वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 121-125
From जैनकोष
ण सयं बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं ।
जइ एस तुज्झ भावो अप्परिणामी तदा होदी ।।121।।
अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहिं भावेहिं ।
संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा ।।122।।
पुग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्तं ।
तं सयमपरिणमंतं कह णु परिणामयदि कोहो ।।123।।
अह सयमप्पा परिणमदि कोहभावेण एस दे बुद्धी ।
कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा ।।124।।
कोहुवजुत्तो कोहो माणुवजुत्तो माणमेवादा ।
माउवजुत्तो माया लोहुवजुत्तो हवदि लोहो ।।125।।
सांख्यानुयायी शिष्य का आशय―जिस सिद्धांत में ऐसा माना गया है कि यह आत्मा ब्रह्म, पुरुष अपरिणामी है, ज्यों का त्यों है, इसमें बदल नही होती है, ऐसे सिद्धांत के अनुयायी जिज्ञासु शिष्य से यह सब कहा जा रहा है कि भाई यदि तुम्हारे मत का यह निर्णय है कि जीव कर्मों से नहीं बंधा है और कभी क्रोध रूप परिणमता नहीं है तो इसका सीधा तात्पर्य यह हुआ कि यह जीव अपरिणामी है । कितने ही लोग ऐसा मानते हैं कि केवल दिखता है क्रोध, झलकता है, पर जीव क्रोधरूप नहीं होता है । आत्मा क्रोधादिक रूप नहीं परिणमता । जैसे स्फटिक पर कोई लाल पीला कागज लगा दिया जाये तो स्फटिक लाल पीला दिखने लगता है पर स्फटिक लाल पीला नहीं हो जाता है । इसी तरह जीव से कर्मोपाधि आने पर क्रोधादि प्रतीत होते हैं पर आत्मा स्वयं क्रोधादि रूप नहीं बनता है । ऐसा एक सिद्धांत है और जो सुनने में अच्छा भी लगता है ।
अपरिणामित्वसिद्धि के लिये दिये जाने वाले दृष्टांत―अपरिणामित्व का दृष्टांत भी बड़ा सुंदर मालूम होता है कि हां स्फटिक कहां लाल हो गया, डंक हटाया तुरंत लाल मिट गया । अरे लाल हुआ होता तो कुछ देर तो बना रहता । डंक लगाया, लाल दिखने लगा, फिर डंक हटाया, लाल मिट गया । तो कहां लाल रूप परिणमा । अथवा दर्पण के सामने हाथ किया तो हाथ प्रतिबिंबित हो गया, तुरंत हाथ हटाया तुरंत प्रतिबिंब मिट गया । तो दर्पण में छाया प्रतिबिंबित होती है । यदि कोई बड़ी तेजी से दर्पण के आगे हाथ हिलाये तो उसके हाथ की छाया घूमती है । तो दर्पण यदि उसके हाथ बिंब रूप हो जाये तो कुछ समय तो रहना चाहिए । वह रंच भी ठहरता नहीं । तो छाया प्रतीत होती है पर दर्पणरूप छाया परिणमी नहीं । ऐसा दृष्टांत अपरिणामित्व सिद्ध करने वाला दे सकता है ꠰ अब उसका समाधान सुने ।
दृष्टांत में तथ्य―उस स्फटिक में ऐसे ही लाल आदि रूप परिणमने की सामर्थ्य है कि उपाधि का संबंध होने पर लाल आदि रूप परिणम जाये और हटाने पर तुरंत हट जाये । स्फटिक उस काल में लालरूप परिणमा है, लाल रूप दिखता ही हो ऐसा नहीं है । पर वह लाल रूप परिणमन चूँकि उपाधि का संबंध पाकर होता है सो जिस क्षण उपाधि का सानिध्य है उस क्षण लालरूप है और जिस क्षण उपाधि हटेगी उसी क्षण लाल रूप का परिणमन भी हट गया । इसी प्रकार दर्पण की भी बात है । विकार की व्याप्ति निमित्त के साथ होती है । निमित्त के होने पर विकार होता है, निमित्त के न होने पर विकार नहीं होता है पर एक क्षण को भी निमित्त हो और विकार आए तो वह विकार उपादान का परिणमन है, केवल प्रतीत होने वाली ही बात नहीं है ।
