ज्ञानार्णव - श्लोक 1626: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
अद्यापि यदि निर्वेदविवेकागेंद्रमस्तकात्।
स्खलेत्तदैव जंमांध―कूपपातोऽनिवारित:।।1626।।
ज्ञानी पुरुष अपायविचय धर्मध्यान में ऐसा विचार करता है कि मैंने बहुत-बहुत भ्रमण कर चुकने के बाद आज तक उत्कृष्ट भव पाया है, श्रेष्ठ समागम मिला है, अहिंसामयी जैनशासन प्राप्त हुआ है, सम्यग्ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है। यदि अब भी वैराग्य और विवेकरूपी पर्वत की शिखर से गिर पड़े तो संसाररूप अंधकूप में ही पड़ना होगा। इस समय हम आपने जो स्थिति पायी है वह अपेक्षाकृत बहुत संतोष के योग्य है। जैसे अनंतानंत जीव तो अब भी निगोद में पड़े हुए है। एक श्वास में 18 बार जन्म-मरण किया, वहाँ से निकले तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और प्रत्येक वनस्पति कायक जीव हुए, वहाँ से निकलकर दोइंद्रिय हुए, फिर तीन इंद्रिय हुए, चार इंद्रिय हुए इस तरह उत्तरोत्तर इस जीव ने विकास प्राप्त किया। दो इंद्रिय में स्पर्शन और रसना इंद्रिय प्राप्त हुई, तीन इंद्रिय में घ्राणइंद्रिय और चार इंद्रिय में चक्षुइंद्रिय ये और भी प्राप्त हो गए। पंचेंद्रिय में कर्णइंद्रिय भी प्राप्त हो गयी। फिर मन का क्षयोपशम मिला तो मन से जानने लगा। मन वाले नारकी जीव हैं, वे बड़े संकट में हैं। देवगति के जीव वे अपने ऐश-आराम में मस्त हैं। पशु पक्षी भी विवेकशून्य हैं। यह मनुष्यभव सबमें से श्रेष्ठ है। हम इस मनुष्यभव में है। इस भव में अपने मन की बात को दूसरों को समझा सकते और दूसरों के मन की बात को हम समझ सकते। तत्त्वज्ञान की बात सुनते व समझते हैं। इतना सुनकर भी यदि विवेक से च्युत हो गए,परदृष्टि में बने रहे तो फल यह होगा कि संसार के अंधकूप में पड़ना ही होगा। चीज तो इतनी अच्छी प्राप्त है और मनुष्य के चित्त में इतनी तृष्णा लगी है सो उस तृष्णा के कारण मिले-मिलाये वैभव से भी लाभ नहीं होता। जैसे कोई लखपति आदमी है और उसके तृष्णा लगी है तो उस तृष्णा के कारण जो पास में धन है उसका भी सुख न पायगा। ऐसे ही हम आपको बहुत समागम मिले हैं, कोई प्रकार की तकलीफ नहीं है, धर्मात्मा, त्यागी , विद्वान, ज्ञानी पुरुष भी बहुत-बहुत मिल रहे हैं तो सब आनंद की ही बात है लेकिन जो परिग्रह में तृष्णा लगी है उसकी वजह से यह समझते हैं कि मेरे को कुछ नहीं मिला, अभी इतना और चाहिए। इस तृष्णा में वे अपना जीवन बरबाद कर डालते हैं। तो अब भी यदि न चेते तो ऐसा दुर्लभ अवसर मिलना कठिन है। जो अपने को जीवधारी पंचेंद्रिय दिखते हैं वे भी अपने मन की बात किसी को नहीं समझा सकते, दूसरे के मन की बात समझ नहीं सकते। बोल भी अक्षरात्मक नहीं है जो कोई साहित्य की बात बोल सकें, अपने मन का अभिप्राय समझा सकें। ये पशु-पक्षी कुछ नहीं कर सकते। मनुष्यों में देखो तो कैसे-कैसे मनुष्य हैं, कोई भिखारी है, दर-दर मांगते हैं तो वे क्या उन्नति करेंगे? उनका बहुत कठिन काम है। और-और परदृष्टि दें तो अंत में अपनी स्थिति बहुत कुछ अच्छी मालूम पड़ेगी और अपने से धनिकों पर दृष्टि देते हैं तो अपनी तुच्छ स्थिति मालूम पड़ती है और अपने से गरीबों पर औरों पर दृष्टि दें तो संतोष होगा। और खूब शक्ति से विचार करें तो जिसे जो कुछ अब भी मिला है वह सब औरों से ज्यादा मिलाहै। इतना जरूर है कि यदि ऐसा लक्ष्य बन जाय कि हम मनुष्य हुए हैं तो धर्मसाधना के लिए हुए हैं क्योंकि विषयकषायों के लिए तो अन्य पशु-पक्षी आदिक की पर्यायें पड़ी है। यह मनुष्य जन्म पाया तो किसलिए? जो बात और जगह न बन सके, मनुष्यभव में ही बन सके वह बात हे बड़ी। इतना संतोष योग्य श्रेष्ठ भव पाया और उसे विषयकषायों में कोई गवाँ दे तो फिर संसार में रुलना पड़ता है। इससे ऐसे दुर्लभ समागम को पाकर हमें गिरते हुए विचार न बनाना चाहिए, विषयकषायों में घुसने का विचार न बनाना चाहिए। अपनी सावधानी रखें, और जैसे आत्मा की बराबर सुध आये वह काम करें। स्वाध्याय किया, स्वाध्याय सुना, चर्चा की, ज्ञानी पुरुषों के समीप बैठें, जैसे में उपयोग बदलें और अपने आपके आत्मा की ओर दृष्टि जाय वह काम करना चाहिए।