अनर्थदंड: Difference between revisions
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<p> | <span class="GRef">[[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 74 | रत्नकरंड श्रावकाचार श्लोक 74]]</span> <p class="SanskritText">आभ्यंतरं दिगवधेरपार्थिकेभ्यः सपापयोगेभ्यः। विरमणमनर्थदंडव्रतं विदुर्व्रतधराग्रण्यः। </p> | ||
<p>= दिशाओं की मर्यादा के भीतर-भीतर प्रयोजन रहित पापों के कारणों से विरक्त होने को व्रतधारियों में अग्रगण्य पुरुष | <p class="HindiText">= दिशाओं की मर्यादा के भीतर-भीतर प्रयोजन रहित पापों के कारणों से विरक्त होने को व्रतधारियों में अग्रगण्य पुरुष अनर्थदंड व्रत कहते हैं।</p><br> | ||
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<p>= उपकार न होकर जो प्रवृत्ति केवल पाप का कारण है, वह | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/359</span> <p class="SanskritText">असत्युपकारे पापादानहेतुरनर्थदंडः। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 7/214/547/26)।</p> | <p class="HindiText">= उपकार न होकर जो प्रवृत्ति केवल पाप का कारण है, वह अनर्थदंड है। </p> | ||
< | <p class="HindiText"><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 7/214/547/26)</span>।</p><br> | ||
<p>= बिना ही प्रयोजन के जितने पाप लगते हों उन्हें | |||
< | <span class="GRef">चारित्रसार पृष्ठ 16/4</span> <p class="SanskritText">प्रयोजनं विना पापादानहेत्वनर्थदंडः। </p> | ||
<p>= जिससे अपना कुछ प्रयोजन तो सधता नहीं केवल पाप | <p class="HindiText">= बिना ही प्रयोजन के जितने पाप लगते हों उन्हें अनर्थदंड कहते हैं।</p><br> | ||
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<p>= लोहे के शस्त्र तलवार कुदाली वगैरह के तथा | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 343</span><p class="PrakritText"> कज्जं किं पि ण साहदि णिच्चं पावं करेदि जो अत्थो। सो खलु हवदि अणत्थो पंच-पयारो वि सो विविहो॥ </p> | ||
< | <p class="HindiText">= जिससे अपना कुछ प्रयोजन तो सधता नहीं केवल पाप बंधता है उसे अनर्थ कहते हैं।</p><br> | ||
<p>= अपने तथा अपने | |||
<p>1. | <span class="GRef">वसुनंदि श्रावकाचार गाथा 216</span> <p class="PrakritText">अय-दंड-पास-विक्कय-कूड-तुलामाण-कूरसत्ताणं। जं संगहो ण कीरइ तं जाण गुणव्वयं तदियं। </p> | ||
< | <p class="HindiText">= लोहे के शस्त्र तलवार कुदाली वगैरह के तथा दंड और पाश (जाल) आदि के बेचने का त्याग करना, झूठी तराजु तथा कूट मान आदि के बाँटों को कम नहीं रखना तथा बिल्ली, कुत्ता आदि क्रूर प्राणियों का संग्रह नहीं करना सो यह तीसरा अनर्थदंड त्याग नाम का गुणव्रत जानना चाहिए ॥216॥ <span class="GRef">( गुणभद्र श्रावकाचार 142 )</span>।</p><br> | ||
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<p>( सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360) (राजवार्तिक अध्याय 7/21, 21/549/5) ( चारित्रसार पृष्ठ 16/4)।</p> | <span class="GRef">सागार धर्मामृत अधिकार 5/6</span> <p class="SanskritText">पीडा पापोपदेशाद्यैर्देहाद्यर्थाद्विनांगिनाम्। अनर्थदंडस्तत्त्यागोऽनर्थदंडव्रतं मतम्। </p> | ||
<p> पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 141-146 अपध्यान ।141।, पापोपदेश ।142।, प्रमादाचरित ।143।, हिंसादान ।144।, दुःश्रुति ।145। | <p class="HindiText">= अपने तथा अपने कुटुंबी जनों के शरीर, वचन तथा मन संबंधी प्रयोजन के बिना, पापोपदेशादिक के द्वारा प्राणियों को पीड़ा नहीं देना, अनर्थदंड का त्याग अनर्थ दंडव्रत माना गया है।</p><br> | ||
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<p>= पापोपदेश चार प्रकार का है - क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधकोपदेशः, | <p class="HindiText"><strong>1. अनर्थदंड के भेद</strong></p> | ||
<p>2. अपध्यानादि विशेष | <span class="GRef">[[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 75 | रत्नकरंडश्रावकाचार श्लोक 75 ]] </span> <p class="SanskritText">पापोपदेशहिंसादानापध्यानदुःश्रुतीः पंच। प्राहुः प्रमादचर्यामनर्थदंडानदंडधराः। </p> | ||
<p>1. अपध्यान | <p class="HindiText">= दंड को नहीं धरने वाले गणधरादिक आचार्य-पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या इन पाँचों को अनर्थदंड कहते हैं। </p><br> | ||
<p>2. पापोपदेश | <p><span class="GRef">(सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 7/21, 21/549/5)</span> <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 16/4)</span>।</p> | ||
