समयसार - गाथा 116-120: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 11:57, 17 May 2021
जीवे ण सयं बद्धं ण सयं परिणमदि कम्मभावेण ।
जइ पुग्गलदव्वमिणं अप्परिणामी तदा होदि ।।116।।
कम्मइयवग्गणासु य अपरिणमंतीसु कम्मभावेण ।
संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा ।।117।।
जीवो परिणामयदे पुग्गलदव्वाणि कम्मभावेण ।
ते सयमपरिणमंते कहं णु परिणामयदि चेदा ।।118।।
अह सयमेव हि परिणमदिकम्माभावेण पुग्गलं दव्वं ।
जीवो परिणामयदे कम्मं कम्मत्तमिदि मिच्छा ।।119।।
णियमा कम्मपरिणदं कम्मं चिय होदि पुग्गलं दव्वं ।
तह तं णाणावरणाइपरिणदं मुणसु तच्चेव ।।120।।
पुद्गल में परिणमनस्वभाव का अभाव मानने पर आपत्ति―जो पुरुष कर्म को और आत्मा को अपरिणामी मानता है अथवा इसमें से चूंकि कर्मों का परिणमन स्वभाव सिद्ध किया जा रहा है तो जो प्रकृति से पुद̖गल कर्मों को अपरिणामी मानता है उसे समझाते हैं पुद्गलद्रव्य जीव में स्वयं न तो बंधा है और न कर्म भाव का स्वयं परिणमन करता है― यदि ऐसा भी सिद्धांत है तो इसका अर्थ यह हो गया कि पुदगल द्रव्य अपरिणामी हुआ । जिसका सिद्धांत यह है कि यह पुद्गल कर्म न तो जीव में बंधा है और न स्वयं किसी रूप परिणमन करता है तो इसका स्पष्ट भाव यही तो हुआ कि कर्म अपरिणामी हैं और पुद्गल अपरिणामी हैं । अथवा कार्माणवर्गणाएं अपने आप तो कर्म भाव से नहीं परिणमती । ऐसा मानने पर संसार का अभाव हो जायेगा अथवा सांख्यमत का प्रसंग आयेगा ।
जीव के कर्मपरिणमयितृत्व के संबंध में विकल्पदव्यः―जीव ही पुद्गल द्रव्य को कर्मभाव से परिणमाता है । ऐसा यदि माना गया तो पुद्गल द्रव्य स्वयं अपने आप नहीं परिणमें, उनको यह जीव परिणमाता है या पुद्गल स्वयं कर्म रूप परिणमें उनको परिणमाता है ? ये दो विकल्प सामने आते हैं ꠰ फिर ध्यान से सुनिए । पहिली बात यह कही गई कि कर्म न तो जीव में बंधा है और न यह स्वयं कुछ परिणमता है । ऐसी बात मानने पर कर्म अपरिणामी सिद्ध होते हैं । और जब कर्म अपरिणामी सिद्ध हुए फिर संसार का अभाव हो गया ꠰ कर्म फिर हैं ही नहीं । कर्म परिणमते नहीं तो संसार कहाँ से आ गया? पहिला समाधान देने पर फिर दूसरा प्रश्न होता है कि भाई हम कर्म को न परिणमाने वाले तो नहीं मानते पर ये कर्म स्वयं ही परिणमते । जीव बनाए कर्म तो बनते हैं अन्यथा नहीं । यहाँ कर्मों को अपरिणामी सिद्ध करने का पक्ष चल रहा है प्रश्न रूप में । यदि ऐसा मानने लगें कि जीव कर्मों को परिणमाता है तो यहाँ यह बतलावो कि कर्मरूप नहीं परिणमते हुए कर्म को जीव परिणमाता है क्या ऐसी बात है? या कर्मरूप परिणमने वाले कर्मों को जीव परिणमाता है क्या ऐसी बात है? इन दो विकल्पों को उपस्थित किया गया है और इनका उत्तर अब क्रम से दिया जायेगा ।
