वर्णीजी-प्रवचन:समाधिभक्ति - श्लोक 18
From जैनकोष
याचेऽहं याचेऽहं जिन तव चरणारविंदयोर्भक्तिम्।
याचेऽहं याचेऽहं पुनरपि तामेव तामेव।।18।।
जिन चरण भक्ति की अभ्यर्थना- हे जिनेंद्र भगवंत ! मैं तुम्हारे चरणकमलों की भक्ति को माँगता हूं, माँगता हूं।और फिर भी उस ही चरणारविंद भक्ति को ही मैं माँगता हूं।समाधिभक्त संत समाधिभक्ति की सिद्धि के प्रयोजन में प्रभुगुण स्मरण कर रहा था।उस गुणस्मरण से जो इसे आनंद आया, जो इसे सत्पथ का दर्शन हुआ उससे प्रसन्न होकर प्रभु से यही चाहता है, अन्य कुछ नहीं चाह रहा।साकार भगवान के चरण व्यवहार दृष्टि से बंदे जा रहे हैं और भगवान के भगवत् स्वरूप को निरखकर, भगवान के चरण हैं ज्ञान और दर्शन।ज्ञानदर्शनस्वरूप यह आत्मतत्त्व है।जिसका ज्ञानदर्शन विशुद्ध प्रकट हुआ है वही भगवान है।उसकी भक्ति को यह समाधिभक्त चाह रहा है।हम आप सब चेतन हैं।चेतने का हम आपमें स्वभाव है।यहाँ चेतना सामान्यरूप से और विशेष रूप से होती है।पदार्थों की जो जानकारी है यह जानकारी विशेष चेतना कहलाती है।जब पदार्थों के इस विविध रूप का भान नहीं रहता और केवल एक सत्त्व का ही भान रहता है तो उसे कहते हैं सामान्य चेतना।हम आपका बस एक यही है मूल में वैभव।इसके अतिरिक्त जो कुछ भी हम अपना बनाना चाहते हैं वह सब मोह का अँधेरा है।इस ज्ञानदर्शन स्वरूप पर दृष्टि जाय तो आत्मा को सच्चा प्रकाश मिला समझिये।
पदार्थ की एकत्वविभक्तता के ज्ञान से आत्मलाभ- कोई भी पदार्थ होता है तो उसका कुछ निजी स्वरूप होता है।ऊपरी बातें कितनी भी लगा दी जायें उन सब अन्य पदार्थों के संपर्क होने पर भी सबका निजी-निजी स्वरूप स्वयं में रहता है।जैसे पानी में तेल मिला दिया गया तो तेल का स्वरूप तेल में और पानी का स्वरूप पानी में पड़ा हुआ है।वे तेल और पानी तो खैर न्यारे-न्यारे जँच रहे हैं लेकिन दूध और पानी को मिला देने पर उन्हें तेल और पानी की भाँति अलग-अलग नहीं समझा जा सकता।दूध में पानी उस तरह तो नहीं तैर रहा जिस तरह से पानी में तेल।वे दूध और पानी बिल्कुल एकमेक हो जाते हैं, घुलमिल जाते हैं, इतने पर भी दूध के कण-कण का स्वरूप पानी में है।दूध पानी एक नहीं हो गए।ऐसे ही आप समझिये कि यहाँ कितने भी बाह्य पदार्थों का संबंध हो जाय, शरीर भी यहीं है तैजस शरीर भी यहीं है।कार्माण शरीर भी यहीं है, आत्मा भी यहीं है, सब कुछ एक जगह एक क्षेत्रावगाह होने पर भी सबका स्वरूप उनका न्यारा-न्यारा उन-उन ही में है।एकमेक नहीं हो जाते।ऐसी दृष्टि लगाकर जो सबसे निराला ज्ञानमात्र अपने को निरखता है बस वही संसार से पार होता है।सर्वसंकटों से छूटने के लिए एक मूल में यही उपाय है कि मैं अपने आप सहज जैसा हूं तैसा अपना अनुभव कर लूँ।इस सहज स्वतत्त्व के अनुभव लिए जाने पर फिर संसार की कोई भी वस्तु अपने को बहका नहीं सकती, मोहित नहीं कर सकती, अज्ञान में नहीं डाल सकती।आखिर वियोग तो होता ही है।जिनका समागम आज प्राप्त है उनका वियोग होगा।भव-भव में जन्म लेंगे, नये-नये संयोग मिलेंगे, उनका वियोग होगा और वियोग के समय यह जीव दु:खी होता है।भला यह तो सोचिये कि जिसका हमें संयोग मिलेगा उसका संयोग आज तो नहीं है और न उस चीज के संयोग के प्रति आज कुछ कल्पना भी है, न इच्छा भी स्पष्ट हो पाती है कि मुझे आगे ऐसे संयोग मिलें।फिर भी जिनके भविष्य के संयोग की भी वान्छा है वे तो तीव्र मिथ्यादृष्टि हैं।अक्सर आगामी भव के संयोग की कोई इच्छा नहीं करता, और इस भव का संयोग मिटेगा ही।यदि यह जीव इस जीव के संयोग से इस समय निराला रह जाय तो उसके भविष्य का सारा काम बन जाय।