आवश्यक: Difference between revisions
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== सिद्धांतकोष से == | | ||
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<p>1. आवश्यक | <p class="HindiText"> श्रावक व साधु को अपने उपयोग की रक्षा के लिए नित्य ही छह क्रिया करनी आवश्यक होती है। उन्हीं को श्रावक या साधु के षट् आवश्यक कहते हैं। जिसका विशेष परिचय इस अधिकार में दिया गया है।</p> | ||
< | <p class="HindiText"> <strong>1. आवश्यक सामान्य का लक्षण</strong></p> | ||
<p class="HindiText">= जो कषाय राग-द्वेष | <span class="GRef">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 515</span><p class="PrakritText"> ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावासगं त्ति बोधव्वा। जुत्तित्ति उवायत्ति य णिरवयवा होदि णिजुत्ती ॥515॥</p> | ||
<p>( नियमसार / मूल या टीका गाथा | <p class="HindiText">= जो कषाय राग-द्वेष आदि के वशीभूत न हो वह अवश है, उस अवश का जो आचरण वह आवश्यक है। तथा युक्ति उपाय को कहते हैं जो अखंडित युक्ति वह निर्युक्ति है, आवश्यक की जो निर्युक्ति वह आवश्यक निर्युक्ति है।</p> | ||
< | <p class="HindiText"><span class="GRef">( नियमसार / मूल या टीका गाथा 142)</span></p> | ||
<p class="HindiText">= यदि तू | <span class="GRef">नियमसार / मूल या टीका गाथा 147</span> <p class="PrakritText">आवास जइ इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिर भावं। तेण दु सामण्णगुण होदि जीवस्स ॥147॥</p> | ||
< | <p class="HindiText">= यदि तू आवश्यक को चाहता है तो तू आत्मस्वभावों में थिरभाव कर उससे जीव का समायिक गुण संपूर्ण होता है।</p> | ||
<p class="HindiText">= `ण वसो अवसो अवसस्स कम्मभावसं बोधव्वा' ऐसी आवश्यक | <span class="GRef">भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 116/274/12</span> <p class="PrakritText">आवासयाणं आवश्यकानां। ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावसगं इति व्युत्पत्तावपि सामायिकादिष्वेवायं शब्दो वर्तते। व्याधिदौर्बल्यादिना व्याकुलो भण्यते अवश परवश इति यावत्। तेनापि कर्त्तव्यं कर्मेति। यथा आशु गच्छतीत्यश्व इति व्युत्पत्तावपि न व्याघ्रादौ वर्तते अश्वशब्दौऽपि तु प्रसिद्धिवशात् तुरग एव। एवमिहापि अवश्यं यत्किंचन कर्म इतस्ततः परावृत्तिराक्रंदनं, पूत्करणं वा तद्भण्यते। अथवा आवासकानां इत्ययमर्थः आवासयंति रत्नत्रयमात्मनीति।</p> | ||
< | <p class="HindiText">= `ण वसो अवसो अवसस्स कम्मभावसं बोधव्वा' ऐसी आवश्यक शब्द की निरुक्ति है। व्याधि-रोग अशक्तपना इत्यादि विकार जिसमें हैं ऐसे व्यक्ति को अवश कहते हैं, ऐसे व्यक्ति को जो क्रियाएँ करना योग्य है उनको आवश्यक कहते हैं। जैसे-`आशु गच्छतीत्यश्वः' अर्थात् जो शीघ्र दौड़ता है उसको अश्व कहते हैं, अर्थात् व्याघ्र आदि कोई भी प्राणी जो शीघ्र दोड़ सकते हैं वे सभी अश्व शब्द से संगृहीत होते हैं। परंतु अश्व शब्द प्रसिद्धि के वश होकर घोड़ा इस अर्थ में ही रूढ़ है। वैसे अवश्य करने योग्य जो कोई भी कार्य वह आवश्यक शब्द से कहा जाना चाहिए जैसे-लोटना, करवट बदलना, किसी को बुलाना वगैरह कर्तव्य अवश्य करने पड़ते हैं। आवश्यक शब्द यहाँ सामायिकादि क्रियाओ में ही प्रसिद्ध है। अथवा आवासक ऐसा शब्द मानकर `आवासयंति रत्नत्रयमपि इति आवश्यकाः' ऐसी भी निरुक्ति कहते हैं, अर्थात् जो आत्मा में रत्नत्रय का निवास कराते हैं उसको आवासक कहते हैं।</p> | ||
<p class="HindiText">= जो | <span class="GRef">अनगार धर्मामृत अधिकार 8/16</span> <p class="SanskritText">यद्व्याध्यादिवशेनापि क्रियतेऽक्षावशेन च। आवश्यकमवशस्य कर्माहोरात्रिकं मुनिः ॥16॥</p> | ||
<p>2. साधुके षट् | <p class="HindiText">= जो इंद्रियों के वश्य-आधीन नहीं होता उसको अवश्य कहते हैं। ऐसे संयमी के अहोरात्रिक-दिन और रात में करने योग्य कर्मों का नाम ही आवश्यक है। अतएव व्याधि आदि से ग्रस्त हो जाने पर भी इंद्रियों के वश न पड़ कर जो दिन और रात के काम मुनियों को करने ही चाहिए उन्हीं को आवश्यक कहते हैं।</p> | ||