प्रश्नपक्ष का स्पष्ट आशय व उत्तररूप प्रतिप्रश्न―यदि तुम्हारे सिद्धांत में यह बात बैठी हो कि जीव कर्म में स्वयं बंधा नहीं है और जीव स्वयं क्रोधादिक रूप परिणमता नहीं है तो इसका आशय यह स्पष्ट हुआ कि जीव अपरिणामी है । और जब जीव अपरिणामी है तो फिर दुःखी कौन? संसारी कौन? मोक्षादिक की कोशिश क्यों की जायी तब यह मैं आत्मा अपरिणामी हूँ, केवल दिखता है तो दिखने दो ꠰ पर अंत में आदि में विकृत न होना, फिर मोक्ष किसका कराया जाये यदि यह जीव स्वयं नहीं परिणमता है, क्रोधादिक भावरूप नहीं होता है तो फिर संसार का अभाव है । मुक्ति की आवश्यकता तो इस कारण है कि हम क्रोधादिक, रागद्वेषादिक सुख दु:खादिक विकारोंरूप परिणमते रहते हैं और परिणमन है दु:खदायी ꠰ इस कारण उन परिणमनों से हटना आवश्यक है, पर जिस सिद्धांत में आत्मा को अपरिणामी माना है वह ब्रह्म कूटस्थ नित्य है । उसके विकार कुछ नहीं होते हैं तो फिर संसार किसका हो? जो दुःखी हो, जिस पर गुजर बीते वही मुक्ति की चाह करे, यत्न करे । जब जीव पर कुछ गुजरती ही नहीं है, वह तो शाश्वत और अपरिणामी है तो फिर संसार हुआ ही क्या? मुक्ति किसकी करना है? इस दोष के भय से यह मानना आवश्यक हो गया है कि जीव क्रोधादिकरूप परिणमता है ।
परिणमियिता के संबंध में विकल्प:―अब इस पर यह प्रश्न होना प्राकृतिक है कि जीव क्रोधादिकरूप परिणमता है तो इसे परिणमाता कौन है? यदि जीव स्वत: परिणमता ही रहता है तो वह क्रोधादिक स्वभाव परिणमन हो जायेगा । सदैव होते रहना चाहिए । और यदि उसे कोई परिणमाता है तो कौन परिणमाता है? उत्तर में प्रश्नकार यहाँ कह रहा है कि पुद्गलकर्म क्रोधादिक नामक पुद्गल प्रकृति इस जोव को क्रोधरूप परिणमाता है । ऐसा माना जाने पर दो विकल्प समक्ष आते हैं । क्रोध रूप परिणमते हुए जीव को क्रोधनामक प्रकृति क्रोधरूप परिणमाती है या क्रोध रूप न परिणमते हुए जीव को क्रोधप्रकृति क्रोध परिणमाती है? यदि क्रोध रूप न परिणमते हुए जीव को क्रोध प्रकृति क्रोधरूप परिणमाती है तो यह बात असंभव सी है कि जो शक्ति जिसमें नहीं है उस शक्ति के काम को कोई दूसरा पदार्थ कर दे। लोक व्यवहार में तो नहीं देखा जाता है । धूल में रोटीरूप परिणमने की योग्यता नहीं है । सो कैसा ही यत्न किया जाये पर धूल, रेत रोटीरूप नहीं परिणम जाते हैं । जिसमें जो शक्ति नहीं है उसको कोई दूसरा पदार्थ कभी भी करने में समर्थ नहीं हो सकता है । इसलिये यह पहिला पक्ष तो गलत है ꠰ अब दूसरे पक्ष की बात यह है कि परिणमाते हुए को परिणमाता है तो परिणम तो रहा ही है, उसे दूसरा और क्या परिणमाता है? इन दो बातों के पश्चात् उसका क्या निष्कर्ष निकलेगा उसको अब इन्हीं गाथावों में अगली गाथा में कहा जायेगा ।
