प्रदेशबंध: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong>प्रदेश बंध संबंधी नियम व प्ररूपणाएँ</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">प्रदेशबंध का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/8/24 </span><span class="SanskritText">नामप्रत्ययाः सर्वतोयोगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनंतानंतप्रदेशाः ।24।</span> = <span class="HindiText">कर्म प्रकृतियों के कारणभूत प्रति समय योग विशेष से सूक्ष्म, एकक्षेत्रावगाही और स्थित अनंतानंत पुद्गलपरमाणु सब आत्म प्रदेशों में (संबंध को प्राप्त) होते हैं ।24। <span class="GRef">( मूलाचार/1241)</span>, (विशेष विस्तार देखें [[ ]]<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/24/402 )</span>, <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/933) .</span></span><br /> | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/8/24 </span><span class="SanskritText">नामप्रत्ययाः सर्वतोयोगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनंतानंतप्रदेशाः ।24।</span> = <span class="HindiText">कर्म प्रकृतियों के कारणभूत प्रति समय योग विशेष से सूक्ष्म, एकक्षेत्रावगाही और स्थित अनंतानंत पुद्गलपरमाणु सब आत्म प्रदेशों में (संबंध को प्राप्त) होते हैं ।24। <span class="GRef">( मूलाचार/1241)</span>, (विशेष विस्तार देखें [[ ]]<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/24/402 )</span>, <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/933) .</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि 8/3/379/7 </span><span class="SanskritText">इयत्तावधारणं प्रदेशः । कर्मभावपरिणतपुद्गलस्कंधानां परमाणुपरिच्छेदेनावधारणं प्रदेशः ।</span> =<span class="HindiText"> इयत्ता (संख्या) का अवधारण करना प्रदेश है । <span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/4/514 )</span> । अर्थात् कर्मरूप से परिणत पुद्गलस्कंधों का परमाणुओं की जानकारी करके निश्चय करना प्रदेशबंध है । <span class="GRef">( राजवार्तिक/8/3/7/567/12 )</span> । <br /> | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि 8/3/379/7 </span><span class="SanskritText">इयत्तावधारणं प्रदेशः । कर्मभावपरिणतपुद्गलस्कंधानां परमाणुपरिच्छेदेनावधारणं प्रदेशः ।</span> =<span class="HindiText"> इयत्ता (संख्या) का अवधारण करना प्रदेश है । <span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/4/514 )</span> । अर्थात् कर्मरूप से परिणत पुद्गलस्कंधों का परमाणुओं की जानकारी करके निश्चय करना प्रदेशबंध है । <span class="GRef">( राजवार्तिक/8/3/7/567/12 )</span> । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">प्रदेशबंध के भेद</strong> <br /> | ||
(प्रदेश बंध चार प्रकार का होता है - उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य व अजघन्य ।)<br /> | (प्रदेश बंध चार प्रकार का होता है - उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य व अजघन्य ।)<br /> | ||
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</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2">प्रदेश बंध संबंधी नियम व प्ररूपणाएँ</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">विस्रसोपचयों में हानि-वृद्धि संबंधी नियम</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम 14/5,6/ सूत्र 520-528/438-444</span> <span class="PrakritText">विस्सासुवचयपरूवणदाए एक्केवकम्हि जीवपदेसे केवडिया विस्सासुवचया उवचिदा ।520। अणंता विस्सासुवचया उवचिदा सव्वजीवेहि अणंतगुणा ।521। ते च सव्वलोगागदेहि बद्धा ।522। तेसिं चउब्विहा हाणी-दव्वहाणी खेत्तहाणी कालहाणी भावहाणी चेदि ।523। दव्वहाणिपरूवणदाए ओरालियसरीरस्स जे एयपदेसियवग्गणाए दव्वा ते बहुआ अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।524। जे दुपदेसियवग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।525। एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पंचपदेसिय- छप्पदेसिय-सत्तपदेसिय- अट्ठपदेसिय-णवपदेसिय-दसपदेसिय-संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसिय-अणंतपदेसिय-अणंताणंतपदेसियवग्गणाए दब्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।526। तदो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं गंतूणं तेसिं पंचविहा हाणी- अणंतभागहाणी असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणीअसंखेज्जगुणहाणी ।527। (टीका- तत्थ एक्केक्किस्से हाणीए अद्धाणमंगुलस्स असंखेज्जदिभागो ।) एवं चदुण्णं सरीराणं ।528।</span> = <span class="HindiText">चार शरीरों में बंधी नोकर्म वर्गणाओं की अपेक्षा - विस्रसोपचय प्ररूपणा की अपेक्षा एक-एक जीव प्रदेश पर कितने विस्रसोपचय उपचित हैं ।520। अनंत विस्रसोपचय उपचित हैं जो कि सब जीवों से अनंत गुणे हैं ।521। वे सब लोक में से आकर बद्ध हुए हैं ।522। उनकी चार प्रकार की हानि होती है - द्रव्यहानि, क्षेत्रहानि, कालहानि और भावहानि ।523। द्रव्यहानि प्ररूपणा की अपेक्षा औदारिक शरीर की एक प्रदेशी वर्गणा के जो द्रव्य हैं वे बहुत हैं जो कि अनंत विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।524। जो द्विप्रदेशी वर्गणा के द्रव्य हैं वे विशेषहीन हैं जो अनंत विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।525। इसी प्रकार त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पंचप्रदेशी, छहप्रदेशी, सातप्रदेशी, आठप्रदेशी, नौप्रदेशी, दसप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी, अनंतप्रदेशी और अनंतानंतप्रदेशी वर्गणा के जो द्रव्य हैं विशेषहीन हैं जो प्रत्येक अनंत विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।526। उसके बाद अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान जाकर उनकी पाँच प्रकार की हानि होती है - अनंत भागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि , संख्यात गुणहानि और असंख्यात गुणहानि ।527। (टीका-उनमें से एक-एक हानि का अध्वान अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । ) उसी प्रकार चार शरीरों की प्ररूपणा करनी चाहिए ।528।<br /> | <span class="GRef"> षट्खंडागम 14/5,6/ सूत्र 520-528/438-444</span> <span class="PrakritText">विस्सासुवचयपरूवणदाए एक्केवकम्हि जीवपदेसे केवडिया विस्सासुवचया उवचिदा ।520। अणंता विस्सासुवचया उवचिदा सव्वजीवेहि अणंतगुणा ।521। ते च सव्वलोगागदेहि बद्धा ।522। तेसिं चउब्विहा हाणी-दव्वहाणी खेत्तहाणी कालहाणी भावहाणी चेदि ।523। दव्वहाणिपरूवणदाए ओरालियसरीरस्स जे एयपदेसियवग्गणाए दव्वा ते बहुआ अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।524। जे दुपदेसियवग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।525। एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पंचपदेसिय- छप्पदेसिय-सत्तपदेसिय- अट्ठपदेसिय-णवपदेसिय-दसपदेसिय-संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसिय-अणंतपदेसिय-अणंताणंतपदेसियवग्गणाए दब्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।