वर्णीजी-प्रवचन:समाधिभक्ति - श्लोक 17
From जैनकोष
जिनेभक्तिर्जिने भक्तिर्जिने भक्तिर्दिने दिने।
सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवेभवे।।17।।
समाधिभक्ति की समाधिमूर्तिभक्ति- जिन्होंने रागद्वेष मोह को नष्ट कर दिया है ऐसे वीतराग जिनेंद्र में, ऐसे जिनेंद्र प्रभु में, ऐसे ज्ञानपिंड में मेरी भक्ति दिन-दिन रहे।समाधिभक्ति पुरूष अपने आपको प्रभु में समर्पण कर दे।मेरा शरण केवल वह ज्ञानज्योति ही है, मेरे हाथ पैर हैं।जो मैं हाथ पैर से प्रभु के पास जाऊँ।प्रभु भी ऐसा कोई शरीरधारी नहीं है कि जहाँ वे विराजे हों वहाँ मैं पहुंचूँ।प्रभु भी ज्ञानपिंड हैं और मेरे भी हाथ, पैर, अंग अवयव आदिक शरीर बिना ज्ञान हैं।ज्ञान के द्वारा मैं उस ज्ञान पिंड को अपने ज्ञान में बसा लूँ, बस यही प्रभु का मिलन है।प्रभु का दर्शन अन्य भाँति से नहीं हो सकता।समस्त परपदार्थों का विकल्प तोड़कर अपने ज्ञान द्वारा अपने ज्ञान में ज्ञानस्वरूप को बसा लें तो एक अलौकिक आनंद का अनुभव होगा।उस अनुभूति में प्रभु का साक्षात् मिलन हो रहा है।वीतराग ज्ञानपुन्ज प्रभु में मेरी भक्ति सदा रहो, भव-भव में रहो, जब तक मुझे इस संसार में रहना पड़ रहा हो तब तक प्रत्येक भव में यह प्रभुभक्ति मेरे चित्त में रहे।जो पुरूष जिसके स्वाद का आनंद ले लेता है और हो वह आनंद बहुत उत्कृष्ट तो उसकी याद रहती है, विस्मृति नहीं होती है और उत्सुक बराबर उसी के लिए रहता है।जिस ज्ञानी पुरूष ने चेतन अचेतन समस्त परिग्रहों को भिन्न जानकर अपने आपमें बड़े आराम से रहकर एक सहज स्थिति का अनुभव कर लिया है और उसमें अनंत आनंद का अनुभव कर लिया है उस पुरूष को जगत की कोई बाहरी बातें कैसे सुहा सकती हैं? परपदार्थों में सार है, उनसे मेरा उद्धार है इस प्रकार का भ्रम वे कभी नहीं कर सकते।जैसे रस्सी को साँप समझने वाला पुरूष घबड़ाता है, दु:खी होता है, कभी हिम्मत बनाकर थोड़ा निकट जाकर परख करे तो उसे और हिम्मत बढ़ती है कि यह तो साँप सा नहीं मालूम होता, और निकट गया, बिल्कुल पास में गया तो उठाकर देख लिया कि यह तो कोरी रस्सी है।अब उसे कोई कितना ही बहकाये कि यह तो साँप है तो वह कैसे मान लेगा? जब स्पष्ट अनुभव में आ गया कि यह रस्सी ही है तो अब उसे भ्रम नहीं हो सकता।पहिले भ्रम था, इसी प्रकार यह जीव अनादि काल से भ्रम ही भ्रम करता चला आया और उस भ्रम के फल में अनंत दु:ख भोगे, लेकिन इस जिनवाणी माता की कृपा से आज भ्रम दूर हुआ है, सत्य समझा है कि जगत के प्रत्येक जीव सब प्रकार से एक दूसरे से भिन्न हैं, अब इसे कोई कितना ही प्रलोभन देकर भ्रम में डालना चाहे तो यह भ्रम में नहीं पड़ सकता।अपने आपका अनुभव इतनी बड़ी महिमा रखता है।तो ऐसे ही जो भगवान हुए हैं, ज्ञानमूर्ति उनकी ही भक्ति मेरे चित्त में रहो।
