वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 113-115
From जैनकोष
जह जीवस्स अणण्णुवओगो कोहो वि तह जदि अणण्णो ।
जीवस्साजीवस्स य एवमणण्णत्तमावण्णं ।।113।।
एवमिह जो दु जीवो सो चेव दु णियमदो तहाऽजीवो ।
अयमेयत्ते दोसो पच्चयणोकम्मकम्माणं ।।114।।
अह दे अण्णो कोहो अण्णुवओगप्पगो हवदि चेदा ।
जह कोहो तह पच्चय कम्मं णोकम्ममवि अण्णं ।।115।।
जीव के साथ विकार की अनन्यता आपत्ति―जैसे जीव का उपयोग अनन्य है, एक रूप है उसी प्रकार यदि क्रोध भी जीव से अनन्य हो जाये तो क्रोध तो है अजीव अर्थात् जड़ चेतनास्वभाव से रहित, तो यों जीव और अजीव एक हो गए । तब फिर जो जीव है वही नियम से अजीव कहलाया ऐसा एकत्व होने पर यह दोष प्राप्त होता है अर्थात् आस्रव और जीव यदि एक हो जाये तो यह दोष आता है । इसी प्रकार नो कर्म और कर्म एक हो जाये तो यह दोष इनमें समझना है । अथवा इस दोष के भय से सिद्धांत से यह बात जचे कि क्रोध तो अन्य है और उपयोग स्वरूप आत्मा अन्य है, और जैसे क्रोध है उसी प्रकार प्रत्यय आस्रव कर्म और नो कर्म भी आत्मा से अन्य ही हैं ।
आत्मा व परभाव की अनन्यता की मान्यता में हानि―जैसा जीव के साथ उपयोग तन्मयता से होता है उपयोग ही जीव का लक्षण है उसी प्रकार जड़ क्रोध भी तो अनन्य हुआ, एक हुआ, ऐसा यदि कोई सिद्धांत है तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि चैतन्यस्वरूप और जड़ भाव ये अनन्य हो गए । तो जीव में उपयोगमय की तरह जड़ क्रोधमयता भी आ गई । जैसे ज्ञान जीव से अभिन्न है उसी तरह से क्रोध भी जीव से यदि अभिन्न हो तो जीव जैसे ज्ञानमय है इसी प्रकार जीव क्रोधमय हो गया । और जीव ज्ञानमय है तो त्रिकाल में भी ज्ञानशून्यता नहीं है इसी प्रकार जीव क्रोधमय हो गया तो त्रिकाल भी जीव से क्रोध छूटेगा नहीं अथवा जब जीव और अजीव एक हो गए तो जो स्वयं जीव हुआ । अर्थात् जीव नामक कोई चीज नहीं रही । इसी प्रकार समस्त आस्रवों में भी कर्म नोकर्म में भी जीव से यदि अभिन्नता तकोगे तो यहाँ पर दोष आता है ।
आपत्ति व हानि से बचाने वाला सिद्धांत―इस कारण अगर इस दोष से बचना है तो तुम्हें मानना चाहिए कि उपयोग स्वरूप जीव तो जुदा है और जड़ स्वभाव क्रोध जुदा है । और जैसे उपयोगात्मक जीव से जड़ स्वभाव क्रोध जुदा माना है उसी प्रकार समस्त आस्रव और सर्व कर्मादिक भी चूंकि जड़ ही तो हैं अत: ये सब भी जीव स्वभाव से जुदा हैं । सर्वविकारों में से यहाँ दृष्टांत में क्रोध को लिया है । ये विकार सब जड़ हैं । जड़ जो होता है उसमें रूप, रस, गंध होना ही चाहिए ऐसा नियम नहीं है ꠰ रूप रस वाले भी जड़ होते हैं और रूप रस रहित भी जड़ होते हैं । तो जहाँ जड़ द्रव्यों को देखा जाये तो धर्म, अधर्म, आकाश, काल द्रव्य भी जड़ होते हैं, रूपरहित भी जड़ होते हैं, पर यहाँ द्रव्यों को नहीं देखा जा रहा है भावों को देखा जा रहा है । भावों में कुछ भाव जड़ हैं और कुछ चिद्रूप हैं, यह निर्णय किया जा रहा है ।