सिद्धांत पुर:सर प्रश्न का पुनर्विवरण―प्रकरण यहाँ यह चल रहा है कि जीव और कर्म ये दोनो कर्ता हैं अथवा अकर्ता हैं और कर्ता हैं तो किसके कर्ता हैं? सिद्धांत यह है कि कर्ता दोनो हैं और दोनो अपने-अपने परिणमन के कर्ता हैं । चूंकि दोनो में विकार भाव है इस कारण एक दूसरे के निमित्त होते हैं । तब जिस सिद्धांत में दोनो को अपरिणामी माना है उस सिद्धांत को अनुयायी जिज्ञासु पुरुष से पूछा जा रहा है कि यदि पुद्गलकर्म अपरिणामी है तो फिर संसार कैसे हुआ? तो उसने यह कहा कि पुद्गलकर्म स्वयं तो अपरिणामी हैं किंतु जीव उन्हें कर्मरूप परिणमाता है ꠰ तो यह बतलावो कि कर्मरूप परिणमन से हुए को जीव कर्मरूप परिणमाता है या कर्मरूप न परिणते हुए को जीव कर्मरूप परिणमाता है ।
परिणमन संबंधी समाधान―यदि यह कहें कि कर्मरूप न परिणमते को जीव कर्मरूप परिणमाता है तो जो कर्मरूप न परिणम सके उसे जीव कैसे कर्मरूप परिणमा सकता है और कहें कि कर्मरूप से परिणमते हुए को जीव कर्मरूप परिणमाता है तो परिणमा तो कर्म ही ना, फिर जीव ने परिणमाया क्या? और कदाचित् यह कहें कि पुद्गल द्रव्य स्वयं ही कर्मरूप परिणम जाता है तो फिर जीव ने कर्मत्व क्या किया? फिर जीव कर्मरूप परिणमाता है यह कहना मिथ्या हो जायेगा । इस कारण यह सिद्ध है कि पुद्गलद्रव्य कर्मरूप परिणमता हुआ नियम से कर्मरूप होता है और ऐसा होने पर वे पुद्गल द्रव्य ही ज्ञानावरणादिकरूप परिणमते हैं उस ही को कर्म जानो । सिद्धांत तो स्पष्ट है कि जीव के विकार का निमित्त पाकर पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्मरूप परिणमता है । इस सिद्धांत के न मानने पर अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं ।
अबद्धता व अपरिणामिता में संसार की असंभवताः―कोई यह कहता है कि पुद्गल द्रव्य जीव में बंधा भी नहीं है और कर्मरूप भी नही परिणमता, तो फिर झगड़ा ही क्या रहा? जीव भी अपने आपमें अपरिणामी बना है और कर्म भी अपने आप अपरिणामी बना है फिर विवाद संसार में ये संकट विषाद कैसे हो गए? तो फिर संसार का अभाव ही रहा ना? जीव कर्म को परिणमाये तो न परिणमते हुए को कोई परिणमा ही नहीं सकता क्योंकि जहाँ स्वयं परिणमन की शक्ति नहीं है उसको अन्य कोई शक्ति लाने में समर्थ नहीं है । और स्वयं परिणमते को परिणमाये तो स्वयं परिणम ही रहा है अब परिणमाने की अपेक्षा क्या रही । जैसे मृदंग बजाया तो मृदंग से शब्द किसने पैदा किया? लोग तो यह कहेंगे कि हाथ ने पैदा किया । और निमित्त नैमित्तिक संबंध से यह बात ठीक भी है । हाथ का ताड़न निमित्त न होता तो मृदंग में शब्द उत्पन्न नहीं हो सकता था, पर प्रत्येक वस्तु के स्वरूप पर दृष्टि देकर देखो―हाथ का ताड़न निमित्त भले ही हो मगर शब्द का निमित्त पाकर शब्दरूप परिणमता हुआ वह मृदंग क्या अपने परिणमन में हाथ आदि की अपेक्षा रखता है?