< | <p> <span class="GRef">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 141-146</span> <p class="SanskritText">अपध्यान ।141।, पापोपदेश ।142।, प्रमादाचरित ।143।, हिंसादान ।144।, दुःश्रुति ।145। द्युतक्रीड़ा ।146।</p> | ||
<p>= तिर्यग्वणिज्या, क्लेशवणिज्या, हिंसा, आरंभ, ठगाई | <span class="GRef">चारित्रसार पृष्ठ 16/5</span> <p class="SanskritText">पापोपदेशश्चतुर्विधः-क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधकोपदेशः, आरंभकोपदेशश्च। </p> | ||
<p>( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/21/60)</p> | <p class="HindiText">= पापोपदेश चार प्रकार का है - क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधकोपदेशः, आरंभकोपदेश। (दुःश्रुति चार प्रकार की है-स्त्रीकथा, भोगकथा, चोरकथा व राजकथा - देखें [[ कथा ]]) ।</p> | ||
< | <p class="HindiText"><strong>2. अपध्यानादि विशेष अनर्थदंडों के लक्षण</strong></p> | ||
<p>= क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधक तथा | <p class="HindiText">1. अपध्यान अनर्थदंड - देखें [[ अपध्यान ]]।</p> | ||
<p class="HindiText">2. पापोपदेश अनर्थदंड</p> | |||
<span class="GRef">[[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 76 | रत्नकरंडश्रावकाचार श्लोक 76]]</span><p class="SanskritText"> तिर्यक्क्लेशवणिज्याहिंसारंभप्रलंभनादीनां। कथाप्रसंगप्रसवः स्मर्त्तव्यः पाप उपदेशः ॥76॥ </p> | |||
<p class="HindiText">= तिर्यग्वणिज्या, क्लेशवणिज्या, हिंसा, आरंभ, ठगाई आदि की कथाओं के प्रसंग उठाने को पापोपदेश नाम का अनर्थदंड जानना चाहिए। </p> | |||
<p class="HindiText"><span class="GRef">(सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/21/60)</span></p> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 7/21/549/7</span> <p class="SanskritText">क्लेशतिर्यग्वणिज्यावधकारंभादिषु पापसंयुतं वचनं पापोपदेशः। तद्यथा अस्मिन् देशे दासा दास्यश्च सुलभास्तानमुं देशं नीत्वा विक्रये कृते महानर्थ लाभो भवतीति क्लेशवणिज्या। गोमहिष्यादीन् अमुत्र गृहीत्वा अन्यत्र देशे व्यवहारे कृते भूरिवित्तलाभ इति तिर्यग्वणिज्या। वागुरिकसौकरिकशाकुनिकादिभ्यो मृगवराहशकुंतप्रभृतयोऽमुष्मिं देशे संतीति वचनं वधकोपदेशः। आरंभकेभ्यः कृषीवलादिभ्यः क्षित्युदकज्वलनपवनवनस्पत्यारंभोऽनेनोपायेन कर्तव्यः इत्याख्यानमारंभकोपदेशः। इत्येवं प्रकारं पापसंयुतं वचनं पापोपदेशः। </p> | |||
<p class="HindiText">= क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधक तथा आरंभादिकमें पाप संयुक्त वचन पापोपदेश कहलाता है। वह इस प्रकार कि-<br> | |||
1. इस देश में दास-दासी बहुत सुलभ हैं। उनको अमुक देशमें ले जाकर बेचने से महान् अर्थ लाभ होता है। इसे क्लेशवणिज्या कहते हैं। <br> | |||
2. गाय, भैंस आदि पशु अमुक स्थान से ले जाकर अन्यत्र देश में व्यवहार करने से महान् अर्थ लाभ होता है, इसे तिर्यग्वणिज्या कहते हैं। <br> | |||
3. वधक व शिकारी लोगों को यह बताना कि हिरण, सूअर व पक्षी आदि अमुक देशमें अधिक होते हैं, ऐसा वचन वधकोपदेश है। <br> | |||
4. खेती आदि करनेवालों से यह कहना कि पृथ्वी का अथवा जल, अग्नि, पवन, वनस्पति आदि का आरंभ इस उपाय से करना चाहिए। ऐसा कथन आरंभकोपदेश है। इस प्रकार के पाप संयुक्त वचन पापोपदेश नाम का अनर्थदंड है। </p> | |||
<p>( चारित्रसार पृष्ठ 16/5)।</p> | <p>( चारित्रसार पृष्ठ 16/5)।</p> | ||
< | <span class="GRef">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 142</span> <p class="SanskritText">विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवाशिल्पजीविनां पुंसाम्। पापोपदेशदानं कदाचिदपि नैव वक्तव्यम् ॥142॥ </p> | ||
<p>= | <p class="HindiText">= बिना प्रयोजन किसी पुरुष को आजीविका के कारण, विद्या, वाणिज्य, लेखनकला, खेती, नौकरी और शिल्प आदिक नाना प्रकार के काम तथा हुनर करने का उपदेश देना, पापोपदेश अनर्थदंड कहलाता है। पापोपदेश अनर्थदंड के त्याग का नाम ही अनर्थदंडव्रत कहलाता है।</p><br> | ||
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<p>= कृषि, पशुपालन, व्यापार वगैरह का तथा स्त्री-पुरुष के समागम का जो उपदेश दिया जाता है वह दूसरा | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 345</span> <p class="PrakritText">जो उवएसो दिज्जदि किसि-पसु-पालण-वणिज्जपमुहेसु। पुरसित्थी-संजोए अणत्थ-दंडोहवे विदिओ। </p> | ||
< | <p class="HindiText">= कृषि, पशुपालन, व्यापार वगैरह का तथा स्त्री-पुरुष के समागम का जो उपदेश दिया जाता है वह दूसरा अनर्थदंड है।</p><br> | ||