526। तदो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं गंतूणं तेसिं पंचविहा हाणी- अणंतभागहाणी असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणीअसंखेज्जगुणहाणी ।527। (टीका- तत्थ एक्केक्किस्से हाणीए अद्धाणमंगुलस्स असंखेज्जदिभागो ।) एवं चदुण्णं सरीराणं ।528।</span> = <span class="HindiText">चार शरीरों में बंधी नोकर्म वर्गणाओं की अपेक्षा - विस्रसोपचय प्ररूपणा की अपेक्षा एक-एक जीव प्रदेश पर कितने विस्रसोपचय उपचित हैं ।520। अनंत विस्रसोपचय उपचित हैं जो कि सब जीवों से अनंत गुणे हैं ।521। वे सब लोक में से आकर बद्ध हुए हैं ।522। उनकी चार प्रकार की हानि होती है - द्रव्यहानि, क्षेत्रहानि, कालहानि और भावहानि ।523। द्रव्यहानि प्ररूपणा की अपेक्षा औदारिक शरीर की एक प्रदेशी वर्गणा के जो द्रव्य हैं वे बहुत हैं जो कि अनंत विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।524। जो द्विप्रदेशी वर्गणा के द्रव्य हैं वे विशेषहीन हैं जो अनंत विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।525। इसी प्रकार त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पंचप्रदेशी, छहप्रदेशी, सातप्रदेशी, आठप्रदेशी, नौप्रदेशी, दसप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी, अनंतप्रदेशी और अनंतानंतप्रदेशी वर्गणा के जो द्रव्य हैं विशेषहीन हैं जो प्रत्येक अनंत विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।526। उसके बाद अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान जाकर उनकी पाँच प्रकार की हानि होती है - अनंत भागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि , संख्यात गुणहानि और असंख्यात गुणहानि ।527। (टीका-उनमें से एक-एक हानि का अध्वान अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । ) उसी प्रकार चार शरीरों की प्ररूपणा करनी चाहिए ।528।<br /> | ||
<strong>नोट </strong>- बिलकुल इसी प्रकार अन्य तीन हानियों का कथन करना चाहिए । <span class="GRef">( षट्खंडागम 14/5,6/ सूत्र 529-543/445-493)</span> ।<br /> | <strong>नोट </strong>- बिलकुल इसी प्रकार अन्य तीन हानियों का कथन करना चाहिए । <span class="GRef">( षट्खंडागम 14/5,6/ सूत्र 529-543/445-493)</span> ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">एक समयप्रबद्ध में प्रदेशों का प्रमाण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/4/495 </span><span class="PrakritGatha">पंचरस-पंचवण्णेहिं परिणयदुगंध चदुहिं फासेहिं । दवियमणंतपदेसं जीवेहि अणंतगुणहीणं ।495।</span> = <span class="HindiText">पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध और शीतादि चार स्पर्श से परिणत, सिद्ध जीवों से अनंतगुणितहीन, तथा अभव्य जीवों से अनंतगुणित अनंत प्रदेशी पुद्गल द्रव्य को यह जीव एक समय में ग्रहण करता है । 495। <span class="GRef">(गोम्मटसार कर्मकाण्ड/मूल/191), ( द्रव्यसंग्रह टीका/33/94/1 ), (पंचसंग्रह/संस्कृत/4/337) </span>।<br /> | <span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/4/495 </span><span class="PrakritGatha">पंचरस-पंचवण्णेहिं परिणयदुगंध चदुहिं फासेहिं । दवियमणंतपदेसं जीवेहि अणंतगुणहीणं ।495।</span> = <span class="HindiText">पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध और शीतादि चार स्पर्श से परिणत, सिद्ध जीवों से अनंतगुणितहीन, तथा अभव्य जीवों से अनंतगुणित अनंत प्रदेशी पुद्गल द्रव्य को यह जीव एक समय में ग्रहण करता है । 495। <span class="GRef">(गोम्मटसार कर्मकाण्ड/मूल/191), ( द्रव्यसंग्रह टीका/33/94/1 ), (पंचसंग्रह/संस्कृत/4/337) </span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">समयबद्ध वर्गणाओं में अल्पबहुत्व विभाग</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-7,43/201/6 </span><span class="PrakritText"> ते च कम्मपदेसा जहण्णवग्गणाए बहुआ, तत्तो उवरि वग्गणं पडि विसेसहीणा अणंतभागेण । भागहारस्स अर्द्ध गंतूण दुगुणहीणा । एवं णेदव्वं जाव चरिमवग्गणेत्ति । एवं चत्तारि य बंधा परूविदा होंति ।</span> =<span class="HindiText"> वे कर्मप्रदेश जघन्य वर्गणा में बहुत होते हैं उससे ऊपर प्रत्येक वर्गणा के प्रति विशेषहीन अर्थात् अनंतवें भाग से हीन होते जाते हैं । और भागाहार के आधे प्रमाण दूर जाकर दुगुनेहीन अर्थात् आधे रह जाते हैं । इस प्रकार यह क्रम अंतिम वर्गणा तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार प्रकृति बंध के द्वारा यहाँ चारों ही बंध प्ररूपित हो जाते हैं ।<br /> | <span class="GRef"> धवला 6/1,9-7,43/201/6 </span><span class="PrakritText"> ते च कम्मपदेसा जहण्णवग्गणाए बहुआ, तत्तो उवरि वग्गणं पडि विसेसहीणा अणंतभागेण । भागहारस्स अर्द्ध गंतूण दुगुणहीणा । एवं णेदव्वं जाव चरिमवग्गणेत्ति । एवं चत्तारि य बंधा परूविदा होंति ।</span> =<span class="HindiText"> वे कर्मप्रदेश जघन्य वर्गणा में बहुत होते हैं उससे ऊपर प्रत्येक वर्गणा के प्रति विशेषहीन अर्थात् अनंतवें भाग से हीन होते जाते हैं । और भागाहार के आधे प्रमाण दूर जाकर दुगुनेहीन अर्थात् आधे रह जाते हैं । इस प्रकार यह क्रम अंतिम वर्गणा तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार प्रकृति बंध के द्वारा यहाँ चारों ही बंध प्ररूपित हो जाते हैं ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">योग व प्रदेशबंध में परस्पर संबंध</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">महाबंध 6/92-134 </span> का भावार्थ - उत्कृष्ट योग से उत्कृष्ट प्रदेशबंध तथा जघन्य योग से जघन्य प्रदेशबंध होता है . <br /> | <span class="GRef">महाबंध 6/92-134 </span> का भावार्थ - उत्कृष्ट योग से उत्कृष्ट प्रदेशबंध तथा जघन्य योग से जघन्य प्रदेशबंध होता है . <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">स्वामित्व की अपेक्षा प्रदेशबंध प्ररूपणा</strong> <br /> | ||
<strong><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/4/502 </span></strong>-512), <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/210-216/256 )</span> ।<br /> | <strong><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/4/502 </span></strong>-512), <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड/210-216/256 )</span> ।<br /> | ||
<strong>संकेत -</strong></span> | <strong>संकेत -</strong></span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li | <li class="HindiText"> संज्ञी = संज्ञी, पर्याप्त, उत्कृष्ट योग से युक्त, अल्प प्रकृति का बंधक उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है । </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> असंज्ञी = असंज्ञी, अपर्याप्त, जघन्य योग से युक्त, अधिक प्रकृति का बंधक, जघन्य प्रदेशबंध करता है । </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> सू.ल./1 = सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त, जघन्य योग से युक्त जीव के अपनी पर्याय का प्रथम समय । </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> सू.ल./2 = सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त की आयु बंध के त्रिभाग प्रथम समय ।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> सू. ल./च = चरम भवस्थ तथा तीन विग्रह में से प्रथम विग्रह में स्थित निगोदिया जीव ।</span></li> | ||
