वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1256
From जैनकोष
इत्यार्तरौद्रे गृहिणामजस्रं ध्याने सुनिंद्ये भवत: स्वतोपि।
परिग्रहारंभकषायदोषै: कलंकितेऽंत:करणे विशंकम्।।1256।।
इसी प्रकार यह आर्तध्यान और रौद्रध्यान जो कहे गए हैं वे गृहस्थ के परिग्रह आरंभ और कषाय आदिक दोषों से मूल अंताकरण में उत्पन्न होते हैं। जहाँ किसी परपदार्थ में रुचि है वहाँ उसके उपयोग में आर्तध्यान होगा, अनिष्ट है तो उसके संयोग में आर्तध्यान होगा और विषयों के संरक्षण में तो आनंद मानता है उसके उस कलंकित हृदय में यह रौद्रध्यान पनपता है, इसमें रंच भी शंका नहीं है। तो जिस चिंतवन में लोग मौज मानते वे समस्त चिंतवन हेय हैं, संसार के कारणभूत हैं।