<p>= हिंसा, खेती और व्यापार आदि को विषय | |||
<p>3. प्रमादाचरित | <span class="GRef">सागार धर्मामृत अधिकार 5/7</span> <p class="SanskritText">पापोपदेशं यद्ववाक्यं, हिंसाकृत्यादिसंश्रयम्। तज्जीविभ्यो न तं दद्यान्नापि गोष्ठ्यां प्रसज्जयेत् ॥7॥ </p> | ||
< | <p class="HindiText">= हिंसा, खेती और व्यापार आदि को विषय करने वाला जो वचन होता है वह पापोपदेश कहलाता है इसलिए अनर्थदंडव्रत का इच्छुक श्रावक हिंसा, खेती और व्यापार आदि से आजीविका करने वाले, व्याध, ठग वगैरह के लिए उस पापोपदेश को नहीं देवें और कथा-वार्तालाप वगैरह में उस पापोपदेश को प्रसंग में नहीं लावें।</p> | ||
<p>= बिना प्रयोजन पृथिवी, जल, अग्नि, और पवन के | <p class="HindiText"><strong>3. प्रमादाचरित अनर्थदंड</strong></p> | ||
< | <span class="GRef">[[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 80 | रत्नकरंड श्रावकाचार श्लोक 80]] </span> <p class="SanskritText">क्षितिसलिलदहनपवनारंभं विफलं वनस्पतिच्छेदम्। सरणं सारणमपि च प्रमादाचर्यां प्रभाषंते ॥80॥ </p> | ||
<p>= बिना प्रयोजन के वृक्षादि का छेदना, भूमि का कूटना, पानी का सींचना आदि पाप कार्य प्रमादाचरित नामका | <p class="HindiText">= बिना प्रयोजन पृथिवी, जल, अग्नि, और पवन के आरंभ करने को, वनस्पति छेदने को, पर्यटन करने को और दूसरों को पर्यटन कराने को भी प्रमादचर्या नामा अनर्थदंड कहते हैं। <span class="GRef">(कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 346)</span>।</p> <br> | ||
<p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360</span> <p class="SanskritText">प्रयोजनमंतरेण वृक्षादिच्छेदनभूमिकुट्टनसलिलसेचनाद्यवद्यकर्म प्रमादाचरितम्। </p> | ||
< | <p class="HindiText">= बिना प्रयोजन के वृक्षादि का छेदना, भूमि का कूटना, पानी का सींचना आदि पाप कार्य प्रमादाचरित नामका अनर्थदंड है। </p> | ||
<p>= बिना प्रयोजन जमीन का खोदना, वृक्षादि को | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 7/21,21/549/14)</span> <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 17/2)</span>।</p><br> | ||
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<p>= | <span class="GRef">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 143</span> <p class="SanskritText">भूखननवृक्षमोट्ठनशाड्वलदलनांबुसेवनादीनि। निष्कारण न कुर्याद्दलफलकुसुमोच्चयानपि च। </p> | ||
<p>4. हिंसादान | <p class="HindiText">= बिना प्रयोजन जमीन का खोदना, वृक्षादि को उखाड़ना, दूब आदिक हरी घास को रौंदना या खोदना, पानी खींचना, फल, फूल, पत्रादि का तोड़ना इत्यादिक पाप क्रियाओं का करना प्रमादचर्या अनर्थदंड है। </p><br> | ||
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<p>= फरसा, तलवार, खनित्र, अग्नि, आयुध, सींगी, शांकल आदि हिंसा के कारणों के माँगे देने को | <span class="GRef">सागार धर्मामृत अधिकार 5/10</span> <p class="SanskritText">प्रमादचर्यां विफलक्ष्मानिलाग्न्यंबुभूरुहां। खातव्याघातविध्यापासेकच्छेदादि नाचरेत् ॥10॥ </p> | ||
< | <p class="HindiText">= अनर्थदंड का त्यागी श्रावक पृथिवी के खोदनेरू प किवाड़ वगैरह के द्वारा वायु के प्रतिबंध करने रूप, जलादि से अग्नि को बुझाने रूप, भूमि वगैरह में जल के फेंकने तथा वनस्पति के छेदने आदि रूप प्रमादचर्या को नहीं करे।</p><br> | ||
<p>= विष, काँटा, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, चाबुक, और | |||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 7/21, 21/549/16) | <p class="HindiText"><strong>4. हिंसादान अनर्थदंड</strong></p> | ||
< | <span class="GRef">[[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 77 | रत्नकरंडश्रावकाचार श्लोक 77]] </span> <p class="SanskritText">परशुकृपाणखनित्रज्वलनायुधशृंगशृंगलादीनाम्। वधहेतूनां दानं हिंसादानं ब्रुवंति बुधाः ॥77॥ </p> | ||
<p>= असि, धेनु, जहर, अग्नि, हल, करवाल, धनुष आदि अनेक हिंसा के उपकरणों को दूसरों को माँगा देने का त्याग करना, हिंसाप्रदान | <p class="HindiText">= फरसा, तलवार, खनित्र, अग्नि, आयुध, सींगी, शांकल आदि हिंसा के कारणों के माँगे देने को पंडित जन हिंसादान नामा अनर्थदंड कहते हैं।</p><br> | ||
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<p>= बिलावादि हिंसक | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360</span> <p class="SanskritText">विषकंटकशस्त्राग्निरज्जुकशादंडादिहिंसोपकरणप्रदानं हिंसाप्रदानम्। </p> | ||