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</li> | </li> | ||
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</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="68" valign="top"><p><span class="HindiText">1 | <td width="68" valign="top"><p><span class="HindiText">1</span></p></td> | ||
<td width="263" valign="top"><p><span class="HindiText">स्त्यान., निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, अनंतानु. चतु., स्त्री वन.पुं. वेद, नरकतिर्यग् व देवगति, पंचेंद्रियादि पाँच जाति, औदारिक, तैजस, व कार्मणशरीर, न्यग्रोधादि 5 संस्थान,वज्रनाराचआदि 5 संहनन,औदारिक अंगोपांग, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, नरकानुपूर्वी, तिर्यगानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहा., त्रस, स्थावर,बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयश,निर्माण, नीचगोत्र = 66 </span></p></td> | <td width="263" valign="top"><p><span class="HindiText">स्त्यान., निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, अनंतानु. चतु., स्त्री वन.पुं. वेद, नरकतिर्यग् व देवगति, पंचेंद्रियादि पाँच जाति, औदारिक, तैजस, व कार्मणशरीर, न्यग्रोधादि 5 संस्थान,वज्रनाराचआदि 5 संहनन,औदारिक अंगोपांग, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, नरकानुपूर्वी, तिर्यगानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहा., त्रस, स्थावर,बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयश,निर्माण, नीचगोत्र = 66 </span></p></td> | ||
<td width="92" valign="top"><p><span class="HindiText">अविरतसम्य.</span></p> | <td width="92" valign="top"><p><span class="HindiText">अविरतसम्य.</span></p> | ||
Line 164: | Line 164: | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="68" valign="top"><p><span class="HindiText">1- | <td width="68" valign="top"><p><span class="HindiText">1-8</span></p></td> | ||
<td width="263" valign="top"><p><span class="HindiText">असाता, देव व मनुष्यायु, देव-गति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियक शरीर व अंगोपांग,समचतुरस्र संस्थान, आदेय, सुभग, सुस्वर, प्रशस्तविहायोगति, वज्रऋषभनाराचसंहनन = 13</span></p></td> | <td width="263" valign="top"><p><span class="HindiText">असाता, देव व मनुष्यायु, देव-गति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियक शरीर व अंगोपांग,समचतुरस्र संस्थान, आदेय, सुभग, सुस्वर, प्रशस्तविहायोगति, वज्रऋषभनाराचसंहनन = 13</span></p></td> | ||
<td width="92" valign="top"><p> </p></td> | <td width="92" valign="top"><p> </p></td> | ||
Line 208: | Line 208: | ||
<ol> | <ol> | ||
<ol start="6"> | <ol start="6"> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> प्रकृतिबंध की अपेक्षा स्वामित्व प्ररूपणा</strong> <br /> | ||
प्रमाण तथा संकेत - (देखें [[ पूर्वोक्त प्रदेशबंध प्ररूपणा नं#10 | पूर्वोक्त प्रदेशबंध प्ररूपणा नं - 10]])।</span></li> | प्रमाण तथा संकेत - (देखें [[ पूर्वोक्त प्रदेशबंध प्ररूपणा नं#10 | पूर्वोक्त प्रदेशबंध प्ररूपणा नं - 10]])।</span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 280: | Line 280: | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">2</span></p></td> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">2</span></p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">असाता </span></p></td> | <td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">असाता </span></p></td> | ||
<td width="156" valign="top"><p><span class="HindiText">1- | <td width="156" valign="top"><p><span class="HindiText">1-6</span></p></td> | ||
<td width="174" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">सू.ल./च</span></p></td> | <td width="174" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">सू.ल./च</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 320: | Line 320: | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">17-23</span></p></td> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">17-23</span></p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">हास्य,रति, अरति, शोक,भय, जुगुप्सा</span></p></td> | <td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">हास्य,रति, अरति, शोक,भय, जुगुप्सा</span></p></td> | ||
<td width="162" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">4- | <td width="162" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">4-8</span></p></td> | ||
<td width="168" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">सू.ल./च </span></p></td> | <td width="168" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">सू.ल./च </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 332: | Line 332: | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">25</span></p></td> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">25</span></p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">पुरुष वेद</span></p></td> | <td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">पुरुष वेद</span></p></td> | ||
<td width="162" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="162" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">9</span></p></td> | ||
<td width="168" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">सू.ल./च </span></p></td> | <td width="168" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">सू.ल./च </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 360: | Line 360: | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">3</span></p></td> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">3</span></p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">मनुष्य </span></p></td> | <td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">मनुष्य </span></p></td> | ||
<td width="162" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">1- | <td width="162" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">1-4</span></p></td> | ||
<td width="168" colspan="2" valign="top"><p> </p></td> | <td width="168" colspan="2" valign="top"><p> </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 366: | Line 366: | ||