कल्याण लाभ का धाम- यद्यपि दुनियावी लोगों की नजर में ऐसा दिखेगा कि भगवान से हम क्या चाहें? उनके पास तो कुछ भी नहीं है, वे तो केवल ज्ञानमात्र हैं, ज्ञानज्योतिस्वरूप हैं, उनको छोड़कर किसी धनिक की सेवा करें तो उससे कुछ धन भी मिल जायगा, प्रभु से क्या मिलता है? लेकिन आपने कभी यह सोचा भी होगा जिस समुद्र में अथाह जल है उस समुद्र से क्या कभी कोई नदी भी निकली है? जिस पहाड़ पर एक बूँद भी नजर नहीं आती उस पहाड़ से बड़ी-बड़ी नदियां और बड़े-बड़े स्रोत नाले निकल आते हैं।तो इसी तरह जानो कि जिसके पास कुछ भी धन वैभव नहीं है, स्त्री पुत्रादिक नहीं हैं, केवल ज्ञानपुन्ज है उस ज्ञानपुन्ज के स्वरूप के अंदर तो देखिये, उसके लगाव से आपको वह वैभव प्राप्त हो सकता है जो शाश्वत है, जो सदा संकट से बचा देगा और साथ ही जब तक संसार में रहना है तब तक भी उस ज्ञानमूर्ति भगवान की उपासना से वे वैभव मिलेंगे जो वैभव अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों को नहीं मिल सकते।तीर्थंकर, चक्रवर्ती बड़े इंद्रादिक होना ये सब पद इस ज्ञान के प्रताप से ही मिल सकते हैं, अज्ञान से नहीं मिल सकते।यहां की तो ऐसी बात है कि पुण्य का उदय तो था ज्यादाह और यहां मांग बैठे थोड़ा तो उसे थोड़ा मिल जाना आसान सा हो जाता है।और लोग यह समझ लेते हैं कि इन मोहियों की सेवा करने से मुझे इतनी श्री का लाभ हुआ है, ये सब पुण्यपाप के ठाठ हैं।अपने आपको अपने आपमें निरखिये कि मैं अकेला हूं, मेरा कोई दूसरा साथी नहीं है।हम अपना भला चाहते हैं तो हमें अपने को अकेले में ही कुछ करना पड़ेगा।मेरा कोई दूसरा मददगार नहीं है, चाहे कोई कितना ही प्रेमी हो।मेरे असली काम के लिए सदा के लिए समस्त संकटों से छूट जाने के लिए मेरा मैं ही काम आ सकता हूं।मेरे काम कोई दूसरा नहीं आ सकता।हां इस कार्य के लिए एक स्मरण के विषय के रूप में वीतराग सर्वज्ञदेव मेरे काम आयेंगे।पंच परम गुरु अरहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय और साधु, इनकी सेवा एक निर्मोह होने की दृष्टि से कोई करता है तो वह सेवा तो शरणभूत है, बाकी अन्य जीवों की सेवा, अन्य जीवों का संपर्क, उनमें घुलमिलकर रहना, मौज मानना, यह लाभदायक बात नहीं है।हालांकि जीवन में थोड़ा यह भी हो जाता है, हो, किंतु अपने उद्देश्य से अगर भूल करके रहे तो समझो कि हम बड़े भारी संकट में हैं।तो अपने उद्देश्य को न भूलें, सच्ची अमीरी प्राप्त करना चाहिए।तो ऐसे जो