< | <p class="HindiText">= विष, काँटा, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, चाबुक, और लकड़ी आदि हिंसा के उपकरणों का प्रदान करना हिंसाप्रदान नामा अनर्थदंड है </p> | ||
<p>= विष या हथियार आदि हिंसा के कारणभूत पदार्थों का देना हिंसादान नामक | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 7/21, 21/549/16)</span> <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 17/3)</span>।</p><br> | ||
<p>5. दुःश्रुति | |||
<p> | <span class="GRef">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 144</span> <p class="SanskritText">असिधेनुविषहुताशनलांगलकरवालकार्मुकादीनाम्। वितरणमुपकरणानां हिंसायाः परिहरेद्यंतात्। </p> | ||
<p>= | <p class="HindiText">= असि, धेनु, जहर, अग्नि, हल, करवाल, धनुष आदि अनेक हिंसा के उपकरणों को दूसरों को माँगा देने का त्याग करना, हिंसाप्रदान अनर्थदंड है।</p><br> | ||
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<p>= हिंसा और राग आदि को | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 347</span><p class="PrakritText"> मज्जार-पहुदि-धरणं आउह-लोहादि-विक्कणं जं च। लक्खा-खलादि-गहणं अणत्थ-दंडो हवे तुरिओ ॥347॥ </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 7/21,21/549/17) ( चारित्रसार पृष्ठ 17/4)।</p> | <p class="HindiText">= बिलावादि हिंसक जंतुओं का पालना, लोहे तथा अस्त्र-शस्त्रों का देना-लेना और लाख, विष वगैरह का लेना-देना चौथा अनर्थदंड है।</p><br> | ||
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<p>= रागद्वेष आदिक विभाव भावों के | <span class="GRef">सागार धर्मामृत अधिकार 5/8</span> <p class="SanskritText">हिंसादानविषास्त्रादि-हिंसांगस्पर्शनं त्यजेत्। पाकाद्यर्थं च नाग्न्यादिदाक्षिण्याविषयेऽर्पयेत्। </p> | ||
< | <p class="HindiText">= विष या हथियार आदि हिंसा के कारणभूत पदार्थों का देना हिंसादान नामक अनर्थदंड व्रत कहलाता है। उस हिंसादान अनर्थदंड को छोड़ देना चाहिए। जिससे अपना व्यवहार है ऐसे पुरुषों से भिन्न पुरुषों के विषय में पाकादि के लिए अग्नि नहीं देवे।</p><br> | ||
<p>= जिन शास्त्रों या पुस्तकों में | |||
< | <p class="HindiText"><strong>5. दुःश्रुति अनर्थदंड</strong></p> | ||
<p>= | <span class="GRef">[[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 79 | रत्नकरंडश्रावकाचार श्लोक 79]]</span> <p class="SanskritText">आरंभसंगसाहसमिथ्यात्वद्वेषरागमदमदनैः। चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति ॥79॥ </p> | ||
<p>3. | <p class="HindiText">= आरंभ, परिग्रह, दुःसाहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, गर्व, कामवासना आदि से चित्त को क्लेषित करने वाले शास्त्रों का सुनना-वाँचना सो दुःश्रुति नामा अनर्थदंड है।</p><br> | ||
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<p>= 1. हास्ययुक्त अशिष्ट वचन का प्रयोग. 2. कायकी कुचेष्टा सहित ऐसे वचन का प्रयोग, 3. बेकार बोलते रहना, 4. प्रयोजन के बिना कोई न कोई | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360</span> <p class="SanskritText">हिंसारागादिप्रवर्धनदुष्टकथाश्रवणशिक्षणव्यापृतिरशुभश्रुतिः। </p> | ||
<p>( | <p class="HindiText">= हिंसा और राग आदि को बढ़ाने वाली दुष्ट कथाओं का सुनना और उनकी शिक्षा देना अशुभश्रुति नामका अनर्थदंड है। </p> | ||
<p>4. भोगपभोग परिमालव्रत व भोगोपभोग आनर्थक्य नामक अतिचार में | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 7/21,21/549/17)</span> <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 17/4)</span>।</p><br> | ||
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<p>= जिसके जितने उपभोग और परिभोग के पदार्थों से काम चल जाये वह उसके लिए अर्थ है, उससे अधिक पदार्थ रखना उपभोगपरिभोगानर्थक्य है। <b>प्रश्न</b> - इसका तो उपभोग-परिभोगपरिमाणव्रतमें | <span class="GRef">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 145</span> <p class="SanskritText">रागादिवर्द्धनानां दुष्टकथानामबोधबहुलानाम्। न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जनशिक्षणादीनि ॥145॥ </p> | ||
<p>5. | <p class="HindiText">= रागद्वेष आदिक विभाव भावों के बढ़ाने वाली, अज्ञान भाव से भरी हुई दुष्ट कथाओं को सुनना, बनाना, एकत्रित करना, या सीखना आदि का त्याग करने का नाम दुःश्रुति अनर्थदंड व्रत है।</p><br> | ||
