ज्ञानार्णव - श्लोक 1260: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
अथ प्रशममालंब्य विधाय स्ववशं मन:।
विरज्य कामभोगेषु धर्मध्यानं निरूपय।।1260।।
धर्मध्यान के स्वरूप में आचार्यदेव कह रहे हैं कि शांतिभाव का आलंबन करके अपने मन को जब वश करके काम और भोगों से विरक्ति परिणाम करके धर्मध्यान का निरूपण करो। निरूपण करने का अर्थ कहना नहीं है, किंतु भली प्रकार से एक अपने आपमें लखे। निरूपण नाम है देखने का। जो देखा हुआ कहा जाय इसलिए निरूपण की रूढ़ि कहने में हो गयी, पर निरूपण का अर्थ है भली प्रकार अपने आपमें देखना। उस धर्मध्यान से अपने आपमें देखने की बोलने की तरकीब क्या है? तो सर्वप्रथम तो शांति चाहिए। जब चित्त ही शांति में नहीं है तो धर्मध्यान बनेगा क्या? सर्वप्रथम प्रथम भाव हुआ। जब शांतचित्त होगा तो मन अपने आधीन होगा। फिर मन को अपने आधीन बनाना और इन सबका उपाय अथवा इन सबका फल क्या है। काम और भोग में विरक्ति जगना। देखिये चित्त जिसका भी गड़बड़ होता है, दिमाग भी जिसका स्थिर नहीं रहता, चित्त चलित रहता उसका कारण है काम और भोगों में राग होना। जिसे धर्मधारण करना हो उसे चाहिए कि काम और भोगों में विरक्त हो। काम का अर्थ है स्पर्शनइंद्रिय और रसना इंद्रिय का विषय। इनसे विरक्ति हो तो धर्मध्यान बने। जिसका कुटुंब में, खाने-पीने, शृंगार साज, नामकीर्ति में मन लगता हो ऐसा पुरुष धर्मध्यान करने के लिए आवश्यक है कि आत्महित से प्रयोजन रखने वाले कार्य करे। जैसे जिसे कमाई और धनसंचय करने की धुन रहती है उसको खाना-पीना तक नहीं सुहाता, उसे तो एक उसी की धुन है ऐसे ही यहाँ समझो जिसकी धर्मधारण की धुन है उसको भी खाना-पीना, साजश्रृंगार, संसार के करतब कुछ सुहाते नहीं हैं। उसे तो केवल धर्मध्यान में, केवल अपने आपको ज्ञानस्वरूप निहारने की धुन है। उसे तो अन्य किसी कार्य में प्रसन्नता ही नहीं है।