<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">4</span></p></td> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">4</span></p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">देवायु</span></p></td> | <td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">देवायु</span></p></td> | ||
<td width="162" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">1- | <td width="162" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">1-7</span></p></td> | ||
<td width="168" colspan="2" valign="top"><p> </p></td> | <td width="168" colspan="2" valign="top"><p> </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 398: | Line 398: | ||
<td width="103" valign="top"><p> </p></td> | <td width="103" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">देव </span></p></td> | <td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">देव </span></p></td> | ||
<td width="168" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">1- | <td width="168" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">1-8</span></p></td> | ||
<td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">अविरति सम्य.</span></p></td> | <td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">अविरति सम्य.</span></p></td> | ||
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<td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">वैक्रियक </span></p></td> | <td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">वैक्रियक </span></p></td> | ||
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<td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">अविरति सम्य.</span></p></td> | <td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">अविरति सम्य.</span></p></td> | ||
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<td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">अविरति</span></p></td> | <td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">अविरति</span></p></td> | ||
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<td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">समचतुरस्र </span></p></td> | <td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">समचतुरस्र </span></p></td> | ||
<td width="168" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">1- | <td width="168" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">1-8</span></p></td> | ||
<td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">सू.ल./च</span></p></td> | <td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">सू.ल./च</span></p></td> | ||
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<td width="103" valign="top"><p> </p></td> | <td width="103" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">वज्र वृषभ नाराच </span></p></td> | <td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">वज्र वृषभ नाराच </span></p></td> | ||
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<td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">देव </span></p></td> | <td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">देव </span></p></td> | ||
<td width="168" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">1- | <td width="168" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">1-8</span></p></td> | ||
<td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">अविरत सम्य.</span></p></td> | <td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">अविरत सम्य.</span></p></td> | ||
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<td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">प्रशस्त</span></p></td> | <td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">प्रशस्त</span></p></td> | ||
<td width="168" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">1- | <td width="168" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">1-8</span></p></td> | ||
<td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">सू.ल./च</span></p></td> | <td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">सू.ल./च</span></p></td> | ||
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<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">24</span></p></td> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">24</span></p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">सुभग </span></p></td> | <td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">सुभग </span></p></td> | ||
<td width="168" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">1- | <td width="168" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">1-8</span></p></td> | ||
<td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">सू.ल./च</span></p></td> | <td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">सू.ल./च</span></p></td> | ||
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<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">25</span></p></td> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">25</span></p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">सुस्वर</span></p></td> | <td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">सुस्वर</span></p></td> | ||
<td width="168" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">1- | <td width="168" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">1-8</span></p></td> | ||
<td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">सू.ल./च</span></p></td> | <td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">सू.ल./च</span></p></td> | ||
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<td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">30</span></p></td> | <td width="103" valign="top"><p><span class="HindiText">30</span></p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">आदेय </span></p></td> | <td width="204" valign="top"><p><span class="HindiText">आदेय </span></p></td> | ||
<td width="168" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">1- | <td width="168" colspan="3" valign="top"><p><span class="HindiText">1-8</span></p></td> | ||