चेतक और अचेतक भाव―भैया ! आत्मा में जानन भाव है, उन भावों में से ज्ञान और दर्शन ये दो भाव चित् स्वरूप हैं और उनके अतिरिक्त जितने भी भाव हैं वे जड़ स्वरूप हैं । श्रद्धा है, चारित्र है, आनंद है ये सब जड़ स्वरूप भाव हैं फिर इनका विकार तो और विशेषता से जड़ मालूम होता है । क्रोध भाव चारित्र गुण का विकार है । चारित्र गुण स्वयं जड़ स्वरूप है, अर्थात् वह चेतने वाला भाव नहीं है और चारित्र गुण का विकार क्रोध कषाय है । यद्यपि यह सब विकार जीव के स्वतत्त्व हैं पर जड़ उपाधि के निमित्त से होते हैं इसलिए वे सब विकार हैं, जड़ हैं, फिर इन विकारों में से भी एक क्रोध को यहां दृष्टांत में लिया गया है । क्रोध की जड़ता लोगों को जल्दी समझ से आती है । कोई गुस्सा तेज कर रहा हो तो कहते हैं कि इसे कुछ सुध बुध याद नहीं है, यह जड़ हो रहा है । तो क्रोध की जड़ता जल्दी समझ में आती है वैसे तो कोई घमंड भी बगराये तो वहाँ पर भी जड़ता मालूम होती है । घमंड है, बड़े घमंड में आ रहा है । अपने स्वरूप को भूल रहा है । हालांकि लोभ भी जड़ ही है पर क्रोध की जड़ता लोगों की दृष्टि में जल्दी आ जाती है उजडु व्यवहार को जड़ उत्कृष्ट माना है । जड़ और उससे भी उत्कृष्ट उजडु हो तो उसे ही जड़ माना है । और जीवों को उपयोग स्वरूप माना है ।
आत्मत्व के नाते से विकारों की अनुद्भूति―क्रोध का भाव जीव में ही उत्पन्न होता है फिर भी जीव में चेतनता के नाते से उत्पन्न नहीं होता है । जैसे कोई पुरुष संस्था का मानो मंत्री है और उससे लोग संस्था संबंधी बात करें तो कुछ बातें तो वह मंत्रित्व के नाते से करता है और कुछ बातें व्यक्तिगत नाते से करता है । व्यक्तिगत नाते से जो भी बातें की गई हो उसे लोग आक्षेप में ले लें तो वह जवाब दे सकता है कि मैंने मंत्रित्व के नाते से यह बात नहीं कही है । यों तो व्यक्तित्व के नाते से भी कहा जा सकता है । इसी प्रकार जीव में ये सब भाव हैं, क्रोध भी है, ज्ञान भी है मगर क्रोध आत्मस्वरूप के नाते से नहीं है । आत्मस्वरूप के नाते से तो ज्ञान और दर्शनभाव हैं और वही चित् स्वरूप है । बाकी सब भाव जड़ स्वरूप हैं । यों क्रोध में और जीव स्वरूप में एकता नहीं है ।
चेतकभाव और अचेतकभाव का विवरण―जो भाव जाने और जाना जाये वह तो है चेतन भाव और जो भाव जानता तो नही है किंतु जानने में आता है वह सब जड़ भाव हैं । सुख भाव स्वयं सुख को नहीं वेद सकता है, सुख को वेदने वाला ज्ञानभाव है । ज्ञान से ही सुख ज्ञेय बनता है, अनुभव में आता है पर सुख स्वयं चेतने वाला भाव नहीं है । और स्थूल रूप से तो जैसा प्रश्न सुख के बारे में किया जा सकता है ऐसा ही प्रश्न सबके बारे में हो सकता है । राग क्या जीव में नहीं होता है? फिर राग