जैसे ठंड के दिनों में तालाब में नहाने के लिए 4-6 बालक उस घाट पर गए जिस घाट से कूदकर पानी में उतरा जाता है।तो घाट पर वे बालक बैठे हुए हैं।ठंड के मारे किसी की हिम्मत नहीं हो रही है कि पानी में कूद जाय।यदि कोई बालक दो चार सेकेंड को ही साहस बना ले कि मुझको तो इस पानी में कूदना है, पानी में कूदने के बाद उसे फिर ठंड की बाधा नहीं रहती।यह ठंड तब तक ही सता रही है जब तक कि उस पानी में प्रवेश नहीं है, ऐसे ही समझिये कि एक भव का समय यह कितना सा समय है इस अनंत काल के सामने? इसका कोई अनुपात भी नहीं बैठता।न कुछ चीज की तरह है।यदि इस ही कुछ समय के लिए हम साहस बना लें, अपने चित्त में प्रबल धारणा बना लें कि सारे पदार्थ का संयोग असार है, भिन्न है, अहित रूप है, उससे मेरा कोई संबंध नहीं है, भीतर में एक ऐसा ज्ञानप्रकाश आ जाय, फिर सदा के लिए संकट मिट जायेंगे।निर्मोह होने का उपाय बना लेना इस जीव की शांति के लिए एकमात्र सर्वोत्कृष्ट पुरूषार्थ है।कल्याण के लिए और करना ही क्या है? व्यर्थ का जो मोह लगा रखा है, जिसमें कुछ सच्चाई नहीं है उस कल्पित व्यर्थ के मोह को हटाना है।इतनी ही बात धर्मपालन के लिए की जानी है।
मोह की व्यर्थता- आप देख लीजिए कि व्यर्थ का मोह है कि नहीं।आज जिन परिजनों का संबंध है, स्त्री पुत्रादिक का संबंध है वे आज मोहवश आपको बड़े सुहावने और सच्चे लग रहे हैं, ये सब मेरे ही तो हैं, लेकिन यह तो बतलावो कि आपके यदि हैं तो आपके साथ पहिले भी थे क्या? आगे भी रह सकेंगे क्या? आज थोड़ा मोहभाव बनाया जा रहा है, लेकिन मरण के बाद, वियोग होने के बाद सबकी शकलें बदलेंगी, सबके भव बदलेंगे और ये ही जीव फिर दूसरे भव में आपके सामने आयेंगे।आपको उनमें मोह नहीं जग सकता।जैसे एक पौराणिक कथा है कि एक सेठ अपने चैत्यालय में बैठा हुआ जाप किया करता था।एक दिन उसके मन में ऐसा आया कि आज रात्रि में हम उतनी देर तक सामायिक करेंगे जितनी देर तक यह दीपक जलता रहेगा।उसे यह पता तो था ही कि इसमें इतना तेल है और करीब दो घंटे तक जलेगा।उसने इस बात को किसी से बताया भी न था जब वह सेठ ध्यान में बैठा हुआ था तो उसकी स्त्री आयी और देखा कि वह तो सामायिक में बैठे हैं और दिये का तेल खत्म हो गया है, दीया अब बुझने वाला है तो उस दीये में तेल डाल दिया, वह फिर पहिले की भाँति जलता रहा, फिर तिबारा आकर देखा कि दीये का तेल खत्म होने को है तो और भी तेल डाल दिया।यों वह दीपक सारी रात जलता रहा।और वह सेठ सारी रात सामायिक में बैठा रहा।कुछ विशेष परिश्रम होने से उसे बड़ी जोर की प्यास लगी, उस समय उसके बड़े संक्लेश परिणाम हुए और उसकी आयु भी उसी समय समाप्त होनी थी, सो वह उस संक्लेश परिणाम में मरकर मेंढक हुआ, और मेंढक भी अपने घर की बावड़ी में हुआ।अब सेठानी उस बावड़ी में पानी भरने जाये तो वह मेंढक उछल कूदकर सेठानी के अंगों पर आये।लेकिन अब मेंढक से कौन प्यार करे? जीव तो वही था जो सेठानी को मनुष्य के भव में अत्यंत प्यारा था, लेकिन मेंढक के भव में आने पर उससे कौन प्यार करे? तो कुछ समय बाद उस सेठानी ने किसी मुनि से पूछा कि महाराज मेरी बावड़ी में एक मेंढक रहता है।जब मैं पानी भरने जाती हूं तो वह उछल कूदकर मेरे अंगों में चिपटता है, यह क्या बात है? तो वह मुनि अवधिज्ञानी था।उसने अवधिज्ञान से विचार कर बताया कि वह मेंढक पूर्व भव में तेरा पति था, लेकिन इस तरह से संक्लेश परिणाम करके मरण होने से यह मेंढक बना।तो सेठानी को उस मेंढक पर कुछ दया तो आयी, मगर यह तो उससे नहीं हो सकता जो मनुष्य की पर्याय में उससे होता था।उसका तो भव ही बदल गया।तो आप बतलावो कि किसका कौन है?
