ज्ञानार्णव - श्लोक 1255: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
दहत्येव क्षणार्द्धेन देहिनामिदमुत्थितम्।
असद्धयानं त्रिलोकश्रीप्रसवं धर्मपादपम्।।1255।।
जब ये प्रशांतभाव जीव के होते हैं तब तीन लोक की लक्ष्मी के उत्पन्न करने वाले धर्मरूपी वृक्ष को ये आधे क्षण में ही जला देता है अर्थात् रौद्रध्यान समस्त वैभवों का विनाश कर देता है। वैसे भी देख लो। जो लालच के वशीभूत है उस पर ऐसी घटनाएँ घटती हैं कि सारी जिंदगीभर किए हुए लालच की कसर सब एक दफे में निकल आती है। लालच एक बुरी बला कही गई है। उसी में यह रौद्रध्यान पनपता है। वहाँ धर्मध्यान नहीं ठहरता जहाँ कोई हिंसा करने कराने में आनंद माने, झूठ बोलने बुलाने में आनंद माने, चोरी करने कराने में मौज समझे, इसी प्रकार विषयसंरक्षणानंद में जो मौज माने वह पुरुष अथवा वह ध्यान धर्मरूपी वृक्ष को भस्म कर डालता, वहाँ धर्म नहीं ठहर सकता।