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<p>= पहले कहे गये दिग्व्रत तथा देशव्रत तथा आगे कहे जाने वाले उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत में स्वीकृत | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 348</span><p class="PrakritText"> ज सवणं सत्थाणं भंडण-वासियरण-काम-सत्थाणं। परदोसाणं ज तहा अणत्थ-दंडो हवे चरिमो ।348। </p> | ||
<p>6. | <p class="HindiText">= जिन शास्त्रों या पुस्तकों में गंदे मजाक, वशीकरण, कामभोग वगैरह का वर्णन हो उनका सुनना और परके दोषों की चर्चा वार्ता सुनना पाँचवाँ अनर्थदंड है।</p><br> | ||
< | <span class="GRef">सागार धर्मामृत अधिकार 5/9</span><p class="SanskritText"> चित्तकालुष्यकृत्काम-हिंसाद्यर्थश्रुतश्रुतिम्। न दुःश्रुतिमपध्यानं, नार्तरौद्रात्म चान्वियात् ॥9॥ </p> | ||
<p>= जो पुरुष इस प्रकार अन्य भी | <p class="HindiText">= अनर्थदंडव्रत का इच्छुक श्रावक चित्त में कालुष्यता करने वाला जो काम तथा हिंसा आदिक हैं तात्पर्य जिनके ऐसे शास्त्रों के रूप दुःश्रुति नामक अनर्थदंड को नहीं करे और आर्त तथा रौद्र ध्यान स्वरूप अपध्यान नामक अनर्थदंड को नहीं करे।</p><br> | ||
<p class="HindiText"><strong>3. अनर्थदंडव्रत के अतिचार</strong></p> | |||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/32</span><p class="SanskritText"> कंदर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि। </p> | |||
<p class="HindiText">= 1. हास्ययुक्त अशिष्ट वचन का प्रयोग. 2. कायकी कुचेष्टा सहित ऐसे वचन का प्रयोग, 3. बेकार बोलते रहना, 4. प्रयोजन के बिना कोई न कोई तोड़-फोड़ करते रहना या काव्यादिका चिंतवन करते रहना, 5. प्रयोजन न होनेपर भी भोग-परिभोग की सामग्री एकत्रित करना या रखना, ये पाँच अनर्थदंड व्रत के अतिचार हैं। </p> | |||
<p><span class="GRef">( [[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 81 | रत्नकरंड श्रावकाचार/81]] )</span></p><br> | |||
<p class="HindiText"><strong>4. भोगपभोग परिमालव्रत व भोगोपभोग आनर्थक्य नामक अतिचार में अंतर</strong></p> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 7/32,6-7/556/29</span><p class="SanskritText"> यावताऽर्थे न उपभोगपरिभोगौ प्रकल्प्येतेतस्य तावानर्थ इत्युच्यते, ततोऽन्यस्याधिक्यमानर्थक्यम् ।6। ...स्यादेतत्-उपभोगपरिभोगव्रतेऽंतर्भवतीति पौनरुक्त्यमासज्यत इति; तन्न किं कारणम्। तदर्थानवधारणात्। इच्छावशात् उपभोगपरिभोगपरिमाणावग्रहः सावद्यप्रत्याख्यानं चेति तदुक्तम्, इह पुनः कल्प्यस्यैव आधिक्यमित्यतिक्रम इत्युच्यते। नंवेवमपितद्व्रतातिचारांतर्भावात् इदं वचनमनर्थकम्। नानर्थकम्; सचित्ताद्यतिक्रमवचनात्। </p> | |||
<p class="HindiText">= जिसके जितने उपभोग और परिभोग के पदार्थों से काम चल जाये वह उसके लिए अर्थ है, उससे अधिक पदार्थ रखना उपभोगपरिभोगानर्थक्य है। <br> | |||
<b>प्रश्न</b> - इसका तो उपभोग-परिभोगपरिमाणव्रतमें अंतर्भाव हो जाता है अतः इससे पुनरुक्तता प्राप्त होती है? <br> | |||
<b>उत्तर</b> - नहीं होती, क्योंकि इसका अर्थ अन्य है। उपभोग-परिभोगपरिमाणव्रत में तो इच्छानुसार प्रमाण किया जाता है और सावद्य का परिहार किया जाता है, पर यहाँ आवश्यकता का विचार है। जो संकल्पित भी है पर यदि आवश्यकता से अधिक है तो अतिचार है। <br> | |||
<b>प्रश्न</b> - तब इसका अंतर्भाव भोगपरिभोग-परिमाणव्रत के अतिचार में हो जाने से यह कथन निरर्थक है? <br> | |||
<b>उत्तर</b> - निरर्थक नहीं है क्योंकि वहाँ सचित्त संबंध आदि रूप से मर्यादाति क्रम विवक्षित है, अतः इसका वहाँ कथन नहीं किया।</p><br> | |||
<p class="HindiText"><strong>5. अनर्थदंडव्रत का प्रयोजन</strong></p> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 7/21,22/549/19</span> <p class="SanskritText">दिग्देशयोरुत्तरयोश्चोपभोगपरिभोगयोरवधृतपरिमाणयोरनर्थकं चंक्रमणादिविषयोपसेवनं च निष्प्रयोजनं न कर्तव्यमित्यतिरेकनिवृत्तिज्ञापनार्थं मध्येऽनर्थदंडवचनं क्रियते। </p> | |||
<p class="HindiText">= पहले कहे गये दिग्व्रत तथा देशव्रत तथा आगे कहे जाने वाले उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत में स्वीकृत मर्यादा में भी निरर्थक गमन आदि तथा विषय सेवन आदि नहीं करना चाहिए, इस अतिरेक निवृत्ति की सूचना के लिए बीच में अनर्थदंड विरति का ग्रहण किया है।</p><br> | |||
<p class="HindiText"><strong>6. अनर्थदंडव्रत का महत्त्व</strong></p> | |||
<span class="GRef">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 147</span><p class="SanskritText"> एवंविधमपरमपि ज्ञात्वा मुंचत्यनर्थदंडं यः। तस्यानिशमनवद्यं विजयमहिंसाव्रतं लभते ॥147॥ </p> | |||