को जड़ क्यों कहा? द्वेष क्या जड़ में होता है फिर द्वेष को जड़ क्यों कहा? सभी भावों में यह प्रश्न हो सकता है परभावों का स्वरूप देखो । जो स्वरूप चैतन्य स्वरूप को लिए हुए है वह तो चित्रूप भाव है और जो स्वरूप चेतने के स्वरूप को नहीं लिए हुए है वह सब जड़ भाव हैं । ज्ञान और दर्शन 2 ही गुण चित्स्वरूप हैं और अन्य भाव चित्रूप नहीं है, चैतन्यमात्र नहीं हैं, भले ही वे जीव को छोड़कर अन्य पदार्थों में नहीं रहता ।
विकारों में स्वतत्व व अस्तत्व की स्याद्वाद से सिद्धि―भैया ! आधार की दृष्टि से ये पांचों ही भाव जीव के स्व तत्त्व कहे गए हैं―औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ꠰ ये पांच भाव जीव के स्व तत्त्व हैं किंतु जीव का जो लक्षण चैतन्य है वह केवल ज्ञानदर्शन में ही पाया जाता है ꠰ और गुण चेतन नहीं है, और गुण भोगे जाते हैं पर चेतने वाले गुण तो ज्ञान और दर्शन ही हैं । इसलिए ज्ञान और दर्शन चित्रूप भाव हैं और जिस जीव में चित्रूप भाव की तन्मयता है वह त्रैकालिक है स्वत: सिद्ध है, इस कारण क्रोधादिक भावों की तन्मयता नहीं है । यदि क्रोधादिक जड़ भावों के भी तन्मयता मान ली जाये तो जीव का अभाव हो जायेगा । स्वरूप दिख जाना चाहिए । चित्रूप का स्वरूप है प्रतिभास करना । क्या सुख अपने आपको प्रतिभासित कर सकता है? जो प्रतिभास करे उसे कहते हैं चित्रूपभाव । और जो प्रतिभास न करे उसे कहते हैं अचित् रूपभाव । सुख यद्यपि जीव का अभिन्न गुण है पर अभिन्न गुण होने पर भी चेतक भाव नहीं है । वह चेत्यभाव है इस कारण वह स्वरूप से चेतन में अभिन्न अवश्य है पर स्वरूप से चेतन नहीं है ।
चेतक गुणों के विशेषक स्वरूप―चेतने वाले जो दो गुण हैं ज्ञान और दर्शन उनमें इतना अंतर है कि जो सामान्यतया निर्विकल्परूप से चेते वह तो है दर्शन और जो आकार आदिक ग्रहण करता हुआ चेते वह है ज्ञान । चेतने वाले केवल दो ही गुण हैं अन्य गुण नहीं हैं, चेतक गुणों के परिणमन औदयिक नहीं हो सकते, अचेतक गुणों के ही परिणमन औदयिक हो सकते हैं ।
परभाव से आत्मा की विविक्तता―यहां बात चल रही है पराधीन भाव की । पराधीन भावों का कर्ता यह जीव नहीं है । अचेतक भावों के विकार पराधीन भाव हैं । शुद्ध निश्चयनय से जीव उनका अकर्ता है और अभोक्ता है और क्रोधादिक से भिन्न है । इस प्रकार का बहुत वर्णन हो चुका है, इस वर्णन के होने पर दूसरी बात यह जान लेना चाहिए कि व्यवहार से जीव कर्ता है व्यवहार से जीव भोक्ता है । व्यवहार से जीव क्रोधादिक से तन्मय है, निश्चय दृष्टि से विविक्तता दिखती है और व्यवहार दृष्टि से यह संबंध दिखता है ꠰ ये विकार जिस समय में ही उस समय में हैं तन्मय है अगले समय में तन्मय नहीं कहे जा सकते । ये त्रिकाल तन्मय नहीं हैं ये वर्तमान तन्मय हैं ।