परिणामयिता के संबंध में विकल्पों का स्पष्टीकरण―इस प्रकरण में यह कहा जा रहा है कि यदि कर्म से यह जीव नहीं बंधा है और क्रोधादिक भावों से स्वयमेव नहीं परिणमता है तो इसका स्पष्ट मतलब यह हुआ कि जीव अपरिणामी हुआ और जब जीव अपरिणामी हुआ । तो संसार का अभाव हो गया । जब यह टस से मस ही नहीं हो सकता तो फिर यह संसार किसका? इस दूषण के भय से यदि यह कहा जाये कि क्रोधादिक नाम की जो पुद्गलकर्म प्रक्रियाएँ हैं वे जीव को क्रोधादिक रूप से परिणमाती हैं, इसलिए संसार का अभाव नहीं हो सकता । याने जीव खुद नहीं परिणमता है पर ये क्रोधादिक कर्म जीव को क्रोधरूप परिणमा देते हैं । पहिले तो यह मोटी बात देखो कि प्रकृति ने ही परिणमा दिया सही, फिर भी जीव परिणमाया वहीं इस पर भी यदि ऐसा दुराग्रह किया जाये कि प्रकृति ने भी परिणमाया और फिर भी जीव परिणमा नहीं, तो इसे मानेगा कौन? खुद कोई लड़का न चले और हाथ पकड़कर जबरदस्ती कोई लड़के को ले जाये तो जबरदस्ती ले जाने पर भी लड़के के पैर चले कि नहीं चले, फिर भी लड़का टस से मस नहीं हुआ, और वह लड़का नहीं चला, इसे मानेगा कौन?
वस्तुशक्तियों में परानपेक्षता―इस संबंध में ये दो विकल्प किए गए हैं―क्या क्रोधादिकरूप से स्वयं न परिणमने वाले जीव को पुद्गलकर्म क्रोधादिक रूप में परिणमाते हैं? या स्वयं परिणमने वाले को प्रकृति क्रोधादिक रूप परिणमाती है । यदि यह कहा जाये कि स्वयं नहीं परिणमता है और प्रकृति के द्वारा यह आत्मा परिणमा दिया जाता है तो जो स्वयं नहीं परिणमता है वह दूसरे के द्वारा परिणमाया जा सके ऐसा कभी नहीं हो सकता । स्वयं ही यदि शक्ति नहीं है तो वह शक्ति किसी अन्य के द्वारा की नहीं जा सकती । और यदि स्वयं परिणमते हुए जीव को प्रकृति परिणमाती है तो जो स्वयं परिणम रहा है वह किसी अन्य पर परिणमयिता की अपेक्षा नहीं कर सकता । निमित्त के सद्भाव में भी वस्तु का कार्य होता हो वहाँ पर भी वह उपादान अपनी परिणति से परिणमन में स्वाधीन है । वह अपेक्षा नहीं करता । वस्तु की शक्तियाँ किसी पर पदार्थ की अपेक्षा नहीं किया करती । निमित्त के बिना होता नहीं फिर भी निमित्त की अपेक्षा उपादान नहीं किया करता ।
परिणाम व परिणमता का अभेद―इस तरह यह सिद्ध हुआ कि जीव परिणमन स्वभाव वाला स्वयं ही होता है । ऐसी बात सिद्ध होने पर निष्कर्ष यह निकालो कि जैसे गरुड़ के ध्यान में प्रयोजनसाधक पुरुष स्वयं स्वयं ही गरुड़ हो जाते हैं इसी प्रकार अज्ञान स्वभाव क्रोधादिक भाव परिणत जीव स्वयं ही क्रोधादिकरूप हो जाते हैं इसी प्रकार जीव में परिणमन स्वभाव स्वत: सिद्ध हो जाता है । गरुड़ ध्यानी सिद्धांत में यह बताया गया है कि लोग गरुड़ का ध्यान करते हैं जो गरुड़ को देवता मानते हैं और उन्हें ऐसा ध्यान हो जाता है कि मैं गरुड़ हूँ । गरुण एक पक्षी होता है जो सांप को उठाकर खा जाता है । उस गरुड़ का ध्यान बताया है । चूँकि गरुड़ को एक भगवान का वाहन बताया है तो उस वाहन के प्रसंग में वाहन का ध्यान किया गया है । एक दिन रास्ते में पिंजड़े में चूहा को बंद किए हुए एक लड़का लिए जा रहा था तो हमने लड़के से कहा कि देखो इस चूहे को कुत्तों के आगे न छोड़ना, नहीं तो बहुत पाप लगते हैं । तो वह बोला, हाँ छोड़ेंगे कैसे, यह तो गणेश की सवारी है, हमने कहा चलो ठीक―गणेश की सवारी ही सही कुछ भी मानो इसके प्राण तो बच जायेंगे । तो गरुड़ के ध्यान में परिणत पुरुष स्वयं गरुड़ हो जाता है, इसी प्रकार क्रोधादिकभावों में परिणत पुरुष स्वयं क्रोधमय हो जाता है ।
