रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 15: Difference between revisions
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Latest revision as of 21:30, 2 November 2022
अथोपगूहनगुणन्तस्यप्रतिपादयन्नाह-
स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य, बालाशक्तजनाश्रयाम्
वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति, तद्वदन्त्युपगूहनम् ॥15॥
टीका:
तदुपगूहनंवदन्तियत्प्रमार्जन्तिनिराकुर्वन्तिप्रच्छादयन्तीत्यर्थ: । काम् ? वाच्यतान्दोषम् । कस्य ? मार्गस्य रत्नत्रयलक्षणस्य । किंविशिष्टस्य ? स्वयंशुद्धस्य स्वभावतोनिर्मलस्य । कथम्भूताम् ? बालाशक्तजनाश्रयां बालोऽज्ञ: अशक्तोव्रताद्यनुष्ठानेऽसमर्थ: सचासौजनश्चसआश्रयोयस्या: । अयमर्थ:- हिताहितविवेकविकलंव्रताद्यनुष्ठानेऽसमर्थजनमाश्रित्यागतस्यरत्नत्रयेतद्वतिवादोषस्ययत्प्रच्छादनन्तदुपगूहनमिति॥१५॥
इसके आगे सम्यग्दर्शन के उपगूहन गुण का प्रतिपादन करते हुए हैं -
स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य, बालाशक्तजनाश्रयाम्
वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति, तद्वदन्त्युपगूहनम् ॥15॥
टीकार्थ:
रत्नत्रयरूप मोक्ष का मार्ग स्वभाव से ही निर्मल-पवित्र है । परन्तु कदाचित् अज्ञानी अथवा व्रताचरण करने में असमर्थ मनुष्यों के द्वारा यदि कोई दोष उत्पन्न होता है या अपवाद होता है तो सम्यग्दृष्टि उसका निराकरण करते हैं, उसके दोषों को छिपाते हैं, प्रकट नहीं करते। उनके इस प्रकार के व्यवहार को उपगूहन अङ्ग कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जो हित और अहित के विवेक से रहित है ऐसे अज्ञानी जीव को बाल कहते हैं तथा बाल्यावस्था, वृद्धावस्था या रुग्णतावश निर्दोष व्रत-अनुष्ठानादि के परिपालन में असमर्थ है उसे अशक्त कहते हैं। ऐसे बाल और अशक्त मनुष्यों के आश्रय से रत्नत्रय और उसके धारक पुरुषों में उत्पन्न दोषों का प्रच्छादन करना सम्यग्दृष्टि का परम कर्तव्य है ।