<p class="HindiText">= जो पुरुष इस प्रकार अन्य भी अनर्थदंडों को जानकर उनका त्याग करता है, वह निरंतर निर्दोष अहिंसाव्रत का पालन करता है।</p> | |||
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Latest revision as of 22:15, 17 November 2023
रत्नकरंड श्रावकाचार श्लोक 74
आभ्यंतरं दिगवधेरपार्थिकेभ्यः सपापयोगेभ्यः। विरमणमनर्थदंडव्रतं विदुर्व्रतधराग्रण्यः।
= दिशाओं की मर्यादा के भीतर-भीतर प्रयोजन रहित पापों के कारणों से विरक्त होने को व्रतधारियों में अग्रगण्य पुरुष अनर्थदंड व्रत कहते हैं।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/359
असत्युपकारे पापादानहेतुरनर्थदंडः।
= उपकार न होकर जो प्रवृत्ति केवल पाप का कारण है, वह अनर्थदंड है।
(राजवार्तिक अध्याय 7/214/547/26)।
चारित्रसार पृष्ठ 16/4
प्रयोजनं विना पापादानहेत्वनर्थदंडः।
= बिना ही प्रयोजन के जितने पाप लगते हों उन्हें अनर्थदंड कहते हैं।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 343
कज्जं किं पि ण साहदि णिच्चं पावं करेदि जो अत्थो। सो खलु हवदि अणत्थो पंच-पयारो वि सो विविहो॥
= जिससे अपना कुछ प्रयोजन तो सधता नहीं केवल पाप बंधता है उसे अनर्थ कहते हैं।
वसुनंदि श्रावकाचार गाथा 216
अय-दंड-पास-विक्कय-कूड-तुलामाण-कूरसत्ताणं। जं संगहो ण कीरइ तं जाण गुणव्वयं तदियं।
= लोहे के शस्त्र तलवार कुदाली वगैरह के तथा दंड और पाश (जाल) आदि के बेचने का त्याग करना, झूठी तराजु तथा कूट मान आदि के बाँटों को कम नहीं रखना तथा बिल्ली, कुत्ता आदि क्रूर प्राणियों का संग्रह नहीं करना सो यह तीसरा अनर्थदंड त्याग नाम का गुणव्रत जानना चाहिए ॥216॥ ( गुणभद्र श्रावकाचार 142 )।
सागार धर्मामृत अधिकार 5/6
पीडा पापोपदेशाद्यैर्देहाद्यर्थाद्विनांगिनाम्। अनर्थदंडस्तत्त्यागोऽनर्थदंडव्रतं मतम्।
= अपने तथा अपने कुटुंबी जनों के शरीर, वचन तथा मन संबंधी प्रयोजन के बिना, पापोपदेशादिक के द्वारा प्राणियों को पीड़ा नहीं देना, अनर्थदंड का त्याग अनर्थ दंडव्रत माना गया है।
1. अनर्थदंड के भेद
पापोपदेशहिंसादानापध्यानदुःश्रुतीः पंच। प्राहुः प्रमादचर्यामनर्थदंडानदंडधराः।
= दंड को नहीं धरने वाले गणधरादिक आचार्य-पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या इन पाँचों को अनर्थदंड कहते हैं।
(सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360) (राजवार्तिक अध्याय 7/21, 21/549/5) (चारित्रसार पृष्ठ 16/4)।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 141-146
अपध्यान ।141।, पापोपदेश ।142।, प्रमादाचरित ।143।, हिंसादान ।144।, दुःश्रुति ।145। द्युतक्रीड़ा ।146।
चारित्रसार पृष्ठ 16/5
पापोपदेशश्चतुर्विधः-क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधकोपदेशः, आरंभकोपदेशश्च।
= पापोपदेश चार प्रकार का है - क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधकोपदेशः, आरंभकोपदेश। (दुःश्रुति चार प्रकार की है-स्त्रीकथा, भोगकथा, चोरकथा व राजकथा - देखें कथा ) ।
2. अपध्यानादि विशेष अनर्थदंडों के लक्षण
1. अपध्यान अनर्थदंड - देखें अपध्यान ।
2. पापोपदेश अनर्थदंड
तिर्यक्क्लेशवणिज्याहिंसारंभप्रलंभनादीनां। कथाप्रसंगप्रसवः स्मर्त्तव्यः पाप उपदेशः ॥76॥
= तिर्यग्वणिज्या, क्लेशवणिज्या, हिंसा, आरंभ, ठगाई आदि की कथाओं के प्रसंग उठाने को पापोपदेश नाम का अनर्थदंड जानना चाहिए।
(सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/21/60)
राजवार्तिक अध्याय 7/21/549/7
क्लेशतिर्यग्वणिज्यावधकारंभादिषु पापसंयुतं वचनं पापोपदेशः। तद्यथा अस्मिन् देशे दासा दास्यश्च सुलभास्तानमुं देशं नीत्वा विक्रये कृते महानर्थ लाभो भवतीति क्लेशवणिज्या। गोमहिष्यादीन् अमुत्र गृहीत्वा अन्यत्र देशे व्यवहारे कृते भूरिवित्तलाभ इति तिर्यग्वणिज्या। वागुरिकसौकरिकशाकुनिकादिभ्यो मृगवराहशकुंतप्रभृतयोऽमुष्मिं देशे संतीति वचनं वधकोपदेशः। आरंभकेभ्यः कृषीवलादिभ्यः क्षित्युदकज्वलनपवनवनस्पत्यारंभोऽनेनोपायेन कर्तव्यः इत्याख्यानमारंभकोपदेशः। इत्येवं प्रकारं पापसंयुतं वचनं पापोपदेशः।
= क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधक तथा आरंभादिकमें पाप संयुक्त वचन पापोपदेश कहलाता है। वह इस प्रकार कि-
1. इस देश में दास-दासी बहुत सुलभ हैं। उनको अमुक देशमें ले जाकर बेचने से महान् अर्थ लाभ होता है। इसे क्लेशवणिज्या कहते हैं।
2. गाय, भैंस आदि पशु अमुक स्थान से ले जाकर अन्यत्र देश में व्यवहार करने से महान् अर्थ लाभ होता है, इसे तिर्यग्वणिज्या कहते हैं।
3. वधक व शिकारी लोगों को यह बताना कि हिरण, सूअर व पक्षी आदि अमुक देशमें अधिक होते हैं, ऐसा वचन वधकोपदेश है।
