ज्ञानार्णव - श्लोक 1310: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
तद्धैर्य यमिनां मन्ये न संप्रति पुरातनम्।
अथ स्वप्नेऽपि नामास्थां प्राचीनां कर्तुमक्षमा:।।1310।।
जो पुरुष इंद्रिय के विषयों से उत्तीर्ण हैं अर्थात् रहित हैं, संसार के परिभ्रमण से जिनका चित्त विरक्त हो गया हे, जिनका मन स्वयं के अपने आधीन है ऐसे पुरुष ध्यान के योग्य हो गए हैं। जो इंद्रिय के विषयों में चित्त लगाये हों वे पुरुष ध्यान क्या कर सकते हैं? जो पुरुष संसारभ्रमण से विरक्त नहीं हैं उनके अभी आत्मस्वरूप में दृष्टि नहीं जगी हे। तो ऐसे पुरुष जो अभी संसार से विरक्त नहीं हैं वे ध्यान के योग्य कैसे हो सकते हैं। जिनका मन अपने आपके आत्मा के वश में नहीं, ऐसा मन के आधीन रहने वाले पुरुष क्या ध्यान कर सकेंगे? यों आत्मध्यान का पात्र वही है जो विषयों से विरक्त चित्त हो, जिसका मन अपने आत्मा के अधीन हो।