<td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">सू.ल./च</span></p></td> | <td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText">सू.ल./च</span></p></td> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7">एक योग निमित्तक प्रदेश बंध में अल्पबहुत्व क्यों ?</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 10/4,2,4,213,511/3 </span><span class="PrakritText">जदि जोगादो पदेसबंधो होदि तो सव्वकम्माणं पदेसपिंडस्स समाणत्तं पावदि, एगकारणत्तादो । ण च एवं, पुव्विल्लप्पाबहुएण सह विरोहादो त्ति । एवं पच्चवट्ठिदसिस्सत्थमुत्तरसुत्तावयवो आगदो ‘णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि’ त्ति । पयडी णाम सहाओ, तस्स विसेसो भेदो, तेण पयडिविसेसेण कम्माणं पदेसबंधट्ठाणाणि समाणकारणत्ते वि पदेसेहि विसेसाहियाणि ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> यदि योग से प्रदेशबंध होता है तो सब कर्मोंके प्रदेश समूह के समानता प्राप्त होती है, क्योंकि उन सबके प्रदेशबंध का एक ही कारण है । <br> | <span class="GRef"> धवला 10/4,2,4,213,511/3 </span><span class="PrakritText">जदि जोगादो पदेसबंधो होदि तो सव्वकम्माणं पदेसपिंडस्स समाणत्तं पावदि, एगकारणत्तादो । ण च एवं, पुव्विल्लप्पाबहुएण सह विरोहादो त्ति । एवं पच्चवट्ठिदसिस्सत्थमुत्तरसुत्तावयवो आगदो ‘णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि’ त्ति । पयडी णाम सहाओ, तस्स विसेसो भेदो, तेण पयडिविसेसेण कम्माणं पदेसबंधट्ठाणाणि समाणकारणत्ते वि पदेसेहि विसेसाहियाणि ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> यदि योग से प्रदेशबंध होता है तो सब कर्मोंके प्रदेश समूह के समानता प्राप्त होती है, क्योंकि उन सबके प्रदेशबंध का एक ही कारण है । <br> | ||
<strong>उत्तर-</strong>परंतु ऐसा है नहीं क्योंकि, वैसा होने पर पूर्वोक्त अल्पबहुत्व के साथ विरोध आता है । इस प्रत्यवस्था युक्त शिष्य के लिए उक्त सूत्र के ‘णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि’ इस उत्तर अवयव का अवतार हुआ है । प्रकृति का अर्थ स्वभाव है, उसके विशेष से अभिप्राय भेद का है । उस प्रकृति विशेष से कर्मों के प्रदेश बंधस्थान एक कारण के होने पर भी प्रदेशों से विशेष अधिक है ।<br /> | <strong>उत्तर-</strong>परंतु ऐसा है नहीं क्योंकि, वैसा होने पर पूर्वोक्त अल्पबहुत्व के साथ विरोध आता है । इस प्रत्यवस्था युक्त शिष्य के लिए उक्त सूत्र के ‘णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि’ इस उत्तर अवयव का अवतार हुआ है । प्रकृति का अर्थ स्वभाव है, उसके विशेष से अभिप्राय भेद का है । उस प्रकृति विशेष से कर्मों के प्रदेश बंधस्थान एक कारण के होने पर भी प्रदेशों से विशेष अधिक है ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8">सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की अंतिम फालि में प्रदेशों संबंधी दो मत</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 4/3,22/639/334/11 </span><span class="PrakritText">जइवसहाहरिएण उवलद्धा वे उवएसा । सम्मत्तचरिमफालीदो सम्मामिच्छत्तचरिमफाली असंखे. गुणहीणा त्ति एगो उवएसो । अवरेगो सम्मामिच्छत्तचारिमफाली तत्तो विसेसाहिया त्ति । एत्थ एदेसिं दोण्हं पि उवएसाणं णिच्छयं काउमसमत्थेण जइवसहाइरिएण एगो एत्थ विलिहिदो अवरेगो ट्ठिदिसंकमे । तेणेदं वे वि उवदेसा थप्पं कादूण वत्तव्वा त्ति ।</span> = <span class="HindiText">यतिवृषभाचार्य को दो उपदेश प्राप्त हुए । सम्यक्त्व की अंतिम फालि से सम्यग्मिथ्यात्व की अंतिमफालि असंख्यातगुणी हीन है यह पहला उपदेश है । तथा सम्यग्मिथ्यात्व की अंतिम फालि उससे (सम्यक्त्व की अंतिम फालि से ) विशेष अधिक है यह दूसरा, उपदेश है । इन दोनों ही उपदेशों का निश्चय करने में असमर्थ यतिवृषभाचार्य ने एक उपदेश यहाँ लिखा और एक उपदेश स्थिति संक्रम में लिखा, अतः इन दोनों ही उपदेशों को स्थगित करके उपदेश करना चाहिए ।<br /> | <span class="GRef"> कषायपाहुड़ 4/3,22/639/334/11 </span><span class="PrakritText">जइवसहाहरिएण उवलद्धा वे उवएसा । सम्मत्तचरिमफालीदो सम्मामिच्छत्तचरिमफाली असंखे. गुणहीणा त्ति एगो उवएसो । अवरेगो सम्मामिच्छत्तचारिमफाली तत्तो विसेसाहिया त्ति । एत्थ एदेसिं दोण्हं पि उवएसाणं णिच्छयं काउमसमत्थेण जइवसहाइरिएण एगो एत्थ विलिहिदो अवरेगो ट्ठिदिसंकमे । तेणेदं वे वि उवदेसा थप्पं कादूण वत्तव्वा त्ति ।</span> = <span class="HindiText">यतिवृषभाचार्य को दो उपदेश प्राप्त हुए । सम्यक्त्व की अंतिम फालि से सम्यग्मिथ्यात्व की अंतिमफालि असंख्यातगुणी हीन है यह पहला उपदेश है । तथा सम्यग्मिथ्यात्व की अंतिम फालि उससे (सम्यक्त्व की अंतिम फालि से ) विशेष अधिक है यह दूसरा, उपदेश है । इन दोनों ही उपदेशों का निश्चय करने में असमर्थ यतिवृषभाचार्य ने एक उपदेश यहाँ लिखा और एक उपदेश स्थिति संक्रम में लिखा, अतः इन दोनों ही उपदेशों को स्थगित करके उपदेश करना चाहिए ।<br /> | ||
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Latest revision as of 11:32, 15 March 2024
आकाश के छोटे-से-छोटे अविभागी अंश का नाम प्रदेश है, अर्थात् एक परमाणु जितनी जगह घेरता है उसे प्रदेश कहते हैं । जिस प्रकार अखंड आकाश में भी प्रदेशभेद की कल्पना करके अनंत प्रदेश बताये गये हैं, उसी प्रकार सभी द्रव्यों में पृथक्-पृथक् प्रदेशों की गणना का निर्देश किया गया है । उपचार से पुद्गल परमाणु को भी प्रदेश कहते हैं और इस प्रकार पुद्गल कर्मों के प्रदेशों का जीव के प्रदेशों के साथ बंध होना प्रदेशबंध कहा जाता है ।
- प्रदेशबंध
- कर्म प्रदेशों में रूप, रस व गंधादि - देखें ईर्यापथ - 3
- अनुभाग व प्रदेश में परस्पर संबंध-देखें अनुभाग - 2.4
- स्थितिबंध व प्रदेशबंध में संबंध -देखें स्थिति - 3.1
- प्रदेश बंध संबंधी नियम व प्ररूपणाएँ
- विस्रसोपचयों में हानि-वृद्धि संबंधी नियम ।
- एक समयप्रबद्ध में प्रदेशों का प्रमाण ।
- समयप्रबद्ध वर्गणाओं में अल्पबहुत्व विभाग ।
- * पाँचों शरीरों में बद्ध प्रदेशों में व विस्रसोपचयों में अल्प बहुत्व - देखें अल्पबहुत्व - 3.4 , 3.6 ।
- * प्रदेशबंधका निमित्त योग है । -देखें बंध - 5.1।
- * प्रदेशबंध में योग संबंधी शंकाएँ -देखें योग - 2।
- * योगस्थानों व प्रदेशबंध में संबंध -देखें योग - 5 ।
- योग व प्रदेश बंध में परस्पर संबंध ।
- स्वामित्व की अपेक्षा प्रदेशबंध प्ररूपणा ।
- प्रकृतिबंध की अपेक्षा स्वामित्व प्ररूपणा ।
- एक योग निमित्तक प्रदेशबंध में अल्पबहुत्व क्यों ?
- सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की अंतिम फालि में प्रदेशों संबंधी दो मत ।
- अन्य प्ररूपणाओं संबंधी विषय सूची ।
- मूलोत्तर प्रकृति, पंच शरीर, व 23 वर्गणाओं के प्रदेशों संबंधी संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन काल अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप प्ररूपणाएँ - देखें वह वह नाम ।
- प्रदेश सत्त्व संबंधी नियम । -देखें सत्त्व - 2.7।
- विस्रसोपचयों में हानि-वृद्धि संबंधी नियम ।
- प्रदेशबंध का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र/8/24 नामप्रत्ययाः सर्वतोयोगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनंतानंतप्रदेशाः ।24। = कर्म प्रकृतियों के कारणभूत प्रति समय योग विशेष से सूक्ष्म, एकक्षेत्रावगाही और स्थित अनंतानंत पुद्गलपरमाणु सब आत्म प्रदेशों में (संबंध को प्राप्त) होते हैं ।24। ( मूलाचार/1241), (विशेष विस्तार देखें [[ ]] सर्वार्थसिद्धि/8/24/402 ), ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/933) .