ज्ञान में ज्ञप्तिक्रिया की स्वतंत्रता―जैसे संसार अवस्था में छद̖मरूप अवस्था में अथवा परोक्ष ज्ञानी के इंद्रिय और मन के निमित्त से ज्ञान उत्पन्न होता है । भले ही ज्ञान की उत्पत्ति में मन और इंद्रिय की अपेक्षा होती है पर मन इंद्रिय का निमित्त पाकर जो ज्ञान विकसित हो रहा है वह ज्ञान अपनी ज्ञप्ति में अपनी क्रियारूप परिणति में किसी पर की अपेक्षा नहीं करता है निमित्त होकर भी यह वस्तु स्वरूप की अपेक्षा बात कही जा रही है तो जो स्वयं परिणम रहा हो वह परिणमयिता की क्या अपेक्षा करें । वस्तु की शक्तियां किसी पर की अपेक्षा नहीं रखती, प्रत्येक शक्ति अपने वस्तु की स्थिति से कारण सत् है । किसी पर के कारण नहीं है । पर निमित्त होने पर भी परिणमता स्वयं है । बड़े एक मर्म की बात है कि निमित्त के सान्निध्य बिना ये विकार होते भी नहीं हैं न हो सकते हैं तिस पर भी उपाधि का निमित्त पाकर उपादान की शक्तियां जो विकाररूप परिणमती हैं उसके परिणमन में स्वाधीनता है, पराधीनता नहीं है ꠰ ऐसी पराधीनता और स्वाधीनता का समन्वय प्रमाण के सिद्धांत में विदित होता है । इस तरह पुद्गल द्रव्य परिणमन स्वभाव वाले स्वयं ही सिद्ध हुए ।
पदार्थ में स्वत:सिद्ध परिणमनशीलता―प्रत्येक पदार्थ स्वयं परिणमनशील है इस बात को जाने बिना वस्तु का स्वरूप स्पष्ट नहीं किया जा सकता । वस्तु स्वरूप समझने का मूल आधार यह ज्ञान है कि प्रत्येक वस्तु निरंतर परिणमनशील है । इतनी बात मानने पर निमित्त नैमित्तिक संबंध स्थापित किया जा सकता है और स्वतंत्र परिगमन भी प्रसिद्ध किया जा सकता है । ऐसा होने पर कलशरूप में परिणमती हुई मिट्टी जैसे स्वयं कलश ही है इसी प्रकार जड़ स्वभाव ज्ञानावरणादिक कर्म है । इसी प्रकार प्रकृति में, कर्म पुद्गल में परिणमनस्वभाव सिद्ध किया गया है । प्रकृति और पुरुष ये दो तत्त्व हैं मोक्षमार्ग के प्रयोजनभ्रूत निपटारा करने के लिए । सो कोई तो प्रकृति को कर्ता और पुरुष को भोक्ता मानते हैं, प्रकृति को परिणामी मानते हैं और पुरुष को अपरिणामी मानते है और कोई मूल में प्रकृति और पुरुष दोनों को अपरिणामी मानते हैं उन प्रसंगों में पुद्गल द्रव्य का परिणमनस्वभाव सिद्ध किया गया है । इस प्रकार यह निर्विघ्न सिद्ध हुआ कि पुद्गलद्रव्य में स्वयं परिणमन शक्ति है ।
परिणमनशक्तिशून्य का कोटियत्नों से भी परिणमन का अभाव―भैया ! जिसमें परिणमने की शक्ति न हो तो कोटि यत्न किए जाने पर भी उसमें परिणमन नहीं हो सकता । और यदि परिणमन हो जाये तो यह सिद्ध है कि उसमें परिणमन स्वभाव पड़ा हुआ है । बालू में जैसे तेल निकालने की शक्ति नहीं है तो कितना ही पेला जाये, उससे तेल नहीं निकल सकता । क्योंकि उसमें तेल की शक्ति ही नहीं है । यह एक मोटा दृष्टांत है बालू के पुद्गल में सामर्थ्य है कि वह कालांतर में तेल देने लगे । वही बालू खादरूप बनकर मिट्टीरूप बनकर पेड़ बनकर तेल देने लगे । यह बात द्रव्य के नाते से है । पर लोक में जो देखा जाता है और जिसका अभी अन्योन्याभाव है वह दृष्टांत दिया गया है ꠰ जिसमें स्वयं परिणमने की शक्ति नहीं है उसमें वह परिणमन कभी भी नहीं हो सकता । और जहाँ परिणमन की शक्ति है और विकाररूप परिणमन में पर का निमित्त भी होता है तो निमित्त होने पर भी परिणमयिता के परिणमन में पर की अपेक्षा नहीं है । अर्थात् पर से कुछ लेना नहीं है । यह पुद्गलद्रव्य स्वयं परिणमन शक्ति रखता है ।