दृष्टांतपूर्वक परिणाममयता की सिद्धि―जैसे कभी बच्चे लोग घोड़ा बनकर खेला करते हैं । दोनों हाथ पैर जमीन पर टेक कर चलते और कहते हैं कि घोड़ा आया । दूसरा लड़का भी घोड़ा बन गया और वे घोड़े की तरह हिनहिनाते हुए सिर में सिर मारते हैं और हाथ से भी टापसी मारते हैं । ऐसा वे नाटक रचते हैं । उस समय बच्चे को यही ख्याल रखना पड़ता है कि मैं घोड़ा हूँ, और जब विशेष ध्यान हो जाता है तो अपने को बिल्कुल भूल जाते हैं कि मैं लड़का हूँ । यह ख्याल हो जाता है कि मैं तो घोड़ा हूँ और अंत में जब वेग की लड़ाई हो जाती है और चोट लग जाती है तो खबर होती है कि मैं लड़का हूँ और रो पीटकर घर भाग जाते हैं । तो जिसके ध्यान में एकाग्रता से जो परिणत हो जाये तो उसके ध्यान में वही है । जैसे बताया है कि शुद्धआत्मतत्त्व जिसके उपयोग में है, उपयोग के समय में भी शुद्ध आत्मा ही है? ज्ञान की ओर से देखा जा रहा है उपयोग जिसके ध्यान में एकाग्र है बस आत्मा वही है । इसी प्रकार जीव क्रोधादिक का परिणमन कर रहा है और उसमें उपयोग लगा रहा है तो वह स्वयं क्रोधमय है । जैसे बहुत गुस्सा करने वाले को कहते हैं कि लो यह आ गया है क्रोध का पिंड ꠰ अब बतलावो कि वह आत्मा क्या क्रोध का ही पिंड है? उसमें न ज्ञान है न मान है न और कुछ है क्या? मगर जो निरंतर क्रोध कर रहा है जिसका उपयोग क्रोधमय ही बना रहता है उसको कहते हैं क्रोध का पिंड ।
उपादानशक्ति की मुख्यता―तो जो लोग ऐसा कहते थे कि परिणमते हुए जीव को क्रोधरूप बना देता है कर्म मगर जीव क्रोधरूप नहीं होता । जीव अपरिणामी है ऐसी जिनकी हठ थी उनसे यह कहा गया कि जीव ही स्वयं उस काल में क्रोधरूप परिणम गया, और जीव में ऐसा विकार रूप परिणमन का स्वभाव है तभी संसार है और तभी इस संसारसंकट से बचने के लिए व्रत ध्यान आदि का उपाय किया जाता है । यदि जीव में परिणमन का स्वभाव न हो तो कितनी भी उपाधियों का संबंध इस जीव में हो जाये तो भी परिणमन नहीं आ सकता । ऐसी जबरदस्ती कहीं नहीं होता है कि कोई जबरदस्ती परिणमाये और वह अपरिणामी ही बना रहे । आत्मा में रूपपरिणमन का स्वभाव नहीं है तब किसकी जबरदस्ती चल सकती है । बालू में तेल निकलने का स्वभाव नहीं है तो उस पर तेल निकालने की जबरदस्ती चल सकती है क्या? नहीं ꠰ हां कोई ऐसा फल है कि जिसमें मुश्किल से तेल निकलता है, जैसे बादाम है मुश्किल से ही तेल निकला सही पर तेल निकलने का स्वभाव है तो उस पर जबरदस्ती भी चल सकती है । जौ तिल है उसमें आसानी से तेल निकल आता है उसमें साधारण यत्न करना पड़ता है, तो चाहे साधारण यत्न करना पड़े चाहे प्रबल यत्न करना पड़े पर स्वभाव हो परिणमने का तो परिणम सकता है अन्यथा नहीं ।