4. खेती आदि करनेवालों से यह कहना कि पृथ्वी का अथवा जल, अग्नि, पवन, वनस्पति आदि का आरंभ इस उपाय से करना चाहिए। ऐसा कथन आरंभकोपदेश है। इस प्रकार के पाप संयुक्त वचन पापोपदेश नाम का अनर्थदंड है।
( चारित्रसार पृष्ठ 16/5)।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 142
विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवाशिल्पजीविनां पुंसाम्। पापोपदेशदानं कदाचिदपि नैव वक्तव्यम् ॥142॥
= बिना प्रयोजन किसी पुरुष को आजीविका के कारण, विद्या, वाणिज्य, लेखनकला, खेती, नौकरी और शिल्प आदिक नाना प्रकार के काम तथा हुनर करने का उपदेश देना, पापोपदेश अनर्थदंड कहलाता है। पापोपदेश अनर्थदंड के त्याग का नाम ही अनर्थदंडव्रत कहलाता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 345
जो उवएसो दिज्जदि किसि-पसु-पालण-वणिज्जपमुहेसु। पुरसित्थी-संजोए अणत्थ-दंडोहवे विदिओ।
= कृषि, पशुपालन, व्यापार वगैरह का तथा स्त्री-पुरुष के समागम का जो उपदेश दिया जाता है वह दूसरा अनर्थदंड है।
सागार धर्मामृत अधिकार 5/7
पापोपदेशं यद्ववाक्यं, हिंसाकृत्यादिसंश्रयम्। तज्जीविभ्यो न तं दद्यान्नापि गोष्ठ्यां प्रसज्जयेत् ॥7॥
= हिंसा, खेती और व्यापार आदि को विषय करने वाला जो वचन होता है वह पापोपदेश कहलाता है इसलिए अनर्थदंडव्रत का इच्छुक श्रावक हिंसा, खेती और व्यापार आदि से आजीविका करने वाले, व्याध, ठग वगैरह के लिए उस पापोपदेश को नहीं देवें और कथा-वार्तालाप वगैरह में उस पापोपदेश को प्रसंग में नहीं लावें।
3. प्रमादाचरित अनर्थदंड
क्षितिसलिलदहनपवनारंभं विफलं वनस्पतिच्छेदम्। सरणं सारणमपि च प्रमादाचर्यां प्रभाषंते ॥80॥
= बिना प्रयोजन पृथिवी, जल, अग्नि, और पवन के आरंभ करने को, वनस्पति छेदने को, पर्यटन करने को और दूसरों को पर्यटन कराने को भी प्रमादचर्या नामा अनर्थदंड कहते हैं। (कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 346)।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360
प्रयोजनमंतरेण वृक्षादिच्छेदनभूमिकुट्टनसलिलसेचनाद्यवद्यकर्म प्रमादाचरितम्।
= बिना प्रयोजन के वृक्षादि का छेदना, भूमि का कूटना, पानी का सींचना आदि पाप कार्य प्रमादाचरित नामका अनर्थदंड है।
(राजवार्तिक अध्याय 7/21,21/549/14) (चारित्रसार पृष्ठ 17/2)।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 143
भूखननवृक्षमोट्ठनशाड्वलदलनांबुसेवनादीनि। निष्कारण न कुर्याद्दलफलकुसुमोच्चयानपि च।
= बिना प्रयोजन जमीन का खोदना, वृक्षादि को उखाड़ना, दूब आदिक हरी घास को रौंदना या खोदना, पानी खींचना, फल, फूल, पत्रादि का तोड़ना इत्यादिक पाप क्रियाओं का करना प्रमादचर्या अनर्थदंड है।
सागार धर्मामृत अधिकार 5/10
प्रमादचर्यां विफलक्ष्मानिलाग्न्यंबुभूरुहां। खातव्याघातविध्यापासेकच्छेदादि नाचरेत् ॥10॥
= अनर्थदंड का त्यागी श्रावक पृथिवी के खोदनेरू प किवाड़ वगैरह के द्वारा वायु के प्रतिबंध करने रूप, जलादि से अग्नि को बुझाने रूप, भूमि वगैरह में जल के फेंकने तथा वनस्पति के छेदने आदि रूप प्रमादचर्या को नहीं करे।
4. हिंसादान अनर्थदंड
परशुकृपाणखनित्रज्वलनायुधशृंगशृंगलादीनाम्। वधहेतूनां दानं हिंसादानं ब्रुवंति बुधाः ॥77॥
= फरसा, तलवार, खनित्र, अग्नि, आयुध, सींगी, शांकल आदि हिंसा के कारणों के माँगे देने को पंडित जन हिंसादान नामा अनर्थदंड कहते हैं।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360
विषकंटकशस्त्राग्निरज्जुकशादंडादिहिंसोपकरणप्रदानं हिंसाप्रदानम्।
= विष, काँटा, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, चाबुक, और लकड़ी आदि हिंसा के उपकरणों का प्रदान करना हिंसाप्रदान नामा अनर्थदंड है
(राजवार्तिक अध्याय 7/21, 21/549/16) (चारित्रसार पृष्ठ 17/3)।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 144
असिधेनुविषहुताशनलांगलकरवालकार्मुकादीनाम्। वितरणमुपकरणानां हिंसायाः परिहरेद्यंतात्।
= असि, धेनु, जहर, अग्नि, हल, करवाल, धनुष आदि अनेक हिंसा के उपकरणों को दूसरों को माँगा देने का त्याग करना, हिंसाप्रदान अनर्थदंड है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 347
मज्जार-पहुदि-धरणं आउह-लोहादि-विक्कणं जं च। लक्खा-खलादि-गहणं अणत्थ-दंडो हवे तुरिओ ॥347॥
= बिलावादि हिंसक जंतुओं का पालना, लोहे तथा अस्त्र-शस्त्रों का देना-लेना और लाख, विष वगैरह का लेना-देना चौथा अनर्थदंड है।
सागार धर्मामृत अधिकार 5/8
हिंसादानविषास्त्रादि-हिंसांगस्पर्शनं त्यजेत्। पाकाद्यर्थं च नाग्न्यादिदाक्षिण्याविषयेऽर्पयेत्।
= विष या हथियार आदि हिंसा के कारणभूत पदार्थों का देना हिंसादान नामक अनर्थदंड व्रत कहलाता है। उस हिंसादान अनर्थदंड को छोड़ देना चाहिए। जिससे अपना व्यवहार है ऐसे पुरुषों से भिन्न पुरुषों के विषय में पाकादि के लिए अग्नि नहीं देवे।