मोहविकल्पों की स्वप्नसमता- जितनी देर को मोह जग रहा उतनी देर को यह स्वप्न जैसी बात चल रही है समझिये।जैसे कोई ऐसा स्वप्न आया कि हमें बड़ा राजपाट मिल गया, बड़े अच्छे सुख के साधन मिल गए, बड़े ठाठबाट हैं, तो वह स्वप्न का ठाठबाट कितने समय का है? वही दो चार मिनट का, जब तक कि वह स्वप्न चल रहा है।और जहाँ ही वह स्वप्न मिटा, आँखें खुलीं, बस वह सारा ठाठबाट मिटा।वह सुख तो केवल कल्पना का है।साधन कुछ नहीं है।है उसका कुछ नहीं।ऐसे ही मोह की नींद में यह 10-20-50 वर्ष का स्वप्न है।जब मोह नष्ट होता है, अज्ञान नष्ट होता है, नींद खुलती है तो ये ही सारी चीजें इसके लिए फिर कुछ नहीं रहती।तो ऐसा स्वप्न जैसा मिलाप हुआ है।बुद्धिमानी का तो यह कर्तव्य है कि इस स्वप्न जितने मिलाप में धार्मिक समागम बनाकर, ज्ञानप्रचार करके, ज्ञानमय अपना जीवन बनाकर दूसरों को भी मुक्ति के मार्ग में लगायें और खुद भी मुक्ति के मार्ग में लगें, यह है असली प्रीति।घर में रहने वाले पति, स्त्री, पिता, पुत्रादिक, इन सबका परस्पर में ऐसा व्यवहार बने कि एक दूसरे को धर्म में चलने की प्रेरणा मिले, ज्ञानार्जन में बढ़ने की प्रेरणा मिले, परस्पर में आत्मतत्त्व की चर्चायें हुआ करें, ऐसा यदि जीवन बने तो घर में रहने वालों की वह प्रीति सच्ची प्रीति समझिये, और ऐसा विषय साधने के लिए, मोह बढ़ाने के लिए ही यदि परस्पर का राग भरा व्यवहार रहा तो ये दिन तो रहेंगे नहीं, निकल जायेंगे, फल इसका यह होगा, मरण तो होगा ही, दुर्गतियों में, किन्हीं भी भवों में भ्रमण करेंगे।इस पाये हुए दुर्लभ नरजीवन से कोई फायदा नहीं उठाया जा सकता।तो इस झूठे मोह से हटकर आत्मा का जो सत्यस्वरूप है उस सत्यस्वरूप में उपयोग ले जाना है।देखिये जब ज्ञान ज्ञानस्वरूप निज में प्रविष्ट हो जायगा फिर दुनिया में कहीं कुछ हो, उससे आपको कोई नुकसान नहीं, कोई दु:ख नहीं।तो चाहे कितनी ही स्थितियों में फँसे हों, कितने ही बाहरी काम अधूरे पड़े हों, कितनी ही व्यवस्था अधूरी रह गयी हो, निर्णय यही रखना होगा कि यह मैं ज्ञान अपने ज्ञानस्वरूप में निमग्न हो जाऊँ, फिर मेरे लिए कुछ भी अधूरा नहीं है, कुछ भी अव्यवस्था नहीं है, यही सर्वसंकटों से छूटने की स्थिति है।अपने में आत्मानुभूति के लिए प्यार जगाना चाहिए।बाह्य वस्तुवों के प्रति जो प्रीति जगती है वह तो व्यर्थ है, अनर्थ है।
