शीलपाहुड गाथा 27
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि जो कर्म की गांठ विषय सेवन करके आप ही बाँधी है उसको सत्पुरुष तपश्चरणादि करके आप ही काटते हैं -
आदेहि कम्मगंठी जा बद्धा विसयरागरंगेहिं ।
तं छिन्दन्ति कयत्था तवसंजमसीलयगुणेण ।।२७।।
आत्मनि कर्मग्रंथि: या बद्धा विषयरागरागै: ।
तां छिन्दन्ति कृतार्था: तप: संयमशीलगुणेन ।।२७।।
इन्द्रिय विषय के संग पढ़ जो कर्म बाँधे स्वयं ही ।
सत्पुरुष उनको खपावे व्रत-शील-संयमभाव से ।।२७।।
अर्थ - जो विषयों के रागरंग करके आप ही कर्म की गांठ बांधी है, उसको कृतार्थ पुरुष (उत्तम पुरुष) तप संयम शील के द्वारा प्राप्त हुआ जो गुण उनके द्वारा छेदते हैं, खोलते हैं ।
भावार्थ - जो कोई आप गांठ घुलाकर बांधे उसको खोलने का विधान भी आप ही जाने, जैसे सुनार आदि कारीगर आभूषणादिक की संधि के टांका ऐसा झाले कि यह संधि अदृष्ट हो जाय तब उस संधि को टाँके का झालनेवाला ही पहिचानकर खोले वैसे ही आत्मा ने अपने ही रागादिक भावों से कर्मो की गांठ बाँधी है, उसको आप ही भेदविज्ञान करके रागादिक के और आप के जो भेद हैं उस संधि को पहिचानकर तप संयम शीलरूप भावरूप शस्त्रों के द्वारा उस कर्मबंध को काटता है, ऐसा जानकर जो कृतार्थ पुरुष हैं वे अपने प्रयोजन के करनेवाले हैं, वे इस शीलगुण को अंगीकार करके आत्मा को कर्म से भिन्न करते हैं, यह पुरुषार्थी पुरुषों का कार्य है ।।२७।।