जीव के परिणमनस्वभाव की प्रसिद्धि―भैया ! दर्पण का स्वभाव प्रतिबिंबरूप परिणमने का है, तो दर्पण के सामने मुख करने पर दर्पण प्रतिबिंब रूप परिणम जायेगा पर भींट, काठ, चौकी, पत्थर, इन पदार्थों में प्रतिबिंबरूप परिणमने का स्वभाव नहीं है तो हम कितनी ही तेजी से देखें और बड़े भाव भरकर देखें कि लो अब दिखता ही है चेहरा तो भी क्या प्रतिबिंब पड़ जायेगा? नहीं तो ये सब विभाव परिणमन हैं, प्रतिबिंब परिणमन भी विभावपरिणमन है, स्कंध परिणमन भी विभाव परिणमन है, पुद्गल का शुद्ध परिणमन परमाणु कहलाता है, परमाणु में स्वयमेव जो कुछ होता है रूप, रस, गंध, स्पर्श, परिणमन वह स्वभाव परिणमन है । इसलिए जीव स्वयं परिणमता नहीं है और प्रकृति कर्म रूप परिणमाए यह बात गलत है, और यह भी गलत है कि जीव का परिणमते रहने का स्वभाव ही ऐसा है कि वह विकाररूप परिणमा ही करे ।
प्रकरण का निष्कर्ष―यदि एकांत से जीव विकार रूप परिणमता ही रहता है तो द्रव्यकर्म के उदय के बिना भी यह क्रोधरूप परिणम जाया करे सो ऐसा नहीं है क्योंकि यदि एकांत से जीव के विकार रूप परिणमन का स्वभाव है तो मुक्ति होने पर भी वह क्रोधी बन जाया करे क्योंकि जीव में क्रोधादिकरूप परिणमन का स्वभाव पड़ गया है । पर ऐसा तो नहीं है । तब बात क्या है? जीव में विकाररूप परिणमन का स्वभाव तो है मगर विकार की व्यक्ति निमित्त के सन्निधान होने पर यह जीव करता है । और दूसरी बात यह है कि उस शिष्य को कहा जा रहा है जो जैन होकर भी सांख्य आशय को रख रहा है । यदि यह कहें कि यह आत्मा स्वयं ही कर्मोदय की अपेक्षा किये बिना क्रोधादिकरूप से परिणमता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि जो आगम में लिखा है कि प्राकृतिक के निमित्त से भावों का कर्ता होता है वह एकपना हो जायेगा इस कारण ऐसा माना कि जैसे घटकार परिणत मृत्पिंड के घटरूप हो जाता है या अग्निरूप परिणत लोहे का गोला ही तो स्वयं अग्नि है इसी प्रकार आत्मा भी जो क्रोध के उपयोग में परिणत है वह ही स्वयं क्रोध है, जो मान के उपयोग में परिणत है वह आत्मा मान है, जो माया के प्रयोग में परिणत है वही आत्मा माया है । और जो लोभ के उपयोग में परिणत है वह आत्मा लोभ है । ऐसी जीव में स्वभावभूत परिणमन की शक्ति प्रसिद्ध है । ऐसी परिणमन शक्ति के होने पर यह जीव जिन-जिन भावों का कर्ता है उन-उन भावों का यह जीव उपादान कर्ता है । द्रव्यकर्म का उदय तो निमित्त मात्र है । यह संसार अवस्था में क्रोधरूप होता है । और सिद्ध अवस्था में क्या बात होती है कि वही जीव चैतन्य चमत्कारमात्र शुद्ध भावों में परिणत होता हुआ सिद्ध आत्मा कहलाता है ꠰ प्रत्येक पदार्थ में परिणमन का स्वभाव है और जो पदार्थ पर्याय योग्यता में विकाररूप परिणमन का स्वभाव रख रहा है वह किसी पर द्रव्य का निमित्त मात्र पाकर स्वयं विकाररूप परिणम जाता है । कैसा यह ज्ञान का मर्म है । वस्तु के स्वरूप को किस तरह पहिचाना जा रहा है कि निमित्त का उपादान में कुछ आता नही है यह भी उपयोग रहे और निमित्त के सान्निध्य बिना विकाररूप परिणम कोई नहीं सकता यह भी दृष्टि में रहे । दोनों बातें रहें और इतने पर भी अर्थात् निमित्त का सान्निध्य पाकर भी वस्तु जो विकाररूप परिणम रही है वह अपनी ओर से स्वतंत्रता से परिणम रही है यह भी ध्यान रहे । सब बातों का एक साथ प्रमाण बना रहना यह समस्त नयों के विज्ञान बिना नहीं हो सकता ।
