साध्य साधन भाव
From जैनकोष
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/53 वस्तुत: स्याद्भेद: कस्मान्न कृत इति नाशंकनीयम् । यतो न तेन साध्यसाधकयोरविनाभावित्वं। तद्यथा–निश्चयाविरोधेन व्यवहारस्य सम्यग्व्यवहारेण सिद्धस्य निश्चयस्य च परमार्थत्वादिति। परमार्थमुग्धानां व्यवहारिणां व्यवहारमुग्धानां निश्चयवादिनां उभयमुग्धानामुभयवादिनामनुभयमुग्धानामनुभयवादिनां मोहनिरासार्थं निश्चयव्यवहाराभ्यामालिंगितं कृत्वा वस्तु निर्णेयं। एवं हि कथंचिद्भेदपरस्पराविनाभावित्वेन निश्चयव्यवहारयोरनाकुला सिद्धि:। अन्यथाभास एव स्यात् । तस्माद्व्यवहारप्रसिद्धयैव निश्चयप्रसिद्धिर्नान्यथेति, सम्यग्द्रव्यागमप्रसाधिततत्त्वसेवया व्यवहाररत्नत्रयस्य सम्यग्रूपेण सिद्धत्वात् ।=प्रश्न–वस्तुत: ही इन दोनों नयों (व्यवहार नय और निश्चय नय) का कथंचित् भेद क्यों नहीं किया गया ? उत्तर–ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वैसा करने से उनमें परस्पर साध्यसाधक भाव नहीं रहता। वह ऐसे कि–निश्चय से अविरोधी व्यवहार को तथा समीचीन व्यवहार द्वारा सिद्ध किये गये निश्चय को ही परमार्थपना है। इस प्रकार परमार्थ से मूढ़ केवल व्यवहारावलंबियों के, अथवा व्यवहार से मूढ केवल निश्चयावलंबियों के, अथवा दोनों की परस्पर सापेक्षतारूप उभय से मूढ़ निश्चयव्यवहारावलंबियों के, अथवा दोनों नयों का सर्वथा निषेध करनेरूप अनुभयमूढ़ अनुभयावलंबियों के मोह को दूर करने के लिए, निश्चय व व्यवहार दोनों नयों से आलिंगित करके ही वस्तु का निर्णय करना चाहिए।
इस प्रकार कथंचित् भेद रहते हुए भी परस्पर अविनाभावरूप से निश्चय और व्यवहार की अनाकुल सिद्धि होती है। अन्यथा अर्थात् एक दूसरे से निरपेक्ष वे दोनों ही नयाभास होकर रह जायेंगे । इसलिए व्यवहार की प्रसिद्धि से ही निश्चय की प्रसिद्धि है, अन्यथा नहीं। क्योंकि समीचीन द्रव्यागम के द्वारा तत्त्व का सेवन करके ही समीचीन रत्नत्रय की सिद्धि होती है। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/662 )।
नय और भाव को विस्तार से जानने के लिये देखें नय V.9.4 )।