ज्ञानार्णव - श्लोक 1209: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
इत्थं चतुर्भि: प्रथितैर्विकल्पैरार्त्तं समासादिह हि प्रणीतम्।
अनंतजीवाशयभेदभिंनं ब्रूते समग्रं यदि वीरनाथ:।।1209।।
यहाँ चारों भावों से विस्तार से आर्तध्यान का स्वरूप बताया है। इस आर्तध्यान को अगर जीवों के आशय के भेद से बताया जाय तो वे असंख्याते भेद हो जाते हैं, उसे बताने में कोई समर्थ नहीं। वीर प्रभु उन्हें जान जायें और बोलते होते तो बता देते कि तुम्हारे अनगिनते प्रकारों के आर्तध्यान होते हैं। यहीं देख लो कितने मनुष्य हैं, सब दु:खी हैं और किसी एक का दु:ख किसी दूसरे के दु:ख से नहीं मिलता। कोई मोटे रूप से कह भी दे कि अमुक भी अपने पुत्र के मरने से दु:खी है और अमुक भी अपने पुत्र के ही मरने से ही दु:खी है तो दोनों का दु:ख एक जैसा है, पर ऐसा नहीं है। किसी का किसी प्रकार का विकल्प है किसी का किसी प्रकार का। भिन्न-भिन्न प्रकार के विकल्प करके वे दु:खी हो रहे हैं। उन दु:खों में भी समानता नहीं है। कितने आशयभेद हैं, कितने प्रकार के दु:ख हैं वे सब आर्तध्यान ही तो हैं। ये आर्तध्यान 4 भाँति के यहाँ बताये तो हैं पर उन चार भाँति के आशय भेदों का विस्तार बन जाय तो अनगिनते विस्तार बन जायेंगे, भेद बन जायेंगे। जब पांडव तपश्चरण कर रहे थे, अर्जुन, भीम युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव बड़े उपसर्गों पर विजय भी कर रहे थे, वहाँ नकुल, सहदेव को अपने भाइयों पर जो हो गया, लो इस तरह का विकल्प हो गया। वह भी तो दु:ख ही है। उन्होंने भी यह आर्तध्यान बना लिया। किसी का दु:ख किसी के दु:ख से मिलता नहीं है, तो ये आर्तध्यान चार ही प्रकार के नहीं। ये अनेक प्रकार के होते हैं। ऐसी भावना भावें कि हे भगवन् ! विकल्पों से पिटे तो जा रहे हैं, पिटते भी रहें और आपकी भी सुध बनी रहे। कोई तो समय आयगा ही जब कि पिटना समाप्त भी हो सकता है। धर्मधारण करने के लिए कोई ऐसा प्रोग्राम बनायें कि दो वर्ष के बाद अमुक काम करके फिर धर्म ही धर्म करेंगे, अभी दो वर्ष तक तो खूब कमाई कर लें, सारी व्यवस्थायें बना लें, ऐसा सोचने वाला व्यक्ति तो धर्म धारण कर सकता है, अगर धर्म धारण की दृष्टि बनी है तो उसकी किरण अभी से आना चाहिए। चाहे थोड़ी आये चाहे किसी रूप में आये, उससे तो आशा है कि वह आगामी काल में प्रभुशक्ति, आत्मउपासना, धर्मसाधना कर सकेगा। तो ये आर्तध्यान अनेक प्रकार के कहे गए हैं और उनकी जड़ अज्ञान है। अपने आत्मा के स्वरूप का भाव न हो, प्रभु के स्वरूप की पहिचान न हो तो यह बात मिलती है।