परपदार्थ हैं, मेरे से अत्यंत भिन्न हैं, मैं आत्मा तो इस देह से भी निराला ज्ञानमात्र हूं, लो इस प्रकार के विचार यदि वह सेठ बना लेता तो कहां उसे दु:खी होना पड़ता? तो जब ये सुख दु:ख अपने उपयोग पर ही निर्भर हैं तो अपना ऐसा उपयोग बनायें कि जिससे शांति मिले।और जो शांत पुरूष हों उन पर ही हमारी दृष्टि रहे।ये जगत के बीच के झगड़े हैं।रागद्वेष मोह आदिक के ये सब झगड़े हमारी कुबुद्धि के कारण बन रहे हैं।हम आश्रय तकें, देव मानें, भगवान मानें तो उसको मानें।उसका आलंबन, उसका स्मरण ही मेरे लिए शरण है।वीतराग उत्कृष्ट स्वरूपदेव के सिवाय अन्य कोई देव इस लोक में मेरा रक्षक नहीं है, इस प्रकार का दृढ़ निर्णय है समाधिभक्त ज्ञानी संत का।
समाधिभक्त संत का लक्ष्य- जिसने यह निर्णय कर लिया है कि समता परिणाम ही मेरे लिए शरण हैं, रागद्वेष मोहादिक की बातें मेरे लिए शरण नहीं है वह समझो समाधिभक्त बन गया।समाधिभक्त पुरूष समाधिमूर्ति ज्ञानपुन्ज वीतराग अविकार निर्दोष परमात्मातत्त्व को अपना शरण समझता है।जैन शासन पाने की सबसे बड़ी देन यही है कि वस्तुस्वरूप की यथार्थ समझते रहें।वस्तु के यथार्थ स्वरूप के जानने से ही मोह मिट रहा है।मोह न रहे, इससे बढ़कर कोई वैभव नहीं है।यदि इस मोह को हटाने का व अपने को केवल ज्ञानमात्र अनुभव करने का हम जरा भी विचार नहीं करते तो हमारा यह जीवन बेकार है।भले ही अच्छे पुत्र हैं, अच्छी स्त्री है, अच्छा घर है, सभी का अच्छा बर्ताव है, बड़ी मौज है, बड़े सुख से रहते हैं, लेकिन इस सुख का क्या उठेगा? मृत्यु तो निकट आ रही है।यह भव छोड़कर कहां जाना पड़ेगा, यहाँ के प्राप्त समागम कुछ भी तो साथ न जायेंगे।यह मोह तो इस जीव पर सबसे बड़ी विपत्ति है।तो हमें इस मोह को दूर करने के प्रयत्न में रहना चाहिए।गुरूवों से मिलें तो, तीर्थ यात्रायें करें तो, दर्शन, पूजन, वंदन आदि करें तो, सभी प्रसंगों में उद्देश्य यही रहना चाहिए कि किसी प्रकार मेरा मोह तो हटे कि वास्तव में मेरा कोई कुछ है नहीं, कोई कुछ रहेगा नहीं, कोई कुछ मेरा था नहीं।अत्यंत भिन्न पदार्थ हैं ये सब जीव।ये जड़ वैभव न मेरे कुछ हैं, न कभी न हुए, न कभी हो सकेंगे।उन्हें मैं अपना मानूँ तो ये मिथ्या कल्पनायें हैं, मिथ्याभाव हैं, और मिथ्याभाव की कभी विजय नहीं हो सकती।भैया ! ये पदार्थ बिखरेंगे, नष्ट होंगे और इनके स्नेह के कारण जो पापकर्म बँधे उनका फल मिलेगा।जिन चीजों में हम आप इतना मोह कर रहे हैं और पापकर्म बँध रहे हैं वे चीजें तो मिलेंगी नहीं, लेकिन जो पाप बाँधा है वे पापकर्म फल दिए बिना खिरेंगे नहीं।इस कारण मोह करना मेरी बरबादी का ही कारण है।यह मोह दूर हो, इतनी बात हमारे चित्त में अवश्य आनी चाहिए।
अमीरी और गरीबी- भैया !हम आपके पास कुछ वैभव ही क्या है, बड़े-बड़े तीर्थंकर, चक्रवर्ती, इंद्र आदि अटूट वैभव के स्वामी होते हैं।लेकिन इतने बड़े वैभव को प्राप्त करके भी सम्यग्दृष्टि पुरूष उन समस्त वैभवों से निराले रहते हैं।उनके चित्त में यह बात रहती है कि सारा वैभव मेरा कुछ नहीं है।लेकिन इन मोही जीवों की यह दशा है कि थोड़ा सा भी धन मिल जाता है तो उसे वे अपना सर्वस्व समझ लेते हैं, उसे छोड़ना नहीं चाहते, उसको ठीक-ठीक समझना भी नहीं चाहते।तो मोह के त्यागे बिना शांति पा लें यह बात हो नहीं सकती।बात तो जो सही है वह चित्त में समा जानी चाहिए।परपदार्थों का संबंध, परपदार्थों का राग जब तक नहीं छूट रहा, न सही, पर सही बात जान लेने में तो कुछ आपत्ति नहीं है।शांति मिलेगी, इसलिए यह यथार्थ निर्णय रखें कि जब यह देह तक मेरा नहीं है तो फिर ये जो प्रकट भिन्न परपदार्थ हैं, ये मेरे होंगे ही क्या? जब कर्म विपाकवश उत्पन्न हुए ये रागादिक भाव ही मेरे नहीं हैं तो अन्य पदार्थ मेरे क्या हो सकेंगे? इस प्रकार का ठीक निर्णय रखें और अमीर बनें।यदि सच्चा ज्ञान नहीं है तो समझिये कि हम पर बड़ी गरीबी छाई है।गरीबी किसे कहते हैं? उस स्थिति को जिसमें पर की आशा लगायी जा रही है।यदि सत्य ज्ञान नहीं है तो आशा तो न मिटेगी।पर की आशा हम रखें और ऐसी श्रद्धापूर्वक रखें कि पर से ही हमें सुख मिलेगा, इससे ही मेरा बड़प्पन है तो ऐसा जो परिणाम है, अज्ञान का जो भाव है यह गरीबी है।यह जड़ वैभव अधिक हो गया तो उससे गरीबी न मिटेगी।अथवा जड़ वैभव न रहे तो जो ज्ञानी है उसके गरीबी न आयगी।भाव की गरीबी है, भाव की अमीरी है, भावों में ही सुख है, भाव में ही दु:ख है।हम और लोगों में जो बहुत समय रहा करते हैं, दुकान के कारण, व्यापार के कारण, व्यवहार के कारण, उनमें रहकर बुद्धि और फिर जाती है और चित्त चाहता है इज्जत हो मेरा बड़प्पन रहे, ये लोग मुझे कुछ समझें।इस प्रकार के जो भाव हैं वे बड़ी गरीबी के भाव हैं।उनसे क्या आशा रखें? आश्रय तकें तो वीतराग सर्वज्ञ प्रभु का।मोही, मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी, कर्म प्रेरित, दु:खी, प्राणियों की हम क्या आशा तकें कि ये लोग मुझे कुछ समझें? अरे प्रभु के ज्ञान में हम अच्छे रहें, इस तरह की आशा रखनी चाहिए।तो वीतराग से उत्कृष्ट देव न कोई हुआ, न होगा और न कोई मेरा रक्षक है, न होगा।वीतराग देव का स्मरण ही मेरा रक्षक है।