प्रभुभक्ति में शुद्ध तत्त्व का अनुराग- प्रभु का स्वरूप परमपावन ज्ञानदर्शनमय है।उसमें यह समाधि का भक्त पुरूष अपना उपयोग बना रहा है और यही याचना कर रहा है कि हे प्रभो ! आपके चरणारविंद की भक्ति ही मुझे प्राप्त हो, मैं यही माँगता हूं, यही माँगता हूं, अन्य मेरी कुछ वान्छा नहीं है।प्रभुभक्ति व्यर्थ नहीं जाती।कोई अज्ञानी भी अगर प्रभुभक्ति करे तो अधिक लाभ उसे नहीं होता, फिर भी कुछ पुण्य तो बँध ही जाता है।न मोक्ष का मार्ग उसे मिला, न सत्यपथ का दर्शन हुआ, लेकिन पुण्य तो हो ही गया।पाप बाँधता, नरक में जाता, उससे तो अच्छा ही हुआ कि पुण्य बंध हुआ, देवगति मिली अथवा अच्छी मनुष्यगति मिली।इस पाप की अपेक्षा तो अच्छा ही है।अपेक्षाकृत कुछ लाभ तो है ही, लेकिन वह लाभ स्थायी नहीं हैं।पुण्योदय में कुछ ऋद्धियाँ सिद्धियाँ प्राप्त हो गयीं, कुछ क्या मिल गया, लेकिन पाप के परिणाम में उसे दुर्गति में जाना होगा, इसलिए अज्ञानी के पुण्य बँधता है उससे उसे कुछ लाभ नहीं हुआ।थोड़ी देर को जरा सा उसने सुख मान लिया वह भी आकुलता और क्षोभ से भरा हुआ है।इसी तरह संतों का यह मूल उद्देश्य है कि सम्यग्ज्ञान उत्पन्न करो।ज्ञान बिना उद्धार न होगा।
आत्मा की ज्ञानघनता व सारभूतता- ज्ञान से आपको यह विदित हो जायगा कि यह मैं आत्मा आकाश की तरह निर्लेप हूं तब मैं अमूर्त हूं।इसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं हैं, क्या कोई आत्मा काला पीला नीला आदिक है? क्या कोई आत्मा खट्टा मीठा आदिक है? क्या कोई आत्मा रूखा, चिकना आदिक है? जब आत्मा में रूप, रस, गंध स्पर्श आदि कुछ नहीं हैं तो यह अमूर्त ही तो हुआ।आकाश भी अमूर्त है।जैसे आकाश में आग जलायें।तलवार चलायें, धूल फैंकें तो उससे आकाश का संबंध नहीं होता।आकाश अपने आपमें निर्लेप है, इसी तरह यह आत्मा भी आकाश की तरह अमूर्त है, इस कारण निर्लेप है, इसमें किसी दूसरे का संबंध नहीं होता।यह आत्मा चेतन है, उपयोग स्वरूप है।मलिन दशायें कल्पनायें बनाता, इच्छा करता तो बस यह ही मलिनता है और इन मलिनताओं के कारण बाह्य चीजों का संपर्क लगा हुआ है, इतने पर भी आत्मा अब भी अपने आपमें अमूर्त है।इसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि मलिनतायें नहीं होती।ऐसा अमूर्त यह आत्मा केवल ज्ञानस्वरूप है, इसकी शकल, इसका स्वरूप, इसका सर्वस्व ज्ञान ही ज्ञान है।ज्ञान के सिवाय आत्मा में और कोई बात नहीं पायी जाती है।इसीलिए आत्मा को ज्ञानपुन्ज कहा गया है, आत्मा को ज्ञानघन भी कहते हैं।घन उसे कहते हैं जिसके भीतर किसी दूसरी चीज का मिलाप न हो।जैसे कोई लकड़ी बिल्कुल ठोस है तो लोग कहते हैं कि यह लकड़ी घन है और कोई पोली लकड़ी है तो लोग कहते कि यह लकड़ी तो बोगस है।तो ठोस में, घन में यह बात आ गयी कि यह लकड़ी सारभूत होकर निरंतर वही की वही है।उसके भीतर अन्य कोई तत्त्व नहीं है।यही तो ठोस का मतलब है।बोगस लकड़ी का मतलब है कि इस लकड़ी के अंदर बीच-बीच बहुत अंतर है।इसमें कोई ठोस नहीं है।तो यह आत्मा ज्ञान से ठोस है।आत्मा में ज्ञान ही ज्ञान पड़ा हुआ है, और अन्य बात का इसमें प्रवेश नहीं है।ऐसा ज्ञानघन है आत्मा।इसमें सर्वत्र ज्ञान ही ज्ञान है।