पूर्ण सच्चे अमीर हैं वीतराग निर्दोष निर्विकार, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति अनंतआनंद से संपन्न वीतराग जिनेंद्रदेव में मेरी भक्ति दिन-दिन रहो, सदा रहो, भव-भव में रहो।यदि अपने पुरखों के विरूद्ध चले तो सपूत कहलाने के अधिकारी हम नहीं हैं।अपने पुरखा कौन हैं।अपने जो दादा, बाबा, परदादा आदि हुए उनकी बात हम नहीं कह रहे किंतु पुराणपुरूष महापुरूष हो गए हैं उनकी बात हम कह रहे हैं।बड़े-बड़े तीर्थंकरों ने, बड़े-बड़े नारायण बलभद्र आदिक महापुरूषों ने क्या किया? वह यदि हम श्रद्धा में रख सके, कर सके तो हम आप इस चैतन्य कुल में सपूत कहलाने के अधिकारी हैं और रागद्वेष मोह में ही रहे तो हम उन पुरखों के सपूत कहलाने के अधिकारी नहीं हैं।
अपनी संभाल बिना विडंबना- जरा इन पशुवों के क्लेश तो देखिये झोंटों को बाँध दिया धूप में, उसकी कुछ खबर ही न रहे तो बँधा ही रहे वह धूप में।कितना बलवान होता है झोंटा, फिर भी एक पतली रस्सी में बँधा हुआ वह दु:ख भोग रहा है।इस आत्मा पर कितना बड़ा अन्याय हो रहा है! सूकर, मुर्गा, मुर्गी, आदिक पशुवों की तो लोग कुछ कीमत ही नहीं आँकते।जब चाहे गर्दन पकड़कर मरोड़ देते हैं या छुरी से काट देते हैं।ये जीव हैं क्या? ये हम आपके ही समान तो हैं।हम आप भी कभी यही थे और अगर न संभले तो फिर ऐसा ही बनना पड़ेगा।आज जरा-जरा सी बात में हम दु:ख का अनुभव करते हैं और समस्या सामने ऐसी कष्ट की रख लेते हैं कि उसमें उल्झे रहते हैं और अपना हित नहीं कर पाते।मगर देखो तो सही ये दु:ख तो कुछ भी नहीं हैं जिनका हमने पहाड़ बना रखा है।इन पशु, पक्षी, कीड़ा मकौड़ों के दु:खों का तो जरा कुछ विचार कीजिए।जब हम आपको भी ऐसे दु:ख मिलेंगे तब क्या होगा तो इससे भला यह है कि इस जीवन में किसी भी स्थिति में दु:ख न मानें।कुछ भी हो रहा हो, दृष्टि दें कि ये परपदार्थ हैं, इनका ऐसा परिणमन हो रहा है, घर के आदमियों की परवरिश बहुत ऊँचे स्तर से नहीं हो पा रही है तो दु:ख मत मानो।ऐसा समझ लो कि इनका ऐसा ही उदय है, ऐसा ही इनका भाग्य है।ये अपने पुण्य के माफिक अपना व्यवहार चला रहे हैं, मैं इनका क्या करता हूं? मैं तो केवल भाव ही करने वाला हूं, अन्य कुछ नहीं करता हूं, घर में जो लोग रह रहे हैं उन पर उनके कर्मानुसार बीत रही है, उन पर मेरा कुछ अधिकार नहीं है, न उन पर मेरी कोई करतूत है।किसी भी बात में खेद खिन्न मत हो इस जीवन में।बड़ी दुर्लभता से यह नरभव प्राप्त किया है।इस नरभव में अपने सहज ज्ञान स्वरूप को देख देखकर खुश रहें, उसकी उपासना में ही रहें तो समझिये कि हमने कुछ पुरूषार्थ किया, अन्यथा यह लोक 343 घनराजू प्रमाण है, यहाँ के मरे न जाने कहाँ के कहाँ पैदा होंगे, न जाने क्या बीतेगी? आज तो कुछ हमारे हाथ में है, ऐसा लग रहा है, पर उन पशु पक्षी, कीड़ा मकोड़ा के भवों में पहुंचकर तो ऐसी स्थितियाँ बीतेंगी कि कुछ भी मेरे वश का न रहे।