जीवों की परिस्थिति में नयविभाग―जीव के संबंध में ऐसी दो मुखी बातें ध्यान में आ रही हैं । जीव कर्ता भी है अकर्ता भी है जीव भोक्ता भी है अभोक्ता भी है । क्रोधादिक से तन्मय भी है और अतन्मय भी है । इस प्रकार परस्पर में सापेक्ष नयों की मान्यता जिसके सिद्धांत में नहीं है वह एकांत को ही पोष करके वस्तु के सर्वांगीण स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है ꠰ जो परस्पर में सापेक्षनय के विभागों को नहीं मानते हैं उनके मत में जैसे जीव शुद्ध निश्चयनय से कर्ता नहीं है वैसे ही व्यवहार से भी कर्ता नहीं रहा तो फिर मोक्ष किसका बतलाते हो? जीव निश्चयनय से बंधा नहीं है । वैसे वह व्यवहार में बंधा नहीं है तो फिर तप साधना का उपाय क्यों करते हो । जीव जैसे क्रोधादिक से न्यारा निश्चय से है इसी प्रकार व्यवहारनय से भी क्रोधादिक से न्यारा हो गया तो संसार अवस्था किसकी? संसार अवस्था में भी क्रोधादिक परिणमन न हों तो कर्म बंध कैसे होगा? कर्म बंध न रहे तो संसार नहीं रह सकता, संसार न रहे तो सर्वथा मुक्ति हो जायेगी । सो प्रत्यक्ष विरोध है यहाँ ये चेतन बंधे फंसे पड़े हुए हैं अत: दोनों नयों का विषय जानकर पदार्थों का निर्णय करना चाहिए ।
द्रव्यकर्म व भावकर्म के कर्तव्य का अंतर व अनंतर―यहां कोई जिज्ञासु प्रश्न करता है कि शुद्ध निश्चयनय से जीव को अकर्ता कहा और व्यवहार से जीव को कर्ता कहा तो इस तरह तो द्रव्यकर्म का स्वरूप व्यवहार से ही सिद्ध हुआ और रागादिक भाव कर्मों का भी कर्तव्य व्यवहार से ही सिद्ध हुआ तो दोनों एक कोटि में कहलाने लगे । जीव व्यवहार से ही द्रव्यकर्मों का कर्ता हुआ और व्यवहार से ही भाव कर्म का कर्ता हुआ । इसमें फिर निकटता किसी की न रही । उसका समाधान यह है कि रागादिक भावकर्म का कर्ता यह जीव व्यवहार से है, उस व्यवहार का दूसरा नाम अशुद्ध निश्चयनय है और द्रव्यकर्म का कर्ता जीव व्यवहार से है, उस व्यवहार का व्यवहार ही नाम है इस व्यवहार को अनुपचरित असद्भूतव्यवहार कहते हैं । जीव वस्तु के सुरक्षित शुद्ध स्वरूप को जानने को चले तो द्रव्यकर्म व भावकर्म इन दोनों से ही भिन्न समझना होगा । जीव द्रव्य कर्म से भिन्न है और भाव कर्म से भी भिन्न है, ऐसा निर्णय हो तब जीव का स्वरूप जाना जा सकता है । पर द्रव्यकर्म का भावकर्म का अंतर है, यह बात बताने के लिए भावकर्म का कर्ता अशुद्ध निश्चयनय से कहा और द्रव्कर्म का व्यवहारनय से कहा ।
चेतन अचेतन के विविध विश्लेषण:―भैया और भी इनका भेद जानिए । द्रव्यकर्म तो अचेतन हैं क्योंकि वे पुद्गल द्रव्य हैं, पुद्गल के परिणमन हैं और भाव कर्म एक दृष्टि से चेतन है पर शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से वह अचेतन ही रागादिक विकार चूंकि चेतन के ही परिणमन हैं इसलिए चेतन कहा जाता है पर शुद्ध निश्चय की अपेक्षा अचेतन ही यह मुकाबलेतन उत्तर आता है । अब पूछें कि तुम्हारे