वर्णीजी-प्रवचन:समाधिभक्ति - श्लोक 19
From जैनकोष
विघ्नौघा: प्रलयं यांति शाकिनीभूतपन्नगा:।
विषं निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वर।।19।।
समाधिमूर्ति जिनराज के स्तवन की महिमा- समाधिभक्ति का यह अंतिम छंद है।जिनेंद्र भगवान के स्तवन की महिमा बतायी जा रही है।प्रभु का स्तवन करने पर समस्त विघ्नसमूह प्रलय को प्राप्त हो जाते हैं।पिशाचिनी, भूत, सर्प आदिक ये सब शिथिलता को प्राप्त हो जाते हैं।प्रभुभक्ति में यह उपयोग कहाँ जाता है? एक ज्ञानस्वरूप में।ज्ञानस्वरूप में ज्ञान पहुंचे तो वहाँ ऐसी निर्विकल्पता होती है, ऐसी अकषायता जगती है कि ये भव-भव के पड़े हुए कर्मबंधन ढीले हो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं।पापों का भार जहाँ दूर हुआ, इस आत्मा को अनेक ऋिद्धियाँ सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।और ये बातें तो एक ज्ञानपुन्ज प्रभु की महिमा में एक उपचार के रूप में बतायी जा रही हैं।जैसे कोई खेती करता है तो वह खेती की महिमा गाये कि खेती करने से तो पचासों मन भुस पैदा हो जाता है तो यह उसकी कोई असली खेती की महिमा नहीं हुई।यह तो एक उपचार की बात है।यदि ऐसी महिमा गाये कि खेती करने से अनाज पैदा होता है जिससे प्रजाजनों के संकट दूर होते हैं और सबको सुख से जीवन रखने का कारण बनता है तो वह सच्ची महिमा है।तो ऐसे ही प्रभु जिनेंद्रदेव का स्मरण करने से जो लौकिक बाधायें दूर होती हैं वह तो खेती करके भुस प्राप्त करने की तरह है।उसका वास्तविक फल तो यह है कि ज्ञानपुन्ज प्रभु की भक्ति करने से, ज्ञान में ज्ञान समा जाने से कर्मसंकट जन्ममरण भय संसार सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं, यह है ज्ञानपुन्ज की भक्ति का उत्कृष्ट फल।
जीव की वास्तविक बाधा और समाधिमूर्तिभक्ति से बाधापरिहार- इस जीव को बाधा है क्या? रागद्वेष मोह की कल्पनायें जगना, यही बाधा है।दूसरी आत्मा के अंदर कोई बाधा नहीं है।जिन्हें लोग बाधा समझते हैं कोई रोग हो गया, धन कम हो गया, अपने पास आराम के साधन नहीं हैं आदि, तो ये बाधायें नहीं हैं।ये सब तो जीव के भ्रम हैं।जीव को बाधायें ये हैं जो भीतर में कल्पनायें जगें, कषाय जगें, रागद्वेष मोहादिक जगें, कुछ साधन नहीं हैं, नहीं रहें तो न सही, यदि ज्ञानप्रकाश जग जाय और ज्ञान ज्ञान में ही लीन हो जाय तो फिर कोई बाधा नहीं रहती।तो इस जीव की बाधा है असमाधि।समाधिभाव न जगना, रागद्वेष मोह के परिणाम उठाना दूर हो, समाधिभाव प्रकट हो तो यह बाधारहित हो गया।तो इस ज्ञानी पुरूष को केवल एक समाधि ही इष्ट है, और वह समाधि कैसे जगती है? तो पहिले तो शास्त्राभ्यास करना, श्रुतज्ञान बढ़ाना, उससे भीतर में एक अंतर्भावना बनायें और अपने आत्मा के अभिमुख अपने ज्ञान को लगायें।यही है अंतस्तत्त्व, यही है समाधिभाव।तो अपने आत्मा के अभिमुख अपने ज्ञान को लगाना, ऐसा इस देव का, ऐसा इस ज्ञानस्वरूप का दिखना होना, जब तक वितर्क विकल्प भी छूट जाते हैं और मात्र ज्ञान नेत्र से ही इस ज्ञानस्वरूप को यह निहारता रहता है उस समय इसमें समाधिभाव प्रकट होता है।ऐसा समाधिभाव जगने पर संसार का कोई कष्ट नहीं रहता।इस समाधिभाव की ज्ञानी याचना कर रहा है और इस समाधि के रूप में ही प्रभु को निरख रहा है।इस समाधि की ही यह प्रतीक्षा कर रहा है।हे नाथ ! मेरे रागद्वेष मोहरहित, विकाररहित, ज्ञानानुभवरूप परमसमाधि प्रकट हो, इस ही में मेरा कल्याण है और यही एकमात्र अभ्यर्थनीय परमतत्त्व है।
समाधिभक्ति प्रवचन समाप्त