यहाँ श्रेष्ठ मन है, ज्ञान व विवेक है, सत्संग भी मिलता है, उपदेश भी मिल रहे हैं, ऋषि संतों की अपार करूणा भी मिल रही है, सब कुछ मेरे हाथ है।मैं ज्ञान को संभालूँ तो मैं अपना उद्धार कर लूँगा।यहाँ के मरे न जाने कहाँ के कहाँ पैदा होंगे, न जाने किस गति में जायेंगे, फिर क्या हाथ रहेगा? यहाँ ही यदि विवेक नहीं कर पा रहे हैं, अपने आपके उद्धार की बात नहीं कर सक रहे हैं तो यह बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं।यहाँ की चिकनी चौपड़ी बातों में, इन बाहरी रूपों में, इन बाहरी स्नेहों में समय न गुजारें।
आत्मसंव्यवहार- घर में रहें गृहस्थजन तो इस तरह से रहें जैसे जल से भिन्न कमल है।सत्य बात समझते रहें।कमल जल में रहता है फिर भी जल से भिन्न है।जल से ही पैदा हुआ है, जल में ही पैदा हुआ है फिर भी जल से अलग है।बल्कि उस जल में यदि वह कमल स्पर्श कर जाय तो कमल सड़ जायगा, उसका विकास नहीं हो सकता।इसी तरह समझिये कि हम आप जिस घर में रह रहे हैं, फिर भी यदि उस घर में अपना संपर्क बनाया, मोह बनाया तो फिर हम आप पनप नहीं सकते।जितना घर से विरक्त रहेंगे उतना ही हम अपना भला कर सकेंगे।एक ही निर्णय है।दूसरी बात प्रधान रूप से अपने चित्त में मत लाइये।मैं मैं हूं, अपने आपके स्वरूप से हूं, किसी पररूप नहीं हूं, मेरा अन्य कुछ नहीं है, किसी का मैं नहीं हूं, मैं अकेला ही अपने आपमें अपना काम किया करता हूं, मैं अकेला ही अपनी सारी सृष्टि किया करता हूं, सारी जिम्मेदारी मेरी भविष्य के लिए मेरे अपने आपके अकेले पर ही है, दूसरा कोई मेरे लिए रंच भर भी मददगार नहीं है।ऐसा अपना पक्का निर्णय करिये।मेरा मैं ही अपना सुधार अथवा अपना बिगाड़ कर सकता हूं, अन्य कोई नहीं कर सकता।इन विषय कषायों से प्रतीतिपूर्वक हटें, इनसे अपने को निराला रखें, और कुछ भी में दूसरों का बसायें, किसी का ध्यान न करें, अपने आपके ज्ञान को साफ रख लें, बस यही सच्चा धर्मपालन है।ध्यान में यही किया जाता है।बड़े-बड़े योगी पुरूष जंगल में रहकर यही किया करते हैं।यह बात गृहस्थी में अधिकतर नहीं होती इसलिए गृहस्थी को छोड़कर योग धारण करना पड़ता है।लेकिन योगी भी मनुष्य है, गृहस्थ भी मनुष्य है।योगी के भी ज्ञान है।जो बात योगी कर लेता है उस की झलक गृहस्थ भी कर सकता है।पर गृहस्थ थोड़ा कर पाता है क्योंकि उसमें अनेक विघ्न आ जाते हैं।इसी कारण गृहस्थ मार्ग से मुक्ति नहीं, योग मार्ग से ही मुक्ति प्राप्त होती है।किंतु मुक्ति में जो आनंद है, योगीजन जो आनंद पाते हैं उसकी झलक उस गृहस्थ को भी मिल जाती है जो गृहस्थ अपना सच्चा विवेक बनाये।तो ऐसे ये प्रभु मेरे चित्त में सदा निवास करो।