उपादान की योग्यता के अनुसार परिणमन―पुद्गल द्रव्य जिस भाव को अपने में करता है उसका वह पुद्गल द्रव्य ही कर्ता है । जीव कर्ता नहीं है । अन्य भी एक दृष्टांत लें कि जैसे जब पुष्पादिक उपाधि ढंग स्फटिक मणि में अथवा स्फटिक पाषाण में विकार को बनाता है पर काठ, स्तंभ, भींट आदि में नहीं बना सकता । जैसे दर्पण में प्रतिबिंब के हम निमित्त बन जाते हैं, दर्पण में मुख देखें तो दर्पण में प्रतिबिंब आ गया । क्या भींट की ओर मुख करें तो भींट में प्रतिबिंब आ सकता है? नहीं । यदि कोई भींट जिसे कहते है कोड़ी के
चूने से खूब चिकना किया गया हो और उसमें प्रतिबिंब आता है तो वह दर्पण के ही मानिंद हुआ । काठ में क्या प्रतिबिंब आ सकता है? नहीं । उसमें शक्ति ही नहीं है । तो जिसमें परिणमन शक्ति होती है उसमें ही तद्रूप परिणमन हो सकता है । तब यही मानना होगा कि प्रत्येक पदार्थ में परिणमन करने की शक्ति स्वयं है और जब अपने अनुकूल उपाधि का निमित्त प्राप्त करता है तब वह उपादान स्वयं अपनी शक्ति के परिणमन से अपने में स्वतंत्र रहकर विकाररूप परिणम जाता है ।
निमित्त पाकर होते हुए विभाव में भी स्वतंत्रता का दर्शन―इसी प्रकार जीव भी परिणमन स्वभावी है और वह कर्मों का निमित्त पाकर अपने में परिणमन शक्ति के परिणमन से स्वतंत्र होकर विभावरूप परिणमता है । निमित्त का सानिध्य तो वहाँ होना ही चाहिए पर शक्तियाँ निमित्त की यों अपेक्षा नहीं करती कि उनमें यह हठ नहीं है कि मैं अमुक रूप ही परिणमूं और इस रूप परिणमना अमुक निमित्त के बिना होता नहीं सो आना चाहिए ऐसी कोई बात नहीं जोहती हैं । सहज जैसा निमित्त योग मिला उस उपादान में परिणमन की योग्यता पहिले से थी इसी प्रकार से सहज निमित्त योग मिला, उसके अनुरूप उपादान अपने में स्वयं परिणम गया । जैसे तैयार की हुई मिट्टी चाक पर पड़ी हुई है । उसमें घड़ा बनने की योग्यता है, सकोरा कलश बनने को योग्यता है पर जिस प्रकार का कुम्हार का व्यापार निमित्त पायेगा उसी प्रकार का परिणमन मिट्टी में स्वतंत्रता से होता है । जैसे सकोरा बनाने के लायक हस्त व्यापार किया तो उसका निमित्त पाकर वह मिट्टी अपने में परिणमती है । निमित्त होता हुआ भी वस्तु का परिणमन निरपेक्ष हो रहा है । अपेक्षा होकर भी निरपेक्ष है इन दोनों बातों की सिद्धि एक प्रमाण दृष्टि से होती है । वहाँ अनुकूल निमित्त सहज जैसा मिला उसके अनुकूल परिणमने की योग्यता थी सो वह परिणम गया । इस प्रकरण में शिक्षा के योग्य बात यह है कि ये सब होते रहते हैं जीव के विकार का निमित्त पाकर, परिणमने की योग्यता रखने वाले पुद्गलकर्म, कर्म रूप परिणम रहे हैं और कर्मों के उदय का निमित्त पाकर विकार रूप होने योग्य जीव विकार रूप परिणम रहा है किंतु क्या यह उपादेय तत्त्व है ? क्या यह खेल होते रहना उपादेय है? क्या किसी वस्तु का अशुद्ध परिणमन उपादेय है? नहीं, पुद्गल से भिन्न शुद्ध परमात्म भावना में परिणत हुआ जो भाव है अभेद रत्नत्रय, सम्यग्ज्ञान के बल से गम्य, चेतन और आनंदस्वरूप है एक स्वभाव जिसका ऐसा निज शुद्ध आत्मा ही निश्चय से उपादेय है । अर्थात् पर द्रव्यों से भिन्न अपने आपको निरखने और ज्ञाता दृष्टा रहने की स्थिरता यही अभेद रत्नत्रय और इसमें परिणत निज शुद्ध आत्मा ही उपादेय है, और भेद रत्नत्रय भी व्यवहार में उपादेय है । भैया ! 7 तत्त्वों की श्रद्धा करो, समस्त पदार्थों में उत्पादव्यय ध्रौव्य आदि युक्तियों के ज्ञान से ज्ञान करो और व्रत, तप संयम आदि का पालन करो जिससे कि अभेद रत्नत्रय की पात्रता बने । भेद रत्नत्रय चूंकि अभेद रत्नत्रय का साधक है इस कारण उपादेय है, और वे सब व्यवहार उपादेय माने गये हैं जो निश्चय तत्त्व के साधक होते हैं । अब पुद्गल द्रव्य की परिणमनशीलता सिद्ध करके कुछ जीव में परिणमनपन सिद्ध करते हैं । यहाँ भी 5 गाथाएं एक साथ आई हुई हैं ।