< | <p class="HindiText"> <strong>2. साधुके षट् आवश्यकों का नाम निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText">= सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, | <span class="GRef">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 220 </span> <p class="PrakritText">समदा थओ य वंदण पाडिक्कमणं तहेव णादव्वं। पच्चक्खाण विसग्गो करणीयावासया छप्पि ॥22॥</p> | ||
<p>( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 516), (राजवार्तिक अध्याय 6/22/11/530/11), ( भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 116/274/16), ( धवला पुस्तक 8/3,41/83/10) ( पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 201) ( चारित्रसार पृष्ठ 55/3), ( अनगार धर्मामृत अधिकार 8/17), ( | <p class="HindiText">= सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण,प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग-ये छह आवश्यक सदा करने चाहिए।</p> | ||
<p>3. अन्य संबंधित विषय</p> | <p><span class="GRef">(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 516)</span>, <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 6/22/11/530/11)</span>, <span class="GRef">(भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 116/274/16)</span>, <span class="GRef">( धवला पुस्तक 8/3,41/83/10)</span> <span class="GRef">(पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 201)</span> <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 55/3)</span>, <span class="GRef">(अनगार धर्मामृत अधिकार 8/17)</span>, <span class="GRef">(भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 77)</span></p> | ||
<p>1. साधुके | <p class="HindiText"> <strong>3. अन्य संबंधित विषय</strong></p> | ||
<p>- देखें [[ | <p class="HindiText">1. साधुके षड़ावश्यक विशेष </p> | ||
<p>2. श्रावकके | <p class="HindiText">- देखें [[ सामायिक ]], [[ वंदना]], [[ प्रत्याख्यान ]], [[ भक्ति#3 | भक्ति 3 ]],[[ प्रतिक्रमण ]], [[कायोत्सर्ग ]]</p> | ||
<p>- देखें [[ | <p class="HindiText">2. श्रावकके षड़ावश्यक </p> | ||
<p>3. त्रिकरणोंके चार-चार आवश्यक </p> | <p class="HindiText">- देखें [[ श्रावक_के_मूल_व_उत्तर_गुण_निर्देश#4.6.4 | षड़ावश्यक ]]</p> | ||
<p>- देखें [[ करण#4. | <p class="HindiText">3. त्रिकरणोंके चार-चार आवश्यक </p> | ||
<p>4. निश्चिय व्यवहार आवश्यकोंकी मुख्यता गौणता </p> | <p class="HindiText">- देखें [[ करण#4.7 | करण - 4.7]]</p> | ||
<p>- देखें [[ चारित्र ]]</p> | <p class="HindiText">4. निश्चिय व्यवहार आवश्यकोंकी मुख्यता गौणता </p> | ||
<p class="HindiText">- देखें [[ चारित्र#1.10 | चारित्र 1.10]]</p> | |||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p> साधु के षडावश्यक नाम से प्रसिद्ध छ: मूलगुण-सामायिक, स्तुति, त्रिकाल-वंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग । <span class="GRef"> महापुराण 18. 70-72, 36.133-135, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 6.93 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> साधु के षडावश्यक नाम से प्रसिद्ध छ: मूलगुण-सामायिक, स्तुति, त्रिकाल-वंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग । <span class="GRef"> महापुराण 18. 70-72, 36.133-135, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 6.93 </span></p> | ||
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Latest revision as of 14:40, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
श्रावक व साधु को अपने उपयोग की रक्षा के लिए नित्य ही छह क्रिया करनी आवश्यक होती है। उन्हीं को श्रावक या साधु के षट् आवश्यक कहते हैं। जिसका विशेष परिचय इस अधिकार में दिया गया है।
1. आवश्यक सामान्य का लक्षण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 515
ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावासगं त्ति बोधव्वा। जुत्तित्ति उवायत्ति य णिरवयवा होदि णिजुत्ती ॥515॥
= जो कषाय राग-द्वेष आदि के वशीभूत न हो वह अवश है, उस अवश का जो आचरण वह आवश्यक है। तथा युक्ति उपाय को कहते हैं जो अखंडित युक्ति वह निर्युक्ति है, आवश्यक की जो निर्युक्ति वह आवश्यक निर्युक्ति है।
( नियमसार / मूल या टीका गाथा 142)
नियमसार / मूल या टीका गाथा 147
आवास जइ इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिर भावं। तेण दु सामण्णगुण होदि जीवस्स ॥147॥
= यदि तू आवश्यक को चाहता है तो तू आत्मस्वभावों में थिरभाव कर उससे जीव का समायिक गुण संपूर्ण होता है।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 116/274/12
आवासयाणं आवश्यकानां। ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावसगं इति व्युत्पत्तावपि सामायिकादिष्वेवायं शब्दो वर्तते। व्याधिदौर्बल्यादिना व्याकुलो भण्यते अवश परवश इति यावत्। तेनापि कर्त्तव्यं कर्मेति। यथा आशु गच्छतीत्यश्व इति व्युत्पत्तावपि न व्याघ्रादौ वर्तते अश्वशब्दौऽपि तु प्रसिद्धिवशात् तुरग एव। एवमिहापि अवश्यं यत्किंचन कर्म इतस्ततः परावृत्तिराक्रंदनं, पूत्करणं वा तद्भण्यते। अथवा आवासकानां इत्ययमर्थः आवासयंति रत्नत्रयमात्मनीति।
= `ण वसो अवसो अवसस्स कम्मभावसं बोधव्वा' ऐसी आवश्यक शब्द की निरुक्ति है। व्याधि-रोग अशक्तपना इत्यादि विकार जिसमें हैं ऐसे व्यक्ति को अवश कहते हैं, ऐसे व्यक्ति को जो क्रियाएँ करना योग्य है उनको आवश्यक कहते हैं। जैसे-`आशु गच्छतीत्यश्वः' अर्थात् जो शीघ्र दौड़ता है उसको अश्व कहते हैं, अर्थात् व्याघ्र आदि कोई भी प्राणी जो शीघ्र दोड़ सकते हैं वे सभी अश्व शब्द से संगृहीत होते हैं। परंतु अश्व शब्द प्रसिद्धि के वश होकर घोड़ा इस अर्थ में ही रूढ़ है। वैसे अवश्य करने योग्य जो कोई भी कार्य वह आवश्यक शब्द से कहा जाना चाहिए जैसे-लोटना, करवट बदलना, किसी को बुलाना वगैरह कर्तव्य अवश्य करने पड़ते हैं। आवश्यक शब्द यहाँ सामायिकादि क्रियाओ में ही प्रसिद्ध है। अथवा आवासक ऐसा शब्द मानकर `आवासयंति रत्नत्रयमपि इति आवश्यकाः' ऐसी भी निरुक्ति कहते हैं, अर्थात् जो आत्मा में रत्नत्रय का निवास कराते हैं उसको आवासक कहते हैं।
अनगार धर्मामृत अधिकार 8/16
यद्व्याध्यादिवशेनापि क्रियतेऽक्षावशेन च। आवश्यकमवशस्य कर्माहोरात्रिकं मुनिः ॥16॥
= जो इंद्रियों के वश्य-आधीन नहीं होता उसको अवश्य कहते हैं। ऐसे संयमी के अहोरात्रिक-दिन और रात में करने योग्य कर्मों का नाम ही आवश्यक है। अतएव व्याधि आदि से ग्रस्त हो जाने पर भी इंद्रियों के वश न पड़ कर जो दिन और रात के काम मुनियों को करने ही चाहिए उन्हीं को आवश्यक कहते हैं।
2. साधुके षट् आवश्यकों का नाम निर्देश
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 220
समदा थओ य वंदण पाडिक्कमणं तहेव णादव्वं। पच्चक्खाण विसग्गो करणीयावासया छप्पि ॥22॥
= सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण,प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग-ये छह आवश्यक सदा करने चाहिए।
(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 516), (राजवार्तिक अध्याय 6/22/11/530/11), (भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 116/274/16), ( धवला पुस्तक 8/3,41/83/10) (पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 201) (चारित्रसार पृष्ठ 55/3), (अनगार धर्मामृत अधिकार 8/17), (भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 77)
3. अन्य संबंधित विषय
1. साधुके षड़ावश्यक विशेष
- देखें सामायिक , वंदना, प्रत्याख्यान , भक्ति 3 ,प्रतिक्रमण , कायोत्सर्ग
2. श्रावकके षड़ावश्यक
- देखें षड़ावश्यक
3. त्रिकरणोंके चार-चार आवश्यक
- देखें करण - 4.7
4. निश्चिय व्यवहार आवश्यकोंकी मुख्यता गौणता
- देखें चारित्र 1.10
पुराणकोष से
साधु के षडावश्यक नाम से प्रसिद्ध छ: मूलगुण-सामायिक, स्तुति, त्रिकाल-वंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग । महापुराण 18. 70-72, 36.133-135, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.93