सामने ये दो बातें रखी हैं द्रव्यकर्म और रागादिक विकार बतलाओ इनमें कौन तो चेतन है व कौन अचेतन है? तो उत्तर आयेगा कि द्रव्यकर्म अचेतन है और रागादिक विकार चेतन है ꠰ जब मुकाबलेतन ये दो बातें रखी जायें रागादिक विकार और अकषाय भाव, बतलावो इनमें कौन चेतन है और कौन अचेतन है? तो कहोगे कि रागादिक विकार अचेतन हैं और शांति, अकषाय ये चेतन हैं, फिर मुकाबलेतन 2 बातें रखी । आनंद शक्ति, श्रद्धा, चारित्र गुण और ज्ञान दर्शनगुण इन दोनों में यह बतलावो कि कौन चेतन हैं और कौन अचेतन है? तो जो चेते वह चेतन है और जो न चेते वह अचेतन है । ज्ञान, दर्शन, गुण तो चेतन हैं इसके अतिरिक्त शेष समस्त गुण अचेतन हैं ।
अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्यकर्म के कर्तृत्व व भोक्तृत्व की सिद्धि―इस उक्त प्रकरण में इतना भाव समझना कि द्रव्यकर्म का कर्तृत्व और भोक्तृत्व तो व्यवहार से है किंतु यह व्यवहार कौनसा है? यह है अनुपचरित असद्भूत व्यवहार । अनुपचरित असद्भूत तो यों है कि द्रव्यकर्म का कर्ताभोक्तापन बहुत अधिक अविनाभाव से संबद्ध है इसकी व्याप्ति कर्मों के उदय पर हुई । कर्मों का उदय होने पर ऐसी व्याप्ति नहीं पाई जाती है इस कारण यह व्यवहार अनुपचरित है । पर द्रव्यकर्म भिन्न पदार्थ है । आत्मा को भिन्न द्रव्यों का कर्ता भोक्ता बताना यह असद्भूत है और व्यवहार में दो बातों का संबंध जोड़ा गया है । अत: द्रव्यकर्म का कर्ता भोक्ता जीवों को कहना अनुपचरित असद्भूत व्यवहार है । अनुपचरित असद्भूत व्यवहार से जीव द्रव्य कर्म का कर्ता है और यह कहना कि जीव मकान का कर्ता है, बच्चों को योग्य बनाने का कर्ता है यह बोलना उपचरित असद्भूत व्यवहार है अथवा केवल एक अज्ञानता और उद्दंडता का व्यवहार है ऐसी कल्पना करना कि जीव रागादिक भावकर्मों का कर्ता है यह अशुद्ध निश्चयनय से कहा जाता है किंतु अशुद्ध निश्चयनय का विषय शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहार ही है । जीव को अपने स्वरूप से परमार्थ से सर्वथा अकर्ता दृष्टि में लेना और जिस समय यह शुद्ध ज्ञायक स्वरूप अकर्ता, अभोक्ता उपयोग में आता है वही परमार्थ व्रत है, परमार्थ तप है, परमार्थ प्रतिक्रमण है परमार्थ संयम है और धर्मपालन है । इस बात की सिद्धि तब समझ में आयेगी जब यह ज्ञात हो कि पुद्गल भी अपना परिणमन स्वभाव रखता है और जीव भी अपना परिणमन स्वभाव रखता है । यदि दोनों का परिणमन स्वभाव ध्यान में नही रहता तो या तो जीव को पर का कर्ता ही मानेगा अथवा जीव को सर्वथा अकर्ता मानेगा । कर्ता भी है, अकर्ता भी है यह बात तब ध्यान में आयेगी जब जीव और पुद्गल दोनों का अपने-अपने प्रदेशों में परिणमन स्वभाव माना जाये और इस विभाव परिणमन के लिए निमित्त की व्याप्ति समझ में आये । इस ही कारण अब पुद्गल द्रव्य का परिणमन स्वभाव सिद्ध करते हैं―