सर्वार्थसिद्धि 8/3/379/7 इयत्तावधारणं प्रदेशः । कर्मभावपरिणतपुद्गलस्कंधानां परमाणुपरिच्छेदेनावधारणं प्रदेशः । = इयत्ता (संख्या) का अवधारण करना प्रदेश है । ( पंचसंग्रह / प्राकृत/4/514 ) । अर्थात् कर्मरूप से परिणत पुद्गलस्कंधों का परमाणुओं की जानकारी करके निश्चय करना प्रदेशबंध है । ( राजवार्तिक/8/3/7/567/12 ) ।
- प्रदेशबंध के भेद
(प्रदेश बंध चार प्रकार का होता है - उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य व अजघन्य ।)
- प्रदेश बंध संबंधी नियम व प्ररूपणाएँ
- विस्रसोपचयों में हानि-वृद्धि संबंधी नियम
षट्खंडागम 14/5,6/ सूत्र 520-528/438-444 विस्सासुवचयपरूवणदाए एक्केवकम्हि जीवपदेसे केवडिया विस्सासुवचया उवचिदा ।520। अणंता विस्सासुवचया उवचिदा सव्वजीवेहि अणंतगुणा ।521। ते च सव्वलोगागदेहि बद्धा ।522। तेसिं चउब्विहा हाणी-दव्वहाणी खेत्तहाणी कालहाणी भावहाणी चेदि ।523। दव्वहाणिपरूवणदाए ओरालियसरीरस्स जे एयपदेसियवग्गणाए दव्वा ते बहुआ अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।524। जे दुपदेसियवग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।525। एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पंचपदेसिय- छप्पदेसिय-सत्तपदेसिय- अट्ठपदेसिय-णवपदेसिय-दसपदेसिय-संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसिय-अणंतपदेसिय-अणंताणंतपदेसियवग्गणाए दब्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।526। तदो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं गंतूणं तेसिं पंचविहा हाणी- अणंतभागहाणी असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणीअसंखेज्जगुणहाणी ।527। (टीका- तत्थ एक्केक्किस्से हाणीए अद्धाणमंगुलस्स असंखेज्जदिभागो ।) एवं चदुण्णं सरीराणं ।528। = चार शरीरों में बंधी नोकर्म वर्गणाओं की अपेक्षा - विस्रसोपचय प्ररूपणा की अपेक्षा एक-एक जीव प्रदेश पर कितने विस्रसोपचय उपचित हैं ।520। अनंत विस्रसोपचय उपचित हैं जो कि सब जीवों से अनंत गुणे हैं ।521। वे सब लोक में से आकर बद्ध हुए हैं ।522। उनकी चार प्रकार की हानि होती है - द्रव्यहानि, क्षेत्रहानि, कालहानि और भावहानि ।523। द्रव्यहानि प्ररूपणा की अपेक्षा औदारिक शरीर की एक प्रदेशी वर्गणा के जो द्रव्य हैं वे बहुत हैं जो कि अनंत विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।524। जो द्विप्रदेशी वर्गणा के द्रव्य हैं वे विशेषहीन हैं जो अनंत विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।525। इसी प्रकार त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पंचप्रदेशी, छहप्रदेशी, सातप्रदेशी, आठप्रदेशी, नौप्रदेशी, दसप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी, अनंतप्रदेशी और अनंतानंतप्रदेशी वर्गणा के जो द्रव्य हैं विशेषहीन हैं जो प्रत्येक अनंत विस्रसोपचयों से उपचित हैं ।526। उसके बाद अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान जाकर उनकी पाँच प्रकार की हानि होती है - अनंत भागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि , संख्यात गुणहानि और असंख्यात गुणहानि ।527। (टीका-उनमें से एक-एक हानि का अध्वान अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । ) उसी प्रकार चार शरीरों की प्ररूपणा करनी चाहिए ।528।
नोट - बिलकुल इसी प्रकार अन्य तीन हानियों का कथन करना चाहिए । ( षट्खंडागम 14/5,6/ सूत्र 529-543/445-493) ।
- एक समयप्रबद्ध में प्रदेशों का प्रमाण
पंचसंग्रह / प्राकृत/4/495 पंचरस-पंचवण्णेहिं परिणयदुगंध चदुहिं फासेहिं । दवियमणंतपदेसं जीवेहि अणंतगुणहीणं ।495। = पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध और शीतादि चार स्पर्श से परिणत, सिद्ध जीवों से अनंतगुणितहीन, तथा अभव्य जीवों से अनंतगुणित अनंत प्रदेशी पुद्गल द्रव्य को यह जीव एक समय में ग्रहण करता है । 495। (गोम्मटसार कर्मकाण्ड/मूल/191), ( द्रव्यसंग्रह टीका/33/94/1 ), (पंचसंग्रह/संस्कृत/4/337) ।
- समयबद्ध वर्गणाओं में अल्पबहुत्व विभाग
धवला 6/1,9-7,43/201/6 ते च कम्मपदेसा जहण्णवग्गणाए बहुआ, तत्तो उवरि वग्गणं पडि विसेसहीणा अणंतभागेण । भागहारस्स अर्द्ध गंतूण दुगुणहीणा । एवं णेदव्वं जाव चरिमवग्गणेत्ति । एवं चत्तारि य बंधा परूविदा होंति । = वे कर्मप्रदेश जघन्य वर्गणा में बहुत होते हैं उससे ऊपर प्रत्येक वर्गणा के प्रति विशेषहीन अर्थात् अनंतवें भाग से हीन होते जाते हैं । और भागाहार के आधे प्रमाण दूर जाकर दुगुनेहीन अर्थात् आधे रह जाते हैं । इस प्रकार यह क्रम अंतिम वर्गणा तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार प्रकृति बंध के द्वारा यहाँ चारों ही बंध प्ररूपित हो जाते हैं ।
- योग व प्रदेशबंध में परस्पर संबंध
महाबंध 6/92-134 का भावार्थ - उत्कृष्ट योग से उत्कृष्ट प्रदेशबंध तथा जघन्य योग से जघन्य प्रदेशबंध होता है .