स्वकर्तृत्व का निष्कर्ष―इसी प्रकार कुछ निष्कर्ष यों निकालना कि यह अज्ञानी जीव निमित्त पाकर जब अशुभोपयोगरूप से परिणमता है तब अपने पापास्रव का कर्ता होता है, जब शुभोपयोग रूप से परिणमता है तब पुण्यास्रव का कर्ता होता है, वही जीव जब शुद्धोपयोग के भाव से परिणत होता है तो आत्मा की ही रुचि रहे, शुद्ध आत्मस्वरूप की ही संवित्ति रहे और उसही रूप उपयोग बना रहे ऐसी स्थिति में इस प्रकार के अभेद रत्नत्रयरूप अभेद ज्ञान से जब यह जीव परिणमता है तब यह निश्चय चारित्रवशी निश्चय सम्यग्दृष्टि वीतराग सम्यग्दृष्टि होकर संवर निर्जरा और मोक्ष तत्त्व का कर्ता बनता है । निश्चय सम्यक्त्व का उपयोग न होने पर जब सराग सम्यक्त्व से परिणमता है तब शुद्ध आत्मा उपादेय है ऐसी दृष्टि के बल से परंपरया निर्वाण का कारणभूत तीर्थंकर आदिक उत्कृष्ट पुण्य प्रकृतियों का भी कर्ता होता है ।
परिस्थितियों का कारण परिणमनशीलता―ये सब बातें जो बताई गई हैं वे तब तक सिद्ध नहीं हो सकती जब तक जीव और पुद्गल इन दोनों का कथंचित् परिणाम न स्वीकार कर लिया जाये । झगड़ा किस बात पर? दोनों मूलभूत पदार्थ तो मित्रता रख रहे हैं और यहाँ वहाँ के लोग उन दोनों का झगड़ा बना दें यह कैसे हो सकता है, वे दोनों खुद झगड़ैल बनें तो झगड़ा खड़ा किया जा सकता है । जिस जीव पर पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, सम्वर, निर्जरा, मोक्षतत्त्व आदि गुजरते हैं वह ही हुआ कूटस्थनित्य, तो अब बने बिगड़े क्या? भैया ! कूट कहते हैं निहाई को । जहां लोहार आग जलाता है उसके पास ही एक लोहे का लंबा, चौड़ा, मोटा डंडा गाड़ा जाता है जो वर्षों ही गड़ा रहता है । वह हिलता नहीं है और जिस पेंच पुर्जे को ठीक करना है उसे निहाई अथवा कूटस्थ पर रख देते है और घन मारने वाले जो दो तीन होते हैं वे घन मारते हैं, तो उस निहाई पर खूब घन भी चलते है, पेंच पुर्जे भी चलते हैं पर वह निहाई महारानी जहाँ की वहाँ गढ़ी हुई है । सब कुछ बदल कर भी निहाई में कुछ काम नहीं हो रहा है । उस पर कुछ गुजरती ही नहीं है । पृथ्वी की तरह अविचल रहती है । इसी तरह जीव और कर्म ये यदि अविचल रहें ऐसा मानें तो ये दोनों नहीं खपती है । तो जीव और पुद्गल को कथंचित् परिणामस्वरूप करने पर ही ये सब बातें बन सकती हैं । इस प्रकार जीव में जब परिणमन की शक्ति निर्विघ्न स्वभावभूत सिद्ध होती है तो परिणमन शक्ति की दृष्टि हो जाने पर यह सिद्ध होता है कि यह जीव जिस-जिस भाव को करता है उस-उस भाव का यह जीव कर्ता कहा जाता है । इस ही बात को अब इस गाथा में स्पष्ट करते हैं ।