इस आत्मा का दर्शन करना चाहें, आत्मा से मिलाप करना चाहें तो आत्मा को केवलज्ञान ज्ञान के रूप में ही यह ज्ञान जाने तो आत्मा का दर्शन होगा, अन्य विधि से आत्मा का दर्शन न होगा।जब कभी बाह्य पदार्थ का विकल्प तोड़कर अपने आपमें केवल ज्ञान ही ज्ञान दिखेगा तो आत्मा का दर्शन होगा।दर्शन आँखों से न होगा किंतु अनुभव से, ज्ञान से आत्मा का दर्शन होगा।और उस दर्शन के द्वारा ही आप प्रभु का दर्शन कर लेंगे।ऐसे ही तो प्रभु हैं जहां केवल ज्ञान ही ज्ञान रह गया ठोस, दूसरी चीज का मेल नहीं बस उसी को तो प्रभु कहते हैं।
शकुनों में आत्मा की सुध का संबंध- लोक में जितने भी शकुन माने जाते हैं वे सब शकुन तब शकुन कहलाते हैं जब वे आत्मा की याद दिलाते हैं।जो-जो बात आत्मस्वरूप की याद दिलाने में कारण पड़े वह लोक में शकुन कहलाती है लेकिन मोही जन इस रहस्य को तो भूल गए, चीज तो शकुन मानने में वही रखी, पर ढंग बदल दिया।जैसे कोई पानी से भरा हुआ घड़ा सिर पर रखे हुए चला जा रहा हो तो लोग उसे देखकर मानते हैं कि मुझे आज शकुन हुआ है।लेकिन वह पानी और मिट्टी का घड़ा शकुन नहीं है।उस पानी से लबालब भरे हुए घड़े को देखकर आत्मा की याद आ जाती है कि जैसे यह घड़ा पानी से लबालब भरा हुआ है इसमें बीच में कोई अंतर नहीं पड़ा है।यदि घड़े में चने भरे हों तो उसके भीतर ठोस नहीं हो सकता, बीच-बीच में अंतर रहेगा तो इसी तरह से यह आत्मा ज्ञानजल से लबालब भरा हुआ है।इसके बीच कहीं भी अंतर नहीं है।इस आत्मा की याद दिलाने के कारण यह जल से भरा हुआ घड़ा शकुन माना जाता है।लेकिन इस बात को लोग भूल गए, रूढ़ि में यही बात पकड़ ली।और भी देखिये यदि सामने दिख जाय कि लोग मुर्दा (अर्थी) लिए जा रहे हैं तो लोग उसे शकुन मानते हैं, क्योंकि वह मुर्दा देखकर अपने आत्मा की याद आती है।अरे ! यह संसार असार है, यहाँ का सब कुछ विनाशीक है, मरण हो जाने पर कुछ भी साथ नहीं जाता।इस प्रकार की आत्मदृष्टि होने के कारण वह मुर्दा शकुन माना गया है।तो प्रयोजन यह है कि आत्मतत्त्व का ज्ञान हो जाय, बस यही मात्र एक वैभव है इस नश्वर जीवन में, जिसमें मरण निश्चित है।इस जीवन के थोड़े समय में यदि आत्मज्ञान की बात प्राप्त कर ली तो समझिये कि हमने अपना जीवन सफल किया और अगर यह ज्ञान काम न कर सके तो जैसे अनंत भव पाये, जन्मे, मरे, लाभ कुछ न पाया, इसी तरह से इस नरजन्म को पाकर भी व्यर्थ ही खो दिया।जब यह आत्मा केवल ज्ञानस्वरूप में ही ज्ञान को लेता है तो उस समय इसे अपनी प्रभुता के दर्शन होते हैं।आत्मा का दर्शन होता है।आत्मा को पाने वाला यह समाधिभक्त संत यही अभ्यर्थना करता है कि हे प्रभु ! इस ज्ञानपुन्ज में, इन आपके चरणों में, इस स्वरूप में मेरी भक्ति निरंतर बनी रहे, मैं यही माँगता हूं, केवल यही माँगता हूं।