- स्वामित्व की अपेक्षा प्रदेशबंध प्ररूपणा
पंचसंग्रह / प्राकृत/4/502 -512), ( गोम्मटसार कर्मकांड/210-216/256 ) ।
संकेत -- संज्ञी = संज्ञी, पर्याप्त, उत्कृष्ट योग से युक्त, अल्प प्रकृति का बंधक उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है ।
- असंज्ञी = असंज्ञी, अपर्याप्त, जघन्य योग से युक्त, अधिक प्रकृति का बंधक, जघन्य प्रदेशबंध करता है ।
- सू.ल./1 = सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त, जघन्य योग से युक्त जीव के अपनी पर्याय का प्रथम समय ।
- सू.ल./2 = सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त की आयु बंध के त्रिभाग प्रथम समय ।
- सू. ल./च = चरम भवस्थ तथा तीन विग्रह में से प्रथम विग्रह में स्थित निगोदिया जीव ।
- विस्रसोपचयों में हानि-वृद्धि संबंधी नियम
उत्कृष्ट प्रदेश बंध |
जघन्य प्रदेशबंध |
||
गुणस्थान |
प्रकृति का नाम |
गुणस्थान व स्वामित्व |
प्रकृति का नाम |
1.मूल प्रकृति प्ररूपणा |
|||
1,2,4-6 |
आयु |
सू.ल./1 |
आयु के बिना |
1-9 |
मोह |
|
|
10 |
ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, नाम, गोत्र, अंतराय |
सू.ल./2 |
आयु |
2. उत्तर प्रकृति प्ररूपणा |
|||
1 |
स्त्यान., निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, अनंतानु. चतु., स्त्री वन.पुं. वेद, नरकतिर्यग् व देवगति, पंचेंद्रियादि पाँच जाति, औदारिक, तैजस, व कार्मणशरीर, न्यग्रोधादि 5 संस्थान,वज्रनाराचआदि 5 संहनन,औदारिक अंगोपांग, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, नरकानुपूर्वी, तिर्यगानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहा., त्रस, स्थावर,बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयश,निर्माण, नीचगोत्र = 66 |
अविरतसम्य.
अप्रमत्त |
देवगति, व आनुपूर्वी, वैक्रियक शरीर, व अंगोपांग, तीर्थंकर=5
आहारक द्वय |
1-8 |
असाता, देव व मनुष्यायु, देव-गति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियक शरीर व अंगोपांग,समचतुरस्र संस्थान, आदेय, सुभग, सुस्वर, प्रशस्तविहायोगति, वज्रऋषभनाराचसंहनन = 13 |
|
|
4 |
अप्रत्याख्यान चतुष्क =4 |
|
|
4-9 |
हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, निद्रा, प्रचला, तीर्थंकर =9 |
|
|
5 |
प्रत्याख्यान चतुष्क =4 |
|
|
7 |
आहारक द्विक |
|
|
9 |
पुरुष वेद, संज्वलन चतुष्क =5 |
|
|
10 |
ज्ञानावरणकी 5, दर्शनावरणकी चक्षु आदि 4, अंतराय 5, साता, यशस्कीर्ति, उच्चगोत्र = 17 |
|
|
- प्रकृतिबंध की अपेक्षा स्वामित्व प्ररूपणा
प्रमाण तथा संकेत - (देखें पूर्वोक्त प्रदेशबंध प्ररूपणा नं - 10)।
नं. |
प्रकृति का नाम |
स्वामित्व व गुणस्थान |
|||
उत्कृष्ट |
जघन्य |
||||
1 |
ज्ञानावरण– |
||||
|
पाँचों |
10 |
सू.ल./च |
||
2 |
दर्शनावरण– |
||||
1-4 |
चक्षु, अचक्षु अवधि व केवलदर्शन |
10 |
सू.ल./च |
||
5 |
निद्रा |
10 |
सू.ल./च |
||
6 |
निद्रानिद्रा |
1 |
सू.ल./च |
||
7 |
प्रचला |
10 |
सू.ल./च |
||
8 |
प्रचलाप्रचला |
1 |
सू.ल./च |
||
3 |
वेदनीय– |
||||
1 |
साता |
10 |
सू.ल./च |
||
2 |
असाता |
1-6 |
सू.ल./च |
||
4 |
मोहनीय– |
||||
1 |
मिथ्यात्व |
1 |
सू.ल./च |
||
2-5 |
अनंता. चतु. |
1 |
सू.ल./च |
||
6-10 |
अप्रत्या. चतु. |
4 |
सू.ल./च |
||
11-14 |
प्रत्या.चतु. |
5 |
सू.ल./च |
||
14-17 |
संज्वलन चतु. |
9 |
सू.ल./च |
||
17-23 |
हास्य,रति, अरति, शोक,भय, जुगुप्सा |
4-8 |
सू.ल./च |
||
24 |
स्त्री वेद |
1 |
सू.ल./च |
||
25 |
पुरुष वेद |
9 |
सू.ल./च |
||
26 |
नपुं.वेद |
1 |
सू.ल./च |
||
5 |
आयु– |
||||
1 |
नरकायु |
1 |
असंज्ञी |
||
2 |
तिर्यग् |
1 |
सू.ल./च |
||
3 |
मनुष्य |
1-4 |
|
||
4 |
देवायु |
1-7 |
|
||
6 |
नामकर्म– |
||||
1 |
गति– |
||||
|
नरक |
1 |
असंज्ञी |
||
|
तिर्यग् |
1 |
सू.ल./च |
||
|
मनुष्य |
1 |
सू.ल./च |
||
|
देव |
1-8 |
अविरति सम्य. |
||
2 |
जाति– |
|
|
||
|
एकेंद्रियादि पाँचों |
1 |
सू.ल./च |
||
3 |
शरीर– |
||||
|
औदारिक |
1 |
सू.ल./च |
||
|
वैक्रियक |
1-8 |
अविरति सम्य. |
||
|
आहारक |
7 |
अप्रमत्त |
||
|
तैजस |
1 |
सू.ल./च |
||
|
कार्मण |
1 |
सू.ल./च |
||
4 |
अंगोपांग– |
||||
|
औदारिक |
1 |
सू.ल./च |
||
|
वैक्रियक |
1-8 |
अविरति |
||
|
आहारक |
7 |
अप्रमत्त |
||
5 |
निर्माण |