5. दुःश्रुति अनर्थदंड
आरंभसंगसाहसमिथ्यात्वद्वेषरागमदमदनैः। चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति ॥79॥
= आरंभ, परिग्रह, दुःसाहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, गर्व, कामवासना आदि से चित्त को क्लेषित करने वाले शास्त्रों का सुनना-वाँचना सो दुःश्रुति नामा अनर्थदंड है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360
हिंसारागादिप्रवर्धनदुष्टकथाश्रवणशिक्षणव्यापृतिरशुभश्रुतिः।
= हिंसा और राग आदि को बढ़ाने वाली दुष्ट कथाओं का सुनना और उनकी शिक्षा देना अशुभश्रुति नामका अनर्थदंड है।
(राजवार्तिक अध्याय 7/21,21/549/17) (चारित्रसार पृष्ठ 17/4)।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 145
रागादिवर्द्धनानां दुष्टकथानामबोधबहुलानाम्। न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जनशिक्षणादीनि ॥145॥
= रागद्वेष आदिक विभाव भावों के बढ़ाने वाली, अज्ञान भाव से भरी हुई दुष्ट कथाओं को सुनना, बनाना, एकत्रित करना, या सीखना आदि का त्याग करने का नाम दुःश्रुति अनर्थदंड व्रत है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 348
ज सवणं सत्थाणं भंडण-वासियरण-काम-सत्थाणं। परदोसाणं ज तहा अणत्थ-दंडो हवे चरिमो ।348।
= जिन शास्त्रों या पुस्तकों में गंदे मजाक, वशीकरण, कामभोग वगैरह का वर्णन हो उनका सुनना और परके दोषों की चर्चा वार्ता सुनना पाँचवाँ अनर्थदंड है।
सागार धर्मामृत अधिकार 5/9
चित्तकालुष्यकृत्काम-हिंसाद्यर्थश्रुतश्रुतिम्। न दुःश्रुतिमपध्यानं, नार्तरौद्रात्म चान्वियात् ॥9॥
= अनर्थदंडव्रत का इच्छुक श्रावक चित्त में कालुष्यता करने वाला जो काम तथा हिंसा आदिक हैं तात्पर्य जिनके ऐसे शास्त्रों के रूप दुःश्रुति नामक अनर्थदंड को नहीं करे और आर्त तथा रौद्र ध्यान स्वरूप अपध्यान नामक अनर्थदंड को नहीं करे।
3. अनर्थदंडव्रत के अतिचार
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/32
कंदर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि।
= 1. हास्ययुक्त अशिष्ट वचन का प्रयोग. 2. कायकी कुचेष्टा सहित ऐसे वचन का प्रयोग, 3. बेकार बोलते रहना, 4. प्रयोजन के बिना कोई न कोई तोड़-फोड़ करते रहना या काव्यादिका चिंतवन करते रहना, 5. प्रयोजन न होनेपर भी भोग-परिभोग की सामग्री एकत्रित करना या रखना, ये पाँच अनर्थदंड व्रत के अतिचार हैं।
4. भोगपभोग परिमालव्रत व भोगोपभोग आनर्थक्य नामक अतिचार में अंतर
राजवार्तिक अध्याय 7/32,6-7/556/29
यावताऽर्थे न उपभोगपरिभोगौ प्रकल्प्येतेतस्य तावानर्थ इत्युच्यते, ततोऽन्यस्याधिक्यमानर्थक्यम् ।6। ...स्यादेतत्-उपभोगपरिभोगव्रतेऽंतर्भवतीति पौनरुक्त्यमासज्यत इति; तन्न किं कारणम्। तदर्थानवधारणात्। इच्छावशात् उपभोगपरिभोगपरिमाणावग्रहः सावद्यप्रत्याख्यानं चेति तदुक्तम्, इह पुनः कल्प्यस्यैव आधिक्यमित्यतिक्रम इत्युच्यते। नंवेवमपितद्व्रतातिचारांतर्भावात् इदं वचनमनर्थकम्। नानर्थकम्; सचित्ताद्यतिक्रमवचनात्।
= जिसके जितने उपभोग और परिभोग के पदार्थों से काम चल जाये वह उसके लिए अर्थ है, उससे अधिक पदार्थ रखना उपभोगपरिभोगानर्थक्य है।
प्रश्न - इसका तो उपभोग-परिभोगपरिमाणव्रतमें अंतर्भाव हो जाता है अतः इससे पुनरुक्तता प्राप्त होती है?
उत्तर - नहीं होती, क्योंकि इसका अर्थ अन्य है। उपभोग-परिभोगपरिमाणव्रत में तो इच्छानुसार प्रमाण किया जाता है और सावद्य का परिहार किया जाता है, पर यहाँ आवश्यकता का विचार है। जो संकल्पित भी है पर यदि आवश्यकता से अधिक है तो अतिचार है।
प्रश्न - तब इसका अंतर्भाव भोगपरिभोग-परिमाणव्रत के अतिचार में हो जाने से यह कथन निरर्थक है?
उत्तर - निरर्थक नहीं है क्योंकि वहाँ सचित्त संबंध आदि रूप से मर्यादाति क्रम विवक्षित है, अतः इसका वहाँ कथन नहीं किया।
5. अनर्थदंडव्रत का प्रयोजन
राजवार्तिक अध्याय 7/21,22/549/19
दिग्देशयोरुत्तरयोश्चोपभोगपरिभोगयोरवधृतपरिमाणयोरनर्थकं चंक्रमणादिविषयोपसेवनं च निष्प्रयोजनं न कर्तव्यमित्यतिरेकनिवृत्तिज्ञापनार्थं मध्येऽनर्थदंडवचनं क्रियते।
= पहले कहे गये दिग्व्रत तथा देशव्रत तथा आगे कहे जाने वाले उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत में स्वीकृत मर्यादा में भी निरर्थक गमन आदि तथा विषय सेवन आदि नहीं करना चाहिए, इस अतिरेक निवृत्ति की सूचना के लिए बीच में अनर्थदंड विरति का ग्रहण किया है।
6. अनर्थदंडव्रत का महत्त्व
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 147
एवंविधमपरमपि ज्ञात्वा मुंचत्यनर्थदंडं यः। तस्यानिशमनवद्यं विजयमहिंसाव्रतं लभते ॥147॥
= जो पुरुष इस प्रकार अन्य भी अनर्थदंडों को जानकर उनका त्याग करता है, वह निरंतर निर्दोष अहिंसाव्रत का पालन करता है।