1 |
सू.ल./च |
||
6 |
बंधन |
1 |
सू.ल./च |
||
7 |
संघात |
1 |
सू.ल./च |
||
8 |
संस्थान– |
||||
|
समचतुरस्र |
1-8 |
सू.ल./च |
||
|
शेष पाँचों |
1 |
सू.ल./च |
||
9 |
संहनन– |
||||
|
वज्र वृषभ नाराच |
1-4 |
सू.ल./च |
||
|
शेष पाँचों |
1 |
सू.ल./च |
||
10-13 |
स्पर्श, रस, गंध, वर्ण |
1 |
सू.ल./च |
||
14 |
आनुपूर्वी– |
||||
|
नरक |
1 |
असंज्ञी |
||
|
तिर्यग व मनुष्य |
1 |
सू.ल./च |
||
|
देव |
1-8 |
अविरत सम्य. |
||
15 |
अगुरुलघु |
1 |
सू.ल./च |
||
16 |
उपघात |
1 |
सू.ल./च |
||
17 |
परघात |
1 |
सू.ल./च |
||
18 |
आतप |
1 |
सू.ल./च |
||
19 |
उद्योत |
1 |
सू.ल./च |
||
20 |
उच्छ्वास |
1 |
सू.ल./च |
||
21 |
विहायोगति– |
||||
|
प्रशस्त |
1-8 |
सू.ल./च |
||
|
अप्रशस्त |
1 |
सू.ल./च |
||
22 |
प्रत्येक |
1 |
सू.ल./च |
||
23 |
त्रस |
1 |
सू.ल./च |
||
24 |
सुभग |
1-8 |
सू.ल./च |
||
25 |
सुस्वर |
1-8 |
सू.ल./च |
||
26 |
शुभ |
1 |
सू.ल./च |
||
27 |
सूक्ष्म |
1 |
सू.ल./च |
||
28 |
पर्याप्त |
1 |
सू.ल./च |
||
29 |
स्थिर |
1 |
सू.ल./च |
||
30 |
आदेय |
1-8 |
सू.ल./च |
||
31 |
यश:कीर्ति |
10 |
सू.ल./च |
||
32 |
साधारण |
1 |
सू.ल./च |
||
33 |
स्थावर |
1 |
सू.ल./च |
||
34 |
दुर्भग |
1 |
सू.ल./च |
||
35 |
दु:स्वर |
1 |
सू.ल./च |
||
36 |
अशुभ |
1 |
सू.ल./च |
||
37 |
बादर |
1 |
सू.ल./च |
||
38 |
अपर्याप्त |
1 |
सू.ल./च |
||
39 |
अस्थिर |
1 |
सू.ल./च |
||
40 |
अनादेय |
1 |
सू.ल./च |
||
41 |
अयश:कीर्ति |
1 |
सू.ल./च |
||
42 |
तीर्थंकर |
|
|
||
7 |
गोत्र– |
||||
1 |
उच्च |
10 |
सू.ल./च |
||
2 |
नीच |
1 |
सू.ल./च |
||
8 |
अंतराय– |
|
|
||
1 |
पाँचों |
10 |
सू.ल./च |
- एक योग निमित्तक प्रदेश बंध में अल्पबहुत्व क्यों ?
धवला 10/4,2,4,213,511/3 जदि जोगादो पदेसबंधो होदि तो सव्वकम्माणं पदेसपिंडस्स समाणत्तं पावदि, एगकारणत्तादो । ण च एवं, पुव्विल्लप्पाबहुएण सह विरोहादो त्ति । एवं पच्चवट्ठिदसिस्सत्थमुत्तरसुत्तावयवो आगदो ‘णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि’ त्ति । पयडी णाम सहाओ, तस्स विसेसो भेदो, तेण पयडिविसेसेण कम्माणं पदेसबंधट्ठाणाणि समाणकारणत्ते वि पदेसेहि विसेसाहियाणि । = प्रश्न - यदि योग से प्रदेशबंध होता है तो सब कर्मोंके प्रदेश समूह के समानता प्राप्त होती है, क्योंकि उन सबके प्रदेशबंध का एक ही कारण है ।
उत्तर-परंतु ऐसा है नहीं क्योंकि, वैसा होने पर पूर्वोक्त अल्पबहुत्व के साथ विरोध आता है । इस प्रत्यवस्था युक्त शिष्य के लिए उक्त सूत्र के ‘णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि’ इस उत्तर अवयव का अवतार हुआ है । प्रकृति का अर्थ स्वभाव है, उसके विशेष से अभिप्राय भेद का है । उस प्रकृति विशेष से कर्मों के प्रदेश बंधस्थान एक कारण के होने पर भी प्रदेशों से विशेष अधिक है ।
- सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृति की अंतिम फालि में प्रदेशों संबंधी दो मत
कषायपाहुड़ 4/3,22/639/334/11 जइवसहाहरिएण उवलद्धा वे उवएसा । सम्मत्तचरिमफालीदो सम्मामिच्छत्तचरिमफाली असंखे. गुणहीणा त्ति एगो उवएसो । अवरेगो सम्मामिच्छत्तचारिमफाली तत्तो विसेसाहिया त्ति । एत्थ एदेसिं दोण्हं पि उवएसाणं णिच्छयं काउमसमत्थेण जइवसहाइरिएण एगो एत्थ विलिहिदो अवरेगो ट्ठिदिसंकमे । तेणेदं वे वि उवदेसा थप्पं कादूण वत्तव्वा त्ति । = यतिवृषभाचार्य को दो उपदेश प्राप्त हुए । सम्यक्त्व की अंतिम फालि से सम्यग्मिथ्यात्व की अंतिमफालि असंख्यातगुणी हीन है यह पहला उपदेश है । तथा सम्यग्मिथ्यात्व की अंतिम फालि उससे (सम्यक्त्व की अंतिम फालि से ) विशेष अधिक है यह दूसरा, उपदेश है । इन दोनों ही उपदेशों का निश्चय करने में असमर्थ यतिवृषभाचार्य ने एक उपदेश यहाँ लिखा और एक उपदेश स्थिति संक्रम में लिखा, अतः इन दोनों ही उपदेशों को स्थगित करके उपदेश करना चाहिए ।
- अन्य प्ररूपणाओं संबंधी विषय सूची
(महाबंध 6/... पृ.)
ओघ व आदेश से अष्ट कर्म प्ररूपणा क्रम मूल उत्तर विषय ज. उ. पद भुजगारादि पद ज. उ. वृद्धि हानि षट् गुण वृद्धि 1. मूल समुत्कीर्तना -- 6/10-102/53-54 6/146-147/79 - - - भंगविचय - 6/125-126/65-66 - - - - जीवस्थान व अध्यवसाय स्थान 6/154-156/83-84 - - - 2 उत्तर सन्निकर्ष भंग विचय 6/269-565/